सूत्र :अध्यस्तरूपोपासनात्पारम्पर्येण यज्ञोपा-सकानामिव II4/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : शरीर ही आत्मा है, वा म नही आत्मा है इस प्राकर अभ्यास करके जो उपासना की जाती है,उसके परम्परा संबंध से विवेक होता है, जैसे-पहिले पुत्र को आत्म मान, पीछे शरीर को उसके पश्चात् इन्द्रियों को, इसी प्रकार करते-करते आत्म-विवेक हो जाता है। जैसे-यज्ञ करने वालों की परम्परा सम्बन्ध से मुक्ति होती हैं, क्योंकि यज्ञ करने से चित्त की शुद्धि होती है और चित्त शुद्धि से वासनाओं की न्यूवता आदि परम्परा से मुक्ति होती है, इसी प्रकार अध्यस्त उपासना से भी जानना चाहिए।