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आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदभाष्य (वेदार्थ) की कसौटियां । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      यह पहिले बतलाया जा चुका है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान, अपौरुषेय, नित्य तथा सृष्टिनियमों के अनुकूल है। अतः उसका अर्थ करते समय भी उन्हीं कसौटियों को यथार्थ समझना अनिवार्य है, जो कि इन पूर्वोक्त बातों का विरोध न करती हों, अतः वेदार्थ की दृष्टि से संक्षेपतः उनका निरूपण करते हैं –

      ▪️(१) वेद में सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन होना चाहिये, जो मानव समाज में परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाले न हों। 

      ▪️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उस में न होना चाहिये। 

      ▪️(३) ईश्वर के गुण, कर्म तथा सृष्टि नियमों के विरुद्ध न हो। 

      ▪️(४) ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ वेद सब सत्य विद्यानों का पुस्तक है, उस से यह अवश्य विदित हो। 

      ▪️(५) मानवजीवन के प्रत्येक अङ्ग पर प्रकाश डालता हो, अर्थात् मानव की ज्ञानसम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हो। 

      ▪️(६) न्यायादि शास्त्रों के नियमों के विपरीत न हो, दूसरे शब्दों में तर्क की कसौटी पर ठीक उतरे, अर्थात् तर्कसम्मत हो। 

      ▪️(७) जिसमें किसी व्यक्तिविशेष का इतिहास न हो। 

      ▪️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान कराता हो। 

      ▪️(९) आप्तसम्मत हो, ऋषि-मुनियों की धारणायें भी जिसके अनुरूप हों। 

      ▪️(१०) जिस की एक आज्ञा दूसरी आज्ञा को न काटती हो।

      अति संक्षेप से ये वेदार्थ की कसौटियाँ कही जा सकती हैं। इनके विषय में पूर्व(जिज्ञासु रचना मञ्जरी पृ॰ ३९-४०) संक्षेप से लिखा जा चुका है, यहाँ इस विषय में कुछ और प्रकाश डालना अनुपयुक्त न होगा –

      ◾️(१) सर्वतन्त्र-सिद्धान्त या सार्वभौम-नियम – 

      जो बातें सबके अनुकूल, सब में सत्य, जिनको सब सदा से मानते आये, मानते हैं और मानेंगे, जिनका कोई भी विरोधी न हो, जो प्राणिमात्र के कल्याणकारक हैं, ऐसे सर्वतन्त्र सर्वमान्य सिद्धान्त ही संसार में सुख और शान्ति के प्रतिपादक हो सकते हैं। वेद तो स्पष्ट ही कहता है –

      🔥…मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।       

      ……मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ [यजु॰ ३६।१८] 

      प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखो। 🔥“यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः” [यजु० ४०।७], 🔥”भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः” [केनोप॰ २।५], 🔥”स्वस्ति गोम्यो जगते पुरुषेभ्यः” [अथर्व॰ १।३१।४], वेद के इन मन्त्रों तथा उपनिषद् के वचनों में स्पष्ट इस उपर्युक्त बात का प्रतिपादन हमें मिलता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई वेद का अर्थ इसके विरुद्ध करता है, तो कैसे माननीय हो सकता है ! ईश्वर का ज्ञान वेद, फिर भी जाति जाति में, और देश-देश में फूट डलवाने वाली बात कहे, यह कैसे हो सकता है। वह तो समता का प्रतिपादक है, न कि विषमता का। मानवहृदय की विषमता दूर करना ही तो उसका ध्येय है। वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी रूप में सर्वतन्त्र सिद्धान्त का प्रतिपादक है, यह हमारा कहना है। इस कसौटी को लेकर प्रत्येक को वेद के अर्थ का परीक्षण करना चाहिये। 

      ◾️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उसमें न होना चाहिये – 

      ऐसा होने से ईश्वर में पक्षपात सिद्ध होगा। दूसरे-जिस जाति वा देश का वर्णन वेद में होगा, वेद की उत्पत्ति उसके पीछे ही माननी पड़ेगी, इस प्रकार उसकी नित्यता नहीं रह सकती। ऋ॰ १।३।११, १२ में –

      🔥”चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्”। 

      🔥”धियो विश्वा वि रोजति”। 

      विश्व के लिये बुद्धियों वा ज्ञान के प्रकाश का उपदेश वेद करता है। योगदर्शन [२।३१] में भी 🔥’जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्’ ऐसा लिखा है। 

      इसके विरुद्ध जो शङ्का करते हैं, कि वेद में अमुक जाति वा अमुक व्यक्तियों का इतिहास है, इसके विषय में हम आगे लिखेंगे। 

      ◾️(३) ईश्वर के गुण, कर्म और सृष्टिनियमों के विरुद्ध न हो –

      ईश्वर सर्वज्ञ है, उत्पत्ति, स्थिति, संहार का कर्ता, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है। यदि वेद के मन्त्रों के अर्थ इन गुणों के विपरीत हों तो यही कहना होगा कि वह वेद का ठीक अर्थ नहीं है, अन्यथा वेद ईश्वर की कृति नहीं माना जा सकता। वेद कहता है –

      🔥विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः॥ [ऋ॰ १०।८१।३] 

      🔥य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे॥ [अथर्व॰ ७।८७।१] 

      🔥प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्॥ [अथर्व॰ १०।७।८] 

      🔥यस्मिन भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्यस्मिन्नध्याहिंता। 

      यत्राग्निश्चन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठन्त्यापिताः॥ [अथर्व॰ १०।१७।१२] 

      सब का स्रष्टा, धा, नियन्ता परमेश्वर है, इत्यादि मन्त्र उपयुक्त कसोटी के सर्वथा अनुरूप हैं। 

      ◾️(४) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हो – 

      जब वेद ईश्वरीय ज्ञान है, तो वह पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जो प्राणिमात्र को अपेक्षित है। अन्यथा उसकी अपूर्णता उसके वेदत्व का ही विघात करेगी। इसलिये ऋषि-मुनि ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ [मनु॰ २।७] वह समस्त विद्याओं का भण्डार है, ऐसा मानते हैं। यद्यपि यह बात अभी तक प्रायः साध्य कोटि में है, और तब तक रहेगी, जब तक सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता नहीं हो जाते। उससे पूर्व हमें इसका निर्बाध ज्ञान कैसे हो सकता है। पुनरपि हमें अंशतः इस का ज्ञान अवश्य हो रहा है। पर वेद में समस्त विद्यायें होनी चाहिये, इसका बाध तो कोई नहीं कर सकता। यह बात सर्वसम्मत है। स्वामी दयानन्दजी ने ही नहीं, स्वामी शङ्कराचार्य ने भी ऐसा ही माना है –

      🔥”महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्ग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति”। [वेदांत शाङ्करभाष्य १।१।३] 

      अर्थात्- अनेक विद्याओं के स्रोत ऋग्वेदादि का कर्ता विना सर्वज्ञ जगदीश्वर के कोई नहीं हो सकता।

      ◾️(५) मानव-जीवन के प्रत्येक प्रङ्ग पर प्रकाश डालता हो – 

      इस नियम से चारों वर्णों और चारों आश्रमों के सब धर्मों का मूलतः उपदेश वेद में होना अनिवार्य है। 🔥”ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” [यजु॰ ३१।११] इत्यादि मन्त्र चारों वर्गों के कर्तव्यों का उपदेश करते हैं, इसी प्रकार चारों आश्रमों के कर्तव्यों का निरूपण करनेवाले ब्रह्मचर्यसूक्त [अथर्व॰ ११।५] तथा गृहस्थाश्रम (अथर्व॰ १४।२३] आदि के प्रकरण वेदों में अनेक स्थलों में हैं। 

     ◾️(६) तर्कसम्मत हो – 

     🔥”बुद्धि पूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे” (वैशे॰ ६।१।१) के अनुसार वेद में तर्क के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता। 🔥”तर्क एव ऋषिः” [निरु॰ १३।१२] ऋषियों के इन वचनों के आधार पर हमें मानना होगा कि वेद का कोई भी मन्त्र इसकी अवहेलना नहीं कर सकता। यह बात भी अभी वेद के मर्मज्ञ विद्वानों को छोड़कर अन्य साधारण जनता के लिये तो प्रायः साध्यकोटि में ही कही जा सकती है। 

     ◾️(७) व्यक्तिविशेषों का इतिहास न हो – 

      इन्द्र-कण्व-अङ्गिरः आदि शब्दों के आगे तरप-तमप (Comparative तथा Superlative degree) प्रत्यय हमें वेद में [ऋ॰ ७।७९।३ तथा ऋ॰ १।४८।४] स्पष्ट मिलते हैं। तरप्-तमप् प्रत्यय विशेषणवाची शब्दों के ही आगे प्रयुक्त होते हैं, न कि व्यक्तिविशेषों के नाम के आगे। इस से हम समझ सकते हैं कि ये विशेषणवाची शब्द हैं, न कि किन्हीं व्यक्तिविशेषों के नाम। स्थालीपुलाक-न्याय से यहाँ हम इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं। शेष ऐतिहासिक स्थलों के विषय में आगे लिखा जायगा। 

      ◾️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान करानेवाला हो –

      निरुक्तकार यास्क मुनि के मत में वेद के प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होना चाहिये, ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार स्कन्दस्वामी ने (निरुक्त का प्रमाण देकर) कहा है [देखो भाष्यविवरण पृ॰ २१, ३३]। ऐसी दशा में हमें किसी का भी किया अर्थ सामने आने पर देखना होगा कि वह तीनों अर्थों को कहता है, या तीनों में से किसी एक को, या तीनों से भिन्न ही कुछ बोल रहा है। इस कसोटी से हमें वेदार्थ करनेवाले व्यक्ति की योग्यता का भी पता तत्काल लग जायगा कि उसको वेदार्थ के विषय में कहाँ तक गहरा ज्ञान है। 

      ◾️(९) ऋषि-मुनियों की धारणा के अनुकूल हो –

      जैसा हमने ऊपर यास्क का मत दिखाया, इसी प्रकार यास्कमुनि की अन्य धारणाओं तथा अन्य ऋषियों की वेदार्थ विषय में जो धारणाएं हैं, उनको लेकर वेदार्थ की परीक्षा करनी होगी। जब यास्क प्रत्येक मन्त्र के तीन अर्थ मानता है, तो हमें बाधित होकर वैसा ही वेद का अर्थ ग्राह्य समझना होगा, दूसरा नहीं। 

      ◾️(१०) जिसकी एक आज्ञा दूसरी प्राज्ञा को न काटती हो –

      विप्रतिषिद्ध बात या तो पागल कहता है, या अज्ञानी। सो ईश्वर से बढ़ कर ज्ञानी और कौन हो सकता है ! अतः उसका ज्ञान भी परस्पर विरुद्ध कभी नहीं हो सकता। यह बात वेद में पूरी लाग होती है। अतः वेद के अर्थ में ऐसी किसी विप्रतिषिद्धता की सम्भावना नहीं हो सकती।

      ये सब कसौटियाँ हमने अति संक्षेप से निर्देश-मात्र वर्णन की हैं। इस विषय में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा। इन कसौटियों को लेकर ही हमें आगे वेदार्थविषय में विवेचना करनी होगी। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य का विद्वानों पर प्रभाव ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा किये गये वेदभाष्य का प्रभाव अनेक देशी-विदेशी विद्वानों पर पड़ा है। किसी ने उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न करते हुए भी उनके विचारों में जो विशेष परिवर्तन हुआ, उससे आँका है। 

      इसके लिये हम एक भारतीय विद्वान् योगिराज अरविन्द घोष और विदेशी प्रतिप्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर के विचार उद्धृत करते हैं। 

      श्री अरविन्द घोष ‘युजन’ ( =योगी) व्यक्ति थे। अतः उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारमार्थिक अर्थ के विषय में ही लिखा। योगिराज अरविन्द घोष ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के विषय में वैदिक मैगजीन १९१६ में लिखा था[१] –

[📎पाद टिप्पणी १. आगे उद्धृत श्री अरविन्द का मूल अंग्रेजी लेख और उसका हिन्दी भावांश पं. भगवदत्तजी कृत-वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग २, ‘वेदों के भाष्यकार’ ग्रन्थ से लिया है। द्र॰-पृष्ठ ८८-९२, सन् १९७६ का संस्करण]

      It is objected to the sense Dayananda gave to the Veda that it is no true sense but an arbitrary fabrication of imaginative learning and ingenuity, to his method that it is fantastic and unacceptable to the critical reason, to his teaching of a revealed Scripture that the very idea is a rejected superstition impossible for any enlightened mind to admit or to announce sincerely. 

      I shall only sate the broad principles underlying his thought about the Veda as they present themselves to me. 

      To start with the negation of his work by his critics, in whose mouth does it lie to accure Dayananda’s dealing with the Veda of a fantastic or arbitrary ingenuity? Not in the mouth of those who accept Sayana’s traditional interpretation. For if ever there was a monument of arbitiarily erudite ingenuity, of great learning divorced as great learning too often is, from sound judgment and sure taste and a faithful critical and comparative observation, from direct seeing and often even from plainest common sense or of a constant fitting of the text into the Procrushean bed of preconceived theory, it is surely this commentary, other wise so imposing so useful as first crude material, so erudite and laborious, left to us by the Acharya Sayana. Nor does the reproach lie in the mouth of those who take us final the recent labours of European scholarship. For if ever there was a toil of interpretation in which the loosest vein has been given to an ingenious speculation, in which doubtful indications have been snatched at as certain proofs, in which the boldest conclusions have been insisted upon with the scantiest justification, the most enormous difficulties ignored and preconceived prejudic maintained in face of the clear and often admitted suggestions of the text, it is surely this labour, so eminently respectable otherwise for its industry, good will and power of research, per formed through a long century by European Vedic scholarship. 

      What is the main positive issue in this matter? An interpretation of Veda must stand or fall by its central conception of the Vedic religion and the amount of support given to it by the intrinsic evidence of the Veda itself. Here Dayanada’s view is quite clear its foundation inexpugnable. The Vedic hymns are chanted to the One deity under many names, names which are used and even designed to express His qualities and powers. Was this conception of Dayanada’s arbitrary conceit fetched out of his own too ingenious imagination ? Not at all; it is the explicit statement of the Veda it self; “One existent, sages” not the ignorant, mind you, but seers, the men of knowledge.–“speak of in many ways, as Indra, as Yama, as Matarisvan, as Agni.” The Vedic Rishis ought surely to have known something about their own religion, more, let us hope than Roth or Max Mueller, and this is what they knew. 

