सन् १७८६ में मनु-आधारित हिन्दू कानूनों के फारसी अनुवाद का अंग्रेजी रूपान्तरण प्रकाशित हुआ। १७९४ में मनुस्मृति का सर विलियम जोन्स कृत अंग्रेजी अनुवाद छपा। विलियम जोन्स न्यायाधीश के रूप में भारत आये थे। यहां के समाज में मनुस्मृति के मह व को देखकर उन्होंने उसको विद्यार्थी बनकर पढ़ा। १८२५ में जी०सी० हॉगटन रचित अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ। फ्रैंच भाषा में १८३३ में पार०ए० लॉअसलयूर डैसलांगचैम्पस का ग्रन्थ ‘LOIS DE MANOU’ ग्रन्थ छपा, जो मनुस्मृति का भाष्य तथा विवेचन था। १८८४ में हापकिन्ज का ‘The Ordinances of Manu’छपा। १८८६ में ऑक्सफोर्ड से The sacred books of the east
series’ के अन्तर्गत २५ वें खण्ड में मैक्समूलर और यूहलर के भाष्य एवं समीक्षायुक्त मनुस्मृति का अनुवाद प्रकाशित हुआ। १८८७ में जे.जौली द्वारा कृत जर्मन भाषा का अनुवाद छपा। इन प्रकाशनों से विदेशों में मनु और मनुस्मृति खूब प्रचार-प्रसार हुआ।
मनु और मनुस्मृति का विषय केवल भारत का ही नहीं है, यह अधिकांश विश्व से सम्बन्ध रखता है। इनका प्रभाव केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश सभ्य देशों में रहा है। प्राचीनकाल में ही मनुस्मृति का प्रसार दूर-दूर तक हो चुका था। अनेक देशों की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास आदि को मनुस्मृति ने प्रभावित किया है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का अन्तर-राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय मह व है। मनु और मनुस्मृति सम्बन्धी मान्यताएं विश्व के विद्वानों में मान्यताप्राप्त (Recognised) और स्थापित (Established) हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि से प्रकाशित ‘इन्सा-इक्लोपीडिया’ में, ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और श्री केबल मोटवानी द्वारा लिखित ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ नामक पुस्तक में विस्तार से उक्त तथ्यों का वर्णन है। इन लेखकों ने दिखाया है कि मनु और मनुस्मृति का प्रभाव कि सी-न-किसी रूप में इन देशों में पाया जाता है- चीन, जापान, बर्मा, फिलीपीन, मलाया, स्याम (थाईलैंड), वियतनाम, कम्बोडिया, जावा, चम्पा (दक्षिणी वियतनाम), इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, श्रीलंका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस, साइबेरिया, तुर्कीस्तान, स्केडीनेविया, स्लेवनिक, गौलिक, टयूटानिक, रोम, यूनान, बेबिलोनिया, असीरिया, तुर्की, ईरान, मिश्र, क्रीट, सुमेरिया, अमेरिका तथा अमरीकी द्वीप के देश।
मनु और मनुस्मृति का विषय केवल भारत का ही नहीं है, यह अधिकांश विश्व से सम्बन्ध रखता है। इनका प्रभाव केवल भारत ही नहीं अपितु विश्व के अधिकांश सभ्य देशों में रहा है। प्राचीनकाल में ही मनुस्मृति का प्रसार दूर-दूर तक हो चुका था। अनेक देशों की संस्कृति, सभ्यता, साहित्य, इतिहास आदि को मनुस्मृति ने प्रभावित किया है। इस प्रकार मनु और मनुस्मृति का अन्तर-राष्ट्रीय या विश्वस्तरीय मह व है। मनु और मनुस्मृति सम्बन्धी मान्यताएं विश्व के विद्वानों में मान्यताप्राप्त (Recognised) और स्थापित (Established) हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि से प्रकाशित ‘इन्सा-इक्लोपीडिया’ में, ‘द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और श्री केबल मोटवानी द्वारा लिखित ‘मनु धर्मशास्त्र : ए सोशियोलोजिकल एण्ड हिस्टोरिकल स्टडी’ नामक पुस्तक में विस्तार से उक्त तथ्यों का