सूत्र :स्वप्नजागराभ्यामिव मायिका-मायिकाभ्यां नोभयोर्मुक्तिः पुरुषस्य II3/26
सूत्र संख्या :26
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था इन दोनों में पहला प्रतिविम्ब है, दूसरा सच्चा है। यह स्वप्नावस्था और जाग्रतावस्था दोनों आपस में विरूद्ध धर्मं वाली हैं, अतः इस कारण एक वक्त में नहीं रह सकते इसी तरह ज्ञान और कर्म भी एक वक्त में नहीं रह सकते हैं। बस इसी से सिद्ध हो गया कि विरूद्ध धर्मं वाले पदार्थ न तो मिल सकते हैं, और न मुक्ति का हेतु हो सकते हैं, और न इस विषय पर विकल्प करना चाहिए, कि किससे मुक्ति होती है, क्योंकि मुक्ति का नियत कारण ज्ञान है, और ‘‘न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेन अमृतत्वमानशु’’ कर्म से, सन्तान से, दान से, किसी ने अमृतत्व नहीं पाया है इत्यादि श्रुतियां भी कर्म को मुक्ति का अहेतु कहती हैं।
प्रश्न- यदि कर्म का कुछ भी फल न रहा तो कर्म का करना ही व्यर्थ है?