सूत्र :नैरपेक्ष्येऽपि प्रकृत्युपकारेऽविवेको निमित्तम् II3/68
सूत्र संख्या :68
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यद्यपि सब पुरूष निरपेक्ष हैं, अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता तथापि यह मेरा स्वामी हैं, मैं इसका सेवक हूं, इस तरह प्रकृति के उपकार में (सृष्टि करने में) अविवेक ही निमित्त है। प्रत्यक्ष यह है कि जब प्रकृति यह बात चाहती है, कि मनुष्य मुक्त हो, तब ही उसकी अपनी सृष्टि के भीतर रखकर अनेक प्रकार के कार्यों में लगा देती है, और उन्हीं कार्यों को करता हुआ वह मनुष्य किसी न किसी जन्म में विवेकी होकर मुक्त हो जाता है, इसी वास्ते आचार्य ने सूत्र में उपकार शब्द को स्थापित किया है।
प्रश्न- जबकि प्रकृति का स्वभाव वर्तमान मान लिया है, तो ज्ञान के उत्पन्न होने पर क्यों निवृत्ति हो जाती है? क्योंकि जो जिसका स्वाभाविक धर्म है, वह सब जगह एक-सा रहना चाहिए।