DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च II1/1/5
सूत्र संख्या :5

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस ज्ञान की वास्तविक दशा प्रत्यक्ष द्वारा परस्पर सम्बन्ध को जानकर, एक को देख कर दूसरे से जानी जाती है वह अनुमान कहलाता है।

व्याख्या :
प्रश्न-अनुमान कितनी प्रकार का है ? उत्तर-अनुमान तीन प्रकार का होता है, पहला “पूर्ववत” जहां कारण द्वारा कार्य का ज्ञान प्राप्त किया जाय जैसे घनघोर मेधों को देखकर वृष्टि के होने का ज्ञान होता है अर्थात् “पहले जब इस प्रकार का मेघ आया था तो वृष्टि हुई थी; अब फिर वैसा ही बादल आया है अतः अब भी वर्षा होगी” यह जो वृष्टि होने का ज्ञान है यह पहले के बादल को देखकर किया गया था। अतएव ”पूर्ववत्-अनुमान” कहलाता है। द्वितीय ”शेषवत्” जहां कार्य को देखकर कारण का अनुमान किया जाय तथा नदी को बहुत वेग से तथा मटीले जल से बहती हुई को देखकर ज्ञान होता है कि ऊपर पर्वत में वर्षा हुई है। तृतीय ”सामान्यतो दृष्टम्“ किसी स्थान में दो वस्तुओं के सम्बन्ध को देखकर दूसरे स्थान पर उनमें से एक को देखकर दूसरे का अनुमान करना जैसे घर में आग से धुआं निकलता देखा है। वन में दूर से धुएं को निकलते देखकर यह जान लेना कि वहां आग है-इसी प्रकार ऐसी वस्तुएं जिनका कभी प्रत्यक्ष नहीं हुआ किन्तु सम्बन्ध द्वारा जानी जाती है, जैसे जो जो वस्तु संसार में परिणाम वाली (अर्थात् बदलने वाली) देखी जाती हैं, वे सब उत्पन्न हुई हैं यथा एक बालक उत्पन्न हुआ और वह पढ़ने लगा । तदन्तर मर गया । इससे पता लग गया कि जो वस्तु परिणामी है वह नाशवान है। अब इसी ज्ञान से संसार (जगत) के उत्पन्न होने और नाशवान् होने का अनुमान किया। यद्यपि जगत की उत्पत्ति को कहीं प्रत्यक्ष नहीं देखा तथापि यावत् वस्तु संसार में परिवर्तनशील हैं वे उत्पत्तिमान होती हैं, यह ज्ञान उत्पन्न वस्तुओं के परिवर्तन से कर लेते हैं और जगत् को परिवर्तन स्वभाव वाला देखकर इसी अनुमान से उत्पन्न और नाश वाला (नश्वर) मानते हैं अनुमान के सम्बन्ध में बहुत विवाद हो सकता है किन्तु ग्रन्थ विस्तार के भय से इतना ही पर्याप्त है। प्रश्न- उपमान किसे कहते हैं ?

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