सूत्र :विमर्शहेत्वनुयोगे च विप्रतिपते: संशय II2/2/13
सूत्र संख्या :13
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : शब्द के विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं, कोई तो यह मानते हैं कि शब्द आकाश का गुण, व्यापक और नित्य हैं, अनित्य किया से शब्द का केवल आविर्भांव होता है, शब्द उत्पन्न नहीं होता। कोई यह कहते हैं कि जड़ आकाश का गुण जो शब्द है वह पृथ्वी के गुण गन्ध आदि की तरह अनित्य है और कई ऐसा मानते हैं कि इन्द्रियजन्य ज्ञान की तरह शब्द उत्पत्ति और विनाश धर्म वाला है, इन भिन्न-भिन्न मतों के कारण करने से यह सन्देह होता है कि शब्द नित्य हैं व अनित्य ? अगले सूत्र में सूत्रकार उसका अनित्य होना सिद्ध करते है: