२. मनुस्मृति का रचयिता मनु आदरणीय है
डॉ० अम्बेडकर उक्त मनुस्मृति के रचयिता को आदर के साथ स्मरण करते हैं-
(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में मनु आदरसूचक संज्ञा थी।’’ (वही, खंड ७, पृ० १५१)
(ख) ‘‘याज्ञवल्क्य नामक विद्वान् जो मनु जितना महान् है।’’ (वही, खंड ७, पृ० १७९)
जहां डॉ० अम्बेडकर का साहित्य-समीक्षक का रूप होता है वहां वे मनु और मनुस्मृति को सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। इस स्थिति में प्रश्न उठता है कि मान्यताओं की एकरूपता होने पर भी मनु का विरोध क्यों?
यद्यपि डॉ0 अबेडकर ने उपलध मनुस्मृति को 185 ई0 पू0 की रचना माना है और उसका रचयिता सुमति भार्गव नामक ‘मनु’ को माना है तथापि वे पूर्व मनु और उनके संविधानों के अस्तित्व को भी स्वीकार करते हैं। मनुस्मृति-काल और रचयिता के सबन्ध में डॉ0 अबेडकर को कुछ भ्रान्तियां हैं जिनका निराकरण आगे किया जायेगा। यहां केवल यही कहना अभीष्ट है कि वे स्वायंभुव मनु को प्राचीनतम और ‘विधि-निर्माता’ मानते हैं। किसी के विधान अच्छे या बुरे हों, यह प्रश्न नहीं है; हैं तो वे विधिनिर्माता के पद के अधिकारी। डॉ0 अबेडकर लिखते हैं-
(क) ‘‘इससे प्रकट होता है कि केवल मनु ने विधान बनाया। जो स्वायभुव मनु था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 283)
इस मनु का वंश विवरण देते हुए डॉ0 अंबेडकर ने सुदास राजा को इक्ष्वाकु की 50वीं पीढ़ी में माना है। इक्ष्वाकु सातवें मनु वैवस्वत का पुत्र था और वैवस्वत मनु स्वायंभुव मनु की सुदीर्घ वंशपरपरा में सातवां मनु था। (वही खंड 13, पृ0 104, 152)http://aryamantavya.in/manu-aur-ambedkar/
जैसा कि प्राचीन भारतीय परपरा को उद्धृत कर यह सप्रमाण दिखाया गया है कि प्राचीन वैदिक इतिहास के अनुसार मनु स्वायभुव आदितम ऐतिहासिक राजर्षि हैं और वे सबके श्रद्धेय है। डॉ0 अबेडकर ने प्राचीन मनुओं के विषय में इन्हीं ऐतिहासिक तथ्यों को स्वीकार करते हुए उन्हें आदरणीय पुरुष माना है। वे लिखते हैं –
(क) ‘‘स्वयंभू के पुत्र मनु (स्वायंभुव) के एक पुत्र प्रियंवद थे। उनके पुत्र अग्नीध्र हुए। अग्नीध्र के पुत्र नाभि और नाभि के पुत्र ऋषभ हुए। ऋषभ के एक और वेदविद् पुत्र हुए जिनमें नारायण के परमभक्त भरत ज्येष्ठ थे। उन्हीं के नाम पर इस देश का नाम ‘भारत’ पड़ा।…..उपरोक्त से पता चलता है कि सुदास किन प्रतापी राजाओं का वंशज था।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 13, पृ0 104)
डॉ. अबेडकर वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था को परस्पर विरोधी मानते हैं और वर्णव्यवस्था के मूलतत्त्वों की प्रशंसा करते हैं। उन्हीं के शदों में उनके मत उद्धृत हैं-
(क) ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धान्त वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूलरूप से भिन्न है, न केवल मूल रूप से भिन्न है, बल्कि मूल रूप से परस्पर-विरोधी है। पहला सिद्धान्त (वर्ण) गुण पर आधारित है’’ (अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 81)
(ख) वर्ण और जाति दोनों का एक विशेष महत्त्व है जिसके कारण दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं। वर्ण तो पद या व्यवसाय किसी भी दृष्टि से वंशानुगत नहीं है। दूसरी ओर, जाति में एक ऐसी व्यवस्था निहित है जिसमें पद और व्यवसाय, दोनों ही वंशानुगत हैं, और इसे पुत्र अपने पिता से ग्रहण करता है। जब मैं कहता हूं कि ब्राह्मणवाद ने वर्ण को जाति में बदल दिया, तब मेरा आशय यह है कि इसने पद और व्यवसाय को वंशानुगत बना दिया।’’ (वही खंड 7, पृ0 169)