      We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn, they say, was a late production, this loftier idea which it expresses with so clear a force rose up somehow in the later Aryan mind or was borrowed by those ignorent fire-worshipers, sun worshipers, sky-worshipers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughout the Veda we have confirmatory hymns and expressions. Agni or Indra or another is expressly hymned as one with all the other gods. Agni contains all other divine powers within himself, the Maruts are described as all the gods, one deity is addressed by the names of other as well as his own, or, most commonly, he is given as Lord and King of the universe, attributes only appro priate to the Supreme Deity. An, but that cannot mean, ought not to mean, must not mean the worship of One; let us invent a new word, call it henotheism and suppose that the Rishis did not really believe Indra or Agni to be the Supreme Deity but treated any god or every god as such for the nonce, perhaps that he might feel the more flattered and lend a more gracious ear for so hyperbolic a compliment ! But why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism rather than this new fangled monstrosity of henotheism ? Well, because primitive barbarians could not possibly have risen to such high conception and if you allow them to have so risen you imperil our theory of evolutionary stages of the human development and you destory our whole idea about the sense of the Vedic hymns and their place in the history of mankind. Truth must hide herself. common sense disappear from the field so that a theory may flourish ! I ask, in this point, and it is the fundamental point, who deals most straightforwardly with the text, Dayananda or the Western scholars ? 

      But if this fundamental point of Dayanada is granted, if the character given by the Vedic Rishis them selves to their gods is admitted, we are bound. when ever the hymns speak of Agni or another, to see behind that name present always to the thought of Rishis, the one Supreme Deity or else one of His powers with its attendant qualities or workings. Immediately the whole character of the Veda is fixed in the sense Dayananda gave to it; the merely ritual, mythological!, polytheistic interpretation of Sayana collapses, the merely meteorological and naturalistic European interpretation collapses. We have instead a real scripture, one of the world’s sacred books and the divine word of a lofty and noble religion. 

      अर्थात्[२] दयानन्द के वेदभाष्य के सम्बन्ध में अनेक शंकाएँ की जाती हैं। ….. मैं दयानन्द के वेद-भाष्य के आधाररूप उन प्रसिद्ध नियमों का उल्लेख करूँगा, जो मुझे समझ पाए हैं। 

[📎पाद टिप्पणी २. हमने श्री अरविन्द के लेख का भावमात्र दिया है। वैदिक मैगजीन,१९१६]

      सायण-भाष्य को ठीक समझनेवाले व्यक्ति स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। महाविद्वान् सायण का भाष्य ऊपर से महत्त्व वाला दिखाई देता हुआ भी वेद का यथार्थ और सीधा अर्थ नहीं है। पाश्चात्य विद्वान् भी स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। उनका परिश्रम, शुभेच्छा, अनुसन्धान शक्ति से एक शताब्दी में किया गया अर्थ भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें पूर्वापर सम्बन्ध का अभाव है और सन्दिग्ध विषयों को प्रमाणभूत मान कर अर्थ किया गया है। 

      वेदार्थ तो वेद से होना चाहिए। इस विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार सुस्पष्ट है, उसकी आधारशिला अभेद्य है। वेद के सूक्त भिन्न-भिन्न नामों से एक ईश्वर को ही सम्बोधन करके गाए हैं । विप्र, अर्थात् ऋषि एक परमात्मा को ही अग्नि, इन्द्र, यम, मातरिश्वा और वायु आदि नामों से बहुत प्रकार से कहते हैं। वैदिक ऋषि अपने धर्म के विषय में मैक्समूलर या राथ की अपेक्षा अधिक जानते थे। अतः वेद स्पष्ट कहता है कि जितने भी नाम हैं वे सब एक ईश्वर के ही अनेक नाम हैं। 

      हम जानते हैं कि आधुनिक विद्वान् किस प्रकार इस बात को खींच तान करके उलटते हैं। वे कहते हैं, यह सूक्त नये काल का है। ऐसे ऊँचे विचार बहुत प्राचीन आर्य लोगों के मन में नहीं आ सकता था। इसके विपरीत हम देखते हैं कि वेद में अनेक सूक्त इसी भाव को बताते हैं। अग्नि में ही सब दूसरी दैवी शक्तियाँ हैं, इत्यादि। देवताओं के ऐसे विशेषण हैं, जो सिवाय ईश्वर के और किसी के हो नहीं सकते। पाश्चात्य इस बात से घबराते हैं। वेद का ऐसा अर्थ नहीं होना चाहिए, निस्सन्देह ऐसे अर्थ से उनका चिरकाल से पनप रहा विचार नष्ट होता है। अतः सत्य को छिपाना चाहिए। मैं पूछता हूं, इस बात में, इस मौलिक बात में स्वामी दयानन्द सरस्वती वेद का सीधा अर्थ करते हैं या पाश्चात्य विद्वान्। 

      इस एक के समझने से, दयानन्द के इस मौलिक सिद्धान्त के मानने से नहीं, वैदिक ऋषियों के इस विश्वास के जानने से कि सब देवता एक महान् आत्मा के नाम हैं, हम वेद का वास्तविक भाव जान लेते हैं। बस वेद का वही तात्पर्य निकलता है, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इससे निकाला। केवल याज्ञिक अर्थ या सायण का बहुदेवतावाद आदि का अर्थ भस्मीभूत हो जाता है। पाश्चात्यों का केवल अन्तरिक्ष आदि लोकों के देवताओं के सम्बन्ध में किया हुआ अर्थ मलियामेट हो जाता है। इसके स्थान में वेद एक वास्तविक धर्म ग्रन्थ, संसार का एक पवित्र पुस्तक और एक श्रेष्ठ और उच्च धर्म का देवी शब्द हो जाता।

      ◼️प्रा॰ मैक्समूलर[३] और स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य – यद्यपि प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्रा॰ मैक्समूलर की स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में क्या धारणा थी अथवा उनके वेदभाष्य का प्रा॰ मैक्समूलर पर क्या प्रभाव पड़ा। इसके लिये यदि हम मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों की उत्तर कालीन विचारों से तुलना करें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसके विचारों में जो परिवर्तन दिखाई देता है, उसके पीछे दयानन्द के वेदभाष्य का प्रभाव अवश्य है। एक स्थान पर तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की अपूर्वता को हल्के स्वर से स्वीकार भी करता है। उसने नागर प्रशासक के रूप में भारत आनेवाले व्यक्तियों के सम्मुख ७ व्याख्यान दिये थे। उनका विषय था- INDIA WHAT CAN IT TEACH US अर्थात् ‘हम भारत से क्या सीखें’ इसके तीसरे भाषण में कहा था –

      “We may divide the whole of Sanskrit literature, begining with the Rig Veda and ending with Dayanada’s Introduction to his edition of the Rig Veda, his by no means uninteresting Rig-Veda-Bhumika, into two great periods.” 

      अर्थात् ‘ऋग्वेदकाल से प्रारम्भ करके दयानन्द द्वारा स्वसम्पादित ऋग्वेद की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह बात भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है। (भाषण ३, पृष्ठ १०२)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. प्रा॰ मैक्समूलर ने ऋग्वेद सायणभाष्य के आरम्भ में स्वनाम का ‘मोक्षमूलर’ रूप में संस्कृतीकरण किया था। अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती उनका उल्लेख सर्वत्र ‘मोक्षमूलर’ शब्द से ही स्वग्रन्थों में करते थे।]

      प्रा॰ मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों और उत्तरकालीन विचारों का निर्देश हम आगे करेंगे। पहले हम मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में लिखते हैं। 

      ◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के नियमित ग्राहक – स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के प्रतिमास छपनेवाले अङ्कों के टाइटल पृष्ठों पर वेदभाष्य के नियमित ग्राहकों के नाम पते छपते थे। उनमें हमने एक स्थान पर प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के नाम छपे देखे थे। मुशी समर्थदान ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञानुसार ३० जून १८७९ ई॰ में श्यामजीकृष्ण वर्मा को जो पत्र इङ्गलैण्ड लिखा था, उसमें भी मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों के वेदभाष्य का नियमित ग्राहक होना सिद्ध होता है । (यह पत्र हम आगे उद्धृत करेंगे।)

