सूत्र :ब्राह्मणे संज्ञाकर्म सिद्धिलिङ्गम् 6/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : ब्राह्यण ग्रंथों में कर्म को ठीक-ठीक करने के लिए उनमें कर्म की विधि और संज्ञा अर्थात् नामों का व्यवहार है जो इतिहास होने के कारण मनुष्य की बुद्धि के अनुसार होने के अनुसार को सिद्ध करता है। यदि वेद ईश्वर की ओर से प्रकाशित न होते तो मनुष्य के भीतर इतनी शक्ति कभी नहीं होती कि वह ब्राह्यणें जैसे कर्मकाण्ड के ग्रंथ और उनके नियमों में कर्म के पूर्ण करने का सारा त्रम नियत कर सकता। इसलिए ब्राह्यण में जो कर्म ओर नाम के नियम हैं वह वेदों के प्रकाश का लिंग हैं, क्योंकि ब्राह्यणों में सारी बातें प्रत्यक्ष ही नहीं हैं कि जिससे यह अनुमान किया जावे कि मनुष्यों ने अनुभव से ज्ञान हैं कि ब्राह्यण ग्रंथ बनाने वालों ने ये बातें प्रत्यक्ष जगत् से नहीं लह बल्के किसी दूसरी जगह से ली है।, इसलिए उनसे भी वेदों के के ईश्वर उपदेश होने का पता लगमा है। ब्राह्यण ग्रंथों का बहुत सा भाग वेदों का व्याख्यान है और बहुत स्थलों पर कर्मकाण्ड में विनियोग करने वाला है।
प्रश्न- ब्राह्यण ग्रंथों में तो दान देने का और यज्ञ करने का बहुत विधान हैं वह मन घड़ंत जान पड़ता है, बुद्धि के अनुकूल नहीं।