DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् 1/1/3
सूत्र संख्या :3

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यद्यपि जीपात्मा का ज्ञान सान्त है, तथापि उसमें दूसरपे की सहायता लेने का गुण पाया जाता है।

व्याख्या :
ज्ञान स जो वस्तु किसी दूसरे ने देखी है, उसे देखने वाले से सुनकर जीव अपने दिल में उसका चित्र खेंच सकता है। अतः तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के लिए जो ईश्वरीय ज्ञान वेद है, प्रमाण हैं सारांश यह है कि आत्मा परमात्मा के तत्त्वज्ञान प्राप्त कर सकता है। प्रश्न- यदि ‘‘तत्’’ शब्द से धर्म का ग्रहण हो तो क्या हानि है? उत्तर- ऐसी अवस्था में तत्त्वज्ञान जिसको असम्भव बताया गया था, और तत्त्वज्ञान के द्वारा मुक्ति दिलाने वाले का नाम था, और तत्त्वज्ञान के असम्भव हो जाने से धर्म सन्दिग्ध अवस्था में प्रमाण की अपेक्षा रखता था। जो धर्म अपनी सत्ता को प्रमाणित करने में किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा रखता है, वह वेदों के लिए प्रमाण होने में कैसे समर्थ हो सकता है। इसलिए ‘तत्’ शब्द का अर्थ ईश्वर ही हो सकता है। प्रश्न- क्या ईश्वर अपे सत्ता और वेदों के कत्र्ता होने में किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं रखता? क्योंकि बहुत से लोग ईश्वर को नहीं मानते, और वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानने वाले भी बहुत कम हैं। इसलिए ‘तत्’ शब्द से ईश्वर का अर्थ लेना ठीक नहीं। उत्तर- निस्सन्देह यह बात ठीक है कि इस समय बहुत कम लोग ईश्वर को मानते हैं, और वेदों को भी ईश्वरीय ज्ञान बहुत कम लोग मानते हैं, परन्तु जिस समय यह शास्त्र रचा गया था उस समय सब ही ईश्वर और उसके ज्ञान वेदों को मानते थे। दूसरे यह भी है कि इससे पहिले न्याय शास्त्र में यह बात अच्छी तरह सिद्ध कर दी गई है कि ईश्वर की सत्ता अवश्य है और वेद उसका ज्ञान है। प्रश्न- वेदों में बहुत से दोष हैं जिनके कारण उनका प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि उसमें अनृत, व्याघात और पुनरूक्त दोष हैं। इसलिए उनका ईश्वरीय ज्ञान नहीं मान सकते। उत्तर- वेदों में इस प्रकार के कुछ भी दोष नहीं है, यह बात न्याय दर्शन के शब्द प्रमाण परीक्षा में भले प्रकार पुष्ट कर चुके हैं। यहां फिर दुहराकर लिखना व्यर्थ है। यहां तक ऋषि ने शास्त्र रचने का उद्देश्य बतलाकर आगे पदाथ्ज्र्ञ विद्या का आरम्भ किया है। तत्त्वज्ञान के वास्ते, सिवाय वेद के कोई दूसरा प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि वेद को बनाने वाला ईश्वर सर्वज्ञ व्यापक है। जो जहां होता है वहा वहां के हाल का अच्छी तरह जान सकता है ईश्वर, जबकि सर्वव्यापक है तो ही सारी वस्तुओं का यथार्थ ज्ञाता है। इसलिए ईश्वर के सिवाय और कोई सर्वव्यापक नहीं अतः वह सर्वज्ञ है ईश्वर के सर्वज्ञ होने से उसका ज्ञान वेद है। वह तत्त्वज्ञान के लिए प्रमाण समझा जाना चाहिए। और जो ज्ञान वेदानुकूल है वही तत्त्व ज्ञान है। जो वेद के विरूद्ध है वह तत्त्व ज्ञान नहीं। प्रश्न- सूत्र में ‘तत्’ शब्द है, तुमने उसमे ईश्वर अर्थ कैसे लिया? उत्तर- ‘तत्’शब्द से दो ही अर्थ लिये जा सकते हैं, 1-ईश्वर, 2- धर्म क्योंकि ‘तत्’ सर्वनाम है जो वेदों के कत्र्ता के लिए है। इसलिए तत्-शब्द वेदों के रचयिता की ओर संकेत है वेदों को बनाने वाला ईश्वर है, यह बात सारे ऋषियों ने मान ली है इसलिए तत्-शब्द का अर्थ लिया गया। दूसरे जिस प्रकार न्याय भाष्य में शब्द प्रमाण की परीक्षा के समय वेदों का ग्रहण है, इसी तरह इस स्थल पर भी ईश्वर के लिय तत्-शब्द ग्रहण किया गया है। वहां पर सर्वोत्तम शब्द प्रमाण की परीक्षा अभीष्ट थी इसी प्रकार यहां पर सर्वोत्तम आप्त वचन प्रकट करने का आशय है। आगे चलकर जो द्धषि ने वेदों के विषय में लिखा है, उससे भी प्रमाणित होता है कि यहां तत् शब्द से ईश्वर ही का ग्रहण है। प्रश्न- यदि हम वेदों का कत्र्ता ईश्वर को न मानें तो तत् शब्द से ईश्वर का ग्रहण कैसे होगा? क्योकि हम वेद को बनाने वाला किसी ऋषि का ग्रहण करेंगे। उत्तर- वेद ऋषियों के हृदय में प्रकट हुए हैं और वे ऋषि संख्या में चार-चार हैं इस वास्ते तत् शब्द से चारों का ग्रहण कर नहीं सकते। किसी एक की विशेषता सूत्र में विद्यमान है, इसलिए तत् शब्द से कोई ऋषि नहीं लिया जा सकता।

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