Manu Smriti
वर्ण व्यवस्था
 
वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का दृष्टिकोण

प्रश्न: क्या जिसके माता ब्राह्मणी, पिता ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मण होता है ? और जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ हों, उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है ?

उत्तर: हाँ बहुत से हो गये, होते हैं और होंगे भी। जैसे छान्दोग्य उपनिषद् में जाबाल ऋषि अज्ञातकुल, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख शूद्र के योग्य होता है और वैसा ही आगे भी होगा।


आदिकालीन विश्व में मनु, मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था के प्रमाण-डॉ. सुरेन्द कुमार

 

आगे हम सप्रमाण यह पढ़ेंगे कि आदि मानवसृष्टि-कालीन ऋषि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव इस सृष्टि का आदिराजा बना। वह चक्रवर्ती सम्राट् था। ब्रह्मर्षि ब्रह्मा ने वेदों से ज्ञान प्राप्त करके जो वर्णाश्रम व्यवस्था का प्रतिपादन किया था, उसको मनु ने अपने शासन में क्रियात्मक रूप दिया और आवश्यकतानुसार उसमें नयी व्यवस्थाओं का समन्वय किया। इस कारण वर्णाश्रमव्यवस्थाधारित समाज-व्यवस्था के सर्वप्रथम संस्थापक मनु स्वायंभुव कहलाये। आदि सृष्टि का प्रमुख पुरुष होने के कारण और ‘मानव’ वंश का प्रतिष्ठापक होने के कारण उसे ‘आदि-पुरुष’ भी माना गया है। धर्मविशेषज्ञ और धर्मप्रवक्ता होने के कारण उसे धर्मप्रदाता और आदिविधिप्रदाता का सम्मान प्राप्त है। मनु को यह श्रेय भारत ही नहीं अपितु अपने समय के सम्पूर्ण आवासित विश्व में प्राप्त था, इस तथ्य का ज्ञान हमें संस्कृत के प्राचीन इतिहासों और विश्व के इतिहासों से मिलता है।

 

यह स्वायम्भुव मनु के पौत्रों के समय का इतिहास सौभाग्य से प्राप्त है जो हमें यह जानकारी दे रहा है कि आदि मानवसृष्टि काल में केवल वर्णाश्रम व्यवस्था ही समाज की व्यवस्था थी, जो विश्वव्यापी थी। इस प्रकार यह विश्व की सर्वप्रथम समाज-व्यवस्था थी और इसके सर्वप्रथम व्यवस्थापक स्वायम्भुव मनु थे।

 


शारीरिक रंग का वर्णों से सबन्ध : एक भ्रान्ति: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णों की संरचना-प्रक्रिया तथा वर्णव्यवस्था के इतिहास को न जानने-समझने वाले कुछ कथित लेखकों ने जाने या अनजाने में एक भ्रान्ति फैला दी है कि वर्णों का निर्धारण शरीर के वर्ण के आधार पर किया गया था, अथवा होता था। यह भ्रान्ति जिन संदर्भों के आधार पर उत्पन्न हुई है उनको गभीरता से न तो समझा गया है और न उस पर चिन्तन किया गया है। यदि किसी संस्कृत के ग्रन्थ में भी यह बात कही गयी है तो वह भी मिथ्या चिन्तन का परिणाम है।

वस्तुतः, जहां कहीं वर्णों के संदर्भ में शारीरिक वर्णों (रंगों) की चर्चा है वह केवल प्रतीकात्मक है। यह प्रतीकात्मकता पुराकाल में भी रही है और आज भी है। जैसे, तिरंगे ध्वज में तीनों रंग एक-एक विशेषता के प्रतीक हैं। केसरिया त्याग का, सफेद शान्ति का, हरा समृद्धि का प्रतीक है। काला धन, सफेद धन, लाल झंडा, पीत पत्रकारिता, सड़कों पर लगी तीन रंगों की बत्तियां, गाड़ियों पर लगी लाल-पीली हरी बत्तियां आदि सभी प्रतीक हैं किसी भाव या गुण की। आज भी जब यह कहा जाता है कि ‘यह आदमी काले दिल का है’ या ‘बड़ा काला है’ तो उसका अभिप्राय शरीर के रंग से नहीं होता अपितु उसकी प्रकृति की विशेषता को व्यक्त करता है। इसी प्रकार चारों वर्णों की मूल प्रकृति को कभी-कभी रंगों की प्रतीकात्मकता के द्वारा व्यक्त किया जाता रहा है। वहां वर्णानुसार शरीर के रंग से अभिप्राय नहीं है।


वर्णों में जातियों की गणना नहीं-डॉ सुरेन्द्र कुमार

मनु की कर्मणा वर्णव्यवस्था का साधक एक बहुत बड़ा प्रमाण यह है कि मनु ने केवल चार वर्णों का उल्लेख किया है और वर्णों के अन्तर्गत किन्हीं जातियों का परिगणन नहीं किया है। इससे दो तथ्य स्पष्ट होते हैं- एक, मनु के समय जन्मना कोई जाति नहीं थी। दो, जन्म का वर्णव्यवस्था में कोई महत्त्व नहीं था और न उसके आधार पर वर्ण की प्राप्ति होती थी। यदि मनु के समय जातियां होतीं और जन्म के आधार पर वर्ण का निर्धारण होता तो वे उन जातियों का परिगणन अवश्य करते और बतलाते कि अमुक जातियां ब्राह्मण हैं, अमुक क्षत्रिय हैं, अमुक वैश्य हैं और अमुक शूद्र हैं। मनु ने प्रथम अध्याय (1.31, 87-92) में जब वर्णों की उत्पत्ति बतलायी है, तब केवल चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण का उल्लेख किया है। वहां किसी भी जाति की उत्पत्ति का वर्णन या उल्लेख न होना यह सिद्ध करता है कि मनुस्मृति की व्यवस्था से जन्मना जातियों का कोई सबन्ध नहीं था। दशम अध्याय में कुछ जातियों का अप्रासंगिक वर्णन है जो स्पष्टतः बाद में मिलाया गया प्रक्षिप्त प्रसंग है। यदि वह मनुकृत मौलिक होता तो वह प्रथम अध्याय के वर्णोत्पत्ति प्रसंग (1.31, 87-91) में ही वर्णित मिलता।

