सूत्र :विचित्र-भोगानुपपत्तिरन्यधर्मत्वे II1/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि दुःख भोग रूप बन्धन केवल चित्त का धर्म माना जाये तो नाना प्रकार के भोग में संसार प्रवृत्त है, नही रहना चाहिये, क्योकि जीव को दुःख होने के बिना ही यदि दुःख का अनुभव कर्ता माना जाये तो सारे मनुष्य दुःखी हो जायेंगे, क्योकि जिस प्रकार दुःख का सम्बन्ध न होने से जैसे दुःखी प्रतीत होता है ऐसे ही दुःख के न होने पर सब लोग दुःखी हो सकते है, अतएव कोई दुःखी या कोई सुखी इस प्रकार अन्य प्रकार का भोग नही हो सकेगा।
प्रश्न- क्या प्रकृति के संयोग से दुःख होता है?