सूत्र :कर्मवद्दृष्टेर्वा कालादेः II3/60
सूत्र संख्या :60
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसा कि खेती के करने में बीज बोया जाता है, वह अपनी ऋतु के समय वृक्षरूप को धारण कर दूसरों के उपकारार्थ फल देता है, इसी प्रकार प्रकृति की सृष्टि भी दूसरों के वास्ते हैं।
प्रश्न- ऊंट तो पिटने के डर से केशर लादकर ले जाता है, लेकिन प्रकृति को तो किसी का डर नहीं है?