DARSHAN
दर्शन शास्त्र : सांख्य दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Shlok

सूत्र :दोषबोधेऽपि नोपसर्पणं प्रधानस्य कुलवधूवत् II3/70
सूत्र संख्या :70

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पुरूष को मेरे संयोग से दुःख होगा, इस बात में प्रकृति अपना दोष जानती है, तो फिर उसका संयोग नहीं करती, किन्तु अवश्य करती है, जैसे-अच्छे वेश की पतिव्रता स्त्री से यदि कोई दोष हो भी जाय, और उससे स्वामी को कष्ट भी पहुंचे, तब क्या वह अपने पति के पास जाना छोड़ देगी? ऐसा नहीं हो सकता, अवश्य जाएगी, क्योंकि जो पति को त्यागती है, तो उसका पतिव्रत धर्मं नष्ट होता है। और भी प्रकार से अन्य आचार्यो ने इस सूत्र का अर्थ किया है कि जब प्रकृति अपना दोष जान लेती है तब लज्जा के वश होकर फिर कभी पुरूष के पास नहीं जाती, जैसे कुलवधू नहीं जाती। इस अर्थ के करने से उनका तात्पर्य यह है,कि मुक्ति से पुनरावृत्ति नहीं होती, परन्तु यह अर्थ ठीन नहीं, और क्योंकि विज्ञानमिक्षु ने ‘‘अपि’’ शब्द का कुछ भी आशय नहीं निकाला, और न यह समझा कुलवधू वही होती है, जो अपने दोष को स्वामी से क्षमा करा कर अपने स्वामी की सेवा में तत्पर रहे, किन्तु अन्य टीकाकारों ने इस दृष्टांत के गूढ़ आशय को बिना समझे जो लिख दिया है, सो योग्य नहीं है अथवा आचार्य को यही बात माननीय थी कि मुक्ति से फिर नहीं लौंटता, तो इनसे पहिले सूत्र में इस बात को एक दृष्टान्त के द्वारा प्रतिपादन कर ही चुके थे, फिर इस सूत्र को बनाकर पुनरूक्ति क्यों करते। इसी ज्ञापक से सिद्ध है कि मुक्ति से लौट आता है, लेकिन इस पुनरूक्ति को अन्य आचार्य नहीं समझे। पुरूष का बन्ध और मोक्ष किससे होता है? इस बात का विचार करते हैं।

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