सूत्र :अन्यसृष्ट्युपरागेऽपि न विरज्यते प्रबुद्धरज्जुतत्त्वस्यैवोरगः II3/66
सूत्र संख्या :66
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यद्यपि प्रकृति एक मनुष्य के ज्ञानी होने से उसके वास्ते सृष्टि से विमुक्त हो जाती है, तथापि दूसरे के अज्ञानी के वास्ते प्रकृति सृष्टि करने से विमुख नहीं होती। दृष्टान्त जैसे कि किसी मनुष्य ने रस्सी को देखा, उस रस्सी को देखकर उसको प्रथम सांप की भ्रांति हुई और भय मालूम पड़ा। आद को जब उसने विचार करके देखा तो उसको यथार्थ ज्ञान हो गया कि यह सांप नहीं हैं किन्तु रस्सी है। तब उसको आनन्द हो गया, तब वह रस्सी उस ज्ञानी को भय नहीं देती, किन्तु जो अज्ञानी है उसे तो सांप की भ्रांति भय है। इसी प्रकार प्रकृति की भी व्यवस्था है कि जो विवेकी है उसके वास्ते इसकी सृष्टि नहीं है, किन्तु अविवेकी के वास्ते है।