डॉ0 अम्बेडकर ने निनलिखित उल्लेखों में जातिव्यवस्था को वर्णव्यवस्था का विकृत या भ्रष्ट रूप माना है, जो बिल्कुल सही मूल्यांकन है। जो यह कहा जाता है कि जातिव्यवस्था, वर्णव्यवस्था से विकसित हुई है, यह सरासर गलत है क्योंकि दोनों परस्परविरोधी व्यवस्थाएं हैं। डॉ0 अम्बेडकर विकास की धारणा को बकवास मानते हुए लिखते हैं-
(क) ‘‘कहा जाता है कि जाति, वर्ण-व्यवस्था का विस्तार है। बाद में मैं बताऊंगा कि यह बकवास है। जाति वर्ण का विकृत स्वरूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पात ने वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (वही, खंड 6, पृ0 181)
(ख) ‘‘जातिप्रथा, चातुर्वर्ण्य का, जो कि हिन्दू आदर्श है, एक भ्रष्ट रूप है।’’ (वही, खंड 1, पृ0 263)
(ग) ‘‘अगर मूल वर्णपद्धति का यह विकृतीकरण केवल सामाजिक व्यवहार तक सीमित रहता, तब तक तो सहन हो सकता था। लेकिन ब्राह्मण धर्म इतना कर चुकने के बाद भी संतुष्ट नहीं रहा। उसने इस चातुर्वर्ण्य पद्धति के परिवर्तित तथा विकृत रूप को कानून बना देना चाहा।’’ (वही, खंड 7, पृ0 216)
(आ) मनु जातिनिर्माता नहीं : डॉ0 अम्बेडकर का मत-
कभी-कभी मनुष्य के हृदय से सत्य स्वयं निकल पड़ता है। डॉ0 अम्बेडकर के हृदय से भी ये निष्पक्ष शब्द एक समय निकल ही पड़े-
डॉ अम्बेडकर बुद्ध (550 ईसा पूर्व) के लगभग जन्मना जातिव्यवस्था का उदव मानते हैं। यद्यपि तब तक व्यवहार में लचीलापन था किन्तु असमानता का भाव आ चुका था। जातिवादी कठोरता का समय वे पुष्यमित्र शुङ्ग (185 ई0पू0) नामक ब्राह्मण राजा के काल को मानते हैं।
मनु की वर्णव्यवस्था महाभारत काल तक प्रचलित थी, इसके प्रमाण और उदाहरण महाभारत और गीता तक में मिलते हैं। डॉ0 अम्बेडकर ने शान्तनु क्षत्रिय और मत्स्यगंधा शूद्र-स्त्री के विवाह का उदाहरण देकर इस तथ्य को स्वीकार किया है (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 7, पृ0 175, 195)। उससेाी आगे बौद्ध काल तक भी अन्तर-जातीय विवाह और अन्तर-जातीय भोजन का प्रचलित होना उन्होंने स्वीकार किया है कि ‘‘जातिगत असमानता तब तक उभर गयी थी’’ (वही, पृ0 75)। डॉ0 अम्बेडकर यह भी मानते हैं कि ‘‘तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी’’ (वही, पृ0 75)। उनके मत ध्यानपूर्वक पठनीय हैं-
(क) ‘‘पतित जातियों में मनु ने उन्हें समिलित किया है जिन क्षत्रियों ने आर्य अनुष्ठान त्याग दिए थे, जो शूद्र बन गए थे और ब्राह्मण पुरोहित जिनके यहां नहीं आते थे। मनु ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है-पौड्रक, चोल, द्रविड़, काबोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद।’’ (अंबेडकरवाङ्मय, खंड 8, पृ0 218)
(ख) ‘‘दस्यु आर्य सप्रदाय के सदस्य थे किन्तु उन्हें कुछ ऐसी धारणाओं और आस्थाओं का विरोध करने के कारण ‘आर्य’ संज्ञा से रहित कर दिया गया, जो आर्यसंस्कृति का आवश्यक अंग थी।’’ (वही, खंड 7, पृ0 321)
(ग) ‘‘सेन राजाओं के सबन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। डॉ0 भंडारकर का कहना है कि ये सब ब्राह्मण थे, जिन्होंने क्षत्रियों के सैनिक व्यवसाय को अपना लिया था।’’ (डॉ0 अम्बेडकर वाङ्मय खंड 7, पृ0 106)
क) ‘‘आर्यों ने हमेशा अनार्यों को आर्य बनाने का प्रयत्न किया अर्थात् उन्हें आर्य संस्कृति का अनुयायी बनाने का प्रयत्न किया।’’ (वही, खंड 7, पृ. 326)
(ख) ‘‘आर्य न केवल अपने ढंग से इच्छुक अनार्यों को अपनी जीवनपद्धति में परिवर्तित कर रहे थे, जो आर्यों की यज्ञ-संस्कृति और चातुर्वर्ण्य सिद्धान्त और यहां तक कि वे उनके वेदों तक के विरोधी थे।’’ (वही, खंड 7, पृ0 327)
इन श्लोकार्थों को पढ़कर कौन पाठक यह मानने के लिए विवश नहीं होगा कि ‘डॉ. अबेडकर मनुस्मृति में वर्णपरिवर्तन का विधान मानते हैं।’ यदि वे अन्यत्र अपने ही इन कथनों के विरुद्ध कुछ कहते हैं तो इसका अभिप्राय है कि उनके लेखन में परपरविरोध है। उक्त श्लोकार्थ डॉ0 अबेडकर ने प्रमाण के रूप उद्धृत किये हैं। किसी भी लेखक के द्वारा किसी संदर्भ को प्रमाण रूप में उद्धृत करने का भाव यह होता है कि लेखक उनको प्रामाणिक मानता है। यहां मनु के वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को भी डॉ0 अबेडकर ने स्वीकार कर लिया है। वर्णपरिवर्तन का निर्दोष सिद्धान्त है,
डॉ. अबेडकर ने अपनी समीक्षाओं में वर्णव्यवस्था में वर्णपरिवर्तन के सिद्धान्त को स्वीकार करके उसे उत्तम व्यवस्था माना है और जातिव्यवस्था से भिन्न अपितु परस्परविरोधी व्यवस्था माना है। इस विषयक डॉ0 अबेडकर के उद्धरण पूर्व उद्धृत किये जा चुके हैं। यहां वर्णपरिवर्तन विषयक उनके मन्तव्यों को तथा मनुस्मृति के उन श्लोकार्थों को उद्धृत किया जाता है जिन्हें डॉ0 अबेडकर ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है-
(क) ‘‘अन्य समाजों के समान भारतीय समाज भी चार वर्णों में विभाजित था, ये हैं-1. ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, 2. क्षत्रिय या सैनिक वर्ग 3. वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, 4. शूद्र तथा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग। इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि आरंभ में यह अनिवार्य रूप से वर्ग-विभाजन के अन्तर्गत व्यक्ति की दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसीलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी’’
(डॉ0 अबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ 30)
डॉ0 अम्बेडकर र मनु की मान्यता को उद्धृत करते हुए दृढ़ता से शूद्रों को आर्य तथा सवर्ण मानते हैं। उन्होंने उन लेखकों का जोरदार खण्डन किया है जो शूद्रों को अनार्य औेर ‘बाहर से आया हुआ’ मानते हैं। यह मत उन्होंने दर्जनों स्थानों पर व्यक्त किया है। यहां कुछ प्रमुख मत उद्धृत किये जा रहे हैं-
(क) ‘‘दुर्भाग्य तो यह है कि लोगों के मन में यह धारणा घर कर गयी है कि शूद्र अनार्य थे। किन्तु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन आर्य साहित्य में इस सबन्ध में रंच मात्र भी कोई आधार प्राप्त नहीं होता।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 319)
(ख) ‘‘धर्मसूत्रों की यह बात कि शूद्र अनार्य हैं, नहीं माननी चाहिए। यह सिद्धान्त मनु तथा कौटिल्य के विपरीत है।’’ (शूद्रों की खोज, पृ0 42)
(ग) ‘‘शूद्र आर्य ही थे अर्थात् वे जीवन की आर्य पद्धति में विश्वास रखते थे। शूद्रों को आर्य स्वीकार किया गया था और कौटिल्य के अर्थशास्त्र तक में उन्हें आर्य कहा गया है। शूद्र आर्य समुदाय के अभिन्न जन्मजात और समानित सदस्य थे।’’ (डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 322)