वर्णन है। इन लेखकों ने दिखाया है कि मनु और मनुस्मृति का प्रभाव कि सी-न-किसी रूप में इन देशों में पाया जाता है- चीन, जापान, बर्मा, फिलीपीन, मलाया, स्याम (थाईलैंड), वियतनाम, कम्बोडिया, जावा, चम्पा (दक्षिणी वियतनाम), इंडोनेशिया, मलेशिया, बाली, श्रीलंका, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, रूस, साइबेरिया, तुर्कीस्तान, स्केडीनेविया, स्लेवनिक, गौलिक, टयूटानिक, रोम, यूनान, बेबिलोनिया, असीरिया, तुर्की, ईरान, मिश्र, क्रीट, सुमेरिया, अमेरिका तथा अमरीकी द्वीप के देश।
पाश्चात्य तथा आधुनिक लेखकों के मतानुसार वेदों के बाद संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों का रचनाकाल आता है। ये वैदिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन वैदिक ग्रन्थों से लेकर अंग्रेजी शासनकाल तक भारत में मनु और मनुस्मृति की सर्वोच्च प्रतिष्ठा, प्रामाणिकता तथा वैधानिक मह ाा रही है। देश-विदेश के लेखकों के अनुसार, महर्षि मनु ही पहले वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने संसार को एक व्यवस्थित, नियमबद्ध, नैतिक एवं आदर्श मानवीय जीवन जीने की पद्धति सिखायी है। वे मानवों के आदिपुरुष हैं, वे आदि धर्मशास्त्रकार, आदि विधिप्रणेता, आदि विधिदाता (लॉ गिवर), आदि समाज व्यवस्थापक और राजनीति-निर्धारक, आदि राजर्षि हैं। मनु ही वह प्रथम धर्मगुरु हैं, जिन्होंने यज्ञपरम्परा का जनता में प्रवर्तन किया। उनके द्वारा रचित धर्मशास्त्र, जिसको कि आज ‘मनुस्मृति’के नाम से जाना जाता है, सबसे प्राचीन स्मृतिग्रन्थ है। अपने साहित्य और इतिहास को उठाकर देख लीजिए, वैदिक साहित्य से लेकर आधुनिक काल तक एक सुदीर्घ परम्परा उन शास्त्रकारों, साहित्यकारों, लेखकों, कवियों और राजाओं की मिलती है, जिन्होंने मुक्तकण्ठ से मनु की प्रशंसा की है।
(क) प्राचीनतम वैदिक संहिताओं एवं ब्राह्मणग्रन्थों में मनु के वचनों को ‘‘औषध के समान हितकारी और गुणकारी’’ कहा है-
‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भैषजम्’’
(तै िारीय संहिता २.२.१०.२; ताण्डय ब्राह्मण २३.१६.७)
अर्थात्-मनु ने जो कुछ कहा है, वह मानवों के लिए भेषज=औषध के समान कल्याणकारी एवं गुणकारी है।
मनुवाद’ का शाब्दिक अर्थ है-‘महर्षि मनु की विचारधारा।’ मनुस्मृति में वर्णित मौलिक सिद्धान्तों के अनुसार मनु की विचारधारा है- ‘गुण, कर्म, योग्यता के श्रेष्ठ मूल्यों पर आधारित वर्णाश्रम-व्यवस्था। मनु की वर्णव्यवस्था ऐसी समाजव्यवस्था थी जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, गुण, कर्म एवं योग्यता के आधार पर किसी भी वर्ण का चयन करने की स्वतन्त्रता थी और वह स्वतन्त्रता जीवनभर रहती थी। उस वर्णव्यवस्था में जन्म का मह व उपेक्षित था, ऊंच-नीच, छूत-अछूत का कोई भेदभाव नहीं था, व्यक्ति-व्यक्ति में असमानता नहीं थी, पक्षपातपूर्ण और अमानवीय व्यवहार सर्वथा निन्दनीय था। एक ही श द में कहें तो ‘मनुवाद’ मानववाद का ही दूसरा नाम था।
इसके विपरीत, गुण, कर्म, योग्यता के मानदण्डों की उपेक्षा करके जन्म, असमानता, पक्षपात और अमानवीयता पर आधारित विचारधारा ‘गैर मनुवाद’ कहलायेगी।
विगत सहस्त्राब्दी के लगभग आठ सौ वर्षों तक भारत विदेशी शासकों के अधीन रहा। इस अवधि में उन विदेशी शासकों के साहित्य, संस्कृति, आचार-व्यवहार और सम्प्रदायों का भारतीय जनमानस पर गम्भीर प्रभाव पड़ा। उनके प्रभाव से भारतीय संस्कृति, साहित्य, धर्म, परम्परा आदि का ह्रास हुआ। उनके कारण हमारे चिन्तन-मनन, आचार-विचार, आहार-विहार आदि में परिवर्तन आया, और आज भी आ रहा है।
विदेशी शासनों में भी सर्वाधिक गम्भीर और दूरगामी प्रभाव पड़ा अंग्रेजी शासन और अंगेजियत का। उन्होंने भारतवासियों को राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं अपितु बौद्धिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी गुलाम बनाने का षड्यन्त्र किया। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों ने पादरीपुत्र लॉर्ड बेबिंगटन मैकाले द्वारा प्रस्तावित शिक्षा पद्धति को लागू किया। इस शिक्षा पद्धति का लक्ष्य जहां अंग्रेजी शासन के लिए क्लर्क तैयार करना था वहीं भारतीयों को भारतीयता से काटकर ईसाइयत के लिए आधारभूमि तैयार करना था। इसी लक्ष्य को आगे बढ़ाने के अनेक अंग्रेज लेखकों ने भारतीय धर्म, धर्मशास्त्र, साहित्य, इतिहास आदि का अंग्रेजियत के अनुकूल लक्ष्य को सामने रखकर मूल्यांकन किया और प्रत्येक विषय में भ्रान्ति, शंका तथा हीनता का भाव उत्पन्न किया। उन्होंने सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास और परम्परा को अमान्य करते हुए नये सिरे से उसका पक्षपातपूर्ण विश्लेषण करके उसके अधिकांश भाग को मिथक तथा प्राचीन को नवीन घोषित किया।
प्राचीन समाज, संस्कृति, सयता, विद्याओं या विषयों का इतिहास-लेखन अथवा विश्लेषण मनुस्मृति के विवेचन के बिना संभव नहीं है। मनुस्मृति अनेक विषयों की संहिता है जिसमें वे विषय सार और मौलिक रूप में विश्लेषित किये गये हैं। उनसे प्राचीन समाज एवं संस्कृति-सयता पर प्रकाश पड़ता है। जिन विद्याओं या विषयों के आरभिक स्वरूप के ज्ञान और विश्लेषण के लिए मनुस्मृति की अनिवार्य आवश्यकता है, वे हैं-
मनु स्वायभुव यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों के आदि प्रवर्तक हैं। इतिहास से ज्ञात होता है कि मनु, स्वायभुव ने ही सर्वप्रथम वेदों से ज्ञान ग्रहण कर स्वयं और अपने राज्य में यज्ञों का अनुष्ठान आरंभ किया था। इस प्रकार मनु स्वायंभुव धार्मिक यज्ञसंस्था के आदिप्रवर्तक एवं धर्मगुरु हैं। इस ऐतिहासिक तथ्य का प्रमाण ब्राह्मण ग्रन्थों और संहिता ग्रन्थों में उपलध है। शतपथ ब्राह्मण में इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख स्पष्ट शदों में मिलता है-
(क) ‘‘मनुराह वै अग्रे यज्ञेन ईजे। तद् अनुकृत्य इमाः प्रजाः यजन्ते। तस्माद् आह-‘मनुष्वद्’ इति। ‘मनोः यज्ञः’ इति उ-वै-आहुः। तस्माद् वा इव आहुः ‘मनुष्वद्’ इति।’’ (शत0 ब्रा0 1.5. 1.7)
वेदोक्त वैदिक धर्म जिन मानदण्डों, मर्यादाओं और मूल्यों पर आधारित है उनका सर्वप्रथम निर्धारण और विधान मनु ने अपनी ‘स्मृति’ में सर्वश्रेष्ठ विधि से किया है, इस कारण वे वैदिक धर्म के आदि-प्रवक्ता, आदि-व्यवस्थापक और आदि-शास्त्रप्रवक्ता हैं। सपूर्ण प्राचीन भारतीय साहित्य मनु-विहित धर्मों का आदर करता रहा है और उन्हें परीक्षा सिद्ध मानता रहा है। महाभारत में कहा गया है-
(क) भारतं मानवो धर्मः, वेदाः सांगाश्चिकित्सितम्।
आज्ञासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुमिः॥
(आश्वेमेधिक पर्व अ0 92 में श्लोक 53 के बाद)
अर्थ-महाभारत, मनु का धर्मशास्त्र, सांगोपांग वेद और आयुर्वेद इनके आदेश सिद्ध हैं। कुतर्क का आश्रय लेकर नहीं काटना चाहिए।
(ख) ‘‘तस्मात् प्रवक्ष्यते धर्मान् मनुः स्वायभुवः स्वयम्॥’’ 44॥
‘‘स्वायभुवेषु धर्मेषु शास्त्रे चौशनसे कृते॥’’46॥
(महा0 शान्ति0 335.44, 46)
अर्थ-स्वायभुव मनु ने मानवसृष्टि के आरभ में ब्रह्मा के धर्मशास्त्र के अनुसार धर्मों का उपदेश दिया है॥ 44॥ स्वायभुव मनु के धर्मशास्त्र और औशनस = शुक्राचार्य के शास्त्र बन जाने पर धर्म- विधानों का प्रचार हुआ है।
(ग) ऋषयस्तु व्रतपराः समागय पुरा विभुम्।
धर्मं पप्रच्छुरासीनमादिकाले प्रजापतिम्॥
(महा0 शान्ति0 36.3)
अर्थ-‘मानव-सृष्टि के आदिकाल में व्रतपालक तपस्वी ऋषि एकत्र होकर प्रजापालक राजर्षि मनु (स्वायभुव) के पास आये और उन राजर्षि से धर्मों के विषय में जानकारी प्राप्त की।’ मनुस्मृति से भी यही ज्ञात होता है कि मनु धर्मविशेषज्ञ थे। महाभारत का यह श्लोक मनुस्मृति के 1.1-4 की घटना का ही वर्णन कर रहा है-
मनुमेकाग्रमासीनमधिगय महर्षयः।
प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन्॥
भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः।
अन्तरप्रभवाणां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि॥ (1.1-2)
महर्षि मनु की याति प्राचीन काल में विश्वभर में थी और आज भी है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उनको जो महत्त्व प्राप्त है वह भारतीयों के लिए गौरव का विषय है। कुछ प्रमाण द्रष्टव्य हैं-
(क) अमेरिका से प्रकाशित ‘इंसाइक्लोपीडिया आफ दि सोशल सांइसिज’ में मनु को आदिसंविधानदाता और मनुस्मृति को सबसे प्रसिद्ध विधिशास्त्र बताया है-
““Throughout the farther east Manu is the name of the founder of law. Maun law book are knoun…..in
later times the name ‘MANU’ became a title which was given to juristic writers of exceptional
eminence.”” (P.260)
अर्थात्-पूर्वी देशों में सुदूर तक मनु का नाम विधि-प्रतिष्ठाता के रूप में जाना जाता है। मनु का संविधान (मनुस्मृति) भी प्रसिद्ध है। परवर्ती समय में मनु का नाम इतना महत्त्वपूर्ण बन गया कि उन देशों में संविधान निर्माताओं को ‘मनु’ नाम की उपाधि प्राप्त होने लगी। उनको ‘मनु’ कहकर पुकारा जाता था।
(ख) संस्कृत-साहित्य के प्रसिद्ध समीक्षक और विद्वान् ए.ए. मैकडानल अपने ‘ए हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर’ में मनुस्मृति को सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण संविधान मानते हैं-
““The most important and earliest of the matricol smrities is the Manava Dharm Shastra, or cod of Manu.”” (P.432)
क) आधुनिक भारतीय लेखकों और कानूनविदों ने भी मनु के प्राचीनतम होने और मनुस्मृति के कानून का अदिस्रोत होने का समर्थन किया है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू अपनी पुस्तक ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ में मनु को प्राचीनतम कानूनदाता स्वीकार करते हैं-
“MANU, the earliest exponent of the Law” (P.118)
= ‘प्राचीनतम और कानून के आदिदाता मनु।’
“The old law giver Manu, himself says” (P.118)= ‘प्राचीन विधिदाता मनु कहते हैं।’
(ख) ‘मुल्लाज हिन्दू लॉ’ में टी. देसाई कानून के प्रसंग में मनु को मूल विधिदाता और आदिपुरुष के रूप में प्रस्तुत करते हैं-
“the original lawgiver” (P.19)= ‘आदि विधिदाता मनु’
“Manu, the first patriarch” (P.19)=‘मनु, प्रथम आदिपुरुष’
