सूत्र :न बाह्याभ्य-न्तरयोरुपरज्योपरञ्जकभावोऽपि देशव्यवधानाच्छ्रुघ्नस्थपाटलिपुत्रस्थयोरिव II1/28
सूत्र संख्या :28
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जो मनुष्य जीव-आत्मा को शरीर में एक देशी मानते है इस कारण जीव-आत्मा का कुछ भी सम्बन्ध बाह्य विषयों से नही रहेगा, क्योकि आत्मा और जड़ के बीच अति का अन्तर है, जैसे- पटना का रहने वाला बिना आगरा पहुंचे वहां के रहने वाले को नही बांध सकता, इसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न हुई वासना आभ्यन्तरूप आत्मा के बन्धन का हेतु किस प्रकार हो सकती है? और लोक में भी ऐसा देखा जाता है कि जब रंग और वस्त्र का सम्बन्ध बिना अन्तर के होता है तब तो वस्त्र रंग पर चढ़ जाता है। यदि उनके बीच कुछ अन्तर हो तो रंग कदापि नही चढ़ सकता, अतएव वासना से बन्धन नही हो सकता, परन्तु जब लोग आत्मा और बाह्य इन्द्रियों में अन्तर मानते है तो इन्द्रियकृत वासना से आत्मा किस प्रकार का बन्धन में नही आ सकती। यदि यह कहा जाय कि बाह्य इन्दिंयों का आभ्यन्तर इन्द्रिय मन आदि से सम्बन्ध है और आभ्यन्तर इन्द्रियों का आत्मा से। इस परम्परा सम्बन्ध से आत्मा भी विषय वासना से बद्ध हो सकता है, यह कहना अयुक्त ही है, क्योंकिः -