सूत्र :बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे 6/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इस छटे अध्याय में ऋषि, संसार के मुख्य उद्देश्य की परीक्षा के लिए जो प्रमाण वेद ओर साधन भ धर्म है, उसको आरम्भ करते हैं, क्योंकि तीसरे सूत्र में कहा था कि तत्व ज्ञान के लिए केवल वेद ही प्रमाण हो सकता है, क्योंकि वह ईश्वर का वाक्य या तत्व ज्ञान के अनुसार मुक्ति के कारण धर्म का बतलाने वाला है।
प्रश्न- वेद के बनाने की ईश्वर को क्या आवश्यकता थी?
अर्थ- परमात्मा ने जितने मनुष्य के ज्ञान साधन बनाये हैं, उन सबको हम पाते हैं। यदि उनको सहायता पहुंचाने वाली शक्ति विद्यमान न हो तो वे सब निकम्पे होंगे। जैसे आंख है, वह बिना प्रकाश की सहायता के कुछ भी नहीं कर सकती। ऐसे ही कान बिना प्रकाश की सहायता के कुछ भी नहीं सुन सकते। इसी प्रकार स्पर्शन शक्ति वायु की सहायता की आवश्यकता रखती है, वायु के बिना वह निकम्पी है। इसी प्रकार मनुष्य की पांचों इन्द्रियां बिना पंच भूतों की सहायता के कुछ काम नहीं कर सकतीं। अब प्रश्न यह है कि जीवात्मा का स्वाभाविक गुण जो बुद्धि है वह अपने काम के लिए दूसरे की सहायता की आवश्यकता रखती है वा नहीं? जहां तक विचार किया जाता है वहां तक यही पता लगता है कि बुद्धि भ सहायता की आवश्यकता रखती है। जिस प्रकार प्रकाश की न्यूनाधिकता से आंख की शक्ति घटती बढ़ती है। दीपक के प्रकाश में आंख के देखने की शक्ति जितनी होती है, चन्द्रमा के प्रकाश में उससे अधिक होती है, और सूर्य के प्रकाश में और भी बढ़ आती है। यही अवस्था बुद्धि की है कि जिस मनुष्य ने शिक्षा ग्रहण नहीं की उसकी बुद्धि मोटी से बात को भी समझने में असमर्थ होती है, और जितनी बुद्धि बढ़ती जावेगी उतनी ही समझने की शक्ति भी बढ़ती जावेगी। इससे स्पष्ट विदित होता है कि और इन्द्रियां तो भौतिक होने से भौतिक वस्तुओं की सहायता की आवश्यकता रखती हैं और अभौतिक बुद्धि अपनी सहायता के लिए अभौतिक शिक्षा की आवश्यकता रखती है। जिस प्रकार इन भौतिक इन्द्रियों के लिए सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने उनकी सहायता के लिए उनके सहायता उत्पन्न किए, अर्थात् आंख के लिए सूर्य, इसी प्रकार भीतरी इन्द्रिय के लिए क्या कोई सहायक उत्पन्न न किया होगा। यद्यपि आंख की सहायता के लिए आजकल दीपक आदि भी काम में लाये जाते हैं, परन्तु यदि परमात्मा सूर्य को उत्पन्न न करता तो ये दीपक आदि होते ही नहीं। इसी प्रकार सृष्टि की आदि में यदि परमात्मा जीवों को शिक्षा का सूर्य न देता तो मनुष्य किसी प्रकार भी शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता था। इसलिए परमात्मा ने बुद्धि की सहायता के लिए अर्थात् बुद्धि को सहायता देने वाले वाक्य को वेद में प्रकट किया है जिससे मनुष्यों की बुद्धि की निर्बलता दूर होकर वह अपने काम को कर सकेंगे।
व्याख्या :
प्रश्न- परमात्मा को शिक्षा देने की क्या आवश्यकता थी, शिक्षा को तो मनुष्य स्वयं ही बढ़ाता जाता है?
उत्तर- या तो अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, या शिक्षा वा ज्ञान का कोई अधिकरण मानना पड़ेगा, क्योंकि जो शिक्षा प्राप्त की जाती है। या तो उसका मनुष्य का स्वाभाविक गुण मानना पड़ेगा या नैमित्तिक। यदि स्वाभाविक मानों ता प्रत्येक मनुष्य में समान माननी पड़ेगी और यदि नैमित्तिक माना जावे तो उसका निमित्त ढूंढना पड़ेगा कि वह कहां से प्राप्त होती है। अभाव से भाव की उत्पत्ति होना सम्भव ही नहीं, इसलिए शिक्षा सर्वज्ञ परमात्मा ही की ओर से है। हजस प्रकार आंख के लिए सूर्य मिला है उसी प्रकार बुद्धि की सहायता के लिए वेदों का प्रकाश हुआ है, क्योंकि ज्ञान का अधिकरण केवल चेतन परमात्मा के और कोई हो ही नहीं सकता इसलिए आरम्भ में उसी ज्ञानाधिकरण से शिक्षा स्त्रोत बहा।
प्रश्न- यह क्यों न माना जावे कि मनुष्य ने अपनी बुद्धि से वेदों को बनाया है इसलिए वेदों की बनावट बुद्धि से हुई है?
उत्तर- यह विचार ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि बिना शिक्षा के बुद्धि में शक्ति ही नहीं आती। दूसरे वेदों में उन आत्मिक विद्याओं की चर्चा है जिनको कोई लाख वर्ष तक भी अनुवाद करने से बिना शिक्षा के प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिए योरूप वासी आत्मिक विद्या में निर्बल है।
प्रश्न- यदि वेदों को बुद्धि का सहायक माना जावे तो मनुष्य के बनाये ब्राह्यणों में भी ये बाते पाई जाती हैं, इसलिए वेदों को मनुष्य की बुद्धि के अनुकूल बनना ही माना जावे?