सूत्र :समानं जरामरणादिजं दुःखम् II3/53
सूत्र संख्या :53
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : किसी शरीर में हों, चाहे देवता हों चाहे सामान्य मनुष्य अथवा पशु-पक्षी बुढ़ापे और मुक्त का दुःख सब में होता हैं, इस कारण सब शरीरों को अपेक्षा मुक्त होना ही उत्तम है।
प्रश्न- जिससे यह शरीर उत्पन्न हुआ है यदि उसी में लय हो जाए, तब क्या मुक्ति नहीं मानी जाएगी?