      स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने वेदभाष्य में तथा अन्यत्र जब भी अवसर प्राप्त होता, प्रा॰ मैक्समूलर का प्रतिवाद करने में नहीं चूकते थे। इसी प्रकार एक अवसर पर मैक्समूलर ने कहा था- दयानन्द मेरे वेदभाष्य का कितना ही खण्डन क्यों न करें, मेरे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद सायणभाष्य सदा उनकी मेज पर खुला रहता है, (द्र॰-पूर्व पृष्ठ ८६, तथा टि॰ २)। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के कार्य से न केवल भले प्रकार परिचित थे, अपितु एक-दूसरे के कार्यों की वास्तविकता को भी समझते थे। फिर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती यह स्पष्ट रूप से जानना चाहते थे कि प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के अपने वेद भाष्य के सम्बन्ध में क्या विचार हैं। मुशी समर्थदान प्रबन्धक वेदभाष्य कार्यालय ने ३० जून १८७९ को स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञा[४] से श्यामजी कृष्णवर्मा को आक्सफोर्ड (इङ्गलैण्ड) के पते से एक पत्र लिखा था। उस में लिखा है- प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों से भिजवा देना और लिखना कि उन लोगों का स्वामीजी और वेदभाष्य के विषय में क्या कहना है। स्वामीजी उनके भाष्य का खण्डन करते हैं, उसके बाबत क्या कहते हैं।[५]

[📎पाद टिप्पणी ४. ‘मैं यह पत्र स्वामीजी की आज्ञानुसार लिखता हूं।’ ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, पृष्ठ २७६, पं॰१०]

[📎पाद टिप्पणी ५. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ २७७, पं॰ ८-११] 

      पुनः प्राषाढ़ सुदि ६, मंगलवार (२३ जुलाई १८८०) को श्यामजी कृष्णवर्मा को लिखे पत्र में स्वामी दयानन्द पूछते हैं-

      श्रीयुत प्रियवराध्यापक मूनियर विलियंस मोक्षमूलराख्यानामधुना वेदादिशास्त्राणां मध्ये कीदृङ् निश्चयः प्रेम तदर्थप्रचाराय चिकीर्षाऽस्ति।[६]

[📎पाद टिप्पणी ६. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ ३४७, पं॰ २३-२४]

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती के महत्त्व को स्वीकारना – हम पहले लिख चुके हैं कि अपने समय के इन दोनों प्रतिवादिभयङ्करों का कभी परस्पर साक्षात् नहीं हुआ परन्तु दोनों एक दूसरे के कार्य से भले प्रकार परिचित थे। 

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती को इङ्गलेण्ड आने का निमन्त्रण –  स्वामी दयानन्द सरस्वती के पं॰ लेखराम-लिखित जीवनचरित से स्पष्ट होता है कि मैक्समूलर ने सन् १८७५ में स्वामी दयानन्द सरस्वती को इंग्लैंड आने का निमन्त्रण भेजा था। उक्त जीवनचरित के पृष्ठ २८७ (हिन्दी अनु॰ प्र॰ संस्क॰) पर मैक्समूलर के पत्र का निम्न सारांश दिया है –

      ‘यदि आप यहां आवें तो बहुत बड़ी कृपा होगी। और वहां के धन्य भाग हैं, जहाँ आपने जन्म लिया है।’ 

      इसके उत्तर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो पत्र लिखा था, उसका सारांश उसी जीवनचरित के पृष्ठ २८८ में इस प्रकार छपा 

      मेरी इच्छा आने की अवश्य थी, परन्तु यहाँ के लोग अभी मुझे नास्तिक कहते हैं। जब तक में इस देश को अच्छी तरह से न बतादूँ कि में कैसा नास्तिक हूं, तब तक नहीं आ सकता। 

      पं॰ लेखराम ने तो यह भी लिखा है…’वहाँ ( बम्बई) के भाटियों ने जहाज पर ले जाने का वचन भी दे दिया था’ (वही, पृष्ठ २८८)। पुनः पृष्ठ २९३ पर लिखा है- [लखनऊ में] ‘एक बंगाली बाबू को अंग्रेजी पढ़ाने को नौकर रखा था। और पढ़ना आरम्भ किया था।’ इण्डियन मिरर (कलकत्ता), बिहार बन्धु (पटना), हिन्दूबान्धव (लाहौर) के समाचारपत्रों में इस आशय की सूचनाएँ छपी थीं। 

      ‘ईश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है’ इस सुभाषित के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का इङ्गलैण्ड जाना नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ। अन्यथा पाश्चात्य भक्तों को यह कहने का अवसर मिल जाता कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो कार्य किया है, उसकी प्रेरणा उन्हें पाश्चात्य विचारधारा से मिली है। 

      ◼️स्वा॰ द॰ स॰ का जीवनचरित लिखने की आङ्काक्षा – स्वामी दयानन्द सरस्वती के निधन के कुछ समय पश्चात् प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखने का संकल्प किया था, और उसके लिये परोपकारिणी सभा के तात्कालिक मन्त्री मोहनलाल विष्णूलाल पाण्डया को पत्र लिखा था। यह वृत्तान्त अजमेर के ‘देश हितैषी’ पत्र के खण्ड ४ अङ्क ४ सं॰ १९४२ (?) के पृष्ठ ८५ से ज्ञात होता है। पाण्ड्याजी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनचरित सम्बन्धी सामग्री स्वयं एकत्र न करके सब आर्यसमाजियों को प्रेरणा दी थी कि जिन्हें स्वामीजी की कोई विशेष घटना ज्ञात होवे, वह प्रा. मैक्समूलर साहब को लिखें। इसी प्रकार का वर्णन ‘फर्रुखाबाद का इतिहास’ के पृष्ठ २५५ पर भी मिलता है। 

      हन्त ! परोपकारिणी सभा के मन्त्री केवल आर्य समाजियों को प्रेरित मात्र करके अपने उत्तरदायित्व से मुक्त न होकर प्रा॰ मैक्समलर को स्वामीजी की जीवनघटनाओं को संग्रहीत करके भेजते तो प्रा॰ मैक्समलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखा जाना एक गौरव की बात होती। अस्तु 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रा॰ मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों में वैपरीत्य होते हए भी दोनों में व्यक्तिगत सौहार्द उसी प्रकार का लक्षित होता है, जैसे मोनियर विलियम्स और स्वामी दयानन्द सरस्वती में परस्पर था।

      अब हम प्रा॰ मैक्समूलर के वेदविषयक प्रारम्भिक और उत्तरवर्ती विचारों का संक्षेप से वर्णन करते हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि प्रा. मैक्समूलर के विचारों में उत्तरकाल में कितना अधिक परिवर्तन हुआ

था। 

      ◼️प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं –

      मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं।[७] पत्रलेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ७. Life and letters of Frederich Max Muller, Two Vols.]

      ▪️१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता –

      वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण[सायणभाष्य सहित ऋग्वेद का संस्करण] उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है। और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।[८]

[📎पाद टिप्पणी ८. ……This adition of mine and the translation of the Veda Will here after tell to a great extent on the fate of India, ……It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.] 

      ▪️२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है –

      ‘संसार की सब धर्मपुस्तकों में से नई प्रतिज्ञा[अर्थात् ईसा की बाईबल] उत्कृष्ट है। इसके पश्चात कुरान जो प्राचार की शिक्षा में नई प्रतिज्ञा का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा[अर्थात् यहूदी बाइबल] दाक्षिणात्य बौद्ध पिटक, बेद, और अवेस्ता आदि हैं।'[९] 

[📎पाद टिप्पणी ९. Would you say that anyone sacred book is superior to all others in the world ?……I say the New Testament. After that, I should place the Koran, which in its moral teachings, is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow,……the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.] 

