DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :एकदिक्काभ्यामेककालाभ्यां संनिकृष्टविप्रकृष्टाभ्यां परमपरं च 7/2/21
सूत्र संख्या :21

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : परत्व और अपरत्व दो प्रकार से उत्पन्न होते हैं। एक देश सम्बन्ध से दूसरें काल सम्बन्ध से।

व्याख्या :
प्रश्न- दिशा एक है। ऐसा बतला चुके हैं, और काल भीएक है यह बतला चुके हैं अतःएव एक ही काल और दिशा से दूरी और नजदीकी दो प्राकर की मुतजाद (राय) किस प्रकार उत्पन्न हो सकती है? उत्तर- यद्यपि यक ही काल और दिशा से परत्व और अपरत्व उत्पन्न नहीं होता, किन्तु बीज में दूरी की न्यूनता विशेषता से यह कहा जाता है यथार्थ में परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। जिस प्रकार उपचारक शब्दों को दूसरे स्थान में देखते हैं। जैसे कौई कहते हैं ‘‘आगरा आ गया’’ यद्यपि ‘‘आना, शब्द आगरे में कहा गया है, किन्तु कहने वाले का स्पष्ट तात्पर्य यही है, कि हम आगरे आ गये हैं इस प्रकार बीच के फासले के परत्व और अपरत्व कहा जाता है। प्रश्न- यदि परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति मानी जावे तो उसका समवाय और असमवाय कारण क्या होगा? उत्तर- उस दशा में दिशा और काल तो असमवाय कारण होंगे अन्य स्थान में और वस्तु का जो मिलाप है वह असमवाय कारण कहलायगा। जैसे कि पूरबी आदमी का पूरब की वस्तु के साथ थोड़ा सम्बन्ध इसी अपेक्षा से पूरबी वस्तु का अपरत्व और दूसरी ओर की वस्तुओं का परत्व सम्बन्ध होगा। एक ओर की वस्तु में भी फासले से परत्व और अपरत्व का खियाल होगा जब कि परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति को मान लिया जावे। और इन्द्रियों का संयोग और उनका संयोग न होना दोनों के कारण बतला दिए। इस प्रकार विषय के प्राप्त करने वाले ज्ञान का उपलक्षण बतला दिया। ऐसे ही सम्बन्धी ज्ञान को वस्तुओं में परत्व और अपरत्व पाया जाता है। जब सबका कारण केवल देखने वाले का अपेक्षा ज्ञान ही है तो प्रत्येक अवसर पर उत्पन्न होना चाहिए, किन्तु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि अपेक्षा बुद्धि के नियम होने से प्रत्येक स्थान में परत्व और अपरत्व की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यह प्रत्यक्ष से प्रमाणित है। कारण कार्य का एक दूसरे के आश्रय होना ठीक नहीं, किन्तु कार्य सदैव कारण की सत्ता पर निर्भर है वरन कोई वस्तु उत्पन्न ही न हो सकती क्योंकि कारण की सत्ता के लिए कार्य पहले चाहिए और कार्य के वास्ते कारण की आवयश्यकता है क्योंकि परत्व और अपरत्व का भान होता है। और भान होना बिना उत्पत्ति के सम्भव नहीं। एक काल से उत्पत्ति बतलाने से संसार में भान होने वाले अपरत्व का वर्णन किया। एक काल से दो वस्तुओं के उत्पत्ति समय में परत्व और अपरत्व का विचार उत्पन्न होता है। जिसकी उत्पत्ति से उस समय थोड़ा फासला है वह निकट है और जिसकी उत्पत्ति से विशेष फासला है वह दूर रहता है इस स्थान पर भी गुण और गुणी का नमूना दिखलाया है। उससे दो स्थानों पर विभाजित वस्तु जो समवाय कारण और काल वस्तु का संयोग असमवाय कारण है। उनमें जिस सीमा तक बुद्धि का जाने में विशेष काल लगाता पड़ता है वह दूर जहां कम फासला है वह निकट है। उत्पन्न होता है। जो मकान सम्बन्धी परत्व और अपरत्व होता है, उसका सात प्रकार से नाश होता है और उत्पत्ति दोनों की एक साथ होती है वरन् अन्योऽन्याश्रय हो जाता है। सम्बन्धी ज्ञान के नाश होने से असमवाय कारण संयोग का नाश होता है संयोग के नाश से वस्तु का नाश होता है जोकि असमवाय कारण है। और निमित्त असमवाय कारणों के नाश से, निमित्त समवाय कारण के नाश से निमित्त का नाश होता है। अपेक्षा ज्ञान के नाश से, तब दूर की उत्पत्ति होती है। जब तक दूर का सामान्य ज्ञान होता है उससे अपेक्षा ज्ञान के नाश से अपरत्व वस्तु के ज्ञान के अवसर पर अपरत्व का नाश हो जाता है। जिस प्रकार प्रथम संख्या के विचार करते हुए अविचार लेना चाहिए। असमवाय कारण के नाश से भी वह जैसे कि अपेक्षा बुद्धि है ऐसे ही दूरी के आश्रय रहने वाले शरीर में कर्म है शरीर में विभाग होता है। उससे जब ही परत्व का सामान्य ज्ञान होता है तब ही स्थान और शरीर के संयोग का नाश होता है। उस सामान्य ज्ञान से अपेक्षा बुद्धि का नाश हो जाता है। वही स्थान और शरीर के संयोग के नाश होने से परत्व अपरत्व का नाश होता है, क्योंकि अपेक्षा बुद्धि और परत्व का एक ही समय में नाश होता है इस वास्ते अपेक्षा बुद्धि परत्व की नाश करने वाली नहीं। प्रश्न- नहीं, समवाय कारण के नाश से भी गुण का नाश होकर आत्मा और मन के संयोग के नाश से भी संस्कार और अवरिष्ट फल के नाश से आत्मा बहुत व्यकुल होता है? उत्तर- एकसा नहीं क्योंकि दूर दो प्रकष्ट होने से घिर रही है इस दूरी का जो आधार है, उसके दूसे स्थान में प्रयत्न में विशषता का अभाव है। अपरत्व का पृथक् होना आवश्यक है तब दूसरा नाश करने वाला उस विरूद्ध युक्ति से संयोग का नाश ही नाश करने वाला अनुमान कर लेना चाहिए। संस्कार और अवरिष्ट कार्यों का स्मृति के मुख से बहुत देर पश्चात् भी प्रतीत होने से उसके नाश होने को मानना ही ठीक नहीं। जो कुछ ऊपर दिखलाया गया है वह केवल नमूना ही है वरन् इस अवसर पर और भी विशेष विचार हो सकता है। प्रश्न- काल के सम्बन्ध से जो परत्व होता है उसमें क्या विशेषता है?

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