सूत्र :विमुक्तबोधान्न सृष्टिः प्रधानस्य लोकवत् II6/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जब प्रकृति को इस बात का ज्ञान हो जाता है यह मुक्त हो गया, फिर उसके वास्ते सृष्टि को नहीं करती है, यह बात लोक के समान समझनी चाहिए, जैसे-कोई मनुष्य किसी को बन्धन में से छुड़ाने का उपाय करता है, जब वह उस बन्धन से छुड़ा देता है तो उस उपाय से निश्चित हो बैठता है, क्योंकि जिसके लिए उपाय किया था वह कार्य पूरा हो गया।