सूत्र :यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः 1/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : अभ्युदय-तत्त्वज्ञान अर्थात् जिससे प्रत्येक वस्तु का यथार्थ ज्ञान हो और मुक्तिः ये दोनों जिससे प्राप्त हो उसे ‘धर्म’ कहते हैं। वा इस प्रकार भी इसका अर्थ हो सकता है कि तत्त्वज्ञान के द्वारा जो दुःख दूर करने का कारण है उसे ‘‘धर्म’’ कहते हैं।
व्याख्या :
प्रश्न- तत्त्वज्ञान के कहने की क्या आवश्यकता थी? क्योंकि ‘‘जिससे मुक्ति हो जावे वही धर्म है’’ ऐसा कह देना पर्याप्त था।
उत्तर- यदि ऐसा कहते कि जिससे मुक्मि हो जावे वह धर्म है, तो पहिले करना पड़ता तदन्तर मुक्ति होती वा न होती। ऐसी अवस्था में अधर्म को धर्म कह सकते धर्म और अधर्म करने की पहचान न रहती, केवल फल मिलने पर ही जान सकते जिससे लाखों मनुष्यों के जीवन व्यर्थ ही जाते। द्वितीय कारण यह भी है कि यह ईश्वरीय नियम है कि जो देखभाल कर चलता है वह अपने अभीष्ट स्थान पर पहुंच जाता हैं यदि उल्टा कार्य किया जावे तो हानि के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता। जैसे कोई कहे कि पहले चलकर देख लो, यदि जहाँ पहुंचना है वह स्थान नहीं मिला तो पुनः लौट आना। इसमें जो समय जाने और आने में लगा वह तो व्यर्थ ही गया न। इसलिए द्धषि बताते हैं कि जो प्रत्येक वस्तु के यथार्थ ज्ञान द्वारा मुक्ति का साधन विदित हो वही ‘‘धर्म’’ है।
प्रश्न- जबकि मनुष्य अल्पज्ञ है तो किसी वस्तु का ज्ञान होने पर भी वह निश्चत कैसे हो कि यथार्थ ज्ञान है?
उत्तर- यदि वह ज्ञान वस्तु के यथार्थ ज्ञान के विरूद्ध है तो वह तत्त्वज्ञान ही नहीं हो सकता। इसलिए उसके उसके द्वारा मुक्ति न होगी।
प्रश्न- जबकि यह अल्पज्ञ जीवात्मा एक नगर की वस्तुओं को भी सम्यक्मतया नहीं तो सारी ही वस्तुओं का तत्त्व ज्ञान होना तो असम्भव है। और तत्त्वज्ञान ही नहीं हो सकता तो मुक्ति किस प्रकार हो सकती है? इसलिए यह लक्षण ही असम्भव होने से दूषित है।