ख) मनु शूद्र अर्थात् दलित विरोधी नहीं थे। विचार करें कि मनुस्मृति में शूद्रों की क्या स्थिति है ?
आजकल की दलित पिछड़ी और जनजाति कही जानेवाली जातियों को मनु ने शूद्र नहीं कहा है, अपितु जो पढ़ने-पढ़ाने का पूर्ण अवसर देने के बाद भी न पढ़ सके और केवल शारीरिक श्रम से ही समाज की सेवा करे, वह शूद्र है। (मनु0 1/90)।
मनु प्रत्येक मनुष्य को समान शिक्षाध्ययन करने का समान अवसर देते हैं। जो अज्ञान, अन्याय, अभाव में से किसी एक भी विद्या को सीख लेता है, वही मनु का द्विज अर्थात् विद्या का द्वितीय जन्मवाला है। परन्तु जो अवसर मिलने के बाद भी शिक्षा ग्रहण न कर सके, अर्थात् द्विज न बन सके वह एक जाति जन्म (मनुष्य जाति का जन्म) में रहनेवाला शूद्र है। दीक्षित होकर अपने वर्णों के निर्धारित कर्मों को जो नहीं करता, वह शूद्र हो जाता है, और शूद्र कभी भी शिक्षा ग्रहण कर ब्राह्मणादि के गुण, कर्म, योग्यता प्राप्त कर लेता है, वह ब्राह्मणादि का वर्ण प्राप्त कर लेता है। प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है। संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है (स्कन्दपुराण)। इस प्रकार मनुकृत शूद्रों की परिभाषा वर्तमान शूद्रों और दलितों पर लागू नहीं होती। (10/4, 65 आदि)।
महर्षि मनु और मनुस्मृति के सबन्ध में आज सर्वाधिक ज्वलन्त विवाद शूद्रों को लेकर है। पाश्चात्य और उनके अनुयायी लेखकों तथा डॉ. अम्बेडकर र ने आज के दलितों के मन में यह भ्रम पैदा कर दिया है कि मनु ने अपनी स्मृति में उनको घृणित नाम ‘शूद्र’ दिया है और उनके लिए पक्षपातपूर्ण एवं अमानवीय विधान किये हैं। गत शतादियों में शूद्रों के साथ हुए भेदभाव एवं पक्षपातपूर्ण व्यवहारों के लिए उन्होंने मनुस्मृति को भी जिमेदार ठहराया है। इस अध्याय में मनुस्मृति के आन्तरिक प्रमाणों द्वारा इस तथ्य का विश्लेषण किया जायेगा कि उपर्युक्त आरोपों में कितनी सच्चाई है, क्योंकि अन्तःसाक्ष्य सबसे प्रभावी और उपयुक्त प्रमाण होता है।
सर्वप्रथम ‘शूद्र’ नाम को लेकर जो गलत धारणाएं बनी हुई हैं, उन पर विचार किया जाता है।
वर्णव्यवस्था के आलोचक और मनु-विरोधी लोग यह आपत्ति करते हैं कि शूद्रों की उत्पत्ति पैरों से क्यों कही गयी? क्योंकि यह बहुत ही अपमानजनक है, और घृणास्पद है।
इस आपत्ति को करने वाले लोग भावुकतावश अपनी अज्ञानता का ही परिचय दे रहे हैं। ऐसा करके वे चार भूलें कर रहे हैं-
अब मैं पाठकों के समक्ष उन प्रमाणों को प्रस्तुत करता हूं जो मेरी उपर्युक्त स्थापना को सही सिद्ध करेंगे-
जन्म पर आधारित जाति-पांति व्यवस्था सारे विवादों की जड़ है। उसने समाज में विघटन पैदा करके समाज और राष्ट्र की असीम हानि की है। उसी ने वर्णव्यवस्था को विकृत किया, उसी ने वर्णों में ऊंच-नीच, सवर्ण-असवर्ण, छूत-अछूत आदि का व्यववहार उत्पन्न किया। वैदिक काल में कर्मणा वर्णव्यवस्था में इस प्रकार का भेदभाव नहीं था, मनुष्य-मनुष्य में अमानवीय अन्तर नहीं था। वैदिक साहित्य में हमें जो उल्लेख मिलते हैं उनमें स्पष्ट शदों में सभी मनुष्यों को एक ब्रह्म की सन्तान माना गया है और एक ‘ब्रह्म वर्ण’ से ही अन्य तीन वर्णों की उत्पत्ति मानी है। इस स्थिति में ऊंच-नीच, छूत-अछूत आदि का अवसर ही नहीं था। स्पष्ट है कि भेदभाव का व्यवहार न केवल वर्णव्यवस्था की मूल भावना के विरुद्ध है अपितु भारतीय संस्कृति के भी विरुद्ध है। भेदभाव की संस्कृति एक विकृति है जो वैदिक संस्कृति से मेल नहीं खाती। देखिए, शास्त्र क्या कहते हैं-
(क) शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद् की एक आयापिका में यह स्पष्ट किया है कि सभी वर्ण ब्राह्मणवर्ण से ही निष्पन्न हैं-
‘‘ब्रह्म वा इदमासीदेकमेव, तदेकं सन् न व्यभवत्। तत् श्रेयोरूपमत्यसृजत् क्षत्रम्,…..सः नैव व्यभवत्, स विशमसृजत्, ……सः नैव व्यभवत्, सः शौद्रं वर्णमसृजत्।’’ (शतपथ 14.4.2.23-25; बृह0 उप0 1.4. 11-13)
मनुस्मति में वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में केवल चार वर्णों के निर्माण का कथन है और उनके कर्त्तव्यों का निर्धारण है। किसी भी वर्ण में किसी जाति का उल्लेख नहीं है (1.31.87-91)। यही तर्क यह संकेत देता है कि मनु ने किसी जातिविशेष को शूद्र नहीं कहा है और न किसी जातिविशेष को ब्राह्मण कहा है। आज के शूद्र जातीय लोगों ने मनूक्त ‘शूद्र’ नाम को बलात् अपने पर थोप लिया है। मनु ने उनकी जातियों को कहीं शूद्र नहीं कहा।
परवर्ती समाज और व्यवस्थाकारों ने समय-समय पर शूद्र संज्ञा देकर कुछ वर्णों और जातियों को शूद्रवर्ग में समिलित कर दिया। कुछ लोग भ्रान्तिवश इसकी जिमेदारी मनु पर थोप रहे हैं। विकृत व्यवस्थाओं का दोषी तो है परवर्ती समाज, किन्तु उसका अपयश मनु को दिया जा रहा है। न्याय की मांग करने वाले दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधियों का यह कैसा न्याय है? जब मनु ने वर्णव्यवस्था के निर्धारण में उनकी जातियों का उल्लेख ही नहीं किया है तो वे निराधार क्यों कहते हैं कि मनु ने उनको ‘शूद्र’ कहा है?
अ) मनुस्मृति में वर्णित महर्षि मनु की वर्णव्यवस्था के अनुसार शूद्र आर्य हैं और सवर्ण हैं। मनु की व्यवस्था है कि आर्यों के समाज में चार वर्ण हैं (द्रष्टव्य 10.4 श्लोक)। उन चार वर्णों के अन्तर्गत होने से शूद्रवर्ण सवर्ण भी है और आर्यों के समाज का अंग भी है। मनु ने केवल उस व्यक्ति को अनार्य और असवर्ण माना है जो वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत नहीं है-
‘‘वर्णापेतम्…….आर्यरूपमिव-अनार्यम्’’ (10.57)
अर्थ-‘जो चार वर्णों में दीक्षित न होने से चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था से बाहर है और जो अनार्य है किन्तु आर्यरूप धारण करके रहता है, वह दस्यु है।’
मनु की वर्ण-व्यवस्था में आर्य-अनार्य, सवर्ण-असवर्ण का भेद संभव ही नहीं है, क्योंकि मुयतः चार वर्णों के ही परिवारों से गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार चार वर्ण बनते हैं। चारों वर्णों के व्यक्ति आर्य भी हैं और सवर्ण भी। शूद्र को अनार्य और असवर्ण परवर्ती जातिव्यवस्था में माना गया है; अतः उसका दायित्व मनु का नहीं, जातिवादियों का है। जातिवादियों ने मनु की बहुत-सी व्यवस्थाओं को बदल डाला है, ऐसी ही शूद्र-सबन्धी व्यवस्थाएं हैं। अनभिज्ञ लेखक और पाठक उन्हें मनु की व्यवस्था कहते हैं, यथा-
डॉ0 अम्बेडकर र मनु की मान्यता को उद्धृत करते हुए दृढ़ता से शूद्रों को आर्य तथा सवर्ण मानते हैं। उन्होंने उन लेखकों का जोरदार खण्डन किया है जो शूद्रों को अनार्य औेर ‘बाहर से आया हुआ’ मानते हैं। यह मत उन्होंने दर्जनों स्थानों पर व्यक्त किया है। यहां कुछ प्रमुख मत उद्धृत किये जा रहे हैं-
(क) ‘‘दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गयी है कि शूद्र अनार्य थे। किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस सबन्ध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 319)
(ख) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)
(ग) ‘‘शूद्र आर्य ही थे अर्थात् वे जीवन की आर्य पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है। शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और समानित सदस्य थे।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 322)
मनु ने शूद्रों को निन या अछूत नहीं माना है। उनका शूद्रों के प्रति महान् मानवीय दृष्टिकोण है। ये आरोप वे लोग लगाते हैं जिन्होंने मनुस्मृति को ध्यान से नहीं पढ़ा, या जो केवल ‘विरोध के लिए विरोध करना’ चाहते हैं। कुछ प्रमाण देखें-
(अ) मनु के मत में शूद्र अछूत नहीं
मनुस्मृति में शूद्रों को कहीं अछूत नहीं कहा है। मनु की शूद्रों के प्रति समान व्यवहार और न्याय की भावना है। मनुस्मृति में वर्णित व्यवस्थाओं से मनु का यह दृष्टिकोण स्पष्ट और पुष्ट होता है कि शूद्र आर्य परिवारों में रहते थे और उनके घरेलू कार्यों को करते थे-
(क) शूद्र को अस्पृश्य (=अछूत), निन्दित मानना मनु के सिद्धान्त के विरुद्ध है। महर्षि मनु ने शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिए ‘‘शुचि’’ = पवित्र, ‘‘ब्राह्मणाद्याश्रयः’’ = ‘ब्राह्मण आदि के साथ रहने वाला’ जैसे विशेषणों का उल्लेख किया है। ऐसे विशेषणों वाला और द्विजों के मध्य रहने वाला व्यक्ति कभी अछूत, निन्दित या घृणित नहीं माना जा सकता। निनलिखित श्लोक देखिए-
क) महर्षि मनु परम दयालु एवं मानवीय दृष्टिकोण के थे। उन्होंने शूद्रों के प्रति मानवीय सद्भावना व्यक्त की है और उन्हें यथोचित समान दिया है। निनांकित श्लोक में मनु का आदेश है कि द्विजवर्णस्थ व्यक्तियों के घरों में यदि शूद्र वर्ण का व्यक्ति आ जाये तो उसका अतिथिवत् भोजन-साान करें-
वैश्य शूद्रावपि प्राप्तौ कुटुबेऽतिथिधर्मिणौ।
भोजयेत् सह भृत्यैस्तावानृशंस्यं प्रयोजयन्॥ (3.112)
(ख) डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा समर्थन-डॉ0 अम्बेडकर र ने इस श्लोक के अर्थ को प्रमाण-रूप में उद्धृत किया है, जो यह संकेत देता है कि वे मनु के इस कथन को स्वीकार करते हैं और यह भी भाव इससे स्पष्ट होता है कि आर्य द्विजों के घर में अतिथि के रूप में सत्कार पाने वाले शूद्र, मनुमतानुसार अस्पृश्य, नीच, निन्दित या घृणित नहीं होते-
‘‘यदि कोई वैश्य और शूद्र भी उसके (ब्राह्मण के) घर अतिथि के रूप में आए तब वह उसके प्रति दया का भाव प्रदर्शित करते हुए अपने सेवकों के साथ भोजन कराए (मनुस्मृति 3.112)।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 9, पृ0 112)
(क) वैदिक या मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था में सभी वर्णों का उद्भव एक ही परमात्मपुरुष अथवा ब्रह्मा के अंगों से माना है। ध्यान दें, यह आलंकारिक उत्पत्ति वर्णस्थ व्यक्तियों की नहीं है अपितु चार वर्णों की है। इस वर्णन से उन-उन वर्णों के कर्मों पर प्रतीकात्मक प्रकाश डाला गया है-
लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥ (1.31)
अर्थ-समाज की समृद्धि एवं उन्नति के लिए मुख, बाहु, जंघा और पैर की तुलना से क्रमशः ब्राह्मणवर्ण, क्षत्रियवर्ण, वैश्यवर्ण और शूद्रवर्ण का निर्माण किया। उसी तुलना से, मुख के समान पढ़ाना, प्रवचन करना, ब्राह्मणवर्ण का कर्म निर्धारित किया। बाहुओं के समान रक्षा करना क्षत्रियवर्ण का, जंघा के समान व्यापार से धनसपादन करना वैश्यवर्ण का, और पैर के समान श्रम कार्य करना शूद्रवर्ण का कर्म निर्धारित किया। इस श्लोक में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, व्यक्तियों का नहीं।
वेदों को परमप्रमाण और अपनी स्मृति का स्रोत मानने वाले मनु वेदोक्त आदेशों-निर्देशों के विरुद्ध न तो जा सकते हैं और न उनके विरुद्ध विधान कर सकते हैं। इसलिए हम यह कल्पना भी नहीं कर सकते कि उन्होंने अपनी स्मृति में मौलिक रूप से शूद्रों के प्रति कोई असद्भाव प्रदर्शित किया होगा। उन्हें वेदों का गभीर ज्ञान था, उस परपरा के वे संवाहक थे, अतः उनके विधान सद्भावपूर्ण थे। उनमें से कुछ पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वेदों में शूद्रों के प्रति सद्भाव का वर्णन वाले कुछ मन्त्र उद्धृत किये जाते हैं-
(क) रुचं नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि देहि रुचा रुचम्॥
(यजुर्वेद 18.48)
अर्थ-सबसे प्रीति की कामना करता हुआ व्यक्ति कहता है-हे परमेश्वर या राजन्! ब्राह्मणों में हमारी प्रीति हो, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों में हमारी प्रीति हो। आप मुझमें सबसे प्रीति करने वाले संस्कार धारण कराइये।
मनुस्मृति का गंभीर अध्ययन किये बिना अथवा एकांगी अध्ययन के आधार पर जब मनु पर आरोपों का सिलसिला बना तो कुछ लोग जो मन में आया, वही आरोप लगाने लगे। यह भी कहा गया कि मनु ने शूद्रों को दास घोषित किया है। मनु बड़ा क्रूर था, उसने शूद्रों के लिए बर्बरतापूर्ण विधान किये, आदि-आदि।
महर्षि मनु का चरित्र-चित्रण
इस प्रकार के आरोप महर्षि मनु पर सही सिद्ध नहीं होते। क्योंकि मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों के आधार पर जब हम मनु का चरित्र-चित्रण करते हैं, अथवा मनौवैज्ञानिक विश्लेषण करते हैं तो हमें मनु दयालु मानसिकता के व्यक्ति ज्ञात होते हैं। बाह्यग्रन्थों के मनु-विषयक प्रमाण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं।
मनु शूद्रों की दासता के पक्षधर या पोषक नहीं हैं। उन्होंने शुद्रों, सेवकों, स्त्री-कर्मचारियों आदि का वेतन, पद और स्थान के अनुरूप देने का आदेश दिया है-
(क) राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।
प्रत्यहं कल्पयेद् वृत्तिं स्थानकर्मानुरूपतः॥ (7.125)
अर्थात्-‘राजा काम पर लगाये जाने वाले श्रमिकों, सेवकों, स्त्रियों का प्रतिदिन का वेतन, काम, पद और स्थान के अनुरूप निर्धारित कर दे।’ इसका स्पष्ट भाव यह है कि मनु के मतानुसार शूद्रों और स्त्रियों से दासता कराना वर्जित है।
(ख) निन श्लोक में विधान है कि रोग आदि होने पर यदि भृत्य दीर्घ अवकाश लेता है तो उसे वेतन मिलना चाहिए। इस विधान का आधार मानवीय है। दास के लिए कभी ऐसा विधान नहीं होता-
‘‘स दीर्घस्यापि कालस्य तल्लभेतैव वेतनम्।’’ (8.216)
डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-
(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-
‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)
सृष्टि के आरभिक युग में विश्व के लिए विद्याओं की अनेक विधाओं के द्वार खोलने वाले, धर्मविशेषज्ञ, महर्षि और राजर्षि मनु पर कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि मनु ने शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित करके उनको अज्ञानता के गर्त में डाल दिया। उनका कहना है कि मनु ने केवल ब्राह्मणों को शिक्षा का एकाधिकार प्रदान किया है।
