सूत्र :आदिमत्त्वा-दैन्द्रियकत्वात्कृतकवदुपचाराच्च II2/2/14
सूत्र संख्या :14
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जबकि शब्द की कारण से उत्पत्ति है और वह इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता हैं और उच्चारण से पहले नहीं होता, इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि शब्द अनित्य हैं। संसार में जो पदार्थ कारण से उत्पन्न होते हैं वे सब अनित्य हैं और जो इन्द्रियों से ग्रहण किए जाते हैं वे भी अनित्य हैं, क्योंकि संयुक्त द्रव्य ही इन्द्रियों से ग्रहण किए जाते हैं और शब्द बिना वायु, पृथ्वी और आकाश के उत्पन्न नहीं हो सकता, जिससे उसका संयुक्त होना सिद्ध है। संयुक्त होने से शब्द अनित्य हैं।
व्याख्या :
प्रश्न - शब्द के संयुक्त होने का क्या कारण है ?
उत्तर - यदि होठों को बन्द करके बोलने की चेष्टा की जाए तो शब्द बिल्कुल न होगा, क्योंकि वायु के आने और जाने का रास्ता नहीं रहा, जब वायु को रोका जाता है, तब शब्द उत्पन्न होता है।
प्रश्न - शब्द को संयुक्त और विनाश धर्म वाला कहना ठीक नहीं, क्योंकि शब्द गुण है और गुण कभी संयुक्त नहीं होता।
उत्तर - गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध होने से यदि गुणी अनित्य है तो उसका गुण भी अवश्य अनित्य होगा। पृथ्वी और जल के अनित्य और संयुक्त होने से इनके गुण गन्ध और रस कभी नित्य व असंयुक्त नहीं हो सकते। जब शब्द वायु के संयोग से उच्चारित होता है, त बवह नित्य कैसे हो सकता है। अतएव उत्पत्ति धर्मवान, इन्द्रिय जन्य और कृतक होने से शब्द अनित्य है। पुनः वादी शंका करता हैं: