सूत्र :उपपद्यते चाप्य् उपलभ्यते च2/1/35
सूत्र संख्या :35
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (उपपद्यते) युक्तियों से सिद्ध होता है (च) और (अपि) भी (उपलभ्यते) जो ज्ञान भी इन्हीं (च) श्रुतियों से।
व्याख्या :
अर्थ- युक्यिों और प्रमाणों से संसार का प्रवाह से अनादि होना सिद्ध होता है।
प्रश्न-वे कौन-सी युक्तियाँ हैं, जिनसे संसार का प्रवाह से अनादि होना सिद्ध होता है?
उत्तर- संसार के अनादि न मानने में प्रथम यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि ईश्वर में जो जगत् रचने की शक्ति है, वह स्वाभाविक क्रिया रूप है, वा इच्छा रूप? यदि क्रिया रूप है, तो जगत् अनादि होवेगा। यदि इच्छा रूप है, तो उसके क्रिया रूप में आने का कारण क्या होगा? यदि कहो ईश्वर की इच्छा, जब चाहा उत्पन्न कर दिया, तो हम प्रथम कह चुके हैं कि ईश्वर इच्छा से करनेवाला वेदान्त सिद्धान्त में स्वीकार नहीं किया गया।
प्रश्न- यदि यह स्वीकार किया जाये कि ईश्वर स्वतंत्र है, जब चाहे, अपनी शक्ति को क्रिया का रूप दे, जब चाहे, इच्छा रूप रखे।
उत्तर- इच्छा से करना कता जीव का धर्म है; क्योंकि इच्छा मन की वृत्ति है। ईश्वर के मन आदि कारण नहीं, इस कारण ईश्वर इच्छा से जगत् नहीं रचता।
प्रश्न- यदि इच्छा से स्वीकार किया जाये, तो क्या दोष होगा ?
उत्तर- उस समय मुकत जीवों को भी ईश्वर की इच्छा से बंधन में आना पड़ेगा और बंधनवाले मुक्त हो जायेंगे, अर्थात् जिसने पाप किया है, वह सुख में और जिसने नहीं किया है वह दुःख में फँस जायें, जिसमें अंधेर नगरी चैपट राजा का दृष्टान्त घटेगा।
प्रश्न- यह सुख दुःख लक्षण दिखाई देते हैं, इसका कारण अविद्या है?
उत्तर- अविद्या ही सुख दुख के भेद का कारण नहीं; क्योंकि वह सबके कारण एक ही रूप होने से मिली होकर कर्म के संस्कारों से अविद्या भेद का कारण है। कर्म के बिना तो शरीर ही नहीं हो सकता और शरीर के बिना कर्म नहीं हो सकता। वह एक-दूसरे के सहारे रहते हैं, यदि अनादि स्वीकार किया जावे, तो वीजांकुर की उपमा से कोई दोष नहीं और श्रुति स्मृति से भी संसार का प्रवाह से अनादि होना पाया जाता है। श्रुति यह है- ‘‘अनेन जीवेनात्यना’’ (छान्दो.6।3।2) इस जीवात्मा शब्द से पता लगता है कि प्रथम शरीर में व्यापक हो चुका। अतः बिना शरीरधारी होने के जीवात्म शब्द का सृष्टि उत्पत्ति के समय पर बिनियोग नहीं किया जा सकता। श्रुति का सर्ग सृष्टि के आदि में एकसा बतलाना सृष्टि के प्रवाह से अनादि प्रकट करने के लिये है यहद सृष्टि का आदि स्वीकार किया जावे, तो आदि सृष्टि में जीवात्मा नहीं कथन कर सकते।
प्रश्न- यदि भविष्यत् में जीवात्मा बनने के कारण से कथन किया गया हो, तो क्या दोष है?
उत्तर- भूतकाल का सम्बन्ध भविष्यत् के अतिरिक्त पुष्ट होता है; क्योंकि जो सम्बन्ध हो चुका, अब उसके होने का खंडन नहीं हो सकता। भविष्यत् (होगा) घटनाओं के अधिकार में है; क्योंकि वेद ने यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार परमात्मा ने सूर्य, चन्द्र आदि प्रथम रचे थे, इसी प्रकार अब भी रचे हैं (सूर्या चंद्र मसयौघाता तथा पूर्व कल्पयत्।ऋ 10।190।3) जिससे स्पष्ट है किक ईश्वर सदैव सृष्टि रचता है। अतः सृष्टि प्रवाह से अनादि सद्धि हुई और ईश्वर जत् कर्ता सिद्ध हुआ।