मनु पर यह आरोप निराधार है, भले ही कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों के संदर्भ में सरसरी तौर पर यह ठीक लगता हो। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसा कथन मनु की मूल भावना के ही विरुद्ध है। मनु तो आदियुग के सर्वशिक्षा समर्थक और सर्वप्रेरक शिक्षाप्रेमी राजर्षि थे। उनके द्वारा द्विजातियों को अधिक महत्त्व दिए जाने और एकजाति (अशिक्षित) को कम महत्त्व देने के मूल में वस्तुतः शिक्षा को ही समान और महत्त्व दिया गया है। आज भी तो यही है। सब जगह उच्चशिक्षितों और प्रशिक्षितों को ही महत्त्व और समान मिल रहा है। सरकार उन्हीं को ऊँची नौकरी देती है।
मनु आदियुग के सर्वजन शिक्षा-समर्थक एवं प्रेरक थे, इस तथ्य की पुष्टि मनुस्मृति के एक अन्तःप्रमाण से हो जाती है। इस प्रमाण के समक्ष कोई दूसरा महान् प्रमाण नहीं हो सकता और न कोई विरोधी प्रमाण सामने टिक सकता है। पाठक तटस्थ भाव से इस प्रमाण पर चिन्तन करें और फिर देखें कि मनु शिक्षा के कितने पक्षधर थे। मनु बिना किसी भेदभाव के पृथ्वी के (विश्व के) सभी मानवों का शिक्षा प्राप्ति के लिए आह्वान करते हुए कहते हैं-
एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः।
महर्षि मनु ने अपनी स्मृति में यह प्रतिज्ञापूर्वक घोषणा की है कि धर्म का मूलस्रोत वेद हैं और मेरी स्मृति वेदों पर आधारित है। देखिए, कुछ प्रमाण-
(क) ‘‘वेदोऽखिलो धर्ममूलम्’’ (2.6)
अर्थात्-सपूर्ण वेद धर्म के मूलस्रोत हैं।
(ख) ‘‘प्रमाणं परमं श्रुतिः’’ (2.13)
अर्थात्-धर्म निश्चय में सर्वोच्च प्रमाण वेद हैं। इसलिए-
‘‘श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै।’’ (2.8)
अर्थात्-विद्वान् वेद को प्रमाण मानकर अपने धर्म का पालन करे।
क) विवाह में यज्ञ और मन्त्रोच्चारण-मनुस्मृति में चार वर्णों के लिए आठ विवाहों का वर्णन किया है जिनमें आर्यों के लिए चार विवाह श्रेष्ठ बताये हैं-ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य
(3.20-42)। ये चारों विवाह यज्ञीय विधि से वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक सपन्न होते हैं (‘‘मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः। प्रयुज्यते विवाहेषु’’ (5.152)=यज्ञानुष्ठान और स्वस्तिवाचक मन्त्रों का पाठ विवाह में किया जाता है)। इस प्रकार शूद्र का विवाह भी यज्ञानुष्ठान और वेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक सपन्न करना मनु मतानुसार अनिवार्य है। स्पष्ट है कि इस मौलिक विधि में शूद्रों के लिए धार्मिक अनुष्ठानों का विधान है। मनुस्मृति में इस मौलिक विधान और मूल-भावना के विरुद्ध जो श्लोक वर्णित मिलते हैं, वे परस्पर विरुद्ध होने प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं, जो कि बाद के लोगों ने मिलाये हैं।
(ख) मनु ने मनुस्मृति में शूद्रों को धर्म का अधिकार देते हुए कहा है-
‘‘न धर्मात् प्रतिषेधनम्’’ (10.126)
पूर्व प्रदर्शित वेदोक्त मान्यता की परपरा वेदों से लेकर पुराणकाल तक निरन्तर मिलती है, जिसमें शूद्रों के लिए सुस्पष्ट रूप से धर्मानुष्ठानों का विधान और वर्णन है। मनु इसी वैदिक कालावधि के राजर्षि हैं, अतः उनके द्वारा शूद्रों के यज्ञ आदि का निषेध संभव नहीं माना जा सकता। धर्मानुष्ठान में भेदभाव का कथन पुराणों और पुराणाधारित साहित्य की देन है। फिर भी पुराणों में भेदभाव रहित प्राचीन धर्मानुष्ठान-परपरा का उल्लेख प्राचीन अंशों में कहीं-कहीं सुरक्षित है। यह इस तथ्य का संकेत है कि पुराणपूर्व काल में धर्मानुष्ठान के विषय में कोई भेदभाव नहीं था और इसका भी कि सभी पुराण शूद्रों के लिए वेद, यज्ञ आदि धार्मिक अधिकारों का निषेध नहीं मानते। यहां उस परपरा का दिग्दर्शन संक्षेप में कराया जा रहा है जिससे कोई पौराणिक भी यह आग्रह न करे कि शूद्रों के लिए धर्माधिकार के निषेध की परपरा प्राचीन और पुराणसमत है-
