सूत्र :स्वपक्षे दोषाभ्युपगमात्परपक्षे दोषप्रसङ्गो मतानुज्ञा II5/2/21
सूत्र संख्या :21
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अपने पक्ष में प्रतिवादी ने जो दोष लगाया हैं, उसका उद्धार न करना मानो उसको स्वीकार करना है। ऐसा न करके जो दूसरे के पक्ष में वही दोष आरोपण करता हैं, इसको मतानुज्ञा कहते हैं। दूसरे के दोष सिद्ध करने से अपना दोष निवृत्त नहीं होता, वह तो प्रमाण और युक्ति से उसका निषेध करने पर ही निवत्त होता हैं। अब पर्यनुयोज्योपेक्षण का लक्षण कहते हैं:-