सूत्र :बाह्याभ्यन्तराभ्यां तैश्चाहंकारस्य II1/63
सूत्र संख्या :63
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : बाहर की ओर आभ्यन्तरीय इन्द्रियों से पंच तन्मात्र रूप कार्य का ज्ञान होकर उसके कारण अहंकार का भी ज्ञान होता है, क्योंकि स्पर्शादि विषयों का ज्ञान समाधि और सुषुप्ति अवस्था में जबकि अहंकार रूप वृत्ति का अभाव होता है नही होता, इससे अनुमान होता है कि यह इस वृत्ति से उत्पन्न होते है, अर्थात् अहंकार के कार्य है और अहड्.कार इनका कारण है, क्योंकि यह नियम है कि जो जिसके बिना पैदा न हो सके वह उसका कारण होता है और भूत बिना अहंकार के सुषुप्ति अवस्था में दृष्टिगत नही होते, अतएव यहाँ उनका कारण अनुमान से प्रतीत होता है।