सूत्र :सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान्महतोऽहंकारोऽहंका-रात्पञ्च तन्मात्राण्युभयमिन्द्रियं तन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्च-विंशतिर्गणः II1/61
सूत्र संख्या :61
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सत्वगुण प्रकाश करने वाला, रजोगुण न प्रकाश और न आवरण करने वाला, तमोगुण आवरण करने वाला जब ये तीनो गुण समान रहते है, उस दशा का नाम प्रकृति है, क्योंकि वर्तमान दशा में सत्वगुण, तमोगुणा परस्पर विरोध है। इस समय जिस शरीर में सत्वगुण रहता है, पवहां तमोगुण का वास नही और इसीतरह जहां तमोगुण का निवास है वहां सत्वगुण नही, परन्तु कारण अर्थत् परमाणु की दशा में एक दूसरे के विरूद्ध हीं कर सकते, उस समय पास ही पास रह सकते है। अब उस प्रकृति से महत्तम अर्थात् मन उत्पन्न होता है और मन अहंकार और अहंकार से पंच सूक्षम तन्मात्रा या रूप, रस, गंध स्पर्श और शब्द उत्पन्न होते है, उनसे पांच ज्ञानेन्द्रि और पांच कमेंन्द्रिय उत्पन्न होते है,और नचंतन्मात्राओं से पांच भूत अर्थात् पृथ्वी, अप, तेज वायु और आकाश होते है और जब इनसे पुरूष अर्थात् जीव और ब्रह्य मिल जाता है। तो २५ गुण कहलाते है।