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वैशेषिक दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :धर्मविशेषप्रसूताद्द्रव्यगुणकर्मसामान्यवि-शेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम् 1/1/4
सूत्र संख्या :4

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : धर्म विषेष अर्थात् विशेष-विशेष गुणों के कारण जो द्रव्य गुण कर्म सामान्य, और समवाय इन छः पदार्थों के साधर्म्य और वैधर्म्य के ज्ञान से तत्व ज्ञान उत्पन्न होता है उससे मुक्ति होती है।

व्याख्या :
प्रश्न- इस प्रकार का तत्वज्ञान कैसे हो सकता है? उत्तर- वैशेषिक दर्शन में इस के ज्ञान का उपदेश है, और वह ज्ञान मुक्ति का कारण है, है, क्योंकि जिससे किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो वही तत्वज्ञान ह प्रश्न- वैशेषिक शास्त्र और मुक्ति में क्या सम्बन्ध है? उत्तर- यह शास्त्र मुक्ति का कारण बनाता है, बस यह कारण रूप ही इस शास्त्र का सम्बन्ध है। प्रश्न- शास्त्र और तत्वज्ञान में क्या सम्बन्ध है? उत्तर- शास्त्र और तत्वज्ञान में विषय और और विषयी (जिसमें विषय रहे) का सम्बन्ध है। शास्त्र विषयी है और तत्वज्ञान विषय है। इसी ही को व्यापार और व्यापारी भी कहते हैं। प्रश्न- मुक्ति और तत्वज्ञान में क्या सम्बन्ध है? उत्तर- मुक्ति और तत्वज्ञान में कार्य और कारण का सम्बन्ध है तत्वज्ञान कारण है और मुक्ति कार्य है प्रश्न- द्रव्य आदि पदार्थों और इस शास्त्र में क्या सम्बन्ध है? उत्तर- शास्त्र पदार्थों का वर्ण करता है अतः शास्त्र ज्ञायक है और पदार्थ ज्ञेय हैं। इस प्रकार के सम्बन्ध के ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही मुक्ति की इच्छा रखने वाले (मुमुक्ष) इस शास्त्र को पढ़ते हैं। प्रश्न- मुक्ति किसे कहते हैं? उत्तर- दुःख का बीज सहित नाश हो जाना मुक्ति कहाती है। प्रश्न- कुछ लोग कहते हैं कि दुःख के अत्यन्ता भाव को मुक्ति कहते हैं अर्थात् तीनों कालों में दुःखवरहना मुक्ति कहाती है। उत्तर- मुक्ति का अर्थ ‘‘छूटना’’ है। जो तीन काल में कभी बन्धन में आया ही न हो उसका ‘‘छूटना’’ कैसे? क्योंकि जब पहले जीव फंसले तब तो छूटे। जब कि छूटने से पहले बंधा था एंव दुःखी भी था तो दुःख का अत्यन्ता भाव कैसे हो सकता है? किसी असंभव का अत्यन्ता भाव हो सकता है। जो किसी काल में विद्यमान हो, उसका अत्यन्ता भाव नहीं हो सकता। इसलिए आत्मा में दुःख का अत्यन्त भाव नहीं हो सकता किन्तु जड़ वस्तुओं में हो सकता हैमुक्ति में दुःख का अत्यन्ता भाव मानने वाले, जीव की मुक्ति न मानकर, जड़ पदार्थों की मुक्ति कह सकते हैं। प्रश्न- यदि मुक्ति में दुःख का अत्यन्ता भाव नहीं मानते तो-‘‘दुःखे नात्यन्त विमुक्तश्चरति’’ इस वाक्य का क्या अर्थ होगा? क्योंकि इसका पदार्थ तो यही हुआ कि दुःख से बिल्कुल छूटकर विचरता है’’। उत्तर- छूटने की चर्चा होने से इसके अर्थ ये होंगे कि ‘‘दुःख के बीज से रहित होकर विचरता है।’’ क्योंकि मुक्त आत्मा को दुःख और उसके बीज-मिथ्या ज्ञान इन दोनों से ही कुछ सम्बन्ध नहीं रहता। और जबकि अत्यन्ता भाव होना ही असम्भव है और इस अवस्था में जीव के उद्देश्य का भी नाश हो जाता है अतः दुःख के अत्यन्त भाव को मुक्ति कहना सत्य नहीं। और भविष्य में दुःख के स्वयं नाश हो जाने से , दुःख नाश होना मुक्ति नहीं, किन्तु दुःख उत्पन्न न हो ही मुक्ति है। प्रश्न- मनुष्य की इच्छा दुःख के दूर करने की नहीं होती, किन्तु यह समझकर कि दुःख की विद्यमानता में सुख प्राप्त होगा, दुःख दूर करने का यत्न करता है। उत्तर- यह सत्य नहीं। क्योंकि इसके विरूद्ध भी मुक्ति काम देती है। सुख की इच्छा दुःख के दूर करने के लिए होती है। क्योंकि देखा जाता है कि सुख के विरूद्ध दुःख से छूटनेके लिए विष चााते हैं और फांसी दे लेते हैं। उस विष के खाने और फांसी दे लेने में सुख की इच्छा तो होती ही नहीं, केवल दुःख से छूटने की इच्छा होती है। प्रश्न- जबकि पुरूषार्थ या परिश्रम किसी वस्तु को जानकर उसके लिए किया जाता है परन्तु दुःख के न होने को जो मुक्ति कहते हैं, उस मुक्ति केा तो किसी ने जाना नहीं अर्थात् दुख के प्रभाव का किसी को ज्ञान नहीं। इसलिए मुक्ति कहना ठीक नहीं, यदि बिना जाने हुए ही किसी वस्तु की इच्छा हो तो मूच्र्छावस्था में इच्छा क्यों नहीं होती उत्तर- जबकि दुःख का अभाव श्रुति और अनुमान से सिद्ध है, तो वह बिना जाना हुआ नहीं उसकी इच्छा होती है। एक श्रुति की तो इस सूत्र में चर्चा हो चुकी अनुमान यह है कि दुःख की समानता का अत्यन्त भाव हो जाता है उसके लिए युक्ति यह है कि उत्पत्ति होने से दीपक की एक क्षण के लिए उसका प्रत्यक्ष भी होता है योगी लोगों को योग शक्ति से आगामी दुःख के नाश का भी ज्ञान हो जाता है। प्रश्न- जबकि दुःख और सुख दोनों के नाश आय और व्यय बराबर है अर्थात् हानि और लाभ समान है अतः यह मनुष्य जन्म का उद्देश्य नहीं हो सकता। उत्तर- जो मनुष्य दुःख के भय से थोड़े से सुक्ष को छोड़ देते हैं वही सांसारिक इच्छाओं से बचकर मुक्ति प्राप्त करते हैं। दुनिया में दुःख बहुत और सुख थोड़ा है अतः दुःख के दूर करने का यत्न अवश्य करना चाहिए। प्रश्न- यदि दुःख की अपेक्षा सुख न्यून भी, मान लिया जावे तो भी दुःख का दूर पुरूषार्थ नहीं, क्योंकि आने वाले दुःख को दूर करना तो असम्भव है, जो दुःख व्यतीत हो चुका वह तो गया ही, और जो दुःख वर्ममान है वह पुरूषार्थ से नाश होगा, इस समय नाश हो नहीं सकता। उत्तर- अनागम दुःख का नाश करना ही परम पुरूषार्थ है दुःख के कारण के दूर हो जाने से उसके कर्म