(क) शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ में सोमपान के प्रसंग में शूद्र के लिए भी विधान है-
‘‘चत्वारो वै वर्णाः ब्राह्मणो राजन्यो वैश्यः शूद्रः, न ह एतेषां एकश्चन भवति यः सोमं वमति। स यद् ह एतेषां एकश्चित् स्यात् ह एव प्रायश्चित्तिः।’’ (5.5.4.9)
अर्थ-वर्ण चार हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें कोई भी यज्ञ में सोम का त्याग नहीं करेगा। यदि एक भी कोई करेगा तो उसको प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।
जैसा कि प्रथम अध्याय में प्रमाण-सहित दर्शाया गया है कि मनु की वर्णव्यवस्था का प्रसार आदिकालीन विश्व में व्यापक स्तर पर था। मनु ने अपना प्रमुख राज्य अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत को सौंपा था। उसने उसको अपने सात पुत्रों में सात विभाग करके बांट दिया। मनुकालीन उन सात द्वीपों अर्थात् देशों में मनु द्वारा निर्धारित समाज-व्यवस्था व्यवहार में थी। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में जो मनुकालीन इतिहास दिया है और सांस्कृतिक विवरण दिया है उसके अनुसार सभी छह देशों में चारों वर्णों को यज्ञानुष्ठान और धर्मपालन का अधिकार था तथा चारों वर्ण यज्ञ करते थे। प्रमाण सहित उसका वर्णन प्रस्तुत है। पौराणिक जन इस विवरण को ध्यान से पढ़ें क्योंकि वही शूद्रों को यज्ञ आदि का निषेध करते हैं। ये पुराणों के ही प्रमाण हैं-
(क) कुशद्वीप में शूद्रों द्वारा यज्ञानुष्ठान-
ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्याः शूद्राश्चानुक्रमोदिताः॥
तत्र ते तु कुशद्वीपे……..यजन्तः क्षपयन्ति॥
(विष्णु पुराण 2.4.36, 39)
मनु की वर्णव्यवस्था में शूद्रों का सामाजिक सम्मान
(अ) समान-व्यवस्था के आधार
वैदिक या मनु की समान-व्यवस्था में गुणों का ही महत्त्व था। जन्म को बड़प्पन अथवा समान का मानदण्ड कहीं नहीं माना गया है। महर्षि मनु लिखते हैं-
(क) वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद् यदुत्तरम्॥ (2.136)
अर्थ-धन, बन्धुपन, आयु, श्रेष्ठ कर्म, विद्वत्ता ये पांच समान के मानदण्ड हैं। इनमें बाद-बाद वाला मानदण्ड अधिक महत्त्वपूर्ण है। अर्थात् सर्वाधिक मान्य विद्वान् है, उसके बाद क्रमशः श्रेष्ठ कर्म करने वाला, आयु में बड़ा, बन्धु-बान्धव, धनवान् हैं। यह सामूहिक समान की मर्यादा है। यदि एक वर्ण वाले एकत्र हों तो वहां समान-व्यवस्था इस प्रकार होगी –
(ख) विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः।
वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः॥ (2.155)
अर्थ-ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से, क्षत्रियों में अधिक बल से, वैश्यों में अधिक धन-धान्य से, शूद्रों में अधिक आयु से बड़प्पन और समान होता है।
(आ) शूद्रों को समान-व्यवस्था में छूट-
मनु का शूद्रों के प्रति सद्भावपूर्ण एवं मानवीय दृष्टिकोण देखिए कि द्विजवर्णों में अधिक गुणों के आधार पर समान का विधान होते हुए भी उन्होंने शूद्र को विशेष छूट दी है कि यदि शूद्र नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो उसे पहले समान दें-
पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च।
यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः, शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥ (2.137)
