सूत्र :नर्तकीवत्प्रवृत्तस्यापि निवृत्तिश्चारिता-र्थ्यात् II3/69
सूत्र संख्या :69
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे नाच करने वाली का नाच करना स्वभाव है वह सब सभा का दिखाती है, और जब नाच करते-करते उसके मनोरथ पूरे हो जाते हैं, तब वह नाच करने से निवृत्त हो जाती हैं, इसी तरह यद्यपि प्रकृति का सृष्टि करना स्वाभाव है, परन्तु उस सृष्टि करने का जो प्रयोजन है वह विवेक के उत्पन्न होने से निवत्त हो जाता है, अतएव उसने निवृत्ति भी हो जाती है।