सूत्र :बुद्धिपूर्वो ददातिः 6/1/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वेदों में जो दान की शिक्षा है वह भी बुद्धि के अनुकूल है। आशय यह है, कि जो मनुष्य दान करता है वह बुद्धि के अनुकूल ही करता है क्योंकि जिस प्रकार दान दूसरों को दिया जाता है उसी प्रकार पृथिवी में बीज बोया जाता है। उस बीज में फल लगता हुआ देखकर अनुमार होता है, कि दान का कोई फल है। जिस समय बीज बोया जाता है उस समय कोई फल नहीं लगता, नहीं कोई अंकुर निकलता है किन्तु आगे जाकर उत्पन्न होता है। ऐसे ही दान का फल भी आगे होता है। इसलिये ब्राह्यण ग्रंथों ने लिखा था (परोक्ष प्रियादि देवाःप्रत्यक्ष द्विषुः) आशय यह है, कि विद्वान लोग परोक्ष फल वाले को प्यार करते हैं और प्रत्यक्ष फल से द्वेष करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष फल वाले भोग के सम्बन्ध में कर्म हैंजिनसे विषय का भोग होकर दुःख ही मिलता है इसलिये जिन कर्मों से आने वाला दुःख दूर हो वे ही चिद्वानों के करने के योग्य हैं।
प्रश्न- क्या धार्मिकों को ही दान देना चाहिऐ और उनसे ही लेना चाहिये? धर्म विरोधियों से दान लेना नहीं चाहिये?