सूत्र :संहतपरार्थत्वात्पुरुषस्य II1/66
सूत्र संख्या :66
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रकृति के अवयवों की संहित सर्वदा दूसरे के वास्ते होती है, अपने लिए नही इससे पुरूष का अनुमान होता है, क्योंकि मन आदि जो प्रकृति के कार्य है, उनसे पुरूष को लाभ होता है। मन आदिक अपने लिए कुछ भी नही कर सकते, और जितने शरीर स लेकर अन्न, वस्त्र, पात्रादि के विकार है, उनसे दूसरों का ही उपकार होता है, और पुरूष की त्रिया का भोग पदार्थ नही है, क्योंकि उपनिषद् में लिखा है। ‘‘न वा अरे सर्वस्य का माय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु का माप सर्वं प्रियं भवति अर्थात् सम्पूण वस्तुओं के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी नही, किन्तु आत्मा के उपयोगी होने से सब वस्तुयें प्यारी प्रतीत होती है।