सूत्र :आध्यात्मिकादिभेदान्नवधा तुष्टिः II3/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रकृति, उपादान, काल, भाग्य-यह चार प्रकार के भेद होने से आध्यात्मिक तुष्टि कहलाती है और पांच प्रकार की बाह्य विषयों से उपराम को प्राप्त होने वाली तुष्टि है। एवम् आध्यात्मिकादि भेदों के होने से नौ प्रकार से है, कि जो कुछ दीखता है, वह सब प्रकृति का ही परिणाम है, और उसको प्रकृति ही करती है मै कृटस्थ हूँ- ऐसी प्रकृति के सम्बन्ध में बुद्धि होने का नाम प्रकृति तुष्टि है और जो संन्यासी होकर आश्रम ग्रहण रूपी उपादान से तुष्टि मानते है वह उपादान तुष्टि है। जो संन्यासी होकर भी समाधि आदि अनुष्ठानों से बहुत समय में तुष्टि मसनते हैं उसे काल तुष्टि कहते हैं और उसके बाद धर्ममेघ समाधि में जो तुष्टि होती है, उसे भाग्य’तुष्टि कहते हैं। बाह्य पांच प्रकार की तुष्टि इस तरह है कि माला चन्दन, वनिता (स्त्री) आदि के प्राप्त करने में दुःख उत्पन्न होगा ऐसा करके उनका त्यागं कर देना, यह एक प्रकार की तुष्टि हुई। पैदा किये हुए धन को या तो चोर चुरा ले जायेंगे या राजा दण्ड देकर छीन लेगा तो बड़ा भारी दुःख उत्पन्न होगा ऐसा विचार कर जो त्यागना है, यह दूसरी तुष्टि है। यह धनादिक बड़े परिश्रम से संचय किया गया है, इसकी रक्षा करनी योग्य है व्यर्थ न खोना चाहिये ऐसा विचार करके जो विषय वासना से बचना है, इसको तीसरी तुष्टि कहते हैं। भोग के अभ्यास से काम वृद्धि होती है और विषय के न प्राप्त होने से कामियों को बड़ा भारी कष्ट होता है। ऐसा विचार कर जो भोगों से बचना है, यह चौथी तुष्टि का लक्षण है। हिंसा वा दोषों के देखने से उपराम हो जाना, पांचवी तुष्टि का लक्षण है! यह पांच प्रकार की तुष्टियों की व्याख्या केवल उपलक्षण मात्र की गई है। इनकी अवधि यहां तक न समझकर इसी प्रकार की और भी तुष्टियां इन्ही पांच प्रकार तृष्टियों में परिगणित कर लेनी चाहियें।