डॉ0 अम्बेडकर र वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत शूद्रों को दास के रूप में स्वीकार नहीं करते। उन्होंने प्रमाण के रूप में मनु के निनलिखित श्लोकार्थ उद्धृत किये हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि मनु के मतानुसार वेतन ओर जीविका पाने वाला नौकर या सेवक कभी दास नहीं होता। यदि इनके विरुद्ध वर्णन वाले श्लोक मनुस्मृति में पाये जाते हैं तो वे परस्परविरोधी होने से प्रक्षिप्त हैं। डॉ0 अम्बेडकर र द्वारा प्रस्तुत प्रमाण हैं-
(क) डॉ0 अम्बेडकर र मनुस्मृति की मौलिक व्यवस्थाओं में आये श्लोकों में पठित ‘दास’ शद का अर्थ सेवक ही करते हैं, जो सर्वथा सही है। पूर्व पंक्तियों में उद्धृत नामकरण संस्कार-सबन्धी श्लोक पर –‘‘शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्’’ (2.6-7[2.31-32]) में दास का अर्थ उन्होंने सेवक किया है-
‘‘नाम दो भागों का होना चाहिए….शूद्रों के लिए दास (सेवा)।’’ तथा ‘‘शूद्र का (नाम) ऐसा हो जो सेवा करने का भाव सूचित करे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 6, पृ0 58; खंड 7, पृ0 201)
अष्टापाद्यं तु शूद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्
षोडशैव तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत् क्षत्रियस्य च॥ (8.337)
ब्राह्मणस्य चतुःषष्टिः पूर्णं वाऽपि शतं भवेत्।
द्विगुणा वा चतुःषष्टिः, तद्दोषगुणविद्धि सः॥ (8.338)
पिताऽऽचार्यः सुहृन्माता भार्या पुत्रः पुरोहितः।
नाऽदण्डयो नाम राज्ञोऽस्ति यः स्वधर्मे न तिष्ठति॥ (8.335)
कार्षापणंावेद्दण्ड्यो यत्रान्यः प्राकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद् दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा॥ (8.336)
उपर्युक्त चारों श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र ने अपने ग्रन्थों में अनेक बार प्रमाण रूप में उद्धृत किये हैं और इनका अर्थ भी लगभग ठीक दिया है (द्रष्टव्य-डॉ0 अम्बेडकर र वाङ्मय, खण्ड 7, पृ0 250)
इसका अर्थ यह हुआ कि डॉ0 साहब इनको सही मानते हैं। यथायोग्य दण्डव्यवस्था में किसी को आपत्ति भी क्या हो सकती है? डॉ0 अम्बेडकर र को आपत्ति उन श्लोकों पर है जो पक्षपातपूर्ण दण्ड- व्यवस्था का विधान करते हैं। अब प्रश्न यह है कि इन यथायोग्य दण्डविधानों के होते हुए और उनको प्रमाणरूप में उद्धृत करने पर भी, इनके विरुद्ध श्लोकों को प्रमाण मानकर मनु का विरोध क्यों किया जा रहा है? तर्कसंगत सिद्धान्तों का विरोध करने का क्या औचित्य है? क्या यह डॉ0 अम्बेडकर र का परस्परविरोध नहीं है?
डॉ0 अम्बेडकर ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)
इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-
डॉ0 अम्बेडकर ने कई स्थलों पर प्राचीन काल में वर्णपरिवर्तन के अवसरों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। वर्णपरिवर्तन का स्पष्ट अभिप्राय है कर्मणा वर्णव्यवस्था, और कर्मणा वर्णव्यवस्था का अभिप्राय है जन्मना जातिवाद का अस्तित्व न होना। इस प्रकार वैदिक और मनु की वर्णव्यवस्था में कहीं भी आपत्ति करने की गुंजाइश नहीं रहती है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘इस प्रक्रिया में यह होता था कि जो लोग पिछली बार केवल शूद्र होने के योग्य बच जाते थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य होने के लिए चुन लिए जाते थे, जबकि पिछली बार जो लोग ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य होने के लिए चुने गए होते थे, वे केवल शूद्र होने के योग्य होने के कारण रह जाते थे। इस प्रकार वर्ण के व्यक्ति बदलते रहते थे।’’ (अम्बेडकर र वाङ्मय, खंड 7, पृ0 170)