जब हम यह कहते हैं कि ‘मनुस्मृति’ विश्व का सर्वप्रथम संविधान है और मनु स्वायंभुव आदिराजा, आदि धर्मप्रवक्ता, आदिविधिप्रणेता है तो कुछ लोगों को यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। किन्तु है यह सत्य। प्राचीन बृहत्तर भारतवर्ष में, साथ ही दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में समाजव्यवस्था एवं दण्डव्यवस्था के निर्धारण में प्राचीन समय में मनुस्मृति के विधानों का वर्चस्व रहा है; इसका ज्ञान हमें प्राचीन भारतीय साहित्य, भाषाविज्ञान तथा अंग्रेजी शासनकालीन इतिहासों के उल्लेखों से होता है। सन् 1932 में, मनु और मनुस्मृति को प्राचीनतम शास्त्र बताने वाला एक चीनी भाषा का दस्तावेजाी प्राप्त हो चुका है जिसके अनुसार मनुस्मृति का अस्तित्व कम से कम 12-13 हजार वर्ष पूर्व था (देखिए अध्याय 1.5 में प्रमाण संया ‘क’ का विवरण)। वैदिक साहित्य में मनुस्मृति के रचयिता मनु स्वायभुव को केवल भारतीयों का ही नहीं अपितु मानवों का प्रमुख आदिपुरुष माना गया है। इसी कारण मनु स्वायंभुव को आदिविधि प्रणेता (First Law-giver)और उसके द्वारा रचित ‘मनुस्मृति’ या ‘मानव धर्मशास्त्र’ को आदि संविधान (First Constitution) माना जाता है, क्योंकि स्वायंभुव मनु आदि सृष्टि की कालावधि का राजर्षि था।
प्राचीन भारतीय इतिहास और साहित्य में जो आदितम वंशावलियां उपलध हैं, उनके अनुसार, सृष्टि का आदिपुरुष ब्रह्मा है, जिसका एक नाम ‘स्वयभू’ भी है। उसका एक पुत्र (कहीं-कहीं पौत्र) मनु था। ‘स्वयभू’ वंश का पुत्र होने के कारण ही इस आदि मनु का नाम ‘स्वायभुव मनु’ कहलाता है। प्रजाओं की प्रार्थना पर और पिता ब्रह्मा के आदेश से यह प्रथम मनु सृष्टि का प्रथम राजा बना। मनु ने क्षत्रियवर्ण को ग्रहण कर राजा बनना स्वीकार किया। इस प्रकार मनु क्षत्रिय था। राजा होते हुए भी वह शास्त्रों के स्वाध्याय में संलग्न रहता था तथा उसका ऋषिवत् आध्यात्मिक एवं निर्लिप्त जीवन था, अतः वह ‘राजर्षि’ था। धर्म आदि विद्याओं का विशेषज्ञ होने के कारण यह ‘महर्षि’ था। संस्कृत-साहित्य में मनु के ‘आदि राजा’ होने का विवरण अनेकत्र मिलता है। कुछ विवरण यहां प्रस्तुत हैं।
(क) पिता ब्रह्मा के आदेश से स्वायभुव मनु सृष्टि का पहला राजा नियुक्त हुआ। उससे पहले न कोई राजा था, न राज्य था। सत्वगुणी लोग आत्मानुशासन से ही परस्पर सद्व्यवहार करते थे। धीरे-धीरे मनुष्यों में रजोगुण और तमोगुण की वृद्धि होने लगी, बलवान् निर्बलों को सताने लगे। तब लोगों ने ब्रह्मा के पास जाकर किसी ऐसे को राजा बनाने की प्रार्थना की जो सबको व्यवस्था में चला सके। तब ब्रह्मा ने मनु को राजा बनने का आदेश दिया। मनु ने सबके कर्त्तव्यों-अकर्त्तव्यों का निर्धारण किया और सारे समाज को व्यवस्थित किया। मनु ने निर्धारित विधानों के अनुसार अपने शासन को व्यवस्थित किया और चलाया। इस कारण उसे ‘आदिराजा’ कहा जाता है। महाभारत में इस घटना का उल्लेख इस प्रकार आता है-
अंग्रेजी शासन में कुछ शासनभक्त लेखकों को जब संस्कृत भाषा को विश्व की अधिकांश भाषाओं की जननी मानने और मनु व्यक्तिवाचक शद को मानव आदि नामों का मूल मानने में जब यह आभास हुआ कि इससे तो भारतवासी हमसे प्राचीन और सय माने जायेंगे तो उन्होंने इन मान्यताओं में भ्रान्ति पैदा करके इन्हें बदल डाला। कहा गया कि संस्कृत जननी नहीं अन्य भाषाओं की बहन है, जननी तो कोई अन्य भाषा थी, जिसका नाम ‘भारोपीय भाषा’ कल्पित किया गया। इसी प्रकार कहा गया कि मानव आदि नामों का मूल मनु चिन्तनार्थक शद है, व्यक्तिवाचक नहीं।
इस नयी भ्रामक स्थापना का समाधान संस्कृत की वैज्ञानिक पद्धति से हो जाता है। संस्कृत व्याकरण की सुनिश्चित प्रक्रिया है, जो नियमों में बंधी है। संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘मनु’ शद से जो प्रत्यय जुड़कर ‘मानव’ आदि शद बने हैं वे व्यक्तिवाचक शद से पुत्र या वंशज अर्थ में जुड़े हैं, अतः उनका व्याकरणिक अर्थ ‘मनु के पुत्र या वंशज’ ही होगा, अन्य नहीं। जैसे-मनु से ‘अण्’ प्रत्यय होकर ‘मानव’ बना है, ‘षुग्’ आगम और ‘यत्’ प्रत्यय होकर ‘मनुष्य’ तथा ‘अञ्’ प्रत्यय और ‘षुग्’ आगम होकर ‘मानुष’, मनु के साथ ‘जन्’ धातु के योग से ‘उ’ प्रत्यय होकर ‘मनुज बना है। यहां चिन्तन अर्थ प्रासंगिक नहीं बनता।
वर्तमान में ‘भाषा विज्ञान’ (Linguastics)के नाम से प्रसिद्ध शास्त्र यूरोपीय विद्वानों की देन है। इस विद्या में भाषाओं के मूल, विकास और पारस्परिक सबन्धों का अध्ययन किया जाता है। इस शास्त्र के अध्ययन से मनु के प्रमुख आदिपुरुष होने के अनेक आश्चर्यजनक पोषक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। उनका भारतीय साहित्य के निष्कर्षों से अद्भुत तालमेल है।
(क) संस्कृत, हिन्दी आदि भारतीय भाषाओं में आदमी के वाचक जितने नाम हैं, जैसे- मानव, मनुष्य, मनुज, मानुष ये सब मनु मूल शद से बने हैं, जिनका अर्थ है-‘मनु के वंशज या मनु की सन्तान।’ जैसे सभी बनिया स्वयं को महाराजा अग्रसेन का वंशज मानकर ‘अग्रवाल’ कहते हैं, उसी प्रकार मनु के वंशज ‘मनुष्य’ हैं। भाषाविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि अधिकांश एशिया और यूरोपीय देशों की भाषाएं आर्यभाषाएं हैं और अधिकांश जातियां आर्यों की वंशज हैं। यही कारण है कि उनकी भाषाओं में प्रयुक्त मनुष्य वाचक शद ‘मनु’ से बने हुए हैं। बीस भागों वाली ‘दि ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी’ में ‘मैन’ (Man) शब्द पर इनका विवरण दिया है-
अंग्रेजी में- MAN (मैन), जर्मनी में- MANN (मन्न), MANESH (मनेश), लैटिन व ग्रीक में- MYNOS (माइनोस), स्पेनिश में – MANNA (मन्ना)
यूरोप की अन्य भाषाओं में भी मनु मूल शद पर आधारित प्रयोग प्रचलित हैं, जैसे – मेनिस्, मनुस्, मनीस्, मनेस, मैन्स् आदि। (भाग 1, पृ0 284)
चीनी भाषा के ग्रन्थ में मनुस्मृति-काल सबन्धी उल्लेख का विवरण प्रस्तुत किया गया है। उस पुरातात्विक प्रमाण के अनुसार मनुस्मृति 10-12 हजार वर्ष पुराना शास्त्र है। इससे एक तथ्य की पुष्टि तो होती ही है कि मनुस्मृति समाज-व्यवस्था का सबसे पुराना ग्रन्थ है। अन्य किसी देश या समाज का इतना पुराना ग्रन्थ उपलध नहीं है। यह पुरातात्विक प्रमाण भी मनु और मनुस्मृति के काल को सबसे प्राचीन सिद्ध करता है।
इससे यह भी सिद्ध होता है कि मनु एवं मनुस्मृति के काल के सबन्ध में पाश्चात्य लेखकों ने जो 185 ई0 पूर्व के काल की कल्पना की है, वह निराधार और अप्रामाणिक है; क्योंकि मनु स्वायंभुव रचित मनुस्मृति के उल्लेख उससे कई हजार वर्ष पूर्व के साहित्य में मिल रहे हैं। उन उल्लेखों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
पाश्चात्य विद्वान् एवं पाश्चात्य विचारधारा के अनुगामी आधुनिक विद्वान् मनु पर विचार करते समय उसका उल्लेख एवं जीवन-परिचय वेदों में खोजते हैं। उनका कथन है कि ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर व्यक्तिवाचक मनु शद आया है। कहीं उसे पिता कहा है, कहीं प्रारभिक यज्ञकर्त्ता, तो कहीं अग्निस्थापक के रूप में उसका वर्णन है।4
इस चर्चा का उत्तर मनु के मन्तव्य के अनुसार दिया जाये तो अधिक प्रामाणिक होगा। मनु वेदों को ईश्वरप्रदत्त अर्थात् अपौरुषेय मानते हैं। सृष्टि के प्रारभ में ईश्वर ने अग्नि, वायु, आदित्य के माध्यम से वेदों का ज्ञान दिया। अपौरुषेय होने के कारण वेदज्ञान पूर्णतः ज्ञेय नहीं है, वह अपरिमित है।1 प्रारभ में वेदों से ही शद ग्रहण करके व्यक्तियों और वस्तुओं का नामकरण किया गया।2 मनु द्वारा वेदों को अपौरुषेय घोषित करने के उपरान्त उसी मनु का वेद में इतिहास ढूंढना मनु के विपरीत विचार है, और मनु से पूर्व वेदों का रचनाकाल होने से कालविरुद्धाी है।
आधुनिक इतिहासकारों ने प्राचीन मतों को अमान्य करके नये सिरे से समग्र इतिहास पर विवेचन प्रारभ किया हुआ है। ये इतिहासकार अधिकतर पाश्चात्य विद्वानों की कल्पनाओं एवं कार्यपद्धति से प्रभावित हैं। यद्यपि इनके मतों में अनुसन्धान के आधार पर परिवर्तन आता रहता है, तथापि अब तक स्थिर हुए कुछ आधुनिक मतों का यहाँ उल्लेख किया जाता है।
श्री के. एल. दतरी स्वायंभुव मनु का काल 2670 ई. पू. मानते हैं।1 श्री त्र्यं. गु. काले ने पुराणों के आधार पर मनु का काल 3102 ई. पूर्व निर्धारित किया है।2 लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने ज्योतिर्विज्ञानीय तत्त्वों के आधार पर प्राचीन वैदिक साहित्य का कालनिर्णय करने का प्रयास किया है। उनके अनुसार कृत्तिका नक्षत्र में वसन्तारभ के समय ब्राहमण ग्रन्थों की रचना हुई और मृगशिरा नक्षत्र के काल में वैदिक मन्त्रसंहिताओं की रचना हुई। खगोल और ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कृत्तिका और मृगशिरा नक्षत्रों में वसन्तारभ क्रमशः आज से 4500 ई.एवं 6500 वर्षों पूर्व हुआ था। इस प्रकार इन ग्रन्थों का काल क्रमशः 2500 ई. पू. तथा 4500 ई0पू0 के लगभग निर्धारित होता है।3 इस आधार पर मनु का काल भी ब्राहमणग्रन्थों से पूर्व इसी कालावधि के निकट निर्धारित होगा।
वैदिक तथा लौकिक संस्कृत साहित्य में मनुष्यों को ‘‘मानव्यः प्रजाः’’ कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि सभी मनुष्य मनु के वंशज हैं अथवा मनु की प्रजाएं हैं। वैदिक संस्कृति में राजा को पिता तथा प्रजा को पुत्रवत् माना जाता था, अतः प्रजाओं को भी सन्तान कहा गया है। राजर्षि मनु भी चक्रवर्ती राजा थे अतः सभी प्रजाएं उनकी सन्तान थीं। मनु का वंश भी अतिविशेष था और महत्त्व भी सर्वोच्च था। इस कारण मनुष्यों के प्रायः सभी मूल संस्कृत नाम ‘मनु’ शद से बने हैं। इसी मान्यता को स्थापित करते हुए वैदिक ग्रन्थ काठक ब्राह्मण तथा तैत्तिरीय संहिता में कहा है-
‘‘ताःइमाः मानव्यः प्रजाः’’
(काठक0 2.30.2 तथा तैत्ति0 सं0 5.1.5.6)
अर्थ-ये साी प्रजाएं (मनुष्य) मनु के वंशज हैं।
(ख) आचार्य यास्क निरुक्त में इसी मान्यता को स्थापित करते हैं- ‘‘मनोरपत्यं मनुष्यः (मानवः)’’(3.4)
आदिसृष्टि कहते ही बहुत-से लोग चौंकते हैं, किन्तु चौंकने की कोई बात नहीं है। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सृष्टि उत्पन्न होते ही मनु उत्पन्न हो गये। इसका अभिप्राय यह है कि सृष्टि के या मानव सयता के ज्ञात इतिहास में जो आरभिक काल है, वह मनु का स्थिति काल है। मनु स्वायंभुव या मनुवंश से पूर्व का कोई इतिहास उपलध नहीं है। जो भी इतिहास मिलता है वह मनु या मनुवंश से प्रारभ होता है, अतः मनु ऐतिहासिक दृष्टि से आरभिक ऐतिहासिक महापुरुष हैं। वैदिक परपरा में यह सारा इतिहास क्रमबद्ध रूप से उपलध होता है। कुछ बिन्दुओं पर संक्षिप्त चर्चा की जाती है-
(क) उपलध वैदिक साहित्य में वेद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। विश्व के सभी लेखक इस शोध पर एक मत हैं कि ‘‘ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है।’’ वेदों के पश्चात् क्रमशः संहिता ग्रन्थों, ब्राह्मण ग्रन्थों, उपनिषदों, सूत्रग्रन्थों का रचनाकाल माना जाता है। लौकिक संस्कृत में मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, पुराण आदि उपलध हैं। इन सब ग्रन्थों में मनु का इतिवृत्त, वंशविवरण, उद्धरण, उल्लेख, श्लोक आदि मिलते हैं। यह इस तथ्य को पुष्ट करता है कि वेदों के बाद के इस समस्त साहित्य से पूर्व मनु स्वायभुव हुए हैं, अतः वे उपलध साहित्य और इतिहास से पूर्व के महापुरुष हैं। इस साहित्यिक विवरण को कोई नहीं झुठला सकता।
1) आधुनिक समीक्षकों द्वारा वेदों के बाद सबसे प्राचीन माने गये तैत्तिरीय संहिता और ताण्ड्य ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में मनु के वचनों को औषध के समान कल्याणकारी माना है। यह कथन इस बात का संकेत है कि उस काल तक मनु की धर्मशास्त्रकार के रूप में याति और प्रामाणिकता सुस्थापित हो चुकी थी-
(क) ‘‘मनुर्वै यत्किञ्चावदत् तद् भेषजं भेषजतायै।’’
(तैत्ति0 सं0 2.2.10.2, 3.1.9.4; तां0 ब्रा0 23.16.7)
(ख) ऐतरेय ब्राह्मण में मनुवंशी राजा शर्यात मानव के राज्या-भिषेक का वर्णन है (8.11)। यह सातवें मनु वैवस्वत के पुत्र इक्ष्वाकु का वंशज है। उसी ब्राह्मण में एक श्लोक आता है जो प्रायः मनु के श्लोक का रूपान्तर है या भावानुवाद है-
मनु– कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्।
कर्मस्वयुद्यतःत्रेता विचरंस्तु कृतं युगम्॥ (9.302)
तैत्तिरीय ब्राह्मण में–
कलिः शयानो भवति सञ्जिहानस्तु द्वापरः।
उत्तिष्ठन् त्रेता भवति कृतं सपद्यते चरन्॥ (7.15)
मनुस्मृति की शैली-मनुस्मृति के अध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुस्मृति की रचनाशैली ‘प्रवचनशैली’ है, अर्थात् मनुस्मृति मूलतः प्रवचन है। बाद में मनु के शिष्यों ने उनका संकलन करके उसे एक शास्त्र या ग्रन्थ का रूप दिया है। मनुस्मृति के ‘भूमिकारूप’ प्रथम अध्याय के पहले चार श्लोकों के ‘‘मनुम्…..अभिगय महर्षयः …….वचनमब्रुवन् (1। 1),‘‘ भगवन् सर्ववर्णानां……धर्मान्नो वक्तुमर्हसि’’ (1। 2) ‘‘त्वमेको अस्य सर्वस्य…..कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो’’ (1। 3) ‘‘प्रत्युवाच….महर्षीन् श्रूयताम् इति’’ (1। 4) आदि वचनों से ज्ञात होता है कि अपने मूलरूप में मनुस्मृति महर्षियों की जिज्ञासा का महर्षि मनु दिया गया उत्तर है, जो प्रवचनरूप में है। ये सभी श्लोक और विशेषरूप से ‘‘सः तैः पृष्टः’’ (1। 4) पदप्रयोग यह सिद्ध करता है कि इसे बाद में अन्य व्यक्ति ने संकलित किया है। मनुस्मृति की प्रवचन शैली और 1। 1-4 श्लोकों में वर्णित घटना, जिसमें कि महर्षि लोग केवल मनु के पास धर्मजिज्ञासा लेकर आते हैं और फिर मनु ही उसका उत्तर देते हैं, तथा सपूर्ण मनुस्मृति में प्रारभ से अन्त तक मनु द्वारा 1। 4 से प्रारभ की गई कहने-सुनाने की क्रियाओं का उत्तम पुरुष के एकवचन में प्रयोग, ये बातें यह सिद्ध करती हैं कि मनुस्मृति का प्रवक्ता मनु नामक राजर्षि और महर्षि है।
मनुस्मृति के प्रवक्ता और उसके काल-निर्धारण सबन्धी प्रश्न का यह समाधान आज के लेखकों को सर्वाधिक चौंकाने वाला है। कारण यह है कि वे पाश्चात्य लेखकों द्वारा कपोलकल्पित कालनिर्धारण के रंग में इतने रंग चुके हैं कि उन्हें परपरागत सत्य, असत्य प्रतीत होता है; और कपोलकल्पित असत्य, सत्य प्रतीत होता है। आंकड़ों के अनुसार, परपरागत और पाश्चात्यों द्वारा निर्धारित मनुस्मृति के काल-निश्चय में दिन-रात या पूर्व-पश्चिम का मतान्तर है। यह तथ्य है कि भारतीय मत की पुष्टि एक सपूर्ण परपरा करती है। परपरागत सपूर्ण वैदिक एवं लौकिक भारतीय साहित्य ‘मनुस्मृति’ या ‘मानवधर्मशास्त्र’ को मूलतः मनु स्वायभुव द्वारा रचित मानता है और मनु का काल वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल मानता है। इस प्रकार आदिकालीन स्वायभुव मनु की रचना होने से मनुस्मृति का काल भी वेदों के बाद वर्तमान मानवसृष्टि का आदिकाल है।