सूत्र :न परिमाणचातुर्विध्यं द्वाभ्यां तद्योगात् II5/90
सूत्र संख्या :90
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जो अणु, महत, दीर्घहस्व यह चार भेद मानकर परिमाण चार तरह के मानते हैं ऐसा माना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस बात के सिद्ध करने को चार प्रकार के परिमाण मानते हैं, वह बात अणु और महत् इन दो तरह के परिमाणों से भी सिद्ध हो सकती है। दीर्घ और हस्व यह दो महत् परिमाण के अवान्तर भेद हैं। यदि गिनती बढ़ानी ही स्वीकार है तो एक तिरछा अणु, एक सीधा अणु ऐसे ही बहुत से भेद हो सकते हैं, लेकिन ऐसा होना ठीक नहीं। और हमने जो अणुओं को अनित्य प्रतिपादन किया था वह सिर्फ पृथ्वी आदि के अणु को अनित्य कहा था, किन्तु अणु परिमाण द्रव्यों को अनित्य नहीं प्रतिपादन किया था, क्योंकि हम भी तो अणु नित्य मानते हैं।
प्रश्न- जब प्रकृति और पुरूष के सिवाय अनित्य कहा तो प्रत्यभिज्ञा किस तरह हो सकती हैं क्योंकि जब सब पदार्थें को नाशवान् मान लेंगे तब प्रत्यभिज्ञा नहीं हो सकती है। प्रत्यभिज्ञा का लक्षण पहले अध्याय में कह आये हैं।