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तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः शासः । देवता विश्वकर्मा ईश्वरः । छन्दः क. भुरिग् आर्षीत्रिष्टुप्, र. विराड् आर्षी अनुष्टुप् ।।

के वाचस्पतिं विश्वकर्माणमूतये मनोजुवं वाजेऽअद्या हुवेम। नो विश्वानि हव॑नानि जोषद्विश्वशम्भूरवसे साधुर्कर्मा।उपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा विश्वकर्मणऽएष ते योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे

-यजु० ८ । ४५

हम ( वाचस्पतिं ) वाणी के स्वामी, (मनोजुवं) मन को गति देनेवाले, (विश्वकर्माणं ) विश्व के कर्मों के कर्ता परमेश्वर को ( अद्य ) आज ( वाजे ) संग्राम में ( हुवेम ) पुकारें । ( स विश्वशम्भूः साधुकर्मा ) वह विश्वकल्याणकारी, साधु कर्मोवाला परमेश्वर (अवसे) रक्षा के लिए (नः विश्वानि हवनानि ) हमारी सब पुकारों को ( जोषत् ) प्रीतिपूर्वक सुने । हे मानव ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) यम-नियमों से जकड़ा हुआ है, ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे विश्व के कर्ता परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर की शरण में देता हूँ। (एष ते योनिः ) यह तेरा शरणस्थान है । ( इन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ) तुझे सब उत्कृष्ट कर्मों के कर्ता विघ्नोच्छेदक जगदीश्वर की शरण में देता हूँ।

क्या तुम जानते हो कि प्रकृति में जो अद्भुत क्रियाएँ हो रही हैं, उनका करनेवाला कौन है ? सम्भवतः तुम कहोगे कि प्रकृति स्वयं अपने खेल रचाती है। स्वयं उषा छिटकती है, सूर्योदय होता है, सूर्यास्त होता है, काली निशा आती है, चाँदनी चमकती है, ग्रीष्म ऋतु आती है, बरसात आती है, शीत ऋतु का आगमन होता है, पर्वतों पर बर्फ गिरता है, नदियाँ बहती हैं, समुद्र में गिरती है, वनस्पतियाँ उगती हैं, लताएँ वृक्षों की गलबहियाँ लेती हैं, रङ्गबिरङ्गे पुष्प खिलते हैं, फल आते हैं। प्रकृति का कम्प्यूटर स्वयं काम करता है, उसे चलानेवाला कोई नहीं है। परन्तु ऐसा कम्प्यूटर आज तक कोई नहीं बना जिसे कभी निरीक्षणकर्ता की, टूटा तार जोडनेवाले की आवश्यकता न हो। कोई विश्वकर्मा परमेश्वर है, जो विश्व के कार्यों को करने में प्रकृति की सहायता करता है। वह केवल प्रकृति की बाह्य करामातों को ही नहीं, शरीर के अन्दर होनेवाले आश्चर्यजनक कार्यों को भी करता-करवाता है। जीभ जो वाणी बोलती है, उसमें उसी का कर्तृत्व है, मन जो चिन्तन करता है या चक्षु-श्रोत्र आदि के देखने-सुनने आदि में माध्यम बनता है, उसमें उसी की कला है। वह ‘साधुकर्मा’ है, सत्य-शिव-सुन्दर कर्मों को ही करता है। आओ, हम उसे पुकारें, उच्च ज्ञान और कर्म की प्राप्ति के लिए उसके द्वार खटखटायें, मानव से देव बनने के लिए उसकी शरण में जाएँ।

हे मानव! जो उपयाम’ है, जो समीप होकर प्रकृति के कम्प्यूटर को नियन्त्रित करता है, उसी को तुम पकड़ो, उसी की शरण में जाओ। उसी से यम-नियमों की डोर पकड़ो। उसी ‘विश्वकर्मा इन्द्र’ से कर्तृत्व की कला सीखो, उसी से बाह्य और आध्यात्मिक उड़ान की शिक्षा लो। उसी से अपरा और परा विद्या का सूत्र पकड़ो। उसी से सूत्रों का भाष्य करने की विद्या प्राप्त करो। वह तुम्हारा ‘योनिरूप’ है, तुम्हारा निवासगृह है, तुम्हारा शरणालय है। उसी विश्व-रचयिता, विश्व की प्रत्येक क्रिया का सञ्चालन करनेवाले परमैश्वर्यवान् प्रभु की शरण में तुम्हें भेजता हूँ। उसी की स्तुति करो, उसी से प्रार्थना करो, उसी की उपासना करो। वह तुम्हारा कल्याण करेगा, वह तुम्हें साधु मार्ग द्वारा लक्ष्य पर पहुँचायेगा। देवासुरसंग्राम में वही तुम्हें विजय दिलायेगा।

पाद-टिप्पणियाँ

१. वाज=संग्राम। निघं० २.१७

२. योनि=गृह। निघं० ३.४

तुझे विश्वकर्मा इन्द्र की शरण में देता हूँ -रामनाथ विद्यालंकार 

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः वसिष्ठः । देवता प्रजापतिः । छन्दः स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् ।

वाजस्येमं प्रसवः सुषुवेऽग्रे सोमराजानमोषधीष्वप्सु ताऽअस्मभ्यं मधुमतीर्भवन्तु वयश्राष्ट्र जागृयाम पुरोहिताः स्वाहा॥

 -यजु० ९।२३ |

( वाजस्य ) अन्नादि ऐश्वर्य से भरपूर जगत् के ( प्रसवः ) उत्पत्तिकर्ता प्रजापति ने (अग्रे) सृष्टि के आरम्भ में ( ओषधीषु अप्सु ) ओषधियों और जलों में ( इमं सोमं ) इस सोम ओषधि को ( राजानं ) राजा ( सुषुवे ) बनाया। ( ताः ) वे ओषधियाँ और जल (अस्मभ्यं) हमारे लिए ( मधुमतीः भवन्तु ) मधुमय होवें। ( पुरोहिताः वयं ) पुरोहित हम, अग्रगण्य पद पर स्थित हम ( राष्ट्रे ) राष्ट्र में ( जागृयाम ) जागरूक रहें, ( स्वाहा ) आहुति देने के लिए।

जिनके हाथों में राष्ट्र की बागडोर है, वे प्रधानमन्त्री विभिन्न विभागों के पृथक्-पृथक् मन्त्री, प्रदेशों के मुख्य मन्त्री, राज्यपाल, न्यायाधीश, सेनाध्यक्ष, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति आदि ही राष्ट्रयज्ञ के पुरोहित होते हैं। वे यदि प्रतिक्षण जागरूक नहीं हैं, तो राष्ट्र कभी भी विपत्ति में पड़ सकता है। कौन राष्ट्र कितना ऊँचा है, यह उस राष्ट्र के शिक्षा, शिल्प, उत्पादन, व्यापार, यात्रा–साधन, चिकित्सासाधने, स्वास्थ्य, विदेशों से सम्बन्ध आदि देख कर निर्णