Manu Smriti
विविध
 
मनु का विरोध क्यों? डॉ. सुरेन्द्र कुमार

आजकल हवा में एक शब्द उछाल दिया गया है-‘मनुवाद’, किन्तु इसमा अर्थ नहीं बताया गया है| इसका प्रयोग भी उतना ही अस्पष्ट और लचीला है, जितना राजनीतिक शब्दों का| मनुस्मृति के निष्कर्ष के अनुसार मनुवाद का सही अर्थ है-‘गुण-कर्म-योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों के महत्त्व पर आधारित विचारधारा’, और तब, ‘अगुण-अकर्म-अयोग्यता के अश्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित विचारधारा’ को कहा जायेगा-गैर मनुवाद|

अंग्रेज-आलोचकों से लेकर आजतक के मनुविरोधी भारतीय लेखकों ने मनु और मनुस्मृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है, वह एकांगी, विकृत, भयावह और पूर्वाग्रहयुक्त हैं | उन्होंने सुन्दर पक्ष की सर्वथा उपेक्षा करके असुन्दर पक्ष को ही उजागर किया है| इससे न केवल मनु की छवि को आघात पहूंचता है, अपितु भारतीय धर्म, संस्कृति-सभ्यता, साहित्य, इतिहास, विशेषतः धर्मशास्त्रों का विकृत चित्र प्रस्तुत होता है, उससे देश-विदेश में उनके प्रति भ्रान्त धारणाएं बनती हैं| धर्मशास्त्रों का वृथा अपमान होता है| हमारे गौरव का हस होता हैं|

इस लेख के उद्देश्य हैं-मनु और मनुस्मृति की वास्तविकता का ज्ञान कराना, सही मूल्यांकन करना, इस सम्बन्धी भ्रान्तियों को दूर करना और सत्य को सत्य स्वीकार करने के लिए सहमत करना| इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जन्मना जाति-व्यवस्था से हमारे समाज और राष्ट्र का हस एवं पतन हुआ है, और भविष्य के लिए भी यह घातक है| किन्तु, इस एक परवर्ती त्रुटि के कारण समस्त गौरवमय अतीत को कलंकित करना और उसे नष्ट-भ्रष्ट करने का कथन करना भी अज्ञता, अदूरदर्शिता, दुर्भावना और दुर्लक्ष्यपूर्ण है| यह आर्य (हिन्दू) धर्म, संस्कृति-सभ्यता और अस्तित्व की जडों में कुठाराघात के समान है|

 

संसार की सभी व्यवस्थाएं शतप्रतिशत खरी और सर्वमान्य नहीं होती| परवर्ती जातिव्यवस्था की तरह आज की व्यवस्था भी पूर्ण नहीं है| यदि कोई त्रुटि आ जाये तो उसका परिमार्जन किया जा सकता हैं| हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने इसके लिए एक उदार मूलमन्त्र बहुत पहले से दे रखा है-

‘‘यानि अस्माकं सुचरितानि, तानि त्वया उपास्यानि, नो इतराणि|’’

(तैतिरीय उप.१.११.२)

अर्थात्-हमारे जो उत्तम आचरण हैं, उन्हीं का अनुसरण करना, अन्य का नहीं |

इसका पालन करके हम अनुत्तम का परित्याग कर उत्तम को बनाये रख सकते हैं| उत्तम ही सत्य है, शिव है| उसका परित्याग करना मूर्खता हैं| आशा है, पाठक इसे पढकर मनु-सम्बन्धी भ्रान्तियों से बच सकेंगे, और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों से अवगत हो सकेंगे तथा उसे ग्रहण करने के लिए उद्यत होंगे |

निवेदक: डॉ. सुरेन्द्रकुमार

 

 

मनु का विरोध क्यों?

अंग्रेजी शासनकाल में अंग्रेजी-शासन के हितों से जुडे और ईसाईयत में दीक्षित कुछ पाश्‍चात्य लेखकों ने पहले-पहल, भारतीयों के मन में प्रत्येक उस वस्तु और व्यक्ति के प्रति योजनाबद्ध रुप से विरोधी संस्कार भरने का और उनकी आस्था भंग करने का षड्यन्त्र किया, जिनका परम्परागत रुप से भारत की अस्मिता, गरिमा और महिमा से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा था | इस प्रकार नींव पडी भारतीयता-विरोध परम्परा की| अंग्रेजी शासन के प्रभाव, ‘फूट डालो और राज करो’ की कूट राजनीति और मैकाले द्वारा प्रवर्तित कूट शिक्षानीति के सहारे वे कुछ भारतीयों को अपने रंग में रंगने में सफल हो गये | उन्होंने इस परम्परा को निभाया और आगे बढाया| इसी परम्परा में उभरे कुछ वे लोग और वर्ग जिन्होंने सर्वप्रथम समाजव्यवस्थापक, आदि विधिनिर्माता महर्षि मनु और उनके आदि विधानशास्त्र मनुस्मृति को अपनी निंदात्मक आलोचनाओं का केन्द्र बनाया| आज स्थिति यह है कि अंग्रेजी परम्परा में लिखी आलोचनाओं और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर मनु एवं मनुस्मृति का विरोध करना कुछ सामाजिक वर्गों का एक लक्ष्म बन बया है, तो अंग्रेजीदां लोगों की परिपाटी और कुछ राजनीतिक दलों का चुनाव जीतने का मुद्दा | हमारे राजनीतिक लोगों की बात सबसे निराली है|  अभी पिछले वर्षो में कुछ लोग पार्टी विभाजन होते ही एक ही रात में ‘मनुपुत्र’ से ‘गैरमनुपुत्र’ बन गये और सार्वजनिक मंचों से लगे मनु, मनुस्मृति और मनुपुत्रों को कोसने | एक राजनीतिक दल ने सत्ता प्राप्त करने के लिए ‘मनुवाद’ जैसे नये मुद्दे का आविष्कार कर डाला | कुछ वर्ष पूर्व जयपुर स्थित उच्च न्यायालय के परिसर में जब आदि विधिप्रणेता होने के कारण मनु की प्रतिमा स्थापित की गयी, तो कुछ लोगों को उस जड प्रतिमा को ही विवाद का विषय बना डाला, जो आज एक प्रकरण के रुप में उसी न्यायालय में विचाराधीन है| जबकि वास्तविकता यह थी कि प्रतिमा-विरोध को कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहचान बनाने का सुअवसर समझकर उसका अधिकाधिक लाभ उठाने की ताक में थे|

आश्‍चर्य तो तब होता है जब हम ऐसे लोगों को मनुस्मृति का विरोध करते हुए पाते हैं, जिन्होंने मनुस्मृति के पढने की बात तो दूर, उसकी आकृति तक देखी नहीं होती | एक दिन मुझे एक उच्चतर डिग्रीधारी ऐसे व्यक्ति मिले जो तुलसीदास की चौपाई ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र पशु नारी, ये सब ताडन के अधिकारी’’ को मनु का श्‍लोक कहकर मनु की आलोचना करने लगे | इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मनु का विरोध करनेवालों में मनु और मनुस्मृति के विषय में सामान्य ज्ञान का कितना अभाव हैं |


मानवधर्म शास्त्र का सार: पण्डित भीमसेन

विद्या यस्य सनातनी सुविमला, दुःखौघविध्वंसिनी।

वेदाख्या प्रथितार्थधर्मसुगमा, कामस्य विज्ञापिका।

मुक्तानामुपकारिणी सुगतिदा, निर्बाधमानन्ददा।

तस्यैवानुदिनं वयं सुखमयं भर्गः परं धीमहि।।1।।

यस्माज्जातमिदं विश्वं यस्मिंश्च प्रतिलीयते।

यत्रेदं चेष्टते नित्यं   तमानन्दमुपास्महे।।2।।

यदेव वेदाः पदमामनन्ति तपांसि यस्यानुगतास्तपन्ति।

शास्त्रं यदाप्तुं मुनयः पठन्ति, तस्यैव तेजः सुधियानुचिन्त्यम्।।3।।

दिक्कालाकाशभेदेषु परिच्छेदो न विद्यते।

यस्य चिन्मात्ररूपस्य नमस्तस्मै महात्मने।।4।।

सर्वासां सत्यविद्यानां मूलं वेदो निरुच्यते।

तस्यापि कारणं ब्रह्म तेन सृष्टौ प्रचारितः।।5।।

तस्य वेदस्य तत्त्वं हि मनुना परमर्षिणा।

तपः परं समास्थाय योगाभ्यासगतात्मना।।6।।

सारांशमखिलं बुद्ध्वा लोकानां हितकाम्यया।

धर्मः सनातनः स्मृत आपद्धधर्मश्च कालिकः।।7।।

प्रचाराधिक्यमापन्नः पुरा धर्मः सनातनः।

आसीदास्थाय सत्यां तां गुरुशिष्यपरम्पराम्।।8।।

या पश्चाज्छललोभाभ्यां मोहेन कलहेन वा।

अविद्योपासनेनापि   ब्रह्मचर्यादिवर्जनात्।।9।।

स्वार्थसाधनरागेण धर्मस्य परिवर्जनात्।

अधर्मसेवनेनापि नष्टा सत्या परम्परा।।10।।

तदा नानामतान्यासन् मनुष्याणामितरेतरम्।

श्रौतस्मार्त्तस्य धर्मस्य नाशस्तेनाभवत्पुनः।।11।।

स्वस्य स्वस्य मतस्यैव प्रचाराय पुनस्तदा।

विरुद्धपक्षसंसक्तैर्ग्रन्थानां निर्मितिः कृता।।12।।

ये च वेदानुगा ग्रन्थाः शुद्धा दृष्टा मतानुगैः।

तत्रापि सज्जितं वाक्यं स्वमतस्यैव पोषकम्।।13।।

तस्माच्च शुद्धग्रन्थानामार्षाणां श्रौतधर्मिणाम्।

धृतवर्णाश्रमतत्त्वानामद्य प्राप्तिः सुदुर्लभा।।14।।


वे मनु कौन थे जिन्होंने इस धर्मशास्त्र का उपदेश किया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

वे मनु कौन थे, जिन्होंने सबसे पहले धर्मशास्त्र का उपदेश मनुष्यों को दिया ? इस विषय में- मनु नामक कोई निज (खास) मनुष्य थे जो वेद की अनेक शाखाओं के पढ़ने, जानने और उनमें लिखे अनुसार आचरण करने में तत्पर और स्मृतियों की परम्परा से प्रसिद्ध हैं, यह मेधातिथि का लेख है। कुल्लूक भट्ट कहते हैं कि सम्पूर्ण वेदों के अर्थ आदि का मनन, विचार करने से उनका नाम मनु हुआ। नन्दन कहते हैं कि स्वायम्भुव का नाम मनु है। और गोविन्दराज ने लिखा है कि सम्पूर्ण वेद के अर्थ आदि को जानने से मनु संज्ञा को प्राप्त हुए, शास्त्रों की परम्परा से सब विद्वान् जिनके नाम को बराबर सुनते, जानते आये और परमेश्वर ने संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने के लिए जिनको नियत किया, ऐसे महर्षि का नाम मनु था। और व्यूलर साहब (इंग्लेण्ड देश निवासी जिन्होंने अंग्रेजी में मनुस्मृति पर भाष्य किया है) लिखते हैं कि कहीं तो ब्रह्मा का पौत्र मनु लिखा, कहीं मनु को प्रजापति माना गया, तथा कहीं (७.४२) मनु नाम राजा था ऐसा लिखा है, और कहीं (१२.१२३) मनु को साक्षात् ब्रह्म करके लिखा है, इसी मनुस्मृति में, ऐसे परस्पर विरुद्ध अनेक प्रकार के लेख हैं, जिससे यह निश्चय हो सकना कठिन है कि इस धर्मशास्त्र का बनाने वाला मनु कौन था। परन्तु व्यूलर साहब ने आगे यह भी लिखा है कि इस देश में सर्वोपरि धर्म का जानने वाला कोई मनु पहले हुआ जिसके नाम से ही धर्म की प्रशंसा चली आती है।

इस प्रसग् में इत्यादि प्रकार के लेख अलग-अलग लोगों के मिलते हैं, जिनमें सबकी एक सम्मति नहीं जान पड़ती। इस विषय में मैं अपनी सम्मति से निश्चय सिद्धान्त लिखता हूं, उसको सुनना चाहिये। सृष्टि के प्रारम्भ में पहले कल्प के अच्छे संस्कारों से जिनका आत्मा शुद्ध था, पहले जन्मों में अभ्यास की हुई विद्या से वेदार्थ के जानने में जिनकी बुद्धि तीव्र थी, पहले कल्प में सेवन किये पुण्य के समुदाय से जिनका अन्तःकरण शुद्ध था, इसी कारण तेजधारी चारों वेदों के ज्ञाता, सब संसार और परमार्थ के कर्त्तव्य को ठीक-ठीक जानने वाले मनुष्यों में सूर्य के तुल्य तेजस्वी तपस्या और योगाभ्यास करने में तत्पर विचारशील मनु नामक महर्षि हुए, उन्हीं का दूसरा नाम ब्रह्मा भी था, यह बात अनेक प्रमाणों वा कारणों से निश्चित सिद्ध है। इसी कारण उन मनु का स्वायम्भुव नाम भी विशेष कर घटता है, क्योंकि स्वयम्भू नाम परमेश्वर का इसलिए माना जाता है कि वह सृष्टि रचने के अर्थ स्वयमेव प्रकट होता है, अर्थात् सृष्टि के लिए उसको कोई प्रेरणा वा उद्यत नहीं करता। प्रलयदशा में रचना के सम्बन्धी कार्यों के न रहने से रचने से पहले रचना के आरम्भ का उद्योग करना ही उसका प्रकट होना कहाता है। इसी से उसको स्वयम्भू कहते हैं। चारों वेदों के जानने वाले देहधारी मनुष्य का तो स्वयम्भू नाम नहीं हो सकता, क्योंकि उस ब्रह्मा की उत्पत्ति परमेश्वर से अनेक ग्रन्थों में दिखाई गई है। यदि उन ब्रह्मा की स्वयमेव उत्पत्ति होती, तो परमात्मा के बिना अन्य मनुष्यादि की भी उत्पत्ति हो सकना सम्भव है (इस प्रसग् में अनेक लोगों का ऐसा मत है कि परमात्मा ने स्वयमेव ब्रह्मरूप बनकर संसार को उत्पन्न किया। इस अंश पर यहां विशेष विचार इसलिए नहीं लिखता कि यह प्रकरणान्तर है, और प्रकरणान्तर पर विचार चल जाने से मुख्य प्रकरण छूट जाता है, परन्तु इतना अवश्य कहता हूं कि परमेश्वर परस्पर विरुद्ध दो धर्मों को धारण कभी नहीं करता, वह सदा निराकार है, साकार कभी नहीं होता। वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव है, कभी शरीरादि में बद्ध नहीं होता, इसीलिये वेद में उसको अकाय१ लिखा है। तथा योगभाष्य में व्यास जी ने लिखा है कि- ‘वह सदैव मुक्त और सदा अनन्तशक्ति रहता है’२, शरीर धारण करे तो मनुष्यों के तुल्य शरीर में बद्ध और अल्पशक्ति अवश्य हो जावे, क्योंकि शरीर के परिच्छिन्न वा अन्तवाला होने से शरीर कदापि अमर्यादशक्ति वाला नहीं हो सकता। इत्यादि कारणों से स्वयम्भू का वैसा अर्थ करना ठीक नहीं हो सकता। किन्तु वही अर्थ ठीक है जो पूर्व लिखा गया) और परमेश्वर के बिना यदि अन्य मनुष्यादि की उत्पत्ति हो जावे, तो निरीश्वरवाद भी आ सकता है, क्योंकि फिर किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं रहेगी। और ब्रह्मा को मनु मानने से ही प्रथमाध्याय के इक्यावनवें (५१) श्लोक पर पं॰ नन्दन का किया व्याख्यान अच्छा प्रतीत होता है। क्योंकि वहां अचिन्त्यपराक्रम शब्द से नन्दन ने परमेश्वर का ग्रहण किया है तथा अन्य भाष्यकारों की सम्मति से ब्रह्म का ग्रहण होना प्रतीत होता है।


कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

मनु कौन है इसका प्रतिपादन करके अब द्वितीय प्रकरण का विचार किया जाता है कि किस समय, किसलिये, किस पुरुष ने यह धर्मशास्त्र बनाया ? लोक में मनुस्मृति वा मानव धर्मशास्त्र नाम से यह पुस्तक प्रचरित है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सब वेदों का अनुसन्धान- पूर्वापर विचार करके संसार के व्यवहार की व्यवस्था करने और अच्छे आचरणों का प्रचार करने के लिये सूत्रादि रूप वाक्यों में धर्म का उपदेश किया, किन्तु उस समय कुछ भी विषय पुस्तकाकार से लिखा नहीं गया था। उस उपदेश को शास्त्र करके मानना वा कहना विरुद्ध इसलिये नहीं है कि शास्त्रशब्द का व्यवहार लेखनक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन जी ने न्याय सूत्र के भाष्य में शास्त्र का लक्षण भी यही किया है कि ‘परस्पर सम्बन्ध रखने वाले अर्थसमूह का उपदेश शास्त्र है।’१ इससे लिखे वा छपे पुस्तक का नाम शास्त्र नहीं आता। मनु नाम ब्रह्मा जी ने वेद के अर्थ का अनुसन्धान करके वेद को मूल मानकर व्यवहार की व्यवस्था करने के लिये जो विचार किया वह मनुस्मृति कहाती है। और मनु नाम ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में कहा मानव धर्म उसका उपदेश जिसमें है, वह पद और वाक्यादि रूप मानवधर्म शास्त्र कहाता है। अथवा मनु जी के अनुभव से सिद्ध हुआ मानवधर्म, वह जिसमें कहा गया, वह मानवधर्मशास्त्र कहाता है। प्रोक्तार्थ में प्रत्यय करने से प्रतीत होता है कि मानवधर्म का मूल वेद है। क्योंकि किसी सनातन धर्मशास्त्र का आश्रय लेकर शास्त्र बनाया जाय, उसी में प्रोक्त प्रत्यय होता है। इसी कारण प्रोक्ताधिकार२ के पीछे ‘कृते ग्रन्थे3 प्रकरण पाणिनि ने रखा है। और प्र उपसर्ग पूर्वक वचधातु४ से सिद्ध हुए प्रयोगों की पढ़ाने, प्रचार करने, विशेष लुप्त हुए शास्त्रों को निकाल कर चलाने और प्रकारान्तर से व्याख्यान कर सबको जताने, अर्थ में यथासम्भव प्रवृत्ति होती है। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि महर्षि का आशय५ प्रोक्ताधिकार के व्याख्यान से प्रतीत होता है। ऐसा मानने से ही वेदों की संहिता के माध्यन्दिनीय और वाजसनेयी आदि नाम निर्दोष बन सकते हैं। अर्थात् माध्यन्दिन, वाजसनेय आदि ऋषियों के नाम से वेद की संहिताएं प्रसिद्ध हैं। इसका अभिप्राय यही है कि जिन-जिन ऋषि जनों ने उन-उन संहिताओं का विशेषकर अध्यापन वा उपदेश आदि द्वारा प्रचार कराया उन-उन के नाम से वे-वे पुस्तक प्रचरित हो गये। किन्तु उन पुस्तकों को ऋषियों ने बनाया नहीं।


सामान्यकर शास्त्र के विषय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

तीसरी कोटि में सामान्यकर शास्त्र के विषय को विचारना चाहिए यह लिख चुके हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायसूत्र के भाष्य में लिखा है कि ‘परस्पर सम्बद्ध प्रयोजनीय सुख के हेतु साधनों का जिसमें उपदेश किया जाय, वह शास्त्र है।’ इसी के अनुसार शास्त्र के विषय का विचार किया जाता है। प्रथम तो जानना अति आवश्यक है कि सब शास्त्र सुख तथा सुख के साधनों को प्राप्त करने की इच्छा और दुःख तथा दुःख के कारणों को छोड़ने की इच्छा को आगे कर बनाये गये, बनाये जाते और बनाये जावेंगे। इसमें सुख, सुख के कारण; दुःख, दुःख के कारण और इनकी प्राप्ति वा त्याग के भिन्न-भिन्न होने वा नाना प्रकार होने और कर्त्ताओं के भेद से शास्त्र अनेक होते हैं। और नीच प्रकृति वालों ने जो वेदविरुद्ध पुस्तक बनाये जिनमें प्रायः तमोगुण सम्बन्धी विषयों का वर्णन है। वे भी दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त होने की इच्छा से बनाये गये ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सब कोई पुरुष अपने वा अन्य के लिये दुःख तथा दुःख के साधनों को नहीं चाहता। यद्यपि कोई दुष्ट नीच प्रकृति वाला मनुष्य अपने से प्रतिकूल अन्य के लिये दुःख वा दुःख के कारणों का सञ्चय करते हैं तो भी उसके लिये संसारी व्यवहार के लिये यत्न करते हैं किन्तु वैसी द्वेषबुद्धि रखकर शास्त्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध होना सुगम नहीं प्रतीत होता। और जो दूसरे के मत खण्डन करना रूप उद्देश वा प्रयोजन को लेकर शास्त्र बनाया जाता है वहाँ भी अपने मत में दोष देने वाले हेतुओं के खण्डन से अपने दुःख का निवारण तथा अपने मत के गुणों के प्रकाशित करने से अपने को सुख पहुँचाना ही मुख्य प्रयोजन है। अर्थात् सब स्थलों में विचार कर देखा जाय तो अविद्याग्रस्त पुस्तक भी केवल किसी को दुःख मात्र पहुँचाने के लिये नहीं बनाये जा सकते। हां किसी समुदाय वा निज को उससे भले ही दुःख हो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अर्थात् सब शास्त्रों के बनाने वालों का मुख्य प्रयोजन वा विषय यही होता है कि कारणों के सहित दुःख को हटाकर सुख और सुख के साधन धनादि वस्तु प्राप्त हों।


धर्म शब्द के अर्थ का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सामान्य धर्म शब्द पर कुछ विचार करना आवश्यक इसलिये समझा गया कि हमको धर्मशास्त्र की मीमांसा करना है तो प्रथम जान लेना चाहिए कि धर्म किस वस्तु का नाम है ? वस्तु शब्द से यहाँ वाच्यमात्र का विचार है किन्तु द्रव्य का पर्यायवाचक वस्तु शब्द नहीं लेना है। प्रयोजन यह है कि धर्मशब्द का शाब्दिक वा लाक्षणिक अर्थ क्या है ? अर्थात् व्याकरण के नियमानुसार मनुष्य जिसको     धारण करें, वह धर्म है। ऐसा होने पर वेदादि शास्त्रों में जिसका निषेध किया गया, ऐसे चोरी आदि दुष्कर्म को भी कोई धारण करता वा कर सकता है तो क्या उसको भी धर्म कहना ठीक हो सकता है ? ऐसा विरुद्ध निश्चय वा सन्देह हो सकने से इसका यह समाधान कहा जाता है- धृञ् धारणे1 इस धातु से कर्म कारक वा भाव में उणादि मन् प्रत्यय2 हुआ है। सामान्य वा विशेष मनुष्य अथवा चराचर सब वस्तुमात्र जिसको धारण करते, जिसके आधार होते अथवा मनुष्य वा प्राणी-अप्राणियों से जो धारण किया जाता अर्थात् उनको धारण करने पड़ता है, वह धर्म कहाता है। यह धर्म का शाब्दिक अर्थ है। कदाचित् किसी प्रकार अन्य कारकों में भी मन् प्रत्यय हो सके, परन्तु प्रधानता से भाव और कर्म का ही अर्थ मिल सकता है। भाव अर्थ में प्रत्यय करने से धृति- धैर्य, क्षमा आदि धारणरूप हैं। इस कारण इनका भी नाम धर्म हो सकेगा।


विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब विधि, निषेध, अनुवाद वा सिद्धानुवाद और अर्थवाद, जिनका उद्देश्य चतुर्थ संख्या में लिख चुके हैं, उनका विचार किया जाता है। इनमें विधि नाम आज्ञा (हुक्म) का है कि ऐसा करो, और ऐसा मत करो, यह निषेध है, सो भी विधि के साथ ही लग जाता है। अनुवाद- कही बात वा विषय को ह्लि र से कहना। सिद्धानुवाद- एक अनुवाद का ही भेद है। जो वस्तु वा कार्य लोक की वर्त्तमान परिपाटी के अनुसार वा स्वभाव से संसार में होता है, उसका कहना सिद्धानुवाद कहाता है। वेद और वेदानुकूल शास्त्रों में जिसके लिये कहा गया कि यह इस प्रकार कर्त्तव्य कहा है, वह कर्म और उस कर्म के सेवन से संचित हुए शुभ संस्कार भी धर्मसंज्ञक हैं, यह पूर्व भी कह चुके हैं, तिससे सिद्ध हुआ कि जिसके करने वा न करने की आज्ञा दी गयी, उसका वैसा ही करना वा न करना धर्म कहाता है। शुभ की विधानपूर्वक निषिद्ध की निषेधपूर्वक करने, न करने की आज्ञा देना ही धर्म है। जैसे जिससे दुःखी हो उससे भी मर्मच्छेदन करने वाले, कठोर वाक्य न बोले, यहां मर्मच्छेदन न करना भी धर्म ही है। अथवा ‘कठोर मर्मच्छेदक वाक्य न बोले चाहे दुःखी भी हो’ यह वाक्य अधर्म को हटाने वाला होने से     धर्मशास्त्र वा धर्मशासक है। ऐसा होने से विधिवाक्य ही धर्म को जताने वाले हो सकते हैं, अन्य नहीं, यह सिद्ध हुआ।

श्रेष्ठ लोगों के माने हुए वा बनाये हुए गद्य-पद्यक्रम वाक्य समुदायों


कर्मफल और मुक्ति का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से कर्मफलों का विचार किया जाता है। धर्म वा अधर्म का संचय कराने वाले शास्त्रों में कर्त्तव्य बुद्धि से विधान किये वा छोड़ने के लिये निषिद्ध किये शुभ-अशुभ अच्छे-बुरे दो प्रकार के कर्म हैं। उनके फल भी वैसे ही शुभ-अशुभरूप होते हैं। वे कर्म मन, वाणी और शरीर में उत्पन्न होने से तीन प्रकार के हैं। मानस कर्मों का फल मन से, वाचिकों का वाणी से और शरीर से होने वाले कर्मों का फल शरीर से ही इस जन्म में वा जन्मान्तर में मनुष्य भोगता है। इन्द्रियादि साधन और भोग के आधार शरीर के साथ रहने पर ही जीवात्मा का कर्त्ता-भोक्ता होना विद्वान् लोग स्वीकार करते हैं और इसी से केवल आत्मा के भोक्ता होने का निषेध भी करते हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायभाष्य में लिखा है कि- ‘शरीररहित आत्मा को कुछ भोग नहीं होता’१ और केवल शरीरादि भी सुख-दुःखादि के   साधन नहीं हो सकते अर्थात् इन्द्रिय और शरीर के द्वारा मनुष्य को सुख-दुःख का भोग प्राप्त होता है। जब धर्म का अधिक सेवन करता है तो सर्वोत्तम स्वर्गनामक सुख को प्राप्त होता और अधर्म के अधिक सेवन से नरकनामक विशेष दुःख पाता है। कर्मों से ही प्राणियों के शरीरों में प्रधान सत्त्वादि गुण और उनके अवयवरूप अवान्तर भेद प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘ज्ञानरूप सत्त्वगुण अज्ञानस्वरूप तमोगुण और रागद्वेषरूप रजोगुण माना है। अर्थात् इस शरीर में कर्मभेद से न्यूनाधिकभाव को प्राप्त हुए सत्त्वादिगुण व्याप्त रहते हैं।’२ कर्म के भेद से ही ऊंच-नीच अधिकारों और ऊंच-नीच योनियों में लिग्शरीर के सहित जीवात्मा प्रतिक्षण भ्रमते रहते हैं। इसीलिये मनु ने बारहवें अध्याय में कहा है कि- ‘इस जीवात्मा की अपने कर्म से ही अनेक प्रकार की दशा संसार में देख तथा धर्म और अधर्म के मेल को छोड़कर केवल धर्म में मन को धारण करे।’३ जिन-जिन शुभ वा अशुभ कर्मों का सेवन मनुष्य वर्त्तमान जन्म में करता है, उन कर्मों का यदि उसी शरीर में फलभोग नहीं होता तो उसको जाति कि कैसे कुल में जन्म होना, अवस्था कितनी और कैसा भोग हो यह तीन प्रकार का फल जन्मान्तर में होता है। इन्हीं फलरूप जाति आदि का विशेष विस्तार मनु आदि महर्षियों ने अपने अनुभव से किया है कि ऐसा-ऐसा कर्म करने से जन्मान्तर में अमुक-अमुक जाति वा योनि में जन्म होता है। सो यह बुद्धि के पार पहुंचे ज्ञान से देखने वाले लोकोत्तर पण्डित लोगों को वर्त्तमान प्रत्यक्ष शरीरों में किन्हीं लक्षण वा चिह्नों को देखकर भूतपूर्व उनके कारणों का यथार्थ अनुमान कर लेना कुछ आश्चर्य नहीं है कि- यह जीवात्मा इससे पूर्वजन्म में अमुक योनि वा जाति में रहकर अमुक कर्म करता रहा उस कर्म का यह जाति आदि रूप इस समय फल प्राप्त हुआ है।


प्रायश्चित्त का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से प्रायश्चित्तविषय का विवेचन किया जाता है। प्रायश्चित्त यह शब्द कर्मविशेष का नाम है कि दुष्ट कर्मों के सेवन से उत्पन्न हुई व्याकुलता वा विषमता की निवृत्ति के लिये वेदवेत्ता विद्वानों की आज्ञा से मनुष्य जिसका सेवन करते हैं वह प्रायश्चित्त कर्म कहाता है। प्राय शब्द से परे चित्त या चित्ति शब्द को वार्त्तिक१ से सुट् का आगम होकर यह प्रायश्चित्त शब्द बनता है। सो इसका ऐसा ही विद्वानों ने लाक्षणिक अर्थ भी माना है कि- ‘प्रायः नाम तप और चित्त नाम निश्चय करके युक्त कर्म का नाम प्रायश्चित्त है। चित्त को सम करने के लिये अर्थात् चित्त की विषमता मेटने के लिये जो दिया वा बताया जाता और जिसका सेवन विशेष आन्दोलन के साथ विद्वानों की सभा कराती है वह कर्म प्रायश्चित्त कहाता है।२ इन श्लोकों में सभा के द्वारा कराने की आज्ञा दिखाने से ज्ञात होता है कि राज्यसभा के तुल्य वेदवेत्ता विद्वानों की सभा ने देश-कालादि का विचार करके करने को कहा कर्म प्रायश्चित्त कहाता है। अर्थात् राजदण्ड के तुल्य प्रायश्चित्त भी एक प्रकार का दण्डभोग है। इसी कारण यदि न्यायपूर्वक अपराधानुकूल ही दुष्ट कर्म का फल राजदण्ड भोग लिया हो तो पीछे इस जन्म वा जन्मान्तर में दुष्ट कर्म का बुरा फल नहीं मिलेगा। किन्तु वह अपराधी उस पाप से फिर छूट जाता है। वैसे ही यथार्थ रीति से प्रायश्चित्त कर लेने पर वह अपराधी उस पाप से छूट जाता है जो चोर, डाकू आदि पापकर्म करके उसका दुःख फल भोगना नहीं चाहते उनको राजा बलपूर्वक दण्डादि द्वारा वश में रखकर निर्बल धर्मात्माओं


आपद्धर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब आपद्धर्मविषय का विचार किया जाता है। धर्म दो प्रकार का है- एक सनातन धर्म और दूसरा आपद्धर्म कहाता है। स्वस्थदशा में सेवने योग्य वेदादि शास्त्रों में कर्त्तव्य मानकर मनुष्यों के लिये कहा गया सनातनधर्म है। जब सनातन धर्म के सेवने से मनुष्य का निर्वाह नहीं हो सकता वा सनातन धर्म के सेवन में असमर्थ हो जाता है उस समय में जिस प्रकार निर्वाह करने के लिये धर्मशास्त्रकारों ने आज्ञा दी है वह आपद्धर्म है। जिस-जिस ब्राह्मणादि वर्ण के जो-जो अध्यापनादि धर्म सम्बन्धी कर्म धर्मशास्त्र में कहे हैं, उनका सेवन करना यदि किसी प्रकार देश, काल वा वस्तु के भेद से असम्भव हो तो भी सर्वथा अज्ञानान्धकाररूप अधर्म के गड्ढे में न गिरना चाहिये किन्तु आपद्धर्मरूप स्वल्पधर्म के सेवन से भी निर्वाह करना अच्छा है। जैसे उत्सर्ग करने पर अपवाद स्वयमेव प्रवृत्त होता है अर्थात् सामान्यकर किसी बात के कहने पर विशेषता स्वयमेव खड़ी हो जाती है जैसे    धर्मशास्त्र वा वैद्यकशास्त्र में सब काल में सबके लिये सामान्य कर दिन में सोने का निषेध है। परन्तु अपवादरूप से विधान करने पड़ा कि रात को जागने की दशा में ग्रीष्म ऋतु और अजीर्णतादि रोगों में नियत काल तक मनुष्य को दिन में सोना चाहिये। ऐसे अपवादों को कोई रोक नहीं सकता अर्थात् जहां सामान्य की प्रवृत्ति होना दुस्तर हो जाती है वा हो सकने पर उससे विशेष हानि होना सम्भव होता है तब अपवाद दशा खड़ी की जाती है वा करने पड़ती है। वैसे ही आपत्काल स्वयमेव आया करते हैं। उस समय जो कर्त्तव्य है वही आपद्धर्म है। सनातनधर्म में बाधा डालने वाला आपद्धर्म हो ऐसी शटा नहीं करनी चाहिये। जैसे अपने वर्ण की एक स्त्री के साथ द्विजों का विवाह होना सनातनधर्म है और विधवाओं का आपत्काल में नियोग होना आपद्धर्म है। उस नियोग की गर्भहत्या वा लोक में व्यभिचार द्वारा बुराई फैलने आदि की अपेक्षा उत्तमता और धर्म मानना हो सकता है कि जो एक स्त्री के साथ नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति होने से नियुक्त दोनों स्त्री-पुरुषों की एक सन्तान में प्रीति बढ़ती है। विवाह की अपेक्षा वा विधवा स्त्री को  ब्रह्मचर्य (पतिव्रत) धर्म धारण करके जन्म व्यतीत कर देने की अपेक्षा नियोग की उत्तमता नहीं है। इसी कारण जो स्त्री वा पुरुष सनातनधर्म के सेवन से निर्वाह कर सकता है उसके लिये नियोग नहीं है। यदि नियोग कर लूंगी ऐसा मानकर कोई स्त्री अपने पति को मार डाले तो भी नियोग करना दूषित नहीं होता क्योंकि जिस बुराई से बचने और इष्ट की प्राप्ति के लिये जो काम किया जाता है उससे वैसा प्रयोजन सिद्ध न करके कोई विरुद्ध काम करे तो वह करने वाले को दोष है।


वर्णसंकर का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब वर्णसंकर विषयक विचार किया जाता है, जिसके विषय में यह मुख्य वा प्रथम श्लोक है कि- ‘ब्राह्मणादि वर्णों का परस्पर व्यभिचार होने अर्थात् किसी वर्ण की स्त्री का किसी अन्य वर्ण के पुरुष से गुप्त वा प्रसिद्ध संयोग होने से तथा जिनके साथ विवाह न करना चाहिये उन भगिनी आदि के साथ विवाह कर लेने और अपने वर्ण के कर्मों को छोड़कर अन्य वर्ण के कर्मों का सेवन करने लगने से मनुष्य वर्णसंकर हो जाते हैं।’ अर्थात् पहले दो कर्मों से उत्पन्न होने वाले आगे वर्णसंकर बनते और उनके माता-पिता वर्णसंकर  नहीं होते किन्तु कुत्सित कर्म से निन्दित अवश्य हो जाते हैं। और तृतीय अपने कर्मों के त्याग से वे ही त्यागने वाले वर्णसंकर  हो जाते हैं। वर्णसंकर  होने में ये तीन कारण हैं।’१ ब्राह्मणादिवर्णों के अपने कर्म पढ़ने-पढ़ाने आदि धर्मशास्त्रोक्त हैं। व्यभिचार यहां दो प्रकार का लेना है। एक तो अपने-अपने वर्ण की उन स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ विवाह नहीं हुआ। और द्वितीय अपने से भिन्न वर्णों की उन दोनों प्रकार की स्त्रियों से संयोग करना जिनके साथ उस पुरुष का विवाह हुआ वा न हुआ हो, ऐसी अनुलोम-प्रतिलोम दोनों वर्ण की स्त्रियों से संयोग करना भी व्यभिचार ही है। ऐसे व्यभिचार कर्म से उत्पन्न होने वाले सब वर्णसंकर कहाते हैं।


सपिण्डता और स्त्रीदाय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब सापिण्ड्य शब्द पर कुछ विचार किया जाता है। समान और पिण्ड शब्द को मिलाकर सपिण्ड शब्द बनता है। उससे भाव-कर्म अर्थ में ष्यञ् प्रत्यय१ होकर सापिण्ड्य शब्द सिद्ध होता है। वीर्य-रुधिरादि की परम्परा से जिनका पिण्डनाम देह एकता को प्राप्त है, वे मनुष्य परस्पर सपिण्ड कहाते हैं। अथवा इस शब्द का द्वितीय अर्थ यह भी हो सकता है कि योनिसम्बन्ध की समीपता से पिण्डनाम ग्रासोपलक्षित भोजन व्यापार जिनका एक है जिनको सब प्रकार का भोजन परस्पर मिलकर करने में किसी प्रकार की घृणा नहीं उनको भी सपिण्ड कह सकते हैं। जिन पुत्रादि वा जिन पितादि को जिन अपने सम्बन्धी आदि का भोजन न्यायपूर्वक करना चाहिये, वे उनके सपिण्डी कहे वा माने जाते हैं। इस सिद्धान्त पर जो अतिव्याप्ति दोष आ सकता है उसकी निवृत्ति आगे की गई है


दायभाग का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से दायभागसम्बन्धी विचार किया जाता है। इस विषय में नारदस्मृति का वचन है कि- ‘पिता की वस्तु का पुत्र लोग जो बांट करते हैं, उसको विद्वान् लोगों ने व्यवहार की व्यवस्था का हेतु होने से दायभाग कहा है।’१ दायशब्द एक प्रकार के धनादि वस्तु का नाम है जिस पर न्यायानुकूल किसी अपने सम्बन्धी का स्वत्व (हक) हो। जिस धनादि वस्तु को न्यायपूर्वक जो ले सकता है वह उसी का दाय है और वह पुरुष उस वस्तु के स्वामी का दायाद (वारिस) कहाता है। यहां दायनामक धन केवल रुपये आदि का ही वाचक नहीं है, किन्तु जो कुछ पृथिवी आदि सुखसाधन पितादि का वस्तु है, वह सब दाय ही है इस प्रकार के दाय का विवेचन करके कि (किसको क्या मिलना चाहिये) विभाग करना दायभाग कहाता है। वह दाय दो प्रकार का माना जाता है- चाचा वा नाना आदि के जब कोई निज पुत्र न हो और उनका स्वयं भी शरीर छूटने पर आवे तो उनका धनादि दाय विवाद सहित होता है और पिता वा पितामह का उनके न रहने पर पुत्र वा पौत्रादि को लेने योग्य दाय निर्विवाद माना जाता है। कहीं सविवाद जिसमें किसी प्रकार का झगड़ा है, वह झगड़े से रहित हो जाता और जिसमें झगड़ा नहीं उसमें भी कहीं झगड़ा खड़ा हो जाता है, इसीलिये महर्षि लोगों ने दायभाग के विवेचनार्थ धर्मशास्त्र बनाये और उससे भी बचे हुए का सामयिक न्यायालयों में राजाओं के द्वारा निर्णय होता रहता है।


राजधर्म का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से राजधर्म का विवेचन किया जाता है। लोक में राजन् शब्द क्षत्रियवर्ण वा जातिमात्र का भी वाचक मिलता है। इसी कारण राजा नाम क्षत्रियमात्र के धर्म को भी राजधर्म कह सकते हैं। तथा राजानाम प्रजा के रक्षक मनुष्यों में ईश्वर नाम सर्वोपरि सामर्थ्यवान् स्वामी, विशेष ऐश्वर्य से प्रकाशवान् होने से लोक में प्रसिद्ध राजा का भी वाचक राजन् शब्द है, इस कारण उसके धर्म को भी राज- धर्म कहते हैं। इस प्रकरण में जिस किसी प्रकार दोनों अर्थ घट सकते हैं क्योंकि इन दोनों राजपदवाच्यों का किन्हीं अंशों में साधर्म्य अपेक्षित है। क्योंकि सेनादि में रहने वाले सभी क्षत्रिय प्रजाओं की रक्षा करते हैं, किन्तु एक प्रधान राजा ही सबकी रक्षा नहीं कर सकता। परन्तु तो भी मुख्यकर प्रजारक्षक अधिष्ठाता राजा के ही धर्म का विवेचन अपेक्षित है। राजधर्म की इस ग्रन्थ के सात से नौ अध्याय तक तीन अध्यायों में विवेचना की गयी है। उसका विशेष व्याख्यान तो वहीं देखना चाहिये, यहां केवल धर्म की प्रधानता दिखाते हैं- जिस देश में धर्मपूर्वक राज्य होता है वहां की प्रजा सब सुखों से युक्त और सन्तुष्ट होती है, यही अच्छे राज्य और धर्मात्मा राजा का लक्षण है। राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजाओं में चोर, डाकू, लुटेरे और रिश्वतखोर आदि सूर्य के उदय में अन्धकार के तुल्य नष्ट हो जाते हैं। जब राजा प्रधान वा मुख्य है तो उसी के तुल्य गौण प्रजा भी होगी, क्योंकि यह लोक वा शास्त्र का नियम है कि- प्रधान के तुल्य गुण-कर्म-स्वभाव वाला गौण भी हो जाता है।


वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का संक्षेप से विचार किया जाता है। मनुष्य पहली अवस्था में वेदादि शास्त्रों में लिखे अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम को धारण करके वेदादि शास्त्रों की शिक्षा को प्राप्त करके गृहाश्रम में विवाह कर धर्मपूर्वक पुत्रों को उत्पन्न और उनको समर्थ करके पचास वर्ष की अवस्था से ऊपर गृह से निकलकर वन में बसे। वन में बसना यहां उपलक्षण मात्र है। अर्थात् घर से बाहर कहीं एकान्त में जहां बसने से मन की अत्यन्त स्थिरता और अन्तःकरण के सब सन्देहों की निवृत्ति हो। इस प्रकार मन की शुद्धि होना ही जगत् के उपकार और अपने परमकल्याण मुक्ति आदि को प्राप्त होने के लिये सर्वोपरि उपाय है। एकान्त में बसने के बिना चित्त का वैसा समाधान सब कोई नहीं कर सकते। यदि कोई विशेष अधिकारी विरला मनुष्य घर में रहता हुआ ही तप कर सकता हो तो उसके लिये घर से निकलकर वन में बसने का यहां विधान नहीं है। क्योंकि इसी छठे अध्याय में लिखा है कि- ‘यहां तक सामान्य कर संन्यासियों का धर्म कहा अब आगे विशेष वेदसंन्यासियों का धर्म कहते हैं।’१ ‘सब कर्म और उनके फलभोग की उत्कण्ठा को छोड़कर कर्म के दोषों को छोड़ता हुआ नियमपूर्वक वेद का अभ्यास करके पुत्र और ऐश्वर्य के साथ ही मरणपर्यन्त निवास करे।’२ यहां राजा जनकादि का उदाहरण जो शतपथादि में लिखा है वही विशेष दृष्टान्त है। अर्थात् पूर्वकाल में ऐसे बहुत ऋषि-महर्षि हो गये, जो घर में रहते हुए ही वैसे काम कर सकते थे। इत्यादि प्रकार से जो घर में रहते हुए ही गृहाश्रम की सफलता हुए पीछे पांचों इन्द्रियों को वश में करनारूप तप कर सकते हैं, उनको पचास वर्ष की अवस्था के पश्चात् अपनी स्त्री के साथ भी कामासक्ति को सर्वथा छोड़कर घर में रहते हुए ही वानप्रस्थाश्रम का काम- तप करना चाहिये। क्योंकि तप करने के लिये वानप्रस्थाश्रम है


सूतकशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्रव्य और सूतक की शुद्धि का कुछ विचार किया जाता है। इस आशौचप्रकरण में पहली प्रेतशुद्धि अर्थात् किसी के मरने पर जो अशुद्धि मानी जाती है, वह आशौच शोक से होता है। जहां अपने किसी प्रिय वा इष्टमित्रादि का मरणरूप वियोग होता है, वहां प्रीति और मित्रतादि के न्यूनाधिक होने से सबको शोक भी न्यूनाधिक होता है। जब किसी कारण से मन और शरीर की आकृति को ग्लानि प्राप्त होती है, उसको अशुद्धि का सामान्य लक्षण जानो। किसी पिता आदि अपने सम्बन्धी के मरने पर मनुष्य के चित्त में स्वयमेव ग्लानि और शोक उत्पन्न हो जाता है, और मन, वाणी तथा शरीर के मलिन, शोकातुर होने पर शुद्ध, पवित्र वा प्रसन्न मन, वाणी और शरीरों से सेवने योग्य शुभ कर्म ठीक सिद्ध नहीं हो सकते। उनका अनध्याय रखने के लिये और सर्वसाधारण को अपनी शोकदशा जताने के लिये कि हम ऐसी दशा में हैं। हमसे सब कोई ऐसा व्यवहार न करें जैसा प्रसन्न दशा में करना योग्य है, इत्यादि विचार से शोक के दिनों की अवधि और उन दिनों में अपनी विशेष दशा [कुशादि के आसन पर, पृथिवी पर बैठे रहना, खटिया पर न सोना, न लेटना, स्त्री के पास न जाना, सुगन्धि आदि न लगाना आदि] रखनी चाहिये। पहले हुए विचारशील ऋषि-महर्षि लोगों ने विचारपूर्वक अनुमान किया कि इतने काल में शोक की निवृत्ति हो सकेगी, उतना काल अशुद्धि का बताया गया।


सूतकशुद्धि और द्रव्यशुद्धि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब द्रव्य और सूतक की शुद्धि का कुछ विचार किया जाता है। इस आशौचप्रकरण में पहली प्रेतशुद्धि अर्थात् किसी के मरने पर जो अशुद्धि मानी जाती है, वह आशौच शोक से होता है। जहां अपने किसी प्रिय वा इष्टमित्रादि का मरणरूप वियोग होता है, वहां प्रीति और मित्रतादि के न्यूनाधिक होने से सबको शोक भी न्यूनाधिक होता है। जब किसी कारण से मन और शरीर की आकृति को ग्लानि प्राप्त होती है, उसको अशुद्धि का सामान्य लक्षण जानो। किसी पिता आदि अपने सम्बन्धी के मरने पर मनुष्य के चित्त में स्वयमेव ग्लानि और शोक उत्पन्न हो जाता है, और मन, वाणी तथा शरीर के मलिन, शोकातुर होने पर शुद्ध, पवित्र वा प्रसन्न मन, वाणी और शरीरों से सेवने योग्य शुभ कर्म ठीक सिद्ध नहीं हो सकते। उनका अनध्याय रखने के लिये और सर्वसाधारण को अपनी शोकदशा जताने के लिये कि हम ऐसी दशा में हैं। हमसे सब कोई ऐसा व्यवहार न करें जैसा प्रसन्न दशा में करना योग्य है, इत्यादि विचार से शोक के दिनों की अवधि और उन दिनों में अपनी विशेष दशा [कुशादि के आसन पर, पृथिवी पर बैठे रहना, खटिया पर न सोना, न लेटना, स्त्री के पास न जाना, सुगन्धि आदि न लगाना आदि] रखनी चाहिये। पहले हुए विचारशील ऋषि-महर्षि लोगों ने विचारपूर्वक अनुमान किया कि इतने काल में शोक की निवृत्ति हो सकेगी, उतना काल अशुद्धि का बताया गया।


मूर्त्तिपूजा का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पूजा वा उपासना विषय में मूर्त्तिपूजा का विचार किया जाता है। इस मानव धर्मशास्त्र में सावित्री मन्त्र१ के जप की सब प्रकार प्रधानता२ दिखायी है। इस मन्त्र में सब जगत् का रचने वाला परमेश्वर ही उपासना के योग्य बतलाया गया है। किन्तु कोई पत्थर आदि की मूर्त्ति उपासना के योग्य नहीं ठहराई गई। इसी प्रकार की उपासना वेद और योगशास्त्र के अनुकूल है। वेद में लिखा है कि- ‘तू एक असहाय अनुपम आदि विशेषण युक्त है, ऐसी हम उपासना करते हैं।’३ तथा योगशास्त्र में लिखा है कि- ‘ओटार वा ओटारयुक्त गायत्री का वाणी वा मन से जप करना तथा उसके वाच्यार्थ परमात्मा का अपने चित्त में बार-बार विचार और ध्यान तथा उसके गुणों का चिन्तन करना उपासना है।’४ मानव धर्मशास्त्र के अन्य स्थलों में भी जहां-जहां उपासना का प्रकरण है, वहां-वहां वेदमन्त्रों के साथ ही प्रतीत होता है। ऐसा मानकर ही अग्निहोत्र में भी उपस्थानसंज्ञक वेदमन्त्रों से मुख्यकर परमात्मा की ही स्तुति की है। जिस कर्म में वा जिस कर्म से देव नाम परमेश्वर की पूजा होती है, वह अग्निहोत्र कर्म देवयज्ञ कहाता है। अर्थात् उपासना प्रसग् में देव शब्द परमेश्वर का वाचक है, यही सिद्धान्त जानो। बारहवें अध्याय में मनु ने भी कहा है कि- ‘सर्वव्याप्त परमेश्वर का ही नाम देव है, अर्थात् जितने देव के अवान्तर भेद आते हैं, वे सब आत्मा के नाम हैं और उसी एक में सब संसार ठहरा हुआ है।’४ इससे जहां-जहां देवता पद से उपासना कही जाती है, वहां-वहां आत्मा की ही उपासना जाननी चाहिये। इसी कारण “देवताभ्यर्चनम्” इत्यादि वाक्यों से परमात्मा की ही उपासना वेदमन्त्रों द्वारा सिद्ध होती है। प्रातःकाल की उपासना में और भी कहा है कि- ५. ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशांश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च।। ‘प्रातः कुछ        अन्धेरे ही उठकर वेद के तत्त्वार्थ [कि मुख्यकर वेद में जिसका व्याख्यान है उस] परमात्मा का चिन्तन करे।’५ यहां वेद शब्द के साथ रहने से पौराणिक पाषाणादि मूर्त्तियों का चिन्तन नहीं आ सकता। तथा प्रामाणिक सज्जन विद्वानों के माने हुए व्याकरण-कोषादि ग्रन्थों में पाषाणादि मूर्त्तियों का वाचक देवशब्द कहीं नहीं मिलता।


दानधर्म का विवेचन : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब दानधर्म का संक्षेप से विवेचन किया जाता है। यद्यपि इस दानधर्म विषय में विशेषता से इसलिये कुछ वक्तव्य नहीं है कि इस चतुर्थ अध्याय में सब विषय स्पष्ट कर कहा है। और भाष्य में और भी स्पष्ट हो जायेगा। तो भी संक्षेप से दान का सिद्धान्त कहा जाता है। इस चौथे अध्याय में छियासीवें श्लोक से लेकर अध्याय की समाप्ति पर्यन्त दान का ही विवेचन किया है। दानधर्म में पांच अवयवों की मुख्यकर परीक्षा करनी चाहिये। दान देने तथा लेने वाला, जिस वस्तु का दान दिया जाय और वह तीसरा, चौथा दान का समय और पांचवें दान का देश कि किस प्रान्त में दान करना उपयोगी वा अनुपयोगी है। कैसे दाता को दान देना चाहिये, किसको दान देने का अधिकार है, और दान लेने वाला कैसा हो इत्यादि प्रकार से दाता को उचित-अनुचित का विचार कर दान करना चाहिये। वही सम्यक् उत्तम दान है। गुणों के तीन भेद होने से दान भी तीन प्रकार का है सो भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय में कहा है कि- ‘वेदादि शास्त्रों में दान देना लिखा है इस कारण शास्त्र की आज्ञानुसार दान देना चाहिये, किन्तु यह न विचारा जाये कि इससे मुझको फल मिलेगा वा नहीं किन्तु निष्कारण अपना कर्त्तव्य समझकर जो दान ऐसे पुरुष को दिया जाता है जिससे अपना कुछ भी कार्य सिद्ध नहीं होता। तथा जिस दान में देने योग्य देश-काल और सुपात्र का विचार कर लिया जावे, वह दान सात्त्विक अर्थात् सत्त्व गुण सम्बन्धी होने से सर्वोत्तम है।’१ ‘और जो प्रत्युपकार होने के लिये कि जिसको हम दान देते हैं उससे हमारा अमुक काम निकलेगा वा मुझको इस दान से अमुक फल मिलेगा इसलिये दान देना चाहिये। इस प्रकार किसी प्रकार के दबाव, परवशता वा लोकलज्जादि के कारण अपने पर भार समझकर दिया जाता है, वह दान रजोगुण सम्बन्धी मध्यम समझा जाता है।’२


पठन-पाठन में अनध्याय पर विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब पठनपाठनविषयक विचार किया जाता है। इस मानवधर्मशास्त्र के चौथे अध्याय में पिच्यानवे (९५वें) श्लोक से लेकर एक सौ सत्ताईसवें (१२७वें) श्लोक पर्यन्त तेंतीस श्लोकों में अनध्याय का विचार किया गया है। यद्यपि संसार के सब कर्मों के किसी-किसी समय पर जिस किसी प्रकार अनध्याय होने चाहियें। अर्थात् मनुष्यों के चलाये सभी कर्म किसी-किसी उत्सवादि समय विशेष में अवश्य रुक जाते हैं। उस समय वा उन दिनों में कर्मचारी लोग छुट्टी पर समझे जाते हैं। और अनेक अवसरों में वे कर्म परतन्त्रता से मनुष्यों को अवश्य छोड़ने पड़ते हैं। जैसे ईश्वरीय सृष्टि में सूर्य के उदय, अस्त नियमपूर्वक सदा चले जाते, उनका निरोध कभी नहीं दीखता, क्योंकि उन सूर्यादि का नियामक सर्वज्ञ परमेश्वर है। अर्थात् सर्वज्ञ के चलाये नियम में अनध्याय वा निरोध कभी नहीं दीखता। वैसे मनुष्य के चलाये नियमों में नहीं हो सकता, क्योंकि वे अल्पज्ञ हैं। मनुष्य बीच-बीच में थकने, रोगी होने वा उदासीन होने से काम छोड़ देते हैं, उस समय स्वयमेव कार्यों का अनध्याय हो जाता है। जैसे ‘दुर्गन्धरूप प्रान्त में चित्त के व्याकुल होने से मनुष्य को शुभकर्म का आरम्भ नहीं करना चाहिये’, यह        धर्मशास्त्रों में आज्ञा दी गयी है। और अनध्याय करने वा होने का यही प्रयोजन है कि जो उस निकृष्ट देश वा काल वा अवस्था में किया हुआ कर्म अच्छा वा विशेष फल देने वाला नहीं होता, इसलिये वैसे अवसर में निषेध किया गया है। तो भी सब कर्मों के रोकने वा अनध्याय का यहां विचार नहीं किया जाता, किन्तु पठनपाठन विषयक अनध्याय का विवेक करना प्रारम्भ किया है। अन्य विषयों का भी यथावसर विचार वा व्याख्यान होगा।


विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब गृहाश्रम के प्रसग् में विवाह, नियोग और पुनर्विवाहों का विचार किया जाता है कि इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है ? ब्रह्मचर्य आश्रम सेवन के पश्चात् मनुष्य को गृहाश्रम का प्रारम्भ करना चाहिये। उसमें विवाह करना ही गृहाश्रम का मुख्य स्वरूप है। इसी कारण गृह नाम स्त्री के समीप रहने वाला गृहस्थ कहाता है। यदि गृहस्थ शब्द का यह अर्थ माना जावे कि जो गृह नाम घर में रहे वह गृहस्थ है, तो ब्रह्मचारी और वानप्रस्थ भी किसी प्रकार के घर में ही ठहरते हैं, तो उनकी भी गृहस्थ संज्ञा होनी चाहिये। अथवा यदि संन्यासी भी किसी के घर में ठहरा हो तो उसका भी गृहस्थ नाम पड़ना चाहिये। अथवा जिन-जिन के स्त्री नहीं और वे किसी घर में रहते हैं, तो गृहस्थ कहाने चाहियें। पर ऐसी परिपाटी लोक में नहीं है। इस कारण गृह शब्द स्त्री का पर्यायवाचक रखना चाहिये कि जो गृह नाम स्त्री के समीप ठहरे वह गृहस्थ वही गृहाश्रमी भी है। और स्त्री के साथ सम्बन्ध वा मेल होना ही विवाह है। अर्थात् स्त्री उसको अपना पति चित्त से मान ले और पुरुष उस स्त्री को अपनी पत्नी चित्त से मान ले इस प्रकार उन दोनों का परस्पर मन, वाणी और शरीर से सम्बन्ध होना, विवाह पद का अर्थ है। यदि मण्डप रचना पूर्वक कन्या के घर में जो वेदोक्त क्रिया होती अर्थात् मन्त्र पढ़ते वा होमादि करते हैं, उसका नाम विवाह मान लें, तो गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों का नाम विवाह नहीं पड़ेगा क्योंकि उनमें वैदिक मग्लाचरण वा शिष्ट लोगों का स्वीकृत व्यवहार प्रायः नहीं होता। इसीलिये वे निन्दित विवाह माने गये हैं। परन्तु क्षत्रियों में पहले से ही गान्धर्व विवाह की कुछ-कुछ प्रवृत्ति चली आती है। और गान्धर्व विवाह में प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग पहले ही हो जाता है, और पीछे विवाह का कृत्य अर्थात् कुछ शिष्ट व्यवहार भी होता है। इसमें विवाह की प्रसिद्धि करने से पूर्व प्रायः स्त्री-पुरुषों का संयोग हो जाता है, इसी कारण श्रेष्ठ लोगों में इसकी निन्दा है। यही चाल आजकल इग्लेण्डदेशवासियों में है, कि कन्या और वर की इच्छा से पहले संयोग भी हो जाता है। विवाह में वैदिकप्रक्रिया मन्त्रपाठ वा होमादि करने और अनेक सज्जन पुरुषों के सामने प्रतिज्ञा पढ़े जाने का यही प्रयोजन है, कि एक तो सर्वसाधारण को प्रकट हो जावे, कि अमुक का पुत्र और अमुक की कन्या का विवाह हो गया और द्वितीय उन कन्या वरों की प्रतिज्ञा के अनेक सज्जन लोग साक्षी हो जावें, कि प्रतिज्ञा से विरुद्ध चलने में उन दोनों को भय रहे कि हमको वे लोग धिक्कार देंगे।


गर्भाधानादि संस्कारों का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

गर्भाधानादि संस्कारों का विचार

अब द्वितीयाध्याय की समीक्षा की जाती है। द्वितीयाध्याय के प्रारम्भ से लेकर षष्ठाध्याय पर्यन्त गर्भाधानादि वेदोक्त तथा वेदमूलक षोडश संस्कारों का वर्णन है। संस्कार सोलह ही हैं न्यूनाधिक नहीं, इस पर व्यासस्मृति में लिखा है कि-

“गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्त्तन, विवाह, विवाहाग्नि का ग्रहण-[चतुर्थी कर्म वा इसी को गृहाश्रम-संस्कार भी कह सकते हैं।] और त्रेताग्निसंग्रह [इसी का नाम वानप्रस्थ संस्कार भी कह सकते हैं।]” ये सोलह संस्कार शास्त्रकारों ने माने हैं।

इनमें से केशान्त संस्कार अनुमान से एकदेशी प्रतीत होता है, और दशकर्मपद्धति बनाने वाले ने भी केशान्त संस्कार नहीं माना। तथा श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपनी संस्कारविधि में केशान्त संस्कार नहीं लिया। दाढ़ी मूंछ वा बगलों के बनाने का आरम्भ जिस पहले दिन हो उसको केशान्त संस्कार कहते हैं। यदि व्यासस्मृति के “केशान्तः स्नानम्” पदों में विसर्ग को अशुद्ध मानें और यह अर्थ मानें कि जिसमें सब केश मुड़ा दिये जावें, ऐसा स्नान- समावर्त्तन, तो संस्कार सोलह नहीं हो सकते, किन्तु १५ ही रहते हैं, जो कि इष्ट नहीं हैं। तथा मनुस्मृति में केशान्त संस्कार माना है कि- “ब्राह्मण का सोलह वर्ष पर केशान्त हो।” तथा व्याससंहिता की अपेक्षा स्वामी जी ने संन्यास और अन्त्येष्टि दो संस्कार अधिक लिये हैं, इस कारण उनकी संस्कारविधि में सत्रह संस्कार हो जाते हैं। उनमें किसी को किसी के अन्तर्गत करके वा अन्य किसी प्रकार समाधान करना होगा। अर्थात् संस्कार सोलह ही हैं, यह तो सर्वतन्त्र सिद्धान्त से सिद्ध है, इसमें किसी का परस्पर विरोध नहीं है। यद्यपि दशकर्मपद्धति पुस्तक बनाने वाले पण्डितों ने दश ही कर्म कहे हैं, तो भी उन्होंने संस्कारों की सोलह संख्या का खण्डन नहीं किया, किन्तु उपनयन, वेदारम्भ और समावर्त्तनरूप तीन संस्कारों को लौकिक चाल के अनुसार एक ही कर्म माना है, इस कारण दस कहने से बारह तो आ जाते हैं। समय के बिगड़ जाने से वानप्रस्थ और संन्यासधारण तथा अन्त्येष्टिकर्म की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसा मानकर दशकर्मपद्धति में उक्त तीनों संस्कार नहीं रखे।


रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं।


रचना के क्रम का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब संक्षेप से उत्पत्ति का क्रम लिखा जाता है। इसमें संदेह यह है कि पहले जड़ की उत्पत्ति होती वा चेतन की और चेतनों में पशु, पक्षी, कीट, पतगदि वा मनुष्य इनमें कौन पहले उत्पन्न होते हैं ? तथा पांच तत्त्वों में आकाश की उत्पत्ति कैसे संभव होती है इत्यादि सैकड़ों विरोध सृष्टि-प्रक्रिया में हैं, उनको हटाने के लिए यहां संक्षेप में लिखते हैं।

पहले जड़ वस्तु उत्पन्न होते हैं किन्तु चेतन नहीं। जड़ों में पृथिव्यादि भूतों की रचना के पश्चात् मनुष्यादि के भक्ष्य ओषधि आदि पदार्थ और उसके पश्चात् मनुष्यादि चर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। परन्तु शरीरधारियों में छोटे कीट पतगदि, तिस पीछे पशु-पक्षी आदि प्राणी उत्पन्न होते हैं और सबसे पीछे मनुष्य उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मनुष्य से नीचे योनि के सब प्राणी मनुष्य के उपकारार्थ हैं, इसलिये सुख के वा दुःख के साधन पहले बनाये जाते हैं। तथा कीट-पतग् आदि सूक्ष्म जन्तु हैं, स्थूल से पहले प्रायः सूक्ष्म की उत्पत्ति न्यायानुकूल माननी चाहिये। क्योंकि कारण सदा सूक्ष्म और कार्य सदा स्थूल होता है। यही क्रम प्रायः सभी शिष्ट लोगों के सम्मत है। ऐसा मान करके ही तैत्तिरीय उपनिषद् में लिखा है कि- “उस परमेश्वर से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथिवी, पृथिवी से ओषधियाँ, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्यादि के शरीर उत्पन्न होते हैं।”१ तथा सांख्य में लिखा है कि- “सत्त्व, रजस् और तमोगुण की साम्यावस्था प्रकृति कहाती है, उससे द्वितीय कक्षा में महत्तत्त्व उत्पन्न होता है, जिसको कोई लोग हिरण्यगर्भ कहते हैं, उसी को कोई विधि-विधाता वा ब्रह्मा कहते हैं कि कार्यरूप संसार की वृद्धि होने का वह पहला परिणाम है और ब्रह्मा शब्द का अर्थ भी यही है कि जिससे वृद्धि हो। तृतीय कक्षा में अहटार उत्पन्न होता है, अहटार से पांच सूक्ष्म भूत और उनसे इन्द्रिय इत्यादि।”२ इन प्रमाणों से स्पष्ट निश्चय होता है कि- आकाशादि क्रम से जड़ तत्त्व पहले उत्पन्न होते हैं। यदि आधारस्वरूप, आकाशादि तत्त्व पहले न हों तो उत्पन्न हुए प्राणी किसके आश्रय से ठहरें और क्या खाकर के जीवित रहें ?


मानसी और मैथुनी सृष्टि का भेद : पण्डित भीमसेन शर्मा

तथा सृष्टि में विचारशील पुरुषों को दो ही भेद निश्चित जानने चाहियें। एक मानवी या मानसी सृष्टि अथवा ऐश्वरी सृष्टि और दूसरी मैथुनी अथवा मानुषी सृष्टि कहाती है। इनमें पहली मानवी सृष्टि कल्प के आरम्भ में ही होती है तथा दूसरे प्रकार की सृष्टि उत्पत्ति होने के पश्चात् जगत् की स्थिति दशा रहने पर्यन्त सदा प्रतिदिन व प्रतिक्षण होती है। उनमें स्थूल कारण की अपेक्षा को छोड़कर प्रलय के पश्चात् सृष्टि के आरम्भ में विचार व मनन शक्ति का आश्रय लेकर मनु नामक परमेश्वर ने उत्पन्न की, इससे मानवी सृष्टि कहाती है। मन नाम विचार के आश्रय से ही सूक्ष्म कारण से की गयी किन्तु स्थूल शरीरादि का आश्रय रखने वाले कर्म से नहीं, इसीलिये प्रारम्भ की सृष्टि मानसी भी कही जाती है। सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही उस सृष्टि को कर सकता है किन्तु कोई साधारण पुरुष नहीं, इसलिये उसको ऐश्वरी सृष्टि भी कहते हैं, और वह सृष्टि स्थूल स्त्री-पुरुष के संयोग के बिना ही उत्पन्न होती है, उस समय उन प्राणियों का माता-पिता वही एक परमेश्वर है। परम सूक्ष्म कारण से पृथिव्यादि स्थूल भूतों की और स्थूल बीज के बिना वृक्ष, ओषधि और वनस्पति आदि की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार की जिसको कोई देहधारी मनुष्य नहीं बना सकता, वही ऐश्वरी सृष्टि है। और जब उसने स्त्री-पुरुष, बीज, वृक्ष आदि एक बार प्रारम्भ में उत्पन्न कर पीछे इस प्रकार सबको सृष्टि की परम्परा चलानी चाहिये ऐसा वेद द्वारा उपदेश किया, तब से लेकर मनुष्य लोग वैसे ही अपने-अपने योग्य सृष्टि बनाते आते हैं। पुत्रादि का उत्पन्न करना, वृक्षादि का लगाना और घड़ा, वस्त्र या मकान आदि का बनाना इत्यादि सृष्टि मनुष्यों की ओर से प्रतिदिन होती है, यही सब मानुषी अथवा मैथुनी सृष्टि है। उन सब स्थावर वृक्षादि और जग्म मनुष्यादि चेतन प्राणियों की उत्पत्ति में चार ही मुख्य कारण हैं, जैसे- सुश्रुत में लिखा है कि- ऋतुसमय, क्षेत्र- खेत, जल और बीज इन चार प्रकार की सामग्रियों के संयोग से जैसे वृक्ष आदि का अङ्कुर उत्पन्न होता है, वैसे यही चार प्रकार की सामग्री संयुक्त होकर मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति होती है। इनमें स्थावर की उत्पत्ति मनुष्य की इच्छानुसार तथा स्वतन्त्र अकस्मात् भी होती है, पर जहां स्वतन्त्र होती है वहां भी मैथुन रूप कारण अवश्य मानना पड़ता है, और मनुष्यादि की उत्पत्ति बिना इच्छापूर्वक मैथुन संयोग के नहीं होती, यह विषय सुश्रुत के शारीरस्थान में लिखा है। पूर्वोक्त समय आदि का एकत्र संयुक्त होना ही मैथुन कर्म है, उससे उत्पन्न हुई सृष्टि मैथुनी कहाती है। केवल स्त्री-पुरुषों के संयोगमात्र का नाम मैथुन नहीं है, किन्तु किसी प्रकार स्त्रीशक्ति और पुरुषशक्ति का संयोग होना मैथुन कहाता है। सो इस प्रकार का मैथुन सब वस्तुओं की उत्पत्ति में होता ही है, इसी से पीछे उत्पन्न होने वाली सब सृष्टि मैथुनी होती है।


सृष्टि-प्रसंग में विरोध कहने वालों का समाधान: पण्डित भीमसेन शर्मा

सृष्टिप्रक्रिया में कोई वेदादि ग्रन्थों का परस्पर विरोध कहते हैं उसकी निवृत्ति के लिये सब वचनों का यहां संग्रह तो हो नहीं सकता। और वैसा करने से लेख भी अत्यन्त बढ़ जाना सम्भव है, ऐसा विचार के संक्षेप से लिखते हैं- वेदादिग्रन्थों में कहीं-कहीं सृष्टि आदि विषयों का वर्णन शब्दों के भेद से किया गया है अर्थात् जिस विषय के लिये एक पुस्तक में जैसे शब्द हैं उससे भिन्न द्वितीय पुस्तक में लिखे गये, तब किन्हीं को भ्रम हो जाता है कि इसमें विरोध है। और सब पुस्तकों का लेख एक प्रकार के शब्दों में हो नहीं सकता क्योंकि देश, काल, वस्तु भेद से भेद हो जाता है और अनेक कर्त्ताओं के होने से भी उन-उन की शैली अलग-अलग होती है परन्तु विचारशील लोग जब उसके मुख्य सिद्धान्त पर ध्यान देते हैं तो उस मूल सिद्धान्त में कुछ भेद नहीं जान पड़ता किन्तु अज्ञानियों की बुद्धि में परस्पर विरोध बना रहता है, उसका कारण अज्ञान है। इसमें वेदादि शास्त्रों का कुछ दोष नहीं और इस अज्ञानियों के भेद से संसार की कुछ हानि भी नहीं हो सकती।

तथा अन्य वेदादिग्रन्थों में जहां-जहां सृष्टि का प्रकरण है, वहां-वहां रचना के वर्णन से पूर्व और प्रलयदशा के अन्त में कहा है कि-‘उस ने विचार किया कि मैं अनेकरूप सृष्टि करूँ’१ तथा प्रश्नोपनिषद् में लिखा है कि- ‘संसार की रचना से पहले उसने तप किया’२ यहां तपशब्द से भी सृष्टि-रचना के        अनुसन्धान करने से तात्पर्य है, क्योंकि परमेश्वर के सम्बन्ध में तपशब्द का अर्थ ज्ञान ही लिया गया है। सो ब्राह्मणग्रन्थों में लिखा है कि- ‘जिसका तप ज्ञान है।’३ यही अंश यहां मनुस्मृति में भी लिखा है कि- ‘उसने अपने सामर्थ्य से अनेक प्रकार की प्रजा रचने की इच्छा से विचार करके प्रथम प्राण अर्थात् सूत्रात्मा वायु को रचा’४ सृष्टि विषयक इत्यादि सभी वचनों का एक ही आशय है।


सृष्टि-प्रकरण का सामान्य विचार :पण्डित भीमसेन शर्मा

अब क्रमप्राप्त छठे सृष्टि प्रकरण की आलोचना करनी चाहिये। इस प्रकरण में कई अंश विचारने योग्य हैं, जिनमें पहला अंश यह है कि इस मानवधर्मशास्त्र में सृष्टि का वर्णन क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इसका नाम धर्मशास्त्र है, सृष्टि का वर्णन करना कोई धर्म नहीं है। और यही बात अन्य महर्षियों ने मनु जी से पूछी सो इस मनुस्मृति के आरम्भ में द्वितीय श्लोक में ही लिखा है कि- ‘हे मनु जी! आप सब ब्राह्मणादि वर्णों और वर्णसटरों के धर्म कहने योग्य वा समर्थ हैं।’१ केवल इसी एक प्रश्न के ऊपर यह सब धर्मशास्त्र बना है अर्थात् यह मनुस्मृति इसी प्रश्न का उत्तररूप है, तो इसमें सृष्टि की उत्पत्ति कहने का काई प्रश्न भी नहीं, ह्लि र इस प्रथमाध्याय में सृष्टि का वर्णन क्यों किया गया ? और किया गया तो ‘आम पूछने पर कचनार के उत्तर देने’ के तुल्य प्रमत्तदशा का कथन हो गया। इस प्रसग् में इग्लेण्ड निवासी व्यूलर साहब ने कहा है कि- ‘गौतम और वसिष्ठ आदि के धर्मशास्त्रों में तथा मानव धर्मसूत्रों में सृष्टि का वर्णन नहीं प्राप्त होता और न यह सृष्टि की प्रक्रिया का वर्णन धर्मशास्त्र के साथ सम्बन्ध रखता है तथा सृष्टि का व्याख्यान धर्म भी नहीं हो सकता और धर्मशास्त्रों की परिपाटी से भी यह विपरीत है। इससे सृष्टि का प्रकरणरूप प्रथमाध्याय इस पुस्तक में पीछे किन्हीं लोगों ने मिलाया है।’ यह उक्त गौराग् महाशय का आशय है। इसी शटा को लेकर दो श्लोक२, पीछे बनाकर किन्हीं लोगों ने द्वितीय श्लोक के आगे धरे हैं। कि- ‘मनुष्य पश्वादि, पक्षी सर्पादि, मक्खी मच्छरादि और वृक्षादि तथा पृथिवी आदि सब भूतों की उत्पत्ति और प्रलय को सबके आचरण और विवादों का निर्णय- राज्यव्यवस्था राजनीति आदि सम्पूर्ण कहो।’ ये दोनों श्लोक मुम्बई के छपे छह टीका से युक्त पुस्तक में पाठान्तर बुद्धि से छपे हैं। और इन दोनों का व्याख्यान आधुनिक अति नवीन टीकाकार नन्दन और रामचन्द्र ने किया है। इससे इन दोनों श्लोकों का प्रक्षिप्त होना स्पष्ट प्रतीत होता है। यदि पूर्व से ये श्लोक होते तो पहले भाष्यकार मेधातिथि आदि भी इनका भाष्य करते वा ऐसी शटा न करते कि “क्वास्ताः क्व निपतिताः”। सो ये श्लोक वास्तव में इस पुस्तक के नहीं, इससे पीछे किसी ने मिलाये, यही निश्चय है। इस पर अधिक विचार करने की आवश्यकता नहीं है।


धर्म के लक्षणों की परस्पर उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब धर्मों की उत्तमता, मध्यमता और निकृष्टता का सापेक्ष होना इस पाँचवें प्रकरण में दिखाते हैं- इससे पूर्व धर्म शब्द का व्याकरण और कोष सम्बन्धी दोनों अर्थ दिखाया गया है। अब धर्म के अवान्तर भेद, उसका स्वरूप और उस धर्म के सहायकारी कहने चाहियें। इसके पीछे धर्मों के उत्तम, मध्यम, निकृष्ट होने में सापेक्षता कहेंगे।

इसी मानवधर्मशास्त्र में लिखा है कि ‘सम्पूर्ण वेद धर्म का मूल है’१ इस प्रमाण का आश्रय लेकर वृक्षरूप धर्म का मूल वेद है क्योंकि वेद से ही धर्मरूप वृक्ष उगता है यह विद्वानों का सिद्धान्त है। उस वृक्षरूप धर्म के तीन अवयव या भाग मुख्य हैं। सो ब्राह्मणों या उपनिषदों में ठीक-ठीक कहा है कि ‘धर्म के तीन कांड वा गुद्दे हैं- यज्ञ, अध्ययन और दान’२। वृक्ष में पहले निकलने वाली स्थूल शाखाओं को स्कन्ध (गुद्दा) कहते हैं। वैसे ही धर्म के मुख्य या स्थूल तीन अवयव हैं। अर्थात् धर्म तीन भागों में विभक्त है। यज्ञ शब्द से कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों का ग्रहण होता हैं। इसीलिये धर्मशास्त्र में लिखा है कि- ‘कोई विद्वान् लोग वाणी में प्राण का और कोई प्राण में वाणी का होम करते हैं’३ अर्थात् यह अध्यात्म यज्ञ है। जो लोग प्राण की क्रिया को वाणी में अर्थात् देखने-सुनने रूप क्रिया को वाणी में समाप्त करते अर्थात् वाणी से पढ़ना-पढ़ाना, धर्म   सम्बन्धी सत्य विषयों का उपदेश करना वा स्तुति-प्रार्थना की प्रवृत्ति बढ़ाना और अन्य इन्द्रियों के कार्य को शिथिल करना जानते हैं, वे ही जानो वाणी में अर्थात् कर्मेन्द्रियों में ज्ञानेन्द्रियों को शिथिल वा लीन करते हैं। और जो प्राण में वाणी का होम करते हैं, वे ज्ञानेन्द्रियों में कर्मेन्द्रियों की वृत्ति को समाप्त करते हैं। क्योंकि ज्ञानेन्द्रियों की मुख्य प्रवृत्ति करने वाला प्राण है। और वाणी में प्राण का वा प्राण में वाणी का कोई लोग होम करते हैं, इस कथन का मुख्य अभिप्राय तो यही है कि सत्यभाषण और प्राणायामादि धर्म सम्बन्धी कृत्य भी एक यज्ञ ही है। वेदादि शास्त्रों वा उनके अभिप्रायों को सत्यवक्ता विद्वान् के मुख से सुनना और उस सुनने से हुए अच्छे संस्कार वा शुभ गुणों का धारण करना अध्ययनरूप धर्म कहाता है। उन वेदादि के ही सुनने से धारण किये धर्मरूप संस्कारों को परोपकार होने के लिए देना दान कहाता है


विधि, निषेध, सिद्धानुवाद और अर्थवाद का विचार: पण्डित भीमसेन शर्मा

अब विधि, निषेध, अनुवाद वा सिद्धानुवाद और अर्थवाद, जिनका उद्देश्य चतुर्थ संख्या में लिख चुके हैं, उनका विचार किया जाता है। इनमें विधि नाम आज्ञा (हुक्म) का है कि ऐसा करो, और ऐसा मत करो, यह निषेध है, सो भी विधि के साथ ही लग जाता है। अनुवाद- कही बात वा विषय को ह्लि र से कहना। सिद्धानुवाद- एक अनुवाद का ही भेद है। जो वस्तु वा कार्य लोक की वर्त्तमान परिपाटी के अनुसार वा स्वभाव से संसार में होता है, उसका कहना सिद्धानुवाद कहाता है। वेद और वेदानुकूल शास्त्रों में जिसके लिये कहा गया कि यह इस प्रकार कर्त्तव्य कहा है, वह कर्म और उस कर्म के सेवन से संचित हुए शुभ संस्कार भी धर्मसंज्ञक हैं, यह पूर्व भी कह चुके हैं, तिससे सिद्ध हुआ कि जिसके करने वा न करने की आज्ञा दी गयी, उसका वैसा ही करना वा न करना धर्म कहाता है। शुभ की विधानपूर्वक निषिद्ध की निषेधपूर्वक करने, न करने की आज्ञा देना ही धर्म है। जैसे जिससे दुःखी हो उससे भी मर्मच्छेदन करने वाले, कठोर वाक्य न बोले, यहां मर्मच्छेदन न करना भी धर्म ही है। अथवा ‘कठोर मर्मच्छेदक वाक्य न बोले चाहे दुःखी भी हो’ यह वाक्य अधर्म को हटाने वाला होने से     धर्मशास्त्र वा धर्मशासक है। ऐसा होने से विधिवाक्य ही धर्म को जताने वाले हो सकते हैं, अन्य नहीं, यह सिद्ध हुआ।


सामान्यकर शास्त्र के विषय का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

तीसरी कोटि में सामान्यकर शास्त्र के विषय को विचारना चाहिए यह लिख चुके हैं। वात्स्यायन ऋषि ने न्यायसूत्र के भाष्य में लिखा है कि ‘परस्पर सम्बद्ध प्रयोजनीय सुख के हेतु साधनों का जिसमें उपदेश किया जाय, वह शास्त्र है।’ इसी के अनुसार शास्त्र के विषय का विचार किया जाता है। प्रथम तो जानना अति आवश्यक है कि सब शास्त्र सुख तथा सुख के साधनों को प्राप्त करने की इच्छा और दुःख तथा दुःख के कारणों को छोड़ने की इच्छा को आगे कर बनाये गये, बनाये जाते और बनाये जावेंगे। इसमें सुख, सुख के कारण; दुःख, दुःख के कारण और इनकी प्राप्ति वा त्याग के भिन्न-भिन्न होने वा नाना प्रकार होने और कर्त्ताओं के भेद से शास्त्र अनेक होते हैं। और नीच प्रकृति वालों ने जो वेदविरुद्ध पुस्तक बनाये जिनमें प्रायः तमोगुण सम्बन्धी विषयों का वर्णन है। वे भी दुःख और दुःख के साधनों को प्राप्त होने की इच्छा से बनाये गये ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि सब कोई पुरुष अपने वा अन्य के लिये दुःख तथा दुःख के साधनों को नहीं चाहता। यद्यपि कोई दुष्ट नीच प्रकृति वाला मनुष्य अपने से प्रतिकूल अन्य के लिये दुःख वा दुःख के कारणों का सञ्चय करते हैं तो भी उसके लिये संसारी व्यवहार के लिये यत्न करते हैं किन्तु वैसी द्वेषबुद्धि रखकर शास्त्र बनाने से वह प्रयोजन सिद्ध होना सुगम नहीं प्रतीत होता। और जो दूसरे के मत खण्डन करना रूप उद्देश वा प्रयोजन को लेकर शास्त्र बनाया जाता है वहाँ भी अपने मत में दोष देने वाले हेतुओं के खण्डन से अपने दुःख का निवारण तथा अपने मत के गुणों के प्रकाशित करने से अपने को सुख पहुँचाना ही मुख्य प्रयोजन है। अर्थात् सब स्थलों में विचार कर देखा जाय तो अविद्याग्रस्त पुस्तक भी केवल किसी को दुःख मात्र पहुँचाने के लिये नहीं बनाये जा सकते। हां किसी समुदाय वा निज को उससे भले ही दुःख हो इसके अनेक कारण हो सकते हैं। अर्थात् सब शास्त्रों के बनाने वालों का मुख्य प्रयोजन वा विषय यही होता है कि कारणों के सहित दुःख को हटाकर सुख और सुख के साधन धनादि वस्तु प्राप्त हों। परन्तु अपना दुःख हटाकर सुख प्राप्ति का उपाय रचना सर्वत्र प्रधान रहता है, और जहाँ केवल परोकार दृष्टि से शास्त्र बनाया जाता है किन्तु उसमें किसी प्रकार के स्वार्थ का उद्देश नहीं रखा जाता वहाँ भी उस कर्म के द्वारा ईश्वर की व्यवस्था से शुभ फल की प्राप्ति होना ही स्वार्थ सिद्धि प्रयोजन है। यदि कहीं साधनों सहित सुख की प्राप्ति और दुःख को निर्मूल हटाने के लिये भी बनाया शास्त्र उस अंश में बनाने वाले के अविद्वान् होने से दुराचार का प्रवृत्त करने वाला ग्रन्थ हो जावे तो भी दुःख वा दुःख के साधनों को लेकर ग्रन्थ बनाया ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा मन में रखकर कोई पुरुष बनाने के लिये प्रवृत्त नहीं होता इसलिये उक्त सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है।


कब और किसने इस मनुस्मृति को पुस्तकाकार में बनाया ? पण्डित भीमसेन शर्मा

मनु कौन है इसका प्रतिपादन करके अब द्वितीय प्रकरण का विचार किया जाता है कि किस समय, किसलिये, किस पुरुष ने यह धर्मशास्त्र बनाया ? लोक में मनुस्मृति वा मानव धर्मशास्त्र नाम से यह पुस्तक प्रचरित है। इसका अभिप्राय यह है कि मनु अर्थात् ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सब वेदों का अनुसन्धान- पूर्वापर विचार करके संसार के व्यवहार की व्यवस्था करने और अच्छे आचरणों का प्रचार करने के लिये सूत्रादि रूप वाक्यों में धर्म का उपदेश किया, किन्तु उस समय कुछ भी विषय पुस्तकाकार से लिखा नहीं गया था। उस उपदेश को शास्त्र करके मानना वा कहना विरुद्ध इसलिये नहीं है कि शास्त्रशब्द का व्यवहार लेखनक्रिया की अपेक्षा नहीं रखता। महर्षि वात्स्यायन जी ने न्याय सूत्र के भाष्य में शास्त्र का लक्षण भी यही किया है कि ‘परस्पर सम्बन्ध रखने वाले अर्थसमूह का उपदेश शास्त्र है।’१ इससे लिखे वा छपे पुस्तक का नाम शास्त्र नहीं आता। मनु नाम ब्रह्मा जी ने वेद के अर्थ का अनुसन्धान करके वेद को मूल मानकर व्यवहार की व्यवस्था करने के लिये जो विचार किया वह मनुस्मृति कहाती है। और मनु नाम ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरम्भ में कहा मानव धर्म उसका उपदेश जिसमें है, वह पद और वाक्यादि रूप मानवधर्म शास्त्र कहाता है। अथवा मनु जी के अनुभव से सिद्ध हुआ मानवधर्म, वह जिसमें कहा गया, वह मानवधर्मशास्त्र कहाता है। प्रोक्तार्थ में प्रत्यय करने से प्रतीत होता है कि मानवधर्म का मूल वेद है। क्योंकि किसी सनातन धर्मशास्त्र का आश्रय लेकर शास्त्र बनाया जाय, उसी में प्रोक्त प्रत्यय होता है। इसी कारण प्रोक्ताधिकार२ के पीछे ‘कृते ग्रन्थे3 प्रकरण पाणिनि ने रखा है। और प्र उपसर्ग पूर्वक वचधातु४ से सिद्ध हुए प्रयोगों की पढ़ाने, प्रचार करने, विशेष लुप्त हुए शास्त्रों को निकाल कर चलाने और प्रकारान्तर से व्याख्यान कर सबको जताने, अर्थ में यथासम्भव प्रवृत्ति होती है। यह महाभाष्यकार पतञ्जलि महर्षि का आशय५ प्रोक्ताधिकार के व्याख्यान से प्रतीत होता है। ऐसा मानने से ही वेदों की संहिता के माध्यन्दिनीय और वाजसनेयी आदि नाम निर्दोष बन सकते हैं।


वेद में मनु शब्द : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मनु शब्द भिन्न 2 विभकित्यो मे ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद तथा अर्थवर्वेद में कई स्थलो पर प्रयुक्त  हुआ

वेद मे मनु शब्द है  और इसलिए कई विद्वानो का ऐसा मत है  कि जिस मनु का वेदो में उल्लेख है उसी के उपदेश मनुस्मृति मे वणित है । यह मत प्राचिन वेदाचाययो के कथनो से अनुकुलता नही रखता । इसमे सन्देह नही कि मनुस्मृति के लेखको का वेदो से समंबध जोड देने मे मनुस्मृति के गौरव में आधिक्य हो जाता है । इसी गोरव को दृष्टि में रखकर कई विद्वानो ने मनुस्मृति के लेखक के विषय में वेदो के पन्ने पलटने का यत्र किया उदाहरण के लिए ऋग्वेद 1।80।16अ1।114।2 तथा 2।33। 13 मे मनु और पिता दो शब्द साथ साथ आये है। इससे लोगो ने यह अनुमान किया है कि यह वही प्रजापति मनु है जिनहोने सृष्टि को उत्पन किया तथा मनुस्मृति की नीव डाली । परन्तु यह मत उन लोगो को स्वीकार नही हो सकता जो वेदो को ईश्वर जो वेदों को ईश्वर की और मानते है और जिनको वेदो मे इतिहास मानने से इनकार है । इस कोटि मे प्राचिन उपषित्कार दर्शनकार नैहत्क वैयाकरण तथा शंकरा चायर्य आदि मध्यकालीन विद्वान भी सम्मिलित है स्वामी दया-नन्द का जो स्पष्ट मत है कि वेदो मे किसी पुरूष-विशेष का उल्लेख नही है । आजकल के यूरोपियन संस्कृतज्ञ तथा उनके अनुयायी भारतीय विद्वानसें का तो दृष्टिकोण ही ऐतिहासिक है। यह लोग पत्येक वैदिक ग्रन्थ को उसी दृष्टि से देखते है और उनको अपने मत की पुष्टी में पुष्कल सामग्री प्राप्त हो जाती है ।उनका यह मत कहाॅ तक ठीक है इस पर हम यहाॅ विचार नही कर सकते  । परन्तु इसमें भी सन्देह नही कि केवन पिता और मनु दो शब्दो को साथ साथ देखकर उनसे किसी विशेष पुरूष का अथ्र्र ले लेना युक्ति -संगत नही है जब तक कि ऐसा करने के लिए अन्य पुष्कल प्रमाण न हों । यदि निरक्तकार यास्काचार्य का मत ठीक है कि वेदो में समस्त पद यौगिक है तो मानना पडेगा कि किसी विशेष पुरूष का नाम मनु होने से पूर्व यह शब्द अपने यौगिक अर्थ में बहुत काल तक प्रचलित रह चुका होगा । यह बात आजकल की समस्त व्यक्ति वाचक संज्ञाओं से भी सिद्ध होती है । चाहे किसी व्यक्ति का नाम चुन लीजिए । पहले वह अवश्य ही यौगिक रहा होगा । और बहुत दिनो पश्चात व्यक्यिाॅ उस नाम से प्रसिद्ध हुई होगी इसलिए इसमें कुछ भी अनुचित नही है कि मनु शब्द का वेद मुत्रो में यौगिक अर्थ लिया जाये । यजुवैद 5।16 में आये हुए मनवे शबद का अर्थ उव्वट ने यजमानय और महीधर ने मनुते जानातीत मनुज्ञानवान यजमान किया है। इसी प्रकार यदि ऋग्वेद में भी मनु का अंर्थ ज्ञानवान किया जाय तो क्या अनथ होगा। फिर ऋग्वेद के जिन तीन मंत्रो  की आद्यैर हमने ऊपर संकेत किया है उनमे से पहले (1।8016) में मनु पिता और अर्थवा मनुष्पिता ) तीनो शब्द आये है जिनमे से एक विशेयष्य और अन्य विशेष्ण है । ऋग्वेद 1।114।2 मे अर्थवा का न नाम है न संबध 2।33।13 मे मनु पिता का भेषजा अर्थात ओषधियो से संबध है । इस प्रकार अर्थवा या मनु या प्रजापति शब्दो से ऐतिहासिक पुरूषो का सम्बन्ध जोडना एक ऐसी अटकल है जिस पर आधुनिक विद्वान लटठ हो रहे है । आजकल का युग अटकल युग है जिसको शिष्ट भाषा मे aAge of hypotheses कह सकते है हमारा यहाॅ केवल इतना ही कथन है कि वेदों मे आये हुए मनु और मनुस्मृति के आदि गृन्थकार से कुछ सम्बध नही है । ऋग्वेद 8।3013 में  पार्थना की गई –

मा नः पथः पित्रयान मानवादधिदूरे नैष्ट परावत

अर्थात हम (पित्रयात मानवात पथः) अपने पूर्वजों के बुद्धि-पूर्वक मार्ग से विचलित न हो । इससे भी कुछ विद्धानो ने यह अनुमान किया है कि मानवात पथः का अर्थ है मनु महाराज क बताये मार्ग से । (vide Principles of Hindu law vol I by jogendra chamdra Ghos and P.V Kane History of Dharma shastra )


मनु नाम की महत्ता : पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय

वैदिक साहित्ष्किो के मार्ग मे इस प्रकार की सहस्त्रो अडचने है जिनका अधिक उल्लेख यहाॅ नही करना

मनु नाम की महता  चाहिए । परन्तु इसमे भी सन्देह नही कि कोई न कोई विद्वान मनु हो गये है जिनहोने आचार (Moral Laws) और व्यवहार (Juris-prudence) के सम्बन्ध मे नियम बनाये जिनका नाम मानव धर्म शास्त्र या मनुस्मृति पड गया । मनु नाम की महता अन्य देशो के प्राचिन इतिहास से भी विदित होती है । सर विलियम जोन्स (Sir W.Jones) लिखते है:-

“We cannot but admit that Minos Mnekes or Mneuis have only Greek terminations but that the crude noun is composed of the same radical letters both in greek and Sanskrit”

अर्थात यूनानी भाषा के माइनोस आदि शब्द संस्कृत के मनु शब्द के ही विकृत रूपा है।

Leaving others to determine whether our Menus ¼or Menu in the nominative½ the son of Brahma was the same personage with minos the son of jupitar and legislator of the Cretsans ¼who also is supposed to be the same with Mneuis spoken of as the first Law giver receiving his laws from thw Egyp-tian deity Hermes and Menes the first king of the Egyptians ½ remarks :-

“ Dara Shiloha was persuaded and not without sound reason that the first Manu of the Brahmanas could be no other person than the progenitor of makind to whom jews, Christians and mussulmans unite in giving the name of adam “ ¼Quoted by B.Guru Rajah Rao in his Ancient Hindu Judicature½

बी0 गुरू राजाराउ ने अपनी पुस्तक । Ancient Hindu Judicature मे लिखा है कि यदि हम यह अनुसधान दूसरो के लिए छोड दे कि ब्रहा का पुत्र मनु वही है जिसे कोटवालों का धर्म शास्त्र रचियता माइनौस ज्यूपीटर का पुत्र कहा जाता हे (ओर जिसके विषय मे कहा जाता है कि यह वहर म्नयूयस था जिसने मिश्र देश के देवता हमीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिक्ष देश के देवता हर्मीज से धर्मशास्त्र सीखा और जो मिश्र देश का पहला राजा बना) तो भी जोन्स के इस उद्धरण पर अवश्य ध्यान देना चाहिए कि दाराशिकोह का यह विचार कुछ अनुचित न था कि ब्राह्मणो का आदि मनु वही है जो मनुष्य जाति का पूर्वज समझा जाता है और जिसको यहूदि ईसाई और मुसलमान आदम के नाम से पुकारते है।


मनु स्मृति का वैदिक साहित्य में प्रमाण : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

मानव धर्मशास्त्र का वैदिक साहित्य में बहुत गोरव है । आयर्य जाति की सम्यता का मानव धर्मशास्त्र के मनुस्मृति का वैदिक साथ एक घनिष्ट संबंध हो गया है । हम चाहे मनु तथा मनुस्मुति के विषय में पुछे गये अनेको प्रश्नो का समाधान न कर सके तो भी यह अवश्य मानना पडता है कि मनु अवश्य ही कोई महा पुरूष था जिसके उपदेश आयर्य सभ्यता के निमार्ण तथा जीवन – स्थिति के लिए बडे भारी साधक सिद्ध हुए और उन पर विद्वानों की अब तक श्रद्धा चली आती है ।

निरूक्तकार यास्क ने दायभाग के विषय में मनु को प्रमाण माना है:-

अविशेषेण मिथुनाः पुत्रा दायादा इति तदेतद झक श्लोकभ्याम्भ्यक्त । अगादंगात्सम्भवसि हदयाधिजायते । आत्मा वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतम । अविशेषण पु़त्राण दाये भवति धर्मतः मिथुनानां विसर्गादो मनुः स्वायम्भुवोब्रवीत

बिना भेद के स्त्री और पुमान दोनो प्रकार के पुत्र (अर्थात लडकी और लडका दोनो ) दायाभाग के अधिकारी होते है यह बात ऋचा और श्लोक से कही गई । अंग अंग से उत्पन होता है हद्रय से उत्पन होता है इसलिए पुत्र आत्मा ही है वह सौ वर्ष तक जीवे (यह ऋचा हुई )। धर्म अर्थात कानून की दृष्टि से दोनो प्रकार के पुत्रो (अर्थात लडका और लडकी दोनो ) के दाया भाग मिलता है ऐसा सृष्टि की आदि मे स्वायभुव मनु ने कहा मनु ने कहा है (यह श्लोक हुआ )


यह मनु कौन थे: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह मनु कौन थे यह कहना कठिन है । जिस प्रकार उपनिषत कारो तथा दर्शनकारो के विषय में बहुत कम ज्ञात है उसी प्रकार मनु के विषय में हम कुछ नही जानते । कही कही तो मनु को केवल धर्म शास्त्र का रचियता बताया गया है और कही कही समस्त सृष्टि की उत्पति ही मनु से बताइ्र्र गई है । आघ्र्य जैसी प्राचीन जाति क साहित्य मे इस प्रकार की कठिनाइयो का होना स्पाभाविक है । इसी शताब्दी के भीतर दयानन्द नाम मे दो व्यक्ति हुये एक आयर्य समाज के संस्थापक और दूसरे सनातमर्ध मंडल के कायर्यकर्ता । इन दोनो के विचारो में आकाश पाताल का भेद है । परन्तु यह बहुत ही संभव है कि कुछ दिनो पश्चात एक के वचन दूसरे के समझ लिये जाॅये । इसी प्रकार प्रतीत ऐसा होता है कि कही तो मनु शब्द ईश्वर का वाचक था कही वेदिक ऋषि का कही धर्मशास्त्र के रचियता का और कही संभव है अन्य किसी का भी । इन सब को किसी प्रकार समय की प्रगति ने मिला – जुला दिया और आगे आने वाले लोगो के लिए विवेक  करना कठिन हो गया । जितने भाष्य मनुस्मृति क इस समय प्राप्य है वह सब मेधातिथि से लेकर आज तक के आधुनिक या पौराणिक युग के ही समझने चाहिए । इसीलिए इनके आधार किसी विशेष निष्चय तक पहुॅचना दुस्तर है । शतपथ ब्राह्मण (13।4।3।3) में आता है

मनुर्वेपस्वतो राजेत्याह तस्य मनुष्या विशः


प्रचलित मनुस्मृति का कर्ता : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

अब मनु के विषय में इतना कहकर मनुस्मृति पर आना चाहिए । प्रश्न यह है कि जो मनु इतना प्रसिद्ध है क्या प्रचलित मनुस्मृति भी उसी की बनाई है भी उसी की बनाई है यदि नही तो मनु के विषय मे इतना राग अलापने का क्या अर्थ हमारा ऐसा मत है कि वर्तमान मनुस्मृति में मनु के विचार है मनु के शब्द नही । और मानते भी सब ऐसा ही है । जिसको लोग मनुस्मृति कहते उसका नाम है भृगुसंहिता । कहते है कि भृगु और उनके शिष्यो ने इसको श्लोक बद्ध किया मनुस्मृति में भी लिखा है:-

एतद वोअयं भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।

एतद्धि मताअधिजरे सर्वषोअखिन मुनि ।।,

ततस्तथा स तनेक्तो महर्षिमनुना भृगुः।।

तानब्रवीहषीन सर्वान प्रीतात्मा श्रयतामिति

(मनु0 1।59 60)

इन श्लोको के आगे पीछे के जो श्लोक है उनका मिलान से यह निश्चय करना कठिन है कि यह संहिता भृगु की ही बनाई हुई है । परन्तु एक बात निश्चित है अर्थात मनुस्मुति आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको  आजकल जिस रूप मे मिलती है और जिसको भृगु सहिता कहते है यह भी कोई नवीन पुस्तक नही है  ।


भृगुसंहिता के कर्ता कौन थे : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यह भृगुसंहिता भृगु की बनाई हैं।  या अन्य किसी की, इस विषय में भी विद्वानों में विवाद हैं। मनु भृगुसंहिता के कर्ता की स्वयं बनाई तो हो ही नहीं सकती। कौन थें ? इतना तो मनुस्मृति के पहले श्लोक से ही विदित हैं –

मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः।

प्रतिपूज्य यथा न्यायमिदं वचनमबु्रवन्।।

अथार्त् जब मनु महाराज एकान्त में बैठे हुए थे तो महर्षियों ने सत्कार-पूर्वक आकर उनसे उपदेश के लिये प्रार्थना की । यदि मनु स्वयं लिखने वाले होते तो इस प्रकार आरंभ न होता।

इस पर कहा जा सकता है कि अन्य स्मृतियों का भी तो आरंभ इसी प्रकार हुआ है। जैसे,

योगेश्वराज्ञवल्क्यं सपूज्य मुनयोऽब्रवन्।

वर्णाश्रमेतरणां नो बू्रहि धर्मानशेषतः।।

हुताग्निहोत्रमासीनमत्रि वेद विदां वरम्।

सर्वशास्त्रविधिज्ञं तमृषिभिश्च नमस्कृतम्।।

नमस्कृत्य च ते सर्व इदं वचनमब्रु वन्।

हितार्थं सर्वलोकानां भगवन् कथयस्व नः।

विष्णुमेकाग्रमासीनं श्रुतिस्मृतिविशारदम्।

पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे कलापग्रामवासिनः।।

इष्ट्ठा क्रतुशतं राजा समाप्त वर दक्षिणम्।

भगवतं गुरूं श्रेष्ठं प्र्यपृच्छद् बृहस्पतिम्।।

हमारा विचार हैं कि याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों के नाम से जो स्मतियाॅ पीछे बनाई गईं वह मनुस्मृति का अनुकरण मात्र थीं। भारतीय साहित्य में एक ऐसा युग आ चुका हैं जब लोग अपनी बनाई हुई चीजों कों पूर्व आचार्यों और ऋषियों के नाम से प्रचलित कर देते थें जिससे सर्वसाधारण में उनका मान हो  सकें। भारतवर्ष में जब बौद्ध, आदि अवैद्कि मतों का प्रचार हुआ और जब वेदों का पुनरूद्धार करने के लिये पौराणिक धर्म ने जोर पकडा तो ऐसी प्रवृति बहुत बढ गई।


मानव धर्म सूत्र और मनुस्मृति का सम्बन्ध: पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यहाँ  यह प्रश्न रह जाता हैं कि क्या मनु के उपदेश आरंभ से ही इन रूप में थे ? इस विषय में भिन्न मानव-धर्म सूत्र भिन्न कल्पनायें की गई हैं। कुछ लोगों का और मनुस्मृति मत है कि पहले एक ग्रन्थ था जिसका नाम का सम्बन्ध था मानव-धर्म-सूत्र। यह सूत्र रूप में था । पीछे से इसको श्लोकों का रूप दिया गया और इस रूप् के देने वाले भृगु ऋषि है। हमने उपर महाभारत शान्तिपर्व के कुछ रूलोक उद्घृत किये हैं जिनमें मनुस्मृति को एक लाख रूलोकों का बताया गया है। इसका उल्लेख करते हुए काणो महोदय (P.V.Kane) लिखते हैं कि शान्तिपर्व अध्याय 59,श्लोक 80-85 में मनु का नाम नहीं है। उसमें धर्म, अर्थ और काम पर ब्रहम्मा द्वारा एक लाख अध्याय का ग्रन्थ बनायं जाने का उल्लेख है जिनको विशालात्य, इन्द्र बाहुदन्तक, बृहस्पति और काव्य ने 10000,5000,3000,और 1000 अध्यायों का कर दिया था। नारदस्मृति की भूमिका में लिखा हैं कि मनु ने एक धर्मशास्त्र बनाया था जिसमें एक लाख श्लोक 1080 अध्याय, तथा 24 प्रकरण थे नारद ने इसको 12000 श्लोकों का करके मारकण्डेय को सिखाया। मारकण्डेय ने इनके 8000 कर दिये। सुमति भार्गव ने फिर काट छाॅट करके इनके 4000 श्लोक कर दिये । इसके पश्चात् नारदस्मृति पहला यह श्लोक देती हैंः-

तत्रायमाद्यः श्लोकः । आसीदिदं तमोभूतं न प्राज्ञायत किंचन। ततः स्वयंभूर्भगवान् प्रादुरासीच् चतुर्मुखः।।

काणे महोदय का विचार है कि यह सव कथन माननीय नहीं हैं। नारदस्मृति आदि पुस्तकों का माना बढाने के लिये यह सब लिख दिये गये हैं। इसमें कुछ आश्चर्य नही हैं। क्योंकि एक लाख श्लोकों की स्मृति का इस प्रकार 4000 श्लोकों तक आना  और फिर उससे भी घटकर 3000 के लगभग हो जाना सन्देह उत्पन्न किये बिना नहीं रह सकता । हेमाद्रि, तथा संस्कारमयूख आदि गन्थों में भविष्य पुराणा का यह उद्धरण मिलता हैंः-


मनुस्मृति और वेद : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

पाठकगण पश्र कर सकते है कि हमारे पास मिलावट जाॅचने की कौन सी तराजू है। इसलिये इस विषय मनुस्मृति और वेद में संक्षेप से कुछ लिख देना असंगत न होगा। मनुस्मृति कोई असम्बद्ध स्वतंत्र पुस्तक नहीं है। यह वैदिक साहित्य का एक ग्रन्थ है। वैदिक धर्म का प्रतिपादन ही इसका काय्र्य है । वेद ही इसका मूलाधार है यह बात कल्पित नहीं है, किन्तु मनुस्मृति से ही सिद्ध है। नीचे के श्लोक इसकी साक्षी है:-

(1)   वेदोऽखिलो धर्ममूलम्।                                                            ( 2।6 )

(2)   वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च पियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।।                     (2।12 )

(3)   प्रमाणं परमं श्रुतिः                                                      (2।13 )

(4)   वेदास्त्यागश्च…………………………………………             (2।97 )