सूत्र :प्रपञ्चमरणाद्यभावश्च II3/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि शरीर को स्वभाव से चैतन्य माना जाय तो यह भी दोष हो सकता है कि प्रपंच, मरण, सुषुप्ति आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाएं नहीं हो सकेंगी, क्योंकि जो देह स्वभाव से चैतन्य है, तो मृत्यु-काल में इतनी चेतन शक्ति कहां को भाग जाती है, और बीसवें सूत्र में जो यह बात कही है कि प्रत्येक भूत के भिन्न-भिन्न करने पर चेतनता नहीं दीखती, अब इस पक्ष को भी पुष्ट करते है।