सूत्र :गुणान्तरापत्त्युपमर्दह्रासवृद्धिलेशश्लेषेभ्यस्तु विकारोपपत्तेर्वर्ण-विकारः II2/2/59
सूत्र संख्या :59
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : तु“ शब्द यहां पर पूर्वपक्ष की व्यावृत्ति करता है, अर्थात् वर्णों में चाहे वैसा विकार न हो, जैसा दूध का विकार दही होता हैं, किन्तु गुणान्तर, उपमर्द, ह्यास, वृद्धिलेश और श्लेष के होने से दूसरे के विकार की (जिसको परिवर्तन कहना चाहिए) तो अवश्य प्रतिपत्ति होती है। गुणान्तर = उदात्त स्वर को अनुदात्त स्वर हो जाना। उपमर्द = “अस“ की “भू“ और “ब्रुव“ को “वच“ आदेश हो जाना। ह्यास = दीर्घ का ह्यस्व हो जाना है, वृद्धि = ह्यस्व को दीर्घ हो जाना। लेश = कुछ अंश कम हो जाना, जैसे“अस“ के “अ“ कालोप हो जाना। श्लेष = कुछ बढ़ जाना, जैसे टित्, कित्, मित् के आगम। ये 6 प्रकार के परिवर्तन हैं, जिनको वर्ण विकार के नाम से निर्देश किया जाता है, वस्तुतः एक वर्ण दूसरे वर्ण का स्थानापन्न हैं, न कि विकार। अब वर्ण से पद और पद से व्यक्ति आदि का विवेचन प्रारम्भ किया जाता है। प्रथम पद का लक्षण करते हैं:-