सूत्र :वाङ्मात्रं न तु तत्त्वं चित्तस्थितेः II1/58
सूत्र संख्या :58
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : दुःखादि को चित्त में रहने वाला होने से उनका पुरूष में कथमात्र ही है, जैसे- लाल डांक के आने से अंगूठी का हीरालाल मालूम होता है, ऐसे जीव मन के दुःखी मालूम होता है और मन के सुखी मालूम होता है, वास्तव में सुख-दुःख से पृथक् है।
प्रश्न- यदि इस भांति दुःख कथनमात्र से भी दूर हो जाएगा, उसके लिए विवेक की क्या आवश्कता है, इसका उत्तर अगले सूत्र में देते है?