      ▪️३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है –

      ‘भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?'[१०]

[📎पाद टिप्पणी १०. The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault it be ?] 

      ▪️४. मैक्समूलर लिखता है- 

      ‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल अधर्म और साधारण है।'[११] 

[📎पाद टिप्पणी ११. “Large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious, low, common place.” Chips from a German Workshop, second edition, 1866, p. 27.]

      ▪️५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई॰ बी॰ पुसे का पत्र – 

      ‘आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवगुण लाने वाला है।'[१२]

[📎पाद टिप्पणी १२. ‘Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India……’]

      वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र ? ऐसों के लिये ही तो कहावत है- 🔥उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभाः। 

      वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई यहूदी वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे, उन सबके मस्तिष्क में ईसाई यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाईयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिये लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है- 

      “That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.” 

(भूमिका, पृष्ठ९) 

      हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं –

      ◼️उत्तरकालीन विचार – मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आनेवाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में “INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें ? ) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था। 

      सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में पाये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल मानने वाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिये था कि तुम्हें वहाँ जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि ‘हम भारत से क्या सीखें ?’ अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद[१३] से कतिपय विचार उद्धत करते हैं –

[📎पाद टिप्पणी १३. अनुवादक- श्री कमलाकर तिवारी एवं रमेश तिवारी। प्रकाशक-इतिहास प्रकाशन संस्थान, इलाहाबाद। प्रथम संस्करण, जुलाई १९६४]

      ▪️वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया – 

      “वेदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना आरम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं, तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की प्रति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता, वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।” (पृष्ठ १३५)। 

      ▪️वैदिक भाषा, साहित्य धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है-  

      “प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिये जितने तर्क दिये जा चुके हैं, उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है, उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है, जो उत्तर में अगम्य पर्वत श्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्ण रूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है, जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हुआ।” (पृष्ठ १४५)। 

      ▪️बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- 

      “यदि आप हमसे यह पूछ बैठे कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी, तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएँ ऐसी हैं, जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है, उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि “वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं, जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्”[१४]। पृष्ठ( १४८)। 

[📎पाद टिप्पणी १४. 🔥इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। ऋ॰ १।१६४।४६] 

      “यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विशेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीअस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोम वालों से भिन्न है, वरन् वह पालिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकारप्राप्त ग्रामों का संघ राजतंत्रीय शासन से भिन्न होता है।” (पृष्ठ १४६)। 

      ▪️केवल एक ही देव – “……. उन ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं, वह एक है और केवल एक है।” (पृष्ठ १५१)। 

      “उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है….. ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।” (पृष्ठ २२३)। 

      ▪️वेद का चरम लक्ष्य – “मैं तो यहाँ तक कह सकता है कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहाँ का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।” (पृष्ठ २२३)। 

      ”लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।” (पृष्ठ २२७) ।

      “वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गवई गाँव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।” (पृष्ठ २२७)। 

      मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति ‘शापन हावर’ के उपनिषदविषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया। 

      यदि आप ये समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं, तो मैं आपके समक्ष एक महान दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूँगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापन हावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रगट करते हुए लिखा है कि-

      “समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊँचा उठाने वाला नहीं है, जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का संतोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।” (पृष्ठ २३०)।

      इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था। परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। और इनके मध्य श्यामजीकृष्णवर्मा, जो संस्कृत अध्यापन के लिये लन्दन गए हुए थे, सम्पर्कमाध्यम के रूप में भूमिका निभा रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती – 

      ‘ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेद भाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।’ हम भारत से क्या सीखें, पृष्ठ १०२। 

      सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में, जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हों, वहाँ कम से कम मैक्समूलर के INDIA WHAT CAN IT TEACH US ? (हम भारत से क्या सीखें ) शीर्षक व्याख्यानसंकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय, तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्ध भक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[ 📖 साभार ग्रन्थ – मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यम-यमी सूक्त । पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।] 

      प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी का संबन्ध भी आप: के साथ होना युक्त है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार इस सूक्त का ऋषि यम और ऋषिका यमी विवस्वान् के पुत्र और पुत्री हैं। 

      विवस्वान् आदित्य है। आदित्य की किरणों से पृथिवीस्थ जल तपकर दो भागों में बँट कर ऊपर जाता है।[🔥’कृष्णं नियान हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति’। ऋ० १।१६४।४७] ये दो भाग ही यम यमी हैं। एक योनि आप: से उत्पन्न होने के कारण भाई बहन हैं। इन्हें ही अन्यत्र मित्र और वरुण कहा है।[उर्वशी = विद्यत् के संयोग से मित्र और वरुण का मिलन हुआ तो उससे द्रवरूप गिरा हुआ बिन्दु वसिष्ठ = जल उत्पन्न हुआ । 🔥’उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठो वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधिजात:’ ऋ० ७।३३।११] आधुनिक वैज्ञानिक नामावली में ये हाईड्रोजन और आक्सीजन गैसें हैं। हाईड्रोजन आक्सीजन की अपेक्षा हल्की होती है। अत: यम (हाईड्रोजन) अन्तरिक्ष स्थान से अतिक्रमण करता हुआ धुलोक तक पहुंचता है। अत: यम को निघण्टु (५।४,६) में अन्तरिक्ष एवं द्य दोनों स्थानों में पढ़ा है। यमी (आक्सीजन) भारी होने से अन्तरिक्ष स्थान तक ही गति करती है। स्त्री प्रत्यय महत्त्व अर्थ में भी होता है।[🔥हिमारण्ययोमहत्त्वे॥ महाभाष्य ४।१।४६॥ महद् हिमं हिमानी,महदरण्यम् अरण्यानी। महत्त्वं = घनत्वम्।]  जब यम सूर्य की किरणों के साथ वापस लौटता है[🔥’त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादि घृतेन पृथिवी व्युद्यते’ ॥ ऋ० १।१६।४७], तब अन्तरिक्ष में यमी के साथ विद्युत् के योग से यम का मेल होता है और उससे दोनों के मेल से पुष्कर (अन्तरिक्ष) से द्रव रूप वसिष्ठ ( =अतिशय वासयिता =जल) की उत्पत्ति होती है।[द्र० -पूर्व पृष्ठ टि. ४ में उद्धृत मन्त्र का उत्तरार्ध- 🔥’द्रप्स स्कन्न दैव्येन ब्रह्मणा विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त’ ॥ऋ० ७।३३।११] इसे ही 🔥आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृण्वन्नजामि (ऋ० १०।१०।१०) से सूचित किया है। 

      यमयमी सूक्त से पूर्व सूक्त में ही केवल आप: का वर्णन नहीं है, अपितु उत्तर के ११-१२-१३-१४ सूक्तों में भी प्रकारान्तर से यम द्रप्स घृतस्नू द्यावाभूमी का सम्बन्ध उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह दशवाँ सूक्त संदश (सडासी के दोनों छोर) के मध्य में पठित होने से जलविद्या विषयक ही है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद विषयसूची में जलादिपदार्थविद्या विषय का जो उल्लेख किया है, वह सर्वथा युक्त है। इसमें यमयमी के संवाद पक्ष में जो घृणित पक्ष उपस्थित किया जाता है, वह भी नहीं है । आवश्यकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती की दिव्य दृष्टि के अनुसार पूरे सूक्त की व्याख्या की।