इस सन्दर्भ के अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर र ने ऊपर तथा अन्य उन उद्धृत श्लोकों के अर्थों को प्रमाण के रूप में उद्धृत किया है जिनमें मनु ने वर्णपरिवर्तन का विधान किया है। इसका अभिप्राय यह निकला कि वे श्लोक डॉ0 अम्बेडकर र को सिद्धान्त रूप में मान्य हैं-
. अम्बेडकर के समग्र वाङ्मय को पढ़ने के उपरान्त यह निष्कर्ष सामने आता है कि डॉ0 अम्बेडकर आरभ में प्राचीन भारतीय साहित्य के शोधात्मक और समीक्षात्मक ध्येय को लेकर चले थे और वे प्राचीन समाजव्यवस्था की मौलिकता को, विशेषतः उस अवस्था में शूद्रों की वास्तविक स्थिति को पाठकों के समक्ष रखकर जातिवादी समाज में विचार-परिवर्तन करना चाहते थे। यह उनका पहला चरण था। फिर दूसरा चरण शुरू हुआ जिसमें अकस्मात् उनका ध्येय घोर विरोधी स्वर में परिवर्तित हो गया और वे उसी को अपना पक्ष मानकर केवल खण्डनात्मक व प्रतिशोधात्मक लेखन करने लगे। इसके कुछ मनोवैज्ञानिक एवं परिस्थितिजन्य कारण रहे हैं।
डॉ0 भीमराव रामजी अम्बेडकर का जब जन्म हुआ, उस समय पौराणिक हिन्दू समुदाय जन्मना जाति-पांति, ऊंच-नीच, छूआछूत, सामाजिक भेदभाव जैसी कुप्रथाओं से ग्रस्त था। उसके कारण उन्होंने अपने जीवन में अनेक भेदभावपूर्ण असमानताओं, अन्यायों, उपेक्षाओं और यातनाओं को भोगा। यह स्वाभाविक ही है कि प्रत्येक जागरूक एवं स्वाभिमानी व्यक्ति के मन में ऐसे व्यवहार के प्रति आक्र ोश जन्म लेता है। डॉ0 अम्बेडकर के मन में ऐसे व्यवहार की प्रतिक्रिया में आक्रोश का एक स्थायी भाव बन गया था। उन्होंने जिन-जिन कारणों को इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायी समझा, उनके प्रति उनका आक्रोश विभिन्न रूपों में प्रकट हुआ। उनका यह आक्रोश जीवनभर बना रहा और अवसर पाकर प्रकट होता रहा। दलितों के साथ गत दो-तीन सहस्रादियों में जो व्यवहार हुआ वह सर्वथा अमानवीय और निन्दनीय था। अब उसमें कठोरता से सुधार किया जाना चाहिए। किन्तु विगत व्यवहार के प्रति प्रतिशोधात्मक भावना रखकर वैसा व्यवहार करना भी उतना ही अनुचित है। प्रतिशोधात्मक भावना से सुधार की आशा रखना व्यर्थ है जबकि वर्गविद्वेष की आशंका का पनपना निश्चित है। यदि यह स्थिति बनेगी तो वह निश्चित रूप से समाज और राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगी। अतीत के व्यवहार का प्रतिशोध लेना वर्तमान में कभी संभव नहीं हो सकता, हाँ, स्थिति में सुधार अवश्य संभव हो सकता है।
डॉ0 अम्बेडकर जैसे सुशिक्षित लेखकाी आक्रोश के इतने वशीभूत हो गये कि वे प्रतिशोधात्मक प्रतिक्रिया से बच नहीं सके। आगे उन्हीं कारणों पर विचार किया जा रहा है।
डॉ0 अम्बेडकर के आरभिक लेखन में यह दावा प्राप्त होता है कि वे प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन-मनन-अन्वेषण करके उसमें वर्णित समाजव्यवस्था के मौलिक स्वरूप को और शूद्रों की प्राचीन स्थिति को पाठकों के सामने रखकर यह बताना चाहते हैं कि वर्तमान में जो व्यवस्था और व्यवहार प्रचलित है यह एक विकृत रूप है और उसको सुधारा जाना जरूरी है। डॉ0 अम्बेडकर अपने ध्येय को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं-
(क) ‘‘मैंने एक इतिहासवेत्ता की हैसियत से अनुसन्धान किया है। इतिहासवेत्ता धार्मिक पुस्तकों और अन्य पुस्तकों में कोई भेद नहीं मानते। उनका काम तो सत्य की खोज है।’’
डॉ. अम्बेडकर द्वारा मनु के श्लोकों का अशुद्ध अर्थ करना और उन अशुद्ध अर्थों के आधार पर अशुद्ध और मनु-विरोधी निष्कर्ष प्रस्तुत करना, इन दोनों ही कारणों से डॉ0 साहब के लेखन की प्रामणिकता नष्ट हुई है। वे अर्थ, चाहे अनजाने में किये गये हैं अथवा जान बूझकर, वे संस्कृत भाषा और उसके व्याकरण के अनुसार अशुद्ध हैं। संस्कृत भाषा का साधारण ज्ञाता भी तुरन्त समझ लेता है कि वे अर्थ गलत हैं। बुद्धिमानों में अशुद्ध लेखन कभी मान्य नहीं होता। यद्यपि डॉ0 अम्बेडकर कृत अशुद्ध अर्थ पर्याप्त संया में हैं, तथापि यहां स्थालीपुलाक न्याय से कुछ ही श्लोकार्थ उद्घृत करके उनका सही अर्थ और समीक्षा दी जा रही है। इस लेखन से दो संकेत मिलते हैं-या तो दूसरों के अनुवादों पर निर्भरता के कारण और स्वयं संस्कृत ज्ञान न होने कारण ये अशुद्धियां हुई हैं, या राजनीतिक लक्ष्य से विरोध करने के लिए जान-बूझकर कर उन्होंने अशुद्ध अर्थ किये हैं। पाठक देखें-
(1) अशुद्ध अर्थ करके मनु के काल में भ्रान्ति पैदा करना और मनु को बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना :-
(क) पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान्।
हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ (4.30)
डॉ0 अम्बेडकर कृत अर्थ :-‘‘वह (गृहस्थ) वचन से भी विधर्मी, तार्किक (जो वेद के विरुद्ध तर्क करे) को समान न दे।’’ ‘‘मनुस्मृति में बौद्धों और बौद्ध धर्म के विरुद्ध स्पष्ट व्यवस्थाएं दी गई हैं।’’(अम्बेडकर वाङ्मय, ब्राह्मणवाद की विजय, पृ0 153)
शुद्ध अर्थ :-‘पाखण्डियों, विरुद्ध कर्म करने वालों अर्थात् अपराधियों, बिल्ली के समान छली-कपटी जनों, धूर्तों, कुतर्कियों, बगुलाभक्त लोगों का, अपने घर आने पर, वाणी सेाी सत्कार न करे।’
समीक्षा-इस श्लोक में आचरणहीन लोगों की गणना है और उनका वाणी से भी आतिथ्य न करने का निर्देश है। यहां ‘विकर्मी अर्थात् विरुद्ध कर्म करने वालों’ का बलात् विधर्मी अर्थ कल्पित करके फिर उसका अर्थ बौद्ध कर लिया है। विकर्मी का ‘विधर्मी’ अर्थ किसी भी प्रकार नहीं बनता। ऐसा करके सभी भाष्यकार और डॉ. अम्बेडकर , मनु को बौद्धों से परवर्ती और बौद्ध-विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं। यह कितनी बेसिरपैर की कल्पना है!! बुद्ध से हजारों पीढ़ी पूर्व उत्पन्न मनु की स्मृति में परवर्ती बौद्धों की चर्चा कैसे हो सकती है? ऐसे अशुद्ध अर्थ बुद्धिमानों में कभी मान्य नहीं हो सकते।
(ख) या वेदबाह्याः स्मृतयः याश्च काश्च कुदृष्टयः।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः॥ (12.95)
अर्थ-डॉ0 अम्बेडकर कृत जो वेद पर आधारित नहीं हैं, मृत्यु के बाद कोई फल नहीं देतीं, क्योंकि उनके बारे में यह घोषित है कि वे अंधकार पर आधारित हैं। ‘‘मनु के शदों में विधर्मी बौद्ध धर्मावलबी हैं।’’ (वही, पृ0 158)
शुद्ध अर्थ-‘वेदोक्त’ सिद्धान्तों के विरुद्ध जो मान्यताएं, ग्रन्थ हैं (असुरों, नास्तिकों आदि के बनाये हुए), और जो कोई कुसिद्धान्त हैं, वे सब श्रेष्ठ फल से रहित हैं। वे परलोक और इस लोक में अज्ञानान्धकार एवं दुःख में फंसाने वाले हैं।’
समीक्षा-इस श्लोक के किसी शद से यह भासित नहीं होता कि इसमें बौद्ध धर्म का खण्डन है। जब मनु के समय में ही वर्णबाह्य अनार्य, असुर आदि लोग थे, तो उनकी भिन्न विचारधाराएं भी थीं, जो वेद विरुद्ध थीं। उनको छोड़कर इसे बौद्धों से जोड़ना अपनी अज्ञानता और पूर्वाग्रह को दर्शाना है। ऐसा करके साी लेखक, चाहे वे पाश्चात्य हैं या भारतीय, मनु के स्थितिकाल के विषय में भ्रम फैला रहे हैं और मनुस्मृति के भावों को स्वेच्छाचारिता एवं दुर्भावना-पूर्वक विकृत कर रहे हैं। इसे कहते हैं विरोध के लिए सत्य को तिलांजलि देना!