अर्थ-तीन द्विज-वर्णों में समान गुण वाले अनेक हों तो जिसमें श्लोक 2.136 में उक्त पांच गुणों में से अधिक गुण हों, वह पहले समाननीय है किन्तु शूद्र यदि नबे वर्ष से अधिक आयु का हो तो वह भी पहले समाननीय है।
पाठकवृन्द! आइये, सबसे अधिक चर्चित मनुविहित दण्डव्यवस्था पर दृष्टिपात करते हैं। यह कहना नितान्त अनुचित है कि मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दण्डों का विधान किया है और ब्राह्मणों को विशेषाधिकार एवं विशेष सुविधाएं प्रदान की हैं। मनु की दण्डव्यवस्था के मानदण्ड हैं-गुण और दोष; और आधारभूत तत्व हैं-बौद्धिक स्तर, सामाजिक स्तर या पद और उस अपराध का प्रभाव। मनु की दण्डव्यवस्था यथायोग्य दण्डव्यवस्था है, जो मनोवैज्ञानिक है। यदि मनु गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर उच्च वर्णों को अधिक समान और सामाजिक स्तर प्रदान करते हैं तो अपराध करने पर उतना ही अधिक दण्डाी देते हैं।
(अ) शूद्रों को सबसे कम दण्ड का विधान
मनु की यथायोग्य दण्डव्यवस्था में शूद्र को सबसे कम दण्ड है, और ब्राह्मणों को सबसे अधिक; राजा को उससे भी अधिक। मनु की यह सर्वसामान्य दण्डव्यवस्था है, जो सैद्धान्तिक रूप में सभी दण्डनीय अवसरों पर लागू होती है-
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)
अर्थात्-किसी चोरी आदि के अपराध में शूद्र को आठ गुणा दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलहगुणा, क्षत्रिय को बत्तीसगुणा, ब्राह्मण को चौंसठगुणा, अपितु उसे सौगुणा अथवा एक सौ अट्ठाईसगुणा दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उत्तरोत्तर वर्ण के व्यक्ति अपराध के गुण-दोषों और उनके परिणामों, प्रभावों आदि को भली-भांति समझने वाले हैं।
(आ) उच्च वर्णों को अधिक दण्ड
मनु की व्यवस्था में जो जितना बड़ा है उसको उतना अधिक दण्ड विहित है-
पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।
नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)
कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)
पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।
नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)
कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)
उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)
इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?
अ) शूद्रों को उच्चवर्ण की प्राप्ति के अवसर
मनु की कर्म पर आधारित वैदिक वर्णव्यवस्था की यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वे प्रत्येक वर्ण को जीवन भर वर्ण-परिवर्तन का अवसर देते हैं। जन्मना जातिवाद के समान जीवन भर एक ही जाति नहीं रहती। शूद्र कभी भी उच्चवर्ण की योग्यता प्राप्त कर उच्चवर्ण में स्थान पा सकता है। देखिये, मनु का कितना स्पष्ट मत है जिसको पढ़कर तनिक भी संदेह नहीं रहता-
(क) शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षतियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव च॥ (10.65)
अर्थ-‘शूद्र वर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण के गुण, कर्म, योग्यता को अर्जित कर ब्राह्मण बन सकता है और ब्राह्मण, गुण, कर्म, योग्यता से हीन होने पर शूद्र हो जाता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में उत्पन्न सन्तानों का भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।’
डॉ0 अम्बेडकर ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)
इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-