      स्वामी दयानन्द सरस्वती संकलित चतुर्वेद विषयसूची के आधार पर यमयमी सूक्त के संबन्ध में जो विचार प्रस्तुत किया गया है, उससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं 

◼️(क) वेदभाष्य रचने के उपक्रम से पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने चारों वेदों की जो विषयसूची संकलित की थी, उसके लिये उन्होंने बड़ी गम्भीरता से पूर्वापर के सम्बन्ध को ध्यान में रखा था। 

◼️(ख) इस चतुर्वेदविषयसूची के आधार पर ऋग्वेद के शेष भाग, सामवेद तथा अथर्ववेद, जिनका वे अपने जीवन में भाष्य नहीं कर पाये, के सम्बन्ध में उनके मूलभूत मन्त्र-विषय का परिज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह चतुर्वेद विषयसूची उनकी दृष्टि को समझने में विशेष सहायक है।

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

इदन्नमम : पण्डित चमूपति जी

श्री कृष्ण गीता में कर्म के रूप बताते है एक स्वार्थ, दूसरा यशार्थ उनकी रष्टि में स्वार्थ कर्म बन्धन का हेतु है और यक्षार्थ कर्म मोक्ष का। 

यज्ञ का अर्थ हम पीछे स्पष्ट कर चुके हैं जो कर्म व्यक्ति गत लाभ के लक्ष्य से किया जाता है, वह स्वार्थ है, और जो समष्टि के कल्याणार्थ किया जाता है, वह यज्ञार्थ है  

समष्टि में व्यष्टि सम्मिलित है। व्यक्तियों से जातियां बनती हैं जातियों के उत्थान से व्यक्तियां वञ्चित नहीं रहती। स्वार्थ सिद्धि यज्ञार्थ से स्वतः होती है। वस्तुतः स्वार्थ और यशार्थ में भेद नहीं संकल्प भेद तो है परन्तु क्रिया एक ही है। 

कोई रोटी खाता है इस लिये कि में मोटा होजाऊ, कोई मोटा होता है इस लिये कि मैं जाति की रक्षा करूं पहला • स्वार्थी है, दूसरा यज्ञार्थी है। 

यथार्थ स्वार्थ यज्ञार्थ है मनुष्य समाज की रचना ऐसी है कि जातियों के उठाए बिना व्यक्तियां उठ नहीं सकतीं एक आङ्गल व्यक्ति का संसार भर में वही अधिकार है जो उसके उसके देश ने अपने गौरव से प्राप्त किए हैं भारतवासियोंका भारत दण्डपद्धति अमरीका में भी पीछा नहीं छोड़ती गोखले को तुम नीतिश कहो, बुद्धि निधि कहो, दक्षिण अफ्रीका में में कुलियों का राजा कहाता है। व्यक्तिगत आचार को कौन पूछता है अन्य देशों में भारतीय भारतीय होने के कारण undesirable अशुभ हैं । रवीन्द्र जगत् भर के बड़े कवि हैं। पूर्व पश्चिम में पूजे जाते हैं परन्तु किसी स्वाधीन जाति के महा कवि की तरह गर्दन सीधी करके नहीं चल सकते कोई लखपति हो देश दरिद्र है, तो उसका धन भी अपने देशवासियों के ही परिमाण के अनुसार प्रचुर होगा। उन देशों के धनपतियों का सान्मुख्य यह नहीं कर सकता जहां सामान्य जनता लाखों में लेटती है। 

मूखों में विद्वान् विद्वान् रहेगा। विद्या की वृद्धि विद्या प्रचार से होता है धन की तरह यह सम्पत्ति प्रयोग से बढ़ती है। भारत को धन धान्य से दरिद्र किसने किया कृपणता ने। भारत का गुण ज्ञान क्यों धूलि धूसरित हुआ कृपणता से अपना कौशल लोगों से जितना छिपाओगे, उतना तुम से छिपेगा। वैभव विभु है। खुली हवा में बढ़ता फूलता है। संकुचित स्थान में इस का दम घुटता है। 

परमात्मा सब के हैं, तू सब का हो। भक्त कहते हैं, अपने जीवन को डोर प्रभु के हाथ में दे और स्वयं अपने इष्ट, अनिष्ट से निश्चिन्त हो जा। क्या इसका यह अर्थ है ? स्वयं धनोपार्जन छोड़ दे। तुझे परमात्मा धन देंगे? रोटी खा पका, परमात्मा तेरी रोटी खा छोड़ेंगे। 

परमात्मा स्वयं सजग है, और सजगों का ही साथ देते हैं अन्धों को लाठियां परमात्मा ग्रहण नहीं करते। परमात्मा 

की इच्छा का जो मार्ग है वही शुभ है। किसी मनोरथ से, किसी उद्देश्य से संसार का यज्ञ सम्पादित होता है मनुष्य का कल्याण इसमें है कि उस मनोरथ को जाने, उस उद्देश्य को परमात्मा के मन्त्रोच्चारण के साथ अपना मन्त्रोच्चारण करे, उनकी स्वाहा पर अपनी तन मन की आहुति डाले। एक आहुति परइदन्नममकहे अर्थात् यह आहुति मेरे अपने लिये नहीं है इदमग्नये, इदं सोमायका अर्थ परमात्मार्पणहै। परन्तुअग्नयेकहनेका यह अर्थ नहीं किअग्निको उत्तरदाता बना कर स्वयं उत्तरदातृत्व से मुक्त हो जाए जीवों के संपाद्य कार्य जीवों को करने हैं। परमात्मा उनका स्थान नहींलेने हांपरमात्मा की आज्ञा समझ कर अग्नि की ज्वाला को देख कर डाली हुई आहुति सफल होती है। 

परमात्मा का नाम लेने से जहां स्वार्थ वृत्ति का नाश होता है, वहां यज्ञार्थ वृत्ति आजानी चाहिये स्वार्थी को अपनी चिन्ता है, यज्ञार्थी को सारे ब्रह्मांड की। यह हो कि अपनी चिन्ता भी छोड़ बैठो और ब्रह्मांड की भी चिन्ता करो। 

स्वामी दयानन्दइदन्न ममका यथार्थ अर्थ समझे हैं आर्य समाज के पहले पांच नियम स्वार्थ के लक्ष से हैं, तो अन्तिम पांच यशार्थ के लक्ष के हैं। 

यथानियम . संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्योद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना। 

नियम . सबसे प्रीतिपूर्वक धर्मानुसार वर्तना चाहिए। 

नियम . अविद्या का नाश विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। 

नियम . प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट रहना चाहिये, किन्तु सक की उन्नति में अपनी उन्नति सम झनी चाहिये। 

इससे और स्पष्ट सामाजिक सिद्धान्त क्या हो। लोग स्वार्थ छुड़वाते हैं। स्वार्थ छूटता नहीं। स्वामी यज्ञार्थ को यथार्थ स्वार्थ बताता है। यही अर्थ इदन्न ममका है। अर्थात् यह आहुति एक मेरी नहीं, सब की है, और सब में मेरी है। 

ममता और अहंकार के शत्रु संसार भर में विद्यमान हैं। क्या समाचार पत्रों और क्या व्याख्यानवेदिकाओं सब में इसी तुरी का नाद है कि ममता छोड़ो, अहंकार का बीज रखो तथ्य यह है, श्रोता तो श्रोता लेखक तथा वक्ता भी तो ममता और अहंकार के अवतार हैं। 

ममता नहीं छूट सकती, अहंकार का नाश नहीं हो सकता, पर बढ़ाने की वस्तु है विशाल मम अपवाद के योग्य मम नहीं रहती। संकुचित अहम् मोह है, अभिमान है विस्तृत 

अहम् बैराग्य, है, नम्रमा है। परमात्मा के संकल्प को जान कर जब अपना संकल्प उस के अनुकूल कर दिया, जब अपनी आहुति उस की स्वाहा सुन कर स्वाहा को, तो फिरइद. मग्नयेऔरइदं मह्यम्में भेद रहा। 

समूह में अपने आप को मिला देना अपना और समूह दोनों का भला करना है। समिति को अपनी सुयोग्य सम्मति देना समिति का हित करना है। जाति से अपना अभाव करना जाति को जहां तक अपने जीवन का सम्बन्ध है उतना मृत करना है सब व्यक्तियां अपने आप को जाति से अलग कर दें तो जाति रहे परन्तु सम्मति देकर उस पर हठ करना, दूसरों के युक्त मत को भी लताड़ कर अपने यज्ञ को जय चाहना संकुचित ममता है। स्वामी जी कहते हैं 

नि० १०सब मनुष्यों को सामाजिक सर्व हितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें। 

___ यही सिद्धान्त एकता प्राण है ।। सर्व हितकारी नियमों में व्यक्तियों की पारस्परिक परतन्त्रता सामाजिक तथा जातीय स्वतन्त्रता है। तभी तो एक आहुति परइदन्न मम” “इदन्न ममकह कर यज्ञ को समूहसात् बनाया जाता है व्यक्तिसात् नहीं। 

देव : पण्डित चमूपति जी

वेद को चाहे कोई किसी दृष्टि से पढ़ो, दो भावों के आगे आंखें मूंद सकोगे यूरोपियन भाष्यकार इञ्जील के पूर्वभाग में पशुओं के बलिदान पूर्वक परमात्मा की प्रसन्नता का प्रहास पढ़ चुका है। वह इस विचार को मनुष्य के धार्मिक विचार का प्रथम स्फुरण समझता है उसके पूर्वज अनेक देवार्चन की अबोध क्रीड़ा नित्यंप्रति करते थे। उसवेद में अनेक देवताओं की खोज इसी निमित्त ही तो है कि संसारभर की पूर्वजातियों को अबोध दिखाकर अपने पुरुषाओं की बाललीला पर परदा डाले इसी भाव से प्रेरित होकर सही, पर वह कहता है, और चीख़ चिल्ला कर कहता है कि वेद यज्ञों की पुस्तक है. और उसमें देवों की स्तुति है।

देव और यज्ञयह दो शब्द सनातन आर्य जीवन का संक्षेप हैं आर्य धर्म का सार देवों और यशों में है एक आत्मा है दूसरा शरीर वेद की एक दाहिनी आंख है, दुसरी बाहिनी।

भोला बच्चा सूर्य को निकलता देख कर झट हाथ फैला देता है कि मुझे यह गोला चाहिये चन्द्र की ज्योत्सना देखकर  रोता और चिल्लाता है कि मैं खेलूं तो इसी खिलौने से। आंधी आए, बादल गर्जे, बिजली कूदै वह आंखे मूंद लेता है और माता की गोदी में इस डर से कि देव आया! भूत आया !! हाथ पांव सुकेड़ कर छिप जाता है। यह शान्त शरण मिले तो रोता है, और सहायता के लिये जान अनजान सब को बुलाता है। कभी दीपक पर मुग्ध है, कभी जलती और बुझती चिनगारी पर।

क्या आदि काल में आर्य बालकों ने ऐसी ही बाल चेष्टाएँ की? कभी चमकते खिलोनों पर मचल गये? कभी आंधी और बादल से डर कर गिड़गिड़ाए ? उनकी चीखें, उनकी चिल्लाहट, उनकी चाटुकारी, उनका विनय विलाप वेद की स्तुतियां बनी ?

यह कल्पनाएं यूरोपियनों की हैं। 

वेद की स्तुतियों की स्वर पर ध्यान दो ! उनकी लय पहिचानो! यह रोना है ? चिल्लाना है ? या बुद्धिमानों का भक्तिरस पूर्णगान है

__ आंगल कवि वर्डस वर्थ वर्षा के अनन्तर इन्द्र धनुष तना देखता है तो उसका जी उछलता है वह कहता है बालपन से मेरी यह चेष्टा रही है वृद्ध होने तक इस धनुष की डोरी पर नाचा करूं तो जियूं नहीं तो मर जाऊं। 

इसे बाल क्रीड़ा कोई नहीं कहता यह कविदृष्टि है, यह यह तत्त्ववेत्ताओं का तत्त्वावलोकन है। 

हाँ दरिया के पुजारी दरिया कोदूलाकहते हैं। लेखक सैकड़ों वारदुलेके दर्शन को गया जलोपासकों की प्रेमरस में सनी गीतियां सुनीं भक्तिमद में घंटों डूबा रहा दूलेकी लहरियों पर मनके पांवसे नाचा दूलेकी छाती पर दिये बहते देख कर दीपाल का दृश्य भूल गया। 

पुजारी की गोतियां सुनी तो उनका नाम उन्मत्तगीत, मूढ़ों का प्रलाप रक्खा और इस बात का पता नहीं सभ्य इग्लैण्ड का पूर्णशिक्षित कविरत्न वही वर्डस वर्थ समुद्र के तट पर खड़ा, खीष्टमत को ठण्डी सांस के साथ विदा करता है। उसने ठानी यही है कि बहते बुबुदों में देवों का दर्शन करूं। 

अहा ! दिव्य चक्षुकी दिव्यदृष्टि ! विज्ञान शुष्क था तू उसके लिये उपासना रूपी तैल बनी सूर्य है तो धातुओं का गोलकही प्रकाश इन धातुओं का गुण मात्र है जहां यह धातु इकट्ठे हुए, यही रङ्ग, यही रूप, यह किरणे, यही आग्नेय बाण स्वतः बन जावंगे। परन्तु यह गुण क्यों है ? इन धातुओं से इसका विशेष सम्बन्ध क्या है ? तेरे लिये विज्ञान का भण्डार भक्ति का भण्डार होगया आत्मा को पियास जल क्यों बुझाए ? इसीलिये कि आत्मा भी देव है, जल भी। 

आधे से अधिक जगत् मनुष्यों के हृदय में बसता है इन्द्र धनुष सूर्य की किरणें होती हैं। पानी की किसी आकाश में अटकी हुइ बूंद में विचलित हो गई। किसी कवि से पूछोयह उसके प्रियतम का झला है। कोई देवता आकाश से नीचे उतरा चाहता है कोई उसको झुलाओ भी

वेद की वर्णन शैली में विज्ञान की विद्युत् है परन्तु भक्ति की घटनाओं से घिरी हुई इधर आनन्दधन गर्जता है, उधर शान की रेखा चमकती है। भौतिक अद्भुतालय को आत्मिक देवालय बना दिया है। 

सजीव वर्णन निर्जीव विषय को सजीव बना देता है। वेदमन्त्र का जो विषय हो सो देव बिना प्राण प्रतिष्ठा के जड़ मूर्तियों को चेतन किया है वेद परमात्मा को कवि कहता है। आदिम कवि का पद्यात्मक काव्य शुष्क विज्ञानी का परीक्षणा लय नहीं हो सकता। 

मूर्ख इन कल्पनाओं के आगे हाथ जोड़ते हैं कवियों के हृदय इस कविता का आनन्द लेते हैं। पुजारी शङ्का फंकता है, कवि का हृदय उमड़ता है। मन्दिर में घण्टियां बजती हैं, कवि चुपके चुपके अनहत गीत सुनता है एक ने बाह्य, अन्तरीय दोनों आंखें मूंद ली। वह अन्धी भक्ति में हाथ पांव हिलाया किया। दूसरे का शान चक्षु खुला रहा उसने विज्ञान पूर्वक प्रेमानन्द लूटा। 