    निष्कर्ष-मनु का समय अति प्राचीन है। यद्यपि उन्होंने मनुस्मृति में जो आदर्श जीवनमूल्य, मर्यादाएं और धर्म का स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह सार्वभौम एवं सार्वकालिक है, किन्तु जो देश-काल-परिस्थितियों पर आधारित व्यवस्थाएं हैं, वे तदनुसार परिवर्तनीय हैं। मनु ने अपने समय जिस सामाजिक व्यवस्था को ग्रहण किया वह उस समय की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था थी। यही कारण है वह व्यवस्था अत्यन्त व्यापक प्रभाव वाली रही और हजारों वर्षों तक वह विश्व के अधिकांश भाग में प्रचलित रहती रही है। इस कालचक्र में कुछ व्यवस्थाएं अपने मूल स्वरूप को खोकर विकृत हो गयीं। आज राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियां बदलीं, हम राजतन्त्र से प्रजातन्त्र में आ गये। समयानुसार अनेक सामाजिक व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन हुआ। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि प्राचीनता हमारे लिए पूर्णतः अग्राह्य और अपमान की वस्तु बन गयी


मनु की वर्णव्यवस्था में जन्म की उपेक्षा: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था सामाजिक और प्रशासनिक दोनों व्यवस्थाओं का मिला-जुला रूप थी, जो मृत्युपर्यन्त व्यवहृत होती थी, किन्तु यह निर्विवाद रूप से सुनिश्चित है कि वह जन्म के आधार पर निर्णीत नहीं होती थी। ‘जन्म’ उसका निर्णायक तत्त्व नहीं था। वर्णव्यवस्था में ‘जन्म’ गौण अथवा उपेक्षित तत्त्व था। उसकी जातिव्यवस्था से कुछ भी समानता नहीं थी। अतः उसकी जातिव्यवस्था से तुलना करना न्यायसंगत नहीं है। जो लोग ऐसा करते हैं उन्हें वर्णव्यवस्था के वास्तविक या यथार्थ स्वरूप का सही ज्ञान नहीं है या वे सही स्थिति को स्वीकार करना नहीं चाहते।

सपूर्ण मनुस्मृति में महर्षि मनु ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि ब्राह्मण आदि जन्म से होते हैं अथवा ब्राह्मण आदि का पुत्र ब्राह्मण आदि ही हो सकता है। मनु ने निर्धारित कर्मों को करने वाले को ही उस-उस वर्ण का माना है। ब्राह्मण किस प्रकार बनता है? इसका स्पष्ट निर्देश मनु ने निनलिखित श्लोक में दिया है-

       स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

       महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥     (2.28)


वर्णधारण और वर्णपरिवर्तन आदि की प्रक्रिया: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि वैदिक या मनु की वर्णव्यवस्था में वर्णधारण, वर्णनिर्धारण, वर्णपरिवर्तन, वर्णपतन और वर्णबहिष्कार की क्या प्रक्रिया थी?

    (क) वर्णधारण-सर्वप्रथम, आचार्य, आचार्या अथवा शिक्षासंस्था का मुखिया निर्धारित आयु में विधिवत् शिक्षा प्राप्त कराने के लिए गुरुकुल में आने वाले बालक या बालिका का उपनयन संस्कार (विद्या संस्कार) करके उसे इच्छित वर्ण में दीक्षित करता था, अथवा वर्ण धारण कराता था। यह वर्णधारण बालक-बालिका की रुचि या लक्ष्य, अथवा माता-पिता की इच्छा के अनुसार होता था, जैसे आज भी प्राथमिक विद्यालयों में माता-पिता बालक-बालिका को अपनी इच्छा के अनुसार विषयों का अध्यापन करवाते हैं। किन्तु, शिक्षा प्राप्त करते समय जैसे बड़े बच्चों की रुचि बदल जाती है और वे स्वयं अपना व्यावसायिक लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं, उसी प्रकार गुरुकुल में अध्ययन करते समय बालक भी वर्णशिक्षा में परिवर्तन कर सकते थे। वर्णशिक्षा के लिए प्रवेश की सर्वसामान्य आयु इस प्रकार निश्चित थी- ब्राह्मणवर्ण की शिक्षार्थ प्रवेश की आयु 5-7 वर्ष, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 6-10, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 8-11 वर्ष (मनुस्मृति 2.36-37)। शिक्षार्थ प्रवेश की अधिकतम आयु ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा के लिए 16 वर्ष तक, क्षत्रियवर्ण की शिक्षा के लिए 22 वर्ष, वैश्यवर्ण की शिक्षा के लिए 24 वर्ष तक थी (मनु0 2.38)। इस आयु तक भी शिक्षार्थ प्रवेश न लेने वाले व्यक्ति निन्दित समझे जाते थे, और वे आर्यों के समाज में बहिष्कृत या शूद्र स्तर के माने जाते थे, क्योंकि शिक्षा आर्यों के समाज में महत्त्वपूर्ण एवं अनिवार्य थी। विधिवत् शिक्षा न प्राप्त करने वाला ही ‘शूद्र’ होता था, अर्थात् दूसरा विद्याजन्म न होने के कारण ही वह ‘एकजाति’ अर्थात् ‘केवल माता-पिता से ही जन्म लेने वाला’ कहाता था। उसी का नाम ‘एकजाति’ या ‘शूद्र’ होता था (10.4), जन्म के आधार पर नहीं।


मनु की वर्णव्यवस्था को समझने में भूलें व उसका यथार्थ स्वरूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु और मनुस्मृति के मौलिक मन्तव्यों को जानने के लिए मनु की वर्णव्यवस्था पर विचार किया जाना परम आवश्यक है क्योंकि अधिकांश जनों को मनु की वर्णव्यवस्था के मौलिक या वास्तविक स्वरूप की तथ्यपरक जानकारी नहीं है। ऐसा देखने में आया है कि भ्रामक जानकारियों के आधार पर ही लोग मनु को गलत समझ बैठे हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था अथवा वैदिक वर्णव्यवस्था को समझने में सबसे पहली और बड़ी भूल यह की जाती है कि कुछ लोग चातुर्वर्ण्य अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का अस्तित्व जन्म से मान लेते हैं, जबकि ये जन्म से नहीं होते। जन्म से वर्ण को मानने की भ्रान्ति के कारण ही मनु पर उच्च वर्णों को सुविधा-समान देने का और शूद्र को तिरस्कृत करने का आरोप लगाया जाता है। ऐसे ही लोग वर्णों को वंशानुगत मानने की भ्रान्ति का शिकार हैं। वास्तविकता यह है कि मनु की वर्णव्यवस्था गुण, कर्म, योग्यता पर आधारित व्यवस्था थी, जन्म पर आधारित जातिव्यवस्था नहीं। इसका अभिप्राय यह है कि किसी भी कुल या वर्ण में जन्म लेने के बाद बालक या व्यक्ति में जैसे-जैसे गुण, कर्म, योग्यता के लक्षण होंगे, उन्हीं के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित होगा। उसके बाद वह उसी वर्ण के नाम से पुकारा जायेगा, चाहे उसके माता-पिता का वर्ण कुछ भी रहा हो। ब्राह्मण के कुल या वर्ण में उत्पन्न बालक यदि ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘ब्राह्मण’ कहलायेगा; यदि शूद्र के गुण, कर्म, योग्यता वाला है तो ‘शूद्र’ कहा जायेगा। इस प्रकार जन्म के आधार पर कुछ भी निर्धारित नहीं है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण-नाम जन्म से ब्राह्मण आदि होने का संकेत देने के लिए नहीं हैं, अपितु केवल लोक व्यवहार के लिए हैं। जैसे, यह कहा जाता है कि अध्यापक, डॉक्टर , सैनिक, व्यापारी और श्रमिक के अमुक-अमुक कर्त्तव्य हैं, तो हमें आज कोई भी भ्रान्ति नहीं होती, और न यह अनुभव होता है कि ये नाम जन्म के आधार पर हैं। इसका कारण यह है कि वर्तमान व्यवस्था की यथार्थ स्थिति हमारे सामने है और यह मालूम है कि ये पद या नाम लबी प्रक्रिया को पूरी करने के बाद प्राप्त होते हैं, किन्तु प्रयोग इसी तरह होता है कि जैसे ये जन्माधारित व्यवसाय हों। इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम भी एक निर्धारित प्रक्रिया के बाद प्राप्त होते थे। आज वह व्यवस्था प्रचलित नहीं है अतः जन्माधारित नाम का संदेह हो जाता है।


वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्पर विरोधी व्यवस्थाएं हैं। इतनी विरोधी हैं कि एक की उपस्थिति में दूसरी व्यवस्था का अस्तित्व नहीं रहता। इनके विभाजक मूलभूत अन्तर इस प्रकार हैं-

  1. वर्णव्यवस्था में बालक-बालिका या व्यक्ति किसी भी कुल में उत्पन्न होने के पश्चात् अपनी रुचियों, गुण, कर्म, योग्यता के अनुसार किसी भी इच्छित वर्ण को ग्रहण कर सकता है, जबकि जातिव्यवस्था में जाति का माता-पिता से निर्धारण होने के कारण व्यक्ति किसी अन्य इच्छित जाति को ग्रहण नहीं कर सकता।
  2. वर्णव्यवस्था में वर्णों के निर्धारक तत्त्व गुण, कर्म, योग्यता होते हैं, जबकि जातिव्यवस्था में केवल जन्म ही जाति का निर्धारक तत्त्व होता है। वर्णव्यवस्था में जन्म का कोई महत्त्व नहीं होता, जबकि जातिव्यवस्था में जन्म का सर्वोच्च महत्त्व होता है।
  3. वर्णव्यवस्था में पद और व्यवसाय वंशानुगत होने अनिवार्य नहीं हैं, जबकि जातिव्यवस्था में ये अनिवार्य होते हैं।
  4. वर्णव्यवस्था में व्यक्ति की बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक क्षमताओं के विकास का स्वतन्त्र व खुला अवसर रहता है, जबकि जातिव्यवस्था में वह अवरुद्ध रहता है।

डॉ अबेडकर के मतानुसार वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के मूलभूत अन्तर: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-

(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)

(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)


मनु की वर्णव्यवस्था की विशेषताएं: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक वर्णव्यवस्था एक मनोवैज्ञानिक एवं समाज-हितकारी व्यवस्था थी। जैसा कि महर्षि मनु ने (1.31, 87-91 में) स्वयं कहा है, वह निश्चय ही समाज को सुरक्षित और व्यवस्थित करके उसकी प्रगति और उन्नति करने वाली व्यवस्था है। उसकी विशेषताएं थीं –

  1. मनोवैज्ञानिक आधार-वर्णव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं का और तदनुसार प्रशिक्षण का ध्यान रखा गया है। प्रत्येक मनुष्य में ये भिन्नताएं स्वाभाविक हैं। प्रत्येक को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के आधार पर कार्यचयन का अवसर प्रदान किया गया है। इसमें महाविद्वान् से लेकर अनपढ़ तक, सबको कार्य का अवसर प्राप्त है। एक के कार्य में दूसरे के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं है।
  2. कार्यसिद्धान्त का समान महत्त्व-मनुस्मृति की व्यवस्था ऐसे कार्यसिद्धान्त पर आधारित है जिसमें चारों वर्णों के कार्यों का समान और अनिवार्य महत्त्व है। जैसे शरीर के लिए मुख, बाहु, उदर, पैर सबका समान महत्त्व है और किसी एक के बिना शरीर अपंग हो जाता है, उसी प्रकार समाजरूपी पुरुष के लिए चारों वर्णों का महत्त्व है। किसी एक के बिना वह अपंग है। अतः चारों वर्ण अपने कार्यों से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सबका कार्य अपने-अपने स्थान पर महत्त्वपूर्ण है।
  3. शक्ति का विकेन्द्रीकरण एवं संतुलन-मनुस्मृति में शक्तियों का विकेन्द्रीकरण करके, साी वर्णों में शक्तियों को बांटकर समाज में शक्ति-संतुलन स्थापित किया गया है। सभी वर्णों की शक्तियां और अधिकार सुनिश्चित हैं। वर्णव्यवस्था में किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के पास असीमित शक्ति का संग्रह नहीं हो सकता। विविध शक्तियों का एक स्थान पर संग्रह होना ही समाज में असन्तुलन, अन्याय, अत्याचार, अभाव को पैदा करता है। अतः वर्णव्यवस्था ने ज्ञान, बल, धन और श्रम को पृथक्-पृथक् किया है। भारत में जब तक वर्णव्यवस्था रही कभी समाज में शक्ति का असन्तुलन नहीं हुआ। सबके लिए काम था। सबकी मूल आवश्यकताएं पूर्ण होती थीं।

वर्णव्यवस्था की वर्तमान में प्रासंगिकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

इस युग में वर्णव्यवस्था की प्रासंगिकता पर बार-बार चर्चा उठती है। साथ ही यह प्रश्नाी उत्पन्न होता है कि क्या वर्तमान में वर्णव्यवस्था लागू हो सकती है? इसका उत्तर यह है कि यदि कोई शासनतन्त्र इसमें रुचि ले तो हो सकती है। जैसे मुस्लिम देशों में शरीयत प्रणाली का शासन आज भी लागू कर दिया जाता है। वर्णव्यवस्था प्रणाली तो बहुत ही मनोवैज्ञानिक और समाज-हितकारी व्यवस्था है। इससे समाज की निश्चय ही योजनाबद्ध रूप से उन्नति होती रही है और हो सकती है। प्राचीन काल में भारत जो विद्या, धन और बल में विश्व में सर्वोपरि था, वह इसी वैदिक वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर था। महर्षि मनु के समय यह देश ‘विश्वगुरु’ था और अन्य देशों के जन यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे-

एतद्देशप्रसूतस्य     सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥ (2.20)

    अर्थ-समस्त पृथिवी के मनुष्य आयें और इस भारतभू पर उत्पन्न विद्वान् एवं सदाचारी ब्राह्मणों के समीप रहकर अपने-अपने योग्य कर्त्तव्यों-व्यवसायों की शिक्षा प्राप्त करें।


जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप डॉ अम्बेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-

(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)

(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)

(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)

(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत


जन्मना जातिवाद : वर्णव्यवस्था का विकृत रूप: डॉ सुरेन्द्र कुमार

यह निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि जन्मना जातिव्यवस्था वर्णव्यवस्था से विकसित व्यवस्था नहीं है अपितु उसकी विकृत व्यवस्था है। इसको मनु स्वायभुव के साथ कदापि नहीं जोड़ा जा सकता। यह बताया जा चुका है कि वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। एक की उपस्थिति में दूसरी नहीं टिक सकती। इनके अन्तर्निहित अर्थभेद को समझकर इनके मौलिक अन्तर को आसानी से समझा जा सकता है। वर्णव्यवस्था में वर्ण प्रमुख है और जातिव्यवस्था में जाति अर्थात् ‘जन्म’ प्रमुख है। जिन्होंने इनका समानार्थ में प्र्रयोग किया है उन्होंने स्वयं को और पाठकों को भ्रान्त कर दिया। ‘वर्ण’ शब्द ‘वृञ्-वरणे’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है-‘जिसको स्वेच्छा से वरण किया जाये वह समुदाय’। निरुक्त में आचार्य यास्क ने ‘वर्ण’ शब्द के अर्थ को इस प्रकार स्पष्ट किया है-

‘‘वर्णःवृणोतेः’’(2.14)=स्वेच्छा से वरण करने से ‘वर्ण’ कहलाता है।


डॉ अम्बेडकर का जाति उद्भव सबन्धी मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

डॉ अम्बेडकर बुद्ध (550 ईसा पूर्व) के लगभग जन्मना जातिव्यवस्था का उदव मानते हैं। यद्यपि तब तक व्यवहार में लचीलापन था किन्तु असमानता का भाव आ चुका था। जातिवादी कठोरता का समय वे पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0पू0) नामक ब्राह्मण राजा के काल को मानते हैं।

मनु की वर्णव्यवस्था महाभारत काल तक प्रचलित थी, इसके प्रमाण और उदाहरण महाभारत और गीता तक में मिलते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने शान्तनु क्षत्रिय और मत्स्यगंधा शूद्र-स्त्री के विवाह का उदाहरण देकर इस तथ्य को स्वीकार किया है (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 175, 195)। उससेाी आगे बौद्ध काल तक भी अन्तर-जातीय विवाह और अन्तर-जातीय भोजन का प्रचलित होना उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘जातिगत असमानता तब तक उभर गयी थी’’ (वही, पृ0 75)। डॉ0 अम्बेडकर यह भी मानते हैं कि ‘‘तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी’’ (वही, पृ0 75)। उनके मत ध्यानपूर्वक पठनीय हैं-

(क) ‘‘बौद्धधर्म-समय में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था एक उदार व्यवस्था थी और उसमें गुंजाइश थी………किसी भी वर्ण का पुरुष विधिपूर्वक दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह कर सकता था। इस दृष्टिकोण की पुष्टि में अनेक दृष्टान्त उपलध हैं’’ (वही, खंड 7, पृ0 175)।


वर्णव्यवस्था का ह्रास और जातिवाद का उद्भव काल: डॉ सुरेन्द्र कुमार

विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से लेकर महाभारत (गीता) पर्यन्त वैदिक कर्माधारित वर्णव्यवस्था चलती रही है। गीता में स्पष्ट शदों में कहा गया है-

    ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण-कर्म-विभागशः’’    [4। 13]

    अर्थात्गुण-कर्म-विभाग के अनुसार चातुर्वर्ण्यव्यवस्था का निर्माण किया गया है। जन्म के अनुसार नहीं।’ इसका अभिप्राय यह हुआ कि तब तक वर्णों का निर्धारक तत्त्व ‘जन्म’ नहीं था। वर्णव्यवस्था के अर्न्तगत रहकर भारत ने विद्या, बुद्धि, बल में अद्भुत उन्नति की थी; किन्तु महाभारत के विशाल युद्ध ने भारत के सारे ढांचे को चरमरा दिया। सारी सामाजिक व्यवस्थाओं में अस्त-व्यस्त स्थिति बन गई। धीरे-धीरे लोगों में अकर्मण्यता, स्वार्थ एवं लोभ के भावों ने स्थान बना लिया। कर्म की प्रवृत्ति नष्ट हो गई किन्तु सुविधा-समान की प्रवृत्ति बनी रही। इस प्रकार धीरे-धीरे वर्णव्यवस्था में विकार आने लगा और जन्म को महत्त्व दिये जाने के कारण जातिव्यवस्था का उद्भव हुआ। पहले वर्णों में जन्म का महत्त्व प्रारभ हुआ फिर वर्ण- संकरता के नाम पर जन्माधारित जातियों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार जातियों में उपजातियों का विकास हुआ और भारत में पूरा जातितन्त्र फैल गया। इस निर्माण के साथ जातिगत असमानता का भाव भी उभरने लगा। उसी भाव के कारण अन्तर-वर्ण विवाह और सहभोज भी समाप्त होते गये। लेकिन फिर भी व्यवहार में लचीलापन था।


डॉ अबेडकर द्वारा प्रस्तुत जातीय वर्णपरिवर्तन के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) ‘‘पतित जातियों में मनु ने उन्हें समिलित किया है जिन क्षत्रियों ने आर्य अनुष्ठान त्याग दिए थे, जो शूद्र बन गए थे और ब्राह्मण पुरोहित जिनके यहां नहीं आते थे। मनु ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है-पौड्रक, चोल, द्रविड़, काबोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद।’’ (अंबेडकरवाङ्मय, खंड 8, पृ0 218)

(ख) ‘‘दस्यु आर्य सप्रदाय के सदस्य थे किन्तु उन्हें कुछ ऐसी धारणाओं और आस्थाओं का विरोध करने के कारण ‘आर्य’ संज्ञा से रहित कर दिया गया, जो आर्यसंस्कृति का आवश्यक अंग थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 321)

(ग) ‘‘सेन राजाओं के सबन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ0 भंडारकर का कहना है कि ये सब ब्राह्मण थे, जिन्होंने क्षत्रियों के सैनिक व्यवसाय को अपना लिया था।’’ (डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय खंड 7, पृ0 106)


समुदायों के वर्णपरिवर्तन एवं वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है। महाभारत में और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जाने वाले निन-उद्धृत श्लोकों से ज्ञात होता है कि निन जातियां पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय-कर्त्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में अथवा वर्णबाह्य परिगणित हो गयीं-

शनकैस्तु   क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः।

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काबोजाः यवनाः शकाः।

पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराताः दरदाः खशाः॥

(मनु0 10.43-44)

    अर्थात्-अपने निर्धारित कर्त्तव्यों का त्याग कर देने के कारण और फिर ब्राह्मणों द्वारा बताये प्रायश्चित्तों को न करने के कारण धीरे-धीरे ये क्षत्रिय जातियां शूद्र कहलायीं- पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड़, कबोज, यवन, शक, पारद, पह्लव, चीन, किरात, दरद, खश॥ महाभारत अनु0 35.17-18 में इनके अतिरिक्त मेकल, लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर जातियों का भी उल्लेख है।


वर्णपतन तथा वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

क) मर्यादापुरुषोत्तम राम के पूर्वज सम्राट् रघु का ‘प्रवृद्ध’ नामक एक पुत्र था। नीच कर्मों के कारण उसे ‘राक्षस’ घोषित किया गया था और इस प्रकार वह वर्णों से पतित हो गया था।

(ख) राम के ही पूर्वज सगर का एक पुत्र ‘असमंजस्’ था। उसके अन्यायपूर्ण कर्मों के कारण उसे क्षत्रिय से शूद्र घोषित करके राज्याधिकार से वंचित कर राज्य से बहिष्कृत कर दिया था। (भागवतपुराण 6.8.14-19; महाभारत, वनपर्व 107)।


समुदायों के वर्णपरिवर्तन एवं वर्णबहिष्कार के उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

क) व्यक्तिगत उदाहरणों के अतिरिक्त, इतिहास में पूरी जातियों का अथवा जाति के पर्याप्त भाग का वर्णपरिवर्तन भी मिलता है। महाभारत में और मनुस्मृति में कुछ पाठभेद के साथ पाये जाने वाले निन-उद्धृत श्लोकों से ज्ञात होता है कि निन जातियां पहले क्षत्रिय थीं किन्तु अपने क्षत्रिय-कर्त्तव्यों के त्याग के कारण और ब्राह्मणों द्वारा बताये शास्त्रोक्त प्रायश्चित्त न करने के कारण वे शूद्रकोटि में अथवा वर्णबाह्य परिगणित हो गयीं-

शनकैस्तु   क्रियालोपादिमा क्षत्रियजातयः।

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च॥

पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काबोजाः यवनाः शकाः।

पारदाः पह्लवाश्चीनाः किराताः दरदाः खशाः॥

(मनु0 10.43-44)


वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण

    भारतीय इतिहास में वर्णपरिवर्तन या वर्णपतन के सैंकड़ों ऐतिहासिक उदाहरण मिलते हैं जिनसे वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता तथा वर्णपतन की दण्डात्मकता का परिज्ञान होता है। यहां कुछ प्रमुख उदाहरण दिये जा रहे हैं-

(अ) व्यक्तिगत वर्णपरिवर्तन के ऐतिहासिक उदाहरण

  1. मनुस्मृति के प्रवक्ता मनु स्वायंभुव के कुल में भी वर्ण-परिवर्तन हुए हैं। ब्राह्मण वर्णधारी महर्षि ब्रह्मा का पुत्र मनु स्वायंभुव स्वयं भी राजा बनने के कारण, ब्राह्मण से क्षत्रिय बना। मनुस्मृति के आद्यरचयिता इसी मनु स्वायंभुव के बड़े पुत्र राजा प्रियव्रत के दस पुत्र थे जो जन्म से क्षत्रिय थे। उनमें से सात क्षत्रिय राजा बने। तीन ने ब्राह्मण वर्ण को स्वीकार किया और तपस्वी बने। उनके नाम थे-महावीर, कवि और सवन (भागवतपुराण अ0 5)।
  2. दासी का पुत्र ‘कवष ऐलूष’ शूद्र परिवार का था। वह विद्वान् ब्राह्मण बनके मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहलाया। इस ऋषि द्वारा अर्थदर्शन किये गये सूक्त आज भी ऋग्वेद के दशम मण्डल में (सूक्त 31-33) मिलते हैं, जिन पर ऋषि के रूप में इसी का नाम अंकित है। (ऐतरेय ब्राह्मण 2.19; सांयायन ब्राह्मण 12.1-3)
  3. इसी प्रकार शूद्रा का पुत्र कहा जाने वाला वत्स काण्व भी पढ़-लिख कर ऋग्वेद के मन्त्रों का अर्थद्रष्टा ऋषि बना। (पंच0 ब्रा0 8.6.1; 14.6.6)
  4. सत्यकाम जाबाल अज्ञात कुल का था। वह अपनी सत्यवादिता एवं प्रखर बुद्धि के कारण महान् और प्रसिद्ध ऋषि बना। (बृहदारण्यक उप0 4.1.6; छान्दोग्य उप0 4.4-6; पंचविश ब्राह्मण 8.6.1)।

अनार्यों को आर्य बनाने सबन्धी डॉ अबेडकर का मत: डॉ सुरेन्द्र कुमार

क) ‘‘आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया।’’ (वही, खंड 7, पृ. 326)

(ख) ‘‘आर्य न केवल अपने ढंग से इच्छुक अनार्यों को अपनी जीवनपद्धति में परिवर्तित कर रहे थे, जो आर्यों की यज्ञ-संस्कृति और चातुर्वर्ण्य सिद्धान्त और यहां तक कि वे उनके वेदों तक के विरोधी थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 327)

इन श्लोकार्थों को पढ़कर कौन पाठक यह मानने के लिए विवश नहीं होगा कि ‘डॉ. अबेडकर मनुस्मृति में वर्णपरिवर्तन का विधान मानते हैं।’ यदि वे अन्यत्र अपने ही इन कथनों के विरुद्ध कुछ कहते हैं तो इसका अभिप्राय है कि उनके लेखन में परपरविरोध है। उक्त श्लोकार्थ डॉ0 अबेडकर ने प्रमाण के रूप उद्धृत किये हैं। किसी भी लेखक के द्वारा किसी संदर्भ को प्रमाण रूप में उद्धृत करने का भाव यह होता है कि लेखक उनको प्रामाणिक मानता है। यहां मनु के वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को भी डॉ0 अबेडकर ने स्वीकार कर लिया है। वर्णपरिवर्तन का निर्दोष सिद्धान्त है,


डॉ अबेडकर का वर्णपरिवर्तन

डॉ. अबेडकर ने अपनी समीक्षाओं में वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को स्वीकार करके उसे उत्तम व्यवस्था माना है और जातिव्यवस्था से भिन्न अपितु परस्परविरोधी व्यवस्था माना है। इस विषयक डॉ0 अबेडकर के उद्धरण पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वर्णपरिवर्तन विषयक उनके मन्तव्यों को तथा मनुस्मृति के उन श्लोकार्थों को उद्धृत किया जाता है जिन्हें डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है-

(क) ‘‘अन्य समाजों के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये हैं-1. ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, 2. क्षत्रिय या सैनिक वर्ग 3. वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, 4. शूद्र तथा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग। इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरंभ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग-विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति की दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसीलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी’’

(डॉ0 अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ 30)


सवर्ण-असवर्ण जातियों में गोत्रों की एकरूपता का कारण ‘वर्णपरिवर्तन’: डॉ सुरेन्द्र कुमार

भारत की गोत्रपद्धति नृवंश के इतिहास पर प्रकाश डालने वाली अद्भुत परपरा है। इससे मूलपिता तथा मूल परिवार का ज्ञान होता है। वर्तमान में ब्राह्मण-जातियों, क्षत्रिय-जातियों, वैश्य-जातियों और दलित-जातियों में समान रूप से पाये जाने वाले गोत्र, उस ऐतिहासिक वंश-परपरा के पुष्ट प्रमाण हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि वे सभी एक ही पिता के वंशज हैं। पहले वर्णव्यवस्था में जिसने गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर जिस वर्ण का चयन किया, वे उस वर्ण के कहलाने लगे। बाद में विभिन्न कारणों के आधार पर उनका ऊंचा-नीचा वर्णपरिवर्तन होता रहा। किसी क्षेत्र में किसी गोत्र-विशेष का व्यक्ति ब्राह्मण वर्ण में रह गया, तो कहीं क्षत्रिय, तो कहीं शूद्र कहलाया। कालक्रमानुसार जन्म के आधार पर उनकी जाति रूढ़ और स्थिर हो गयी।


हीन कर्मों से वर्णपतन : डॉ सुरेन्द्र कुमार

(क) उत्तमानुत्तमान् गच्छन् हीनान् हीनांश्च वर्जयन्।

    ब्राह्मणः   श्रेष्ठतामेति   प्रत्यवायेन   शूद्रताम्॥ (4.245)

    अर्थ-ब्राह्मण-वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ-अतिश्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है, अर्थात् ब्राह्मणत्व का बोधक श्रेष्ठाचरण होता है, जब तक श्रेष्ठाचरण है तो वह ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। निन वर्ण का आचरण होने पर वही ब्राह्मण शूद्र कहलाता है।

(ख) न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्।

    स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥ (2.103)

    अर्थ-जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य प्रातःकालीन संध्या नहीं करता और जो सायंकालीन संध्या भी नहीं करता। वह शूद्र के समान है, उसको द्विजों के सभी अधिकारों या कर्त्तव्यों से बहिष्कृत कर देना चाहिए अर्थात् उसे ‘शूद्र’ घोषित कर देना चाहिए।

(ग) योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।

    स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ (2.168)


शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान: डॉ सुरेन्द्र कुमार

वैदिक अर्थात् मनु की वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था में एक बहुत बड़ा अन्तर यह है कि व्यक्ति को आजीवन वर्णपरिवर्तन की स्वतन्त्रता होती है। वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन हो सकता है जबकि जातिव्यवस्था में जहां जन्म हो गया, जीवनपर्यन्त वही जाति रहती है। मनु की व्यवस्था वर्णव्यवस्था थी, क्योंकि उसमें व्यक्ति को आजीवन वर्ण-परिवर्तन की स्वतन्त्रता थी। इस विषय में पहले मनुस्मृति का एक महत्त्वपूर्ण श्लोक प्रमाणरूप में उद्धृत किया जाता है जो सभी सन्देहों को दूर कर देता है-

(अ)    शूद्र से ब्राह्मणादि और ब्राहमण से शूद्र आदि बनना-

शूद्रो ब्राह्मणताम्-एति, ब्राहमणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च॥ (10.65)

    अर्थात्-‘ब्राह्मण के गुण, कर्म, योग्यता को ग्रहण करके शूद्र, ब्राह्मण बन जाता है और हीन कर्मों से ब्राह्मण शूद्र बन जाता है। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों से उत्पन्न सन्तानों में भी वर्णपरिवर्तन हो जाता है।

(आ) शूद्र द्वारा उच्च वर्ण की प्राप्ति का मनुप्रोक्त विधान-

(क) श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण और श्रेष्ठाचरण का पालन करके शूद्र उच्च वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का अधिकारी बन जाता है-

    शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुः       मृदुवागनहंकृतः।

    ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥       (9.335)


वर्णों के नामों का अर्थ एवं व्युत्पत्ति-डॉ सुरेन्द्र कुमार

व्याकरण की भाषा में कहें तो वर्णों के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नाम यौगिक पद हैं और गुणवाचक हैं। इन नामों में ही इनके कर्त्तव्यों का संकेत निहित है। वैदिक संस्कृत के इन शदों की रचना और व्युत्पत्ति इस प्रकार है-

    (क) ब्राह्मण-‘ब्रह्मन्’ पूर्वक ‘अण्’ प्रत्यय के योग से ‘ब्राह्मण’ पद बनता है। ब्रह्म के वेद, ईश्वर, ज्ञान आदि अर्थ हैं।        ब्रह्मणा वेदेन परमेश्वरस्य उपासनेन सह वर्तमानः ब्राह्मणः=ब्रह्म अर्थात् वेदपाठी, परमेश्वर के उपासक और ज्ञानी गुण वाले वर्ण या व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह ब्राह्मण नहीं है।

    (ख) क्षत्रिय-‘क्षत’ पूर्वक ‘त्रै’ धातु से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘क्षत्र’ पद बनता है। क्षत्र ही क्षत्रिय कहलाता है। ‘क्षदति रक्षति जनान् सः क्षत्रः’ = जो प्रजा की सुरक्षा, संरक्षा करता है, उस गुणवाले को ‘क्षत्रिय’ या ‘क्षत्रियवर्ण’ कहते हैं। आज उसे राजा, राजनेता, सेनाधिकारी या सैनिक कहते हैं।


महर्षि मनु द्वारा निर्धारित वर्णों के अनिवार्य कर्तव्य-डॉ सुरेन्द्र कुमार

वेदवर्णित इन मन्त्रों को आधार बनाकर पहले ब्रह्मा ने और फिर मनु ने चार वर्णों (समुदायों) के कर्तव्य -कर्म निर्धारित किये। इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति जिस वर्ण का चयन करेगा उसको विहित कर्मों का पालन करना होगा। निर्धारित कर्मों का पालन न करने वाला व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जायेगा। इसी प्रकार किसी वर्ण-विशेष के कुल में जन्म लेने मात्र से भी कोई व्यक्ति उस वर्ण का नहीं माना जा सकता। जैसे कोई अध्यापन बिना अध्यापक, चिकित्सा बिना डॉक्टर, सेना बिना सैनिक, व्यापार बिना व्यापारी, श्रमकार्य बिना श्रमिक नहीं कहला सकता, उसी प्रकार निर्धारित कर्मों के किये बिना कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं माना जा सकता।

(क)    ब्राह्मण वर्ण का चयन करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के लिए निर्धारित कर्म-

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजन तथा।      

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥     (1.88)

    अर्थ-ब्राह्मण वर्ण में दीक्षा लेने के इच्छुक स्त्री-पुरुषों के लिए ये कर्तव्य और आजीविका के कर्म निर्धारित किये हैं-‘विधिवत् पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना तथा दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना।’ इन कर्मों के बिना कोई ब्राह्मण-ब्राह्मणी नहीं हो सकता।


मनुस्मृति की वर्णव्यवस्था की वेदमूलकता: डॉ सुरेन्द्र कुमार

महर्षि मनु स्वयं स्वीकार करते हैं कि मनुस्मृति में वर्णित गुण-कर्म-योग्यता पर आधारित वर्णव्यवस्था वेदमूलक है। इसका वर्णन तीन वेदों (ऋग्0 10.90.11-12; यजु0 31.10-11; अथर्व0 19.6.5-6) में पाया जाता है। मनु वेदों को धर्म में परमप्रणाम मानते हैं, अतः उन्होंने वर्णव्यवस्था को वेदों से ग्रहण करके, उसे धर्ममूलक व्यवस्था मानकर अपने शासन में क्रियान्वित किया तथा अपने धर्मशास्त्र के द्वारा प्रचारित एवं प्रसारित किया।

पाठक इस तथ्य की ओर गभीरतापूर्वक ध्यान दें कि वेदों तथा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था की उत्पत्ति के प्रसंग में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है, वर्णस्थ व्यक्तियों की उत्पत्ति का नहीं। वहां यह बतलाया गया है कि किस अंग की समानता के आधार पर किस वर्ण की कल्पना की गई अर्थात् किस वर्ण का कैसे नामकरण किया गया। उत्पत्ति सबन्धी मन्त्रों और श्लोकों की व्याया में अनेक व्यायाकार भ्रमित होकर ब्राह्मण, शूद्र आदि व्यक्तियों की उत्पत्ति वर्णित करते हैं, जो वर्णव्यवस्था के मूल सिद्धान्त के ही विरुद्ध है। वेदमन्त्रों का सही अर्थ इस प्रकार है-

प्रश्न    यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्।

         मुखं किमस्य, कौ बाहू, का ऊरू पादौ उच्येते ॥

उत्तर        ब्राह्मणो-अस्य मुाम् आसीद् बाहू राजन्यःकृतः।

         ऊरू तदस्य यद् वैश्यः पद्यां शूद्रो अजायत ॥

(ऋग्0 10.90.11-12)


मनुस्मृति में ‘जाति’ शब्द ‘वर्ण’ और ‘जन्म’ का पर्याय: डॉ सुरेन्द्र कुमार

पाठकों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि मनुस्मृति में अनेक श्लोकों में वर्ण के बजाय ‘जाति’ शब्द का प्रयोग है। क्या मनु ‘जाति’ को स्वीकार करते हैं?

(अ) इसका उत्तर पूर्वोक्त ही है कि जाति का ‘जन्मना’ ‘जाति’ अर्थ नहीं है, क्योंकि वर्णव्यवस्था में जन्मना जाति स्वीकार्य नहीं थी और न मनु के समय जातियों का उद्भव ही हुआ था। उस समय ‘जाति’ शब्द भी वर्ण या समुदाय के पर्याय के रूप में ही प्रयुक्त होता था, जैसे-

(क) ‘‘आचार्यस्त्वस्य यां जातिम्……उत्पादयति सावित्र्या।’’

(2.148)

अर्थ-आचार्य बालक-बालिका के जिस वर्ण का गायत्रीपूर्वक निर्धारण करता है।

(ख)    ‘‘जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्’’ (4.141)

अर्थ-अपने से निन वर्ण वालों पर कभी कटाक्ष न करे।

(ग) ‘‘मुखबाहूरूपज्जानां या लोके जातयो बहिः।’’  (10.45)

अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण-व्यवस्था से जो समुदाय बाहर हैं, वे सब दस्यु हैं।

(घ) ‘‘जातिं वितथेन ब्रुवन् दाप्यः’’ (8.273)

अर्थ-अपना वर्ण झूठ बतलाने वाला दण्डनीय है।

(आ) इसके अतिरिक्त मनुस्मृति में जाति शब्द का प्रयोग ‘जन्म’ के पर्याय रूप में हुआ है ‘जन्मना जाति’ के अर्थ में नहीं। कुछ उदाहरण हैं-


ब्राह्मणादि वर्ण जन्म से वा कर्मों से किस प्रकार मानने चाहियें इत्यादि का विचार : पण्डित भीमसेन शर्मा

अब ब्राह्मणादि वर्णों की व्यवस्था कैसे माननी चाहिये, इसका विचार किया जाता है। क्या ब्राह्मणादि वर्ण विद्यादिसम्बन्धी गुणकर्मों के विभागमात्र से मानने चाहियें कि जिसमें विद्यादि उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव हों वही ब्राह्मण है अथवा जन्म से ही माने जावें कि जो-जो ब्राह्मणादि के कुल में उत्पन्न हो वह-वह ब्राह्मणादि माना जावे। इस विषय में मानवधर्मशास्त्र का क्या सिद्धान्त है, सो दिखाते हैं। विद्यादि गुणकर्म और जन्म दोनों से ब्राह्मणादि का पूरा-पूरा ब्राह्मणादिपन सिद्ध होता है। जैसे गुणकर्मों से ब्राह्मणादि की परीक्षा हो सकना मानकर यह कहा गया कि- ‘जैसे काठ का हाथी और केवल चाम में भूसा भरकर बनाया हरिण, हाथी और हरिण का काम न दे सकने से व्यर्थ वा नाममात्र है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण ये तीनों हाथी, हरिण और ब्राह्मण नाम धरानेमात्र हैं किन्तु वास्तव में नहीं। तथा जो द्विज वेद को न पढ़कर अन्यत्र ही श्रम करता है अर्थात् अन्य ग्रन्थों को ही पढ़ता रहता है वह अपनी वर्त्तमान दशा में ही अपने कुटुम्ब- बाल-बच्चों सहित शूद्र हो जाता है।’१ यह मनु का आशय है। तथा- ‘मनुष्य को अपना आचरण बड़े उद्योग से ठीक रखना चाहिये और धन तो आता-जाता बना रहता है, इसलिये धन से निर्बल मनुष्य निर्बल नहीं किन्तु जिसके आचरण बिगड़े हैं वह वास्तव में बिगड़ा जानो। सत्य, दान, क्षमा, शुद्धि, अहिंसा, तप और दया ये धर्म के लक्षण जिसमें विद्यमान हों वह ब्राह्मण है।’२ यह महाभारत का लेख है। तथा जन्म से भी ब्राह्मणादि का होना मानकर बीज और खेत के प्रधान वा अप्रधान पक्ष का व्याख्यान किया है तथा- ‘शर्मशब्द युक्त ब्राह्मण का और रक्षायुक्त क्षत्रिय का नाम रखे।’३ यह भी नामकरणसंस्कार के अवसर पर कथन करना जन्म से ब्राह्मणादिपन होने में ही बन सकता है। सो यह सूक्ष्म और विशेष विचार करने से ज्ञात हो सकता है कि शरीरों के बीच में ब्राह्मणादिपन क्या वस्तु है ? इसमें मुख्य सिद्धान्त यही है कि अन्तःकरण के साथ वा चेतना धातु के साथ सम्बन्ध रखने वाले ऐसे कई गुण हैं, जिनके होने से उस-उस व्यक्ति को ब्राह्मणादि कहना बन सकता है। वे गुण प्रकृति-पुरुष के संयोग वाले जड़-चेतन शरीर के साथ ही रहते अर्थात् गर्भावस्था से ही उनमें होते हैं। बाल्यावस्था में उनके आविर्भाव प्रकटता का समय नहीं होता। इस कारण दबे रहते हैं परन्तु अधिक विचारशील लोग बाल्यावस्था में भी परीक्षा कर सकते हैं कि यह आगे ऐसा होगा।


वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी क्षेपक : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

आज कल हिन्दू जाति बहुत भी उप-जातियों में विभक्त है।  यह सब जन्म पर निर्भर है। अर्थात् ब्राहम्ण का पुत्र ब्रहम्ण होता है और कान्यकुब्ज ब्राहम्ण का कान्यकुब्ज। क्षत्रिय का लडका क्षत्रिय होता है। चैहान क्षत्रिय का चैहान । इसी प्रकार नाई का लडका नाई , कहार का कहार। वेदो मे इन उप जातियो के नाम तो है नही । हां चार  वर्णो का वर्णन आता है। अर्थात ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। हिन्दूओं में यह जनश्रुति प्रचलित है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उरू से और शूद्र पैर से। परन्तु आज तक किसी भले मानस ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठया कि इसका अर्थ क्या हुआ ? ईश्वर का मुख क्या है और उससे ब्राहम्ण कैसे उत्पन्न हो गये ? ईश्वर का पैर क्या है और उससे शूद्र कैसे उत्पन्न हो गये ? क्या यह आलक्डारिक भाषा है या  वास्तविक ? यदि आलंकारिक है तो वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि वास्तविक है तो अर्थ क्या हुआ ? यदि कोई कहे कि आकाश के मुख से हाथी उत्पन्न हो गया तो पूछना चाहिये कि आकाश के मुख से क्या तात्पर्य है और उससे हाथी कैसे हो सकता है ? तमाशा यह है कि सैकड़ों वर्षो से हिन्दू यह कहते चले आते है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए और शूद्र पैरों से । परन्तु किसी ने  यह नही पूछा कि ईश्वर का पैर क्या है और उससे स्त्री या पुरूष कैसे उत्पन्न हो सकते है । लोग कहते है कि  वेद में ऐसा लिखा है। जिस वेदमंत्र का प्रमाण दिया जाता है वह यह कहता है:-

ब्राहम्णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।

ऊरूतदस्य यद् वैश्यः पद्रयां शूद्रोऽजायत।।

शब्दार्थ यह है:-

(1) “ब्राहम्णः अस्य मुख आसीत्।” ब्राहम्ण इसका मुख था। “

(2) “बाहू राजन्यः कृतः” क्षत्रिय भुजा बनाया गया ।

(3) ”ऊरू तत् अस्य यत् वैश्यः”जो वैश्य है वह उसकी जंघा थी।

इसमें यह नहीं लिखा गया कि ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय बाॅह से और वैश्य जंघा से । अर्थ निकालने के दो ही  उपाय है या तो शब्दों से सीधा अर्थ निकलता हो या आलंकारिक अर्थ लेने के लिये कोई विशेष कारण हों। प्रत्येक शब्द के आलंकारिक अर्थ भी नही लेने चाहिये जब तक सीधा अर्थ लेना अप्रासंगिक न हो । और ऐसे आलंकारिक अर्थ भी न लेने  चाहिये जो असम्भव या निरर्थक हो।


चातुर्वर्ण्य का मूल सिद्धांत : पण्डित गंगा प्रसाद उपाध्याय

यदि कोई जाति सांसारिक व्यवहार के हेतु अपने व्यक्तियों के इस प्रकार के चार भेद कर दे तो यह कोई दोष नहीं ,किन्तु गुण है। क्योंकि बिना विभाग किये काय्र्य चल नहीं सकता। आजकल भी प्रत्येक जाति अपने व्यक्तियों का किसी प्रकार का विभाग करती है। “सब धान बाईस पसेरी“ नही हो सकते । मनुष्य स्वभाव से विषम है। यह विषमता प्रकृति और प्रवृति दोनो में पाई जाती है। मनुष्य का हित भी इसी में है। पूर्ण समानता समाज का निर्माण नहीं कर सकती । समाज के निर्माण का मूल तत्व यह है कि प्रत्येक मनुष्य अन्य मनुष्यों को अपने अस्तित्व के लिये आवश्यक समझे। इसको आप परस्परतंत्रता   ¼Interdependence½ कह सकते है। यह परम्परतंत्रता विषमता से ही उत्पन्न होती है। एक कृषक समझता है कि मै कृषक तो हूँ परन्तु सैनिक नही