का नाश हो जाना सम्भव है। मिथ्या ज्ञान ही इच्छा आदि दोषों के साथ मिलकर दुःख का कारण होता है। और उस मिथ्या ज्ञान का नाश आत्मा का यथार्थ स्वरूप जानने से होता है और तत्वज्ञान योग की रीति पर चलने से होता है अतः योग की रीति पर चलना आवश्कीय है। प्रश्न- दुःख का नाश मुक्ति नहीं किन्तु नित्य सुख का होना ही मुक्ति है। उत्तर- नित्य सुख को मुक्ति मानना ठीक नहीं, क्योंकि प्रथम तो नित्य सुख के मानने में कोई युक्ति ही नहीं, जीवात्मा को नित्य सुख प्राप्त होना मान लिया जावे तो मुक्त जीव और वद्ध जीव में कोई अन्तर नहीं रहेगा। प्रश्न- परमात्मा में जीवात्मा का लय अर्थात् मिल जाना मुक्ति है? उत्तर- यह ठीक नहीं। क्योंकि यदि मिल जाने का अर्थ दोनों का एक हो जाना मान लिया जावे तो नितान्त भूल है। क्योंकि दो विरूद्ध गुण वाली वस्तुएं एक हो नहीं सकती यदि लिगंन शरीर का पृथक् हो जाना ही एक माना जावे तो ग्यारह इन्द्रियों के नाश हो जाने से दुःख की सामग्री का नाश होना ही मानना पड़ेगा। इसलिए दुःख का नाश होना ही मुक्ति है इन्द्रियों के पृथक् होने से अविद्या का पृथक्ता और अकेले आत्मा का रहना का रहना ही मुक्ति है। यह एक दण्डी का मतह है। आत्मा ज्ञान सुख वाला है, परन्तु यह ठीक नहीं है। क्योंकि आत्मा ज्ञान और सुख वाला है इसमें कोई प्रमाण नहीं। और जो श्रुति प्रमाण में दी जाती है वह यह है- नित्य विज्ञान मानन्द ब्रह्य इससे ब्रह्य, ज्ञान वाला सिद्ध होता है। जीवात्मा कभी ऐसा नहीं कहता कि ‘‘मैं सुख हूं या ज्ञान हूं’’ किन्तु इस प्रकार कहता है कि ‘‘ मैं सुखी’’ ‘‘मैं जानता हूं’’ यदि जीव को भी ब्रह्य ही माना जावे तो ब्रह्य के उस समय भी ज्ञान और आनन्द वाला होने से मुक्म और फंसे जीव एक हो जावेंगे जबकि अविद्या का नाश करना मनुष्य जीवन का परमोद्देश्य है। ब्रह्य के नित्य होने से उसमें अविद्या की उत्पत्ति और नाश सम्भव नहीं क्योंकि ब्रह्य से ज्ञान और आनन्द का दूर होना सम्भव नहीं, वह स्वाभाविक गुण है अतः सुख और ज्ञान की प्राप्ति जीव के लिए है। ब्रह्य में अविद्या का आना भी सम्भव नहीं ब्रह्य न तो आनन्द को भोगता है न उससे पृथक् होता है। अतः जीव को ब्रह्य मानने से पुरूशार्थ का नाश हो जाएगा। प्रश्न- इस चित्त की वृत्तियों का शान्त होना ही मुक्ति मानते हैं। उत्तर- दुःख रूप जो चित्त का चात्र्चल्य है यदि उस ही को दूर करना मुक्त है, तो केवल उसके दूर करने को पुरूषार्थ मानने में कोई प्रमाण नहीं है, अतः दुःख दूर करना ही मुक्ति है। प्रश्न- क्या छः पदार्थों के अतिरिक्त और कोई पदार्थ नहीं है? उत्तर- सम्पूर्ण वस्तु जो सत्ता रखती हैं, इन छः पदार्थों में आ जाती हैं इनसे पृथक कोई नहीं रहती। प्रश्न- द्रव्य कितने हैं? उत्तर- द्रव्य नौ हैं, और वे ये हैं-