डॉ0 अम्बेडकर ने शंकराचार्य की आलोचना करते हुए उनके लेखन में परस्परविरोधी कथन माने हैं। उन्होंने उन परस्परविरोधों के आधार पर शंकराचार्य के कथनों को अप्रामाणिक कहकर अमान्य घोषित किया है और यह कटु टिप्पणी की है कि जिसके लेखन में परस्परविरोध पाये जाते हैं, उसे ‘‘पागल’’ ही कहा जायेगा। (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 8, पृ0 289)
आश्चर्य का विषय है कि स्वयं डॉ0 अम्बेडकर के ग्रन्थ परस्परविरोधी कथनों से भरे पड़े हैं और पुनरुक्तियों की तो कोई गणना ही नहीं है। यह स्वीकृत तथ्य है कि परस्परविरोध नामक दोष से युक्त कथन न तो प्रमाण-कोटि में आता है, न मान्य होता है, और न आदरणीय। न्यायालय में भी उसको प्रमाण नहीं माना जाता। बुद्धिमानों में ऐसा त्रुटिपूर्ण लेखन समानयोग्य नहीं होता। ऐसे लेखन को पढ़कर पाठक जहां दिग्भ्रमित होता है वहीं उससे उसे निश्चयात्मक ज्ञान नहीं होता। ऐसा लेखन तब होता है जब लेखक अस्थिरचित्त हो, अनिर्णय की स्थिति में हो, अथवा भावुकताग्रस्त हो। पाठक इन बातों का निर्णय अग्रिम उल्लेखों को स्वयं पढ़कर करें।
डॉ0 अम्बेडकर के लेखन को, विशेषतः इस अध्याय में उद्धृत संदर्भों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि वे दो प्रकार की मनः- स्थिति में जीते रहे। जब उनका समीक्षात्मक मन उन पर प्रभावी होता था तो वे तर्कपूर्ण मत प्रकट करते थे, और जब प्रतिशोधात्मक मन प्रभावी होता था तो वे सारी मर्यादाओं को तोड़कर कटुतम शदों का प्रयोग करने लगते थे। उनका व्यक्तित्व बहुज्ञसपन्न किन्तु दुविधापूर्ण, समीक्षक किन्तु पूर्वाग्रहग्रस्त, चिन्तक किन्तु भावुक, सुधारक किन्तु प्रतिशोधात्मक था।
यहां परस्परिविरोधों को उद्धृत करने का मुय प्रयोजन यह भी दिखाना है कि डॉ0 अम्बेडकर ने अपने ग्रन्थों में मनुस्मृति के जिन श्लोकार्थों को प्रमाण रूप में उद्धृत किया है, उनमें परस्परविरोधी विधान हैं। एक श्लोकार्थ जो विधान कर रहा है, दूसरा उसके विपरीत विधान कर रहा है। डॉ0 अम्बेडकर ने दोनों तरह के श्लोकों को प्रमाण मानकर उद्धृत किया है। ऐसी स्थिति में ये प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका समाधान पाठकों को चाहिए-
यदि डॉ0 अम्बेडकर परस्परविरोध को स्वीकार कर एक को प्रक्षिप्त स्वीकार कर लेते तो उनकी मनुसबन्धी सारी आपत्तियों का निराकरण स्वतः हो जाता। न गलत निष्कर्ष प्रस्तुत होते, न उनका लेखन विद्वानों में अप्रमाणिक कोटि का माना जाता, न विरोध का बवंडर उठाना पड़ता। देखिए परस्परविरोधों के कुछ उदाहरण-
(1) क्या महर्षि मनु जन्मना जाति का जनक है?
आश्चर्य तो यह है कि इस बिन्दु पर डॉ0 अम्बेडकर के तीन प्रकार के परस्परविरोधी मत मिलते हैं। देखिए-
(अ) मनु ने जाति का विधान नहीं बनाया अतः वह जाति का जनक नहीं
(क) ‘‘एक बात मैं आप लोगों को बताना चाहता हूं कि मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया न वह ऐसा कर सकता था। जातिप्रथा मनु से पूर्व विद्यमान थी। वह तो उसका पोषक था।’’ (अम्बेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ0 29)
अ) प्राचीन मनुओं से भिन्न है डॉ. अम्बेडकर का मनु
डॉ. अम्बेडकर के साहित्य का मनु का समर्थनात्मक एवं सकारात्मक पहलू गत पृष्ठों में दिखाया गया है किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर ‘मनु’ का नाम लेकर कटु आलोचनााी की है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यदि वे किसी मनु का समर्थन कर रहे हैं तो आलोचना किस ‘मनु’ की कर रहे हैं?
इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायी और मनु-विरोधियों को उस पर गभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने मनुस्मृति-विषयक एक नयी मान्यता स्वीकृत की है। उस मान्यता को लेकर मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्होंने इस स्वीकृति में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं किस व्यक्ति का विरोध कर रहा हूँ। उनकी मान्यता है कि वर्तमान में उपलध मनुस्मृति आदिकालीन मनु द्वारा रचित नहीं है, अपितु पुष्यमित्र शुङ्ग (ई0 पूर्व 185) के काल में ‘मनु सुमति भार्गव’ नाम के व्यक्ति ने इसको रचा है और उस पर अपना छद्म नाम ‘मनु’ लिख दिया है। वही सुमति भार्गव उनकी निन्दा और आलोचना का केन्द्र है। इस बात को उन्होंने दो स्थलों पर स्वयं स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में ‘मनु’ आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता (मनुस्मृति)को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।……..इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शतादी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार ‘सुमति भार्गव’ नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु-संहिता की रचना की।……इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव’ का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे’’ (अंबेडकर वाङ्मय, भाग 7, पृ. 151)।
अ) प्राचीन मनुओं से भिन्न है डॉ. अम्बेडकर का मनु
डॉ. अम्बेडकर के साहित्य का मनु का समर्थनात्मक एवं सकारात्मक पहलू गत पृष्ठों में दिखाया गया है किन्तु दूसरा पहलू यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य में अनेक स्थलों पर ‘मनु’ का नाम लेकर कटु आलोचनााी की है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि यदि वे किसी मनु का समर्थन कर रहे हैं तो आलोचना किस ‘मनु’ की कर रहे हैं?
इसका उत्तर उन्होंने स्वयं दिया है। डॉ0 अम्बेडकर के अनुयायी और मनु-विरोधियों को उस पर गभीरता से ध्यान देना चाहिए। उन्होंने मनुस्मृति-विषयक एक नयी मान्यता स्वीकृत की है। उस मान्यता को लेकर मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्होंने इस स्वीकृति में यह स्पष्ट कर दिया कि मैं किस व्यक्ति का विरोध कर रहा हूँ। उनकी मान्यता है कि वर्तमान में उपलध मनुस्मृति आदिकालीन मनु द्वारा रचित नहीं है, अपितु पुष्यमित्र शुङ्ग (ई0 पूर्व 185) के काल में ‘मनु सुमति भार्गव’ नाम के व्यक्ति ने इसको रचा है और उस पर अपना छद्म नाम ‘मनु’ लिख दिया है। वही सुमति भार्गव उनकी निन्दा और आलोचना का केन्द्र है। इस बात को उन्होंने दो स्थलों पर स्वयं स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं-
(क) ‘‘प्राचीन भारतीय इतिहास में ‘मनु’ आदरसूचक संज्ञा थी। इस संहिता (मनुस्मृति)को गौरव प्रदान करने के उद्देश्य से मनु को इसका रचयिता कह दिया गया। इसमें कोई शक नहीं है कि यह लोगों को धोखे में रखने के लिए किया गया। जैसी कि प्राचीन प्रथा थी, इस संहिता को भृगु के वंश नाम से जोड़ दिया गया।……..इसमें हमें इस संहिता के लेखक के परिवार के नाम की जानकारी मिलती है। लेखक का व्यक्तिगत नाम इस पुस्तक में नहीं बताया गया है, जबकि कई लोगों को इसका ज्ञान था। लगभग चौथी शतादी में नारद स्मृति के लेखक को मनुस्मृति के लेखक का नाम ज्ञात था। नारद के अनुसार ‘सुमति भार्गव’ नाम के एक व्यक्ति थे जिन्होंने मनु-संहिता की रचना की।……इस प्रकार मनु नाम ‘सुमति भार्गव’ का छद्म नाम था और वह ही इसके वास्तविक रचयिता थे’’ (अंबेडकर वाङ्मय, भाग 7, पृ. 151)।