सूत्र :प्र-त्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि II1/1/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रत्यक्ष, अर्थात जो इन्द्रियों के द्वारा अनुभव हो दूसरा अनुमान जो उपमान व सम्बन्ध से जाना जाय, तीसरा उपमान जो (मिसाल) दिखाकर सदृश्यता बताई जाय और चतुर्थ शब्द जो विद्वान (आप्त) मनुष्य के उपदेश से जाना जाय।
व्याख्या :
प्रश्न-हम प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को नहीं मानते, क्योंकि प्रत्यक्ष के बिना और प्रमाण ठीक नहीं मिलते, प्रायः (भ्रांति) भूल हो जाती है। यदि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण को स्वीकार करोगे तो बहुत से पदार्थों का ज्ञान न हो सकेगा।
यथा-वे पदार्थ जो कि अत्यन्त समीपहै जैसे आंख में सुर्मा और बहुत दूर के पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए अन्य प्रमाणों का मानना आवश्यक है। यदि प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण मान लिए जाएं तो क्या हानि है।
उत्तर-अनुमान भी प्रत्यक्ष पदार्थों का होता है। अनुमान से साधारण मनुष्य कार्य कर सकते हैं। प्रत्यक्ष मनुष्य व पशुओं के लिए एक तुल्य समान है, इसलिए जो मनुष्य धर्म का निर्णय करना चाहते हैं उनके लिए तो यह दोनों प्रमाण व्यर्थ हैं, क्योंकि जीवात्मा मन, बुद्धि आदि इन्द्रियों से अनुभव न होने के कारण प्रत्यक्ष से नहीं माना जा सकता और प्रत्यक्ष न होने पर अनुमान भी नहीं हो सकता, इसलिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता है।
प्रश्न-’प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं और उनका क्या लक्षण है।