तैतीस करोड़ देवताओं पर लोग हंसते हैं। उपासक इतने नहीं, जितने उपास्य हैं। मूढ़ों की उपासना ने उपास्यों की निन्दा कराई। लोगों ने देव शब्द को परमात्मा का पर्याय समझा, तभी से अनेक देवार्चन चले। मेरे प्रभु का निवास 

होने से प्रत्येक अणु देव है। वेद के प्रत्येक विषय की गणना करें तो मुख्य तथा गौण सब मिल मिला कर तैतीस करोड़ से अधिक देवता होते हैं। ऐसे देव तो हम स्वयं भी हैं देव देवों की पूजा क्यों करें? परमदेव परमात्मा सब देवों के देव हैं। उनकी स्तुति, उनकी प्रार्थना, उनकी उपासना जगत् का अणु अणु करता है दूसरे देवताओं का देवत्व इतना ही है कि उन की सुन्दरता में आंखों को स्नान कराए और उनके उपभोग से जोवन को सफल करें। 

देवताओं का देवताओं से व्यवहार हुआ करता है अग्नि, सूर्य, जल, देव कहां हैं, यदि हम उसे दैव न बनाएं। दरिया खेत डुबों दें, अग्नि सर्वस्व जला दे। हमारा सँयोग हुआ। आत्मदेव के नियम में आएं, देव बन गए यही हानि कारक दैत्य परोपकारक देवता बने खड़े हैं। एक नहीं, अनेक स्वर्ग रच लो। 

मनुष्य अति चाहता है। तैतीस करोड़ों से लजाए तोएक ब्रह्मपर उतर आए। कहां तो असंख्य देव माने थे, और कहां वस्तु ही एक रह गयी। प्रकृति मिथ्या, जीव मिथ्या, एक ब्रह्म सत्य इस भ्रम ने और आंखें बन्द कर दी देव दर्शन तो क्या? अदेव दर्शन भी रहा आंख का काम अदर्शन हो गया। 

ब्रह्माण्ड जैसा है, वैसा है। हृदय का ब्रह्माण्ड भौतिक ब्रह्माण्ड का स्थान नहीं ले सकता। दोनों को ओत प्रोत करने 

से जहां वास्तविक ब्रह्माण्ड आत्मिक देवालय बन जाता है, वहां आत्मिक देवालय वास्तविक ब्रह्माण्ड से पृथक् नहीं होता। भक्ति चक्षु शून्य होती है, ज्ञान नीरस  

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः आसुरिः।   देवता  अग्निः ।  छन्दः आर्षी अनुष्टुप् ।

आर्गन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम्। अग्ने सम्राडुभि द्युम्नमुभि सहुऽआयच्छस्व

-यजु० ३।३८


हम (आ अगन्म) आये हैं (विश्ववेदसम्) विश्ववेत्ता, (अस्मभ्यं वसुवित्तमम्) हमें सर्वाधिक धन प्रदान करने वाले आपकी शरण में । हे (अग्ने) अग्रणी जगदीश्वर ! (सम्राट्) हे विश्वसम्राट् ! आप (अभि) हमारे प्रति (द्युम्नम्) यश और (अभि) हमारे प्रति (सहः) बल (आ यच्छस्व) प्रदान कीजिए।

संसार में जितने प्रकार के पदार्थ हैं, उतनी ही विद्याएँ हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रकार के पदार्थ की अपनी-अपनी विशेषता है। इस प्रकार असंख्य विद्याएँ हैं। ब्रह्माण्ड में ज्ञान का समुद्र लहरा रहा है। कोई किसी विद्या का विज्ञानी है, कोई किसी का। विज्ञानी पण्डितों में भी तारतम्य है। ज्ञान में कुछ कमर तक पानी के सरोवर के समान होते हैं, कुछ मुखपर्यन्त पानी वाले सरोवर के समान और कुछ लबालब भरे हुए डुबकी लगाने, तैरने और स्नान करने योग्य सरोवर के समान ज्ञान से लबालब भरे होते हैं। संसारी ज्ञानियों के ऊपर ज्ञानियों का ज्ञानी, विश्वविज्ञ ‘विश्ववेदस्’ अग्नि परमेश्वर विद्यमान है। सबका अग्रणी होने के कारण वह अग्नि है, और विश्ववेत्ता होने के कारण विश्ववेदस्’ कहलाता है। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद मुनि सनत्कुमार के पास विद्याध्ययनार्थ जाते हैं। पूछने पर वे बताते हैं कि मैं चारों वेद, इतिहास, पुराण, वेदों के वेद व्याकरण आदि १९ विद्याओं में पारङ्गत हो चुका हूँ। सनत्कुमार कहते हैं कि ये सब तो लौकिक विद्याएँ हैं, ‘नाम’ हैं। नाम से बढ़ कर वाक् है, वाक् से बढ़ कर मन है इत्यादि विस्तार करते हुए वे ‘भूमा’ तक पहुँचा देते हैं। अन्त में ब्रह्मपुर तथा ब्रह्म तक ले जाते हैं।

इससे ज्ञात होता है कि लौकिक विद्याएँ भी अन्तिम नहीं हैं, उनसे भी परे अध्यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या है। मनुष्य एक-दो विद्याओं में अपूर्ण पण्डित होकर ही स्वयं को विद्वान् मानने लगते हैं। उसकी तुलना में परमेश्वर का ज्ञान कितना अगाध है, इसी कारण वह ‘विश्ववेदाः’ है, सब लौकिक और आध्यात्मिक विद्याओं का पूर्ण विद्वान् है ।।

परमेश्वर का दूसरा विशेषण मन्त्र में ‘वसुवित्तम’ है, अर्थात् वह सबसे बड़ा ‘वसुवित्’ है। वसु धन का नाम है, ‘वित्’ में लाभार्थक विद धातु है, ‘तमप्’ प्रत्यय अतिशय अर्थ में है। वह हमें सबसे बढ़कर धन प्राप्त करानेवाला है। सांसारिक धनपति तो हमें सामान्य और अल्प धन ही प्राप्त कराते हैं, परमेश्वर अग्नि, जल, वायु, भूमि, सूर्य, विद्युत्, वर्षा आदि ऐसे विशिष्ट धन प्राप्त कराता है, जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते। इसके अतिरिक्त वह विद्या, विनय, सत्य, अहिंसा आदि आध्यात्मिक धन भी हमें प्रदान करता है। | वह जगदीश्वर ही हमारा असली ‘सम्राट्’ है। हे सम्राट् ! हे राजाधिराज ! तुम हमारा जीवन ऐसा उज्ज्वल कर दो कि हमें ‘द्युम्न’ मिले, हम यश के भागी हों और शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक बल भी हमें प्रदान करो। हे सम्राट् ! हम तुम्हारी प्रजाएँ हैं।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार

पाद-टिप्पणियाँ

१. विश्वं सर्वं वेत्ति जानातीति विश्ववेदाः तम् । ‘विदिभुजिभ्यां विश्वे’ उ० ४.२३९ से असि प्रत्यय ।

२. वसूनि लौकिकानि आध्यात्मिकानि च धनानि वेदयति प्रापयतीति विश्ववित्, अतिशयेन विश्ववित् विश्ववित्तमः तम् ।

३. द्युम्नं द्यातते: यशो वा अन्नं वा । निरु० ५.५

४. ओ-दाण् दाने, ‘षा घ्रा ध्मा स्था०’ पा० ७.३.१८ से दाण को यच्छ आदेश।

५. सह:=बल, निघं० २.९ ।

विश्वसम्राट की शरण में – रामनाथ विद्यालंकार