सूत्र :स्वभावाच्चेष्टितमनभिसंधानाद्भृत्यवत् II3/61
सूत्र संख्या :61
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जैसे चतुर सेवक अपने स्वामी का सब काम करता है, और उसमें अपने स्वार्थ का कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता, इसी तरह प्रकृति भी अपने आप सृष्टि करती हैं, पुरूष के भय प्रेरणादिक को अपेक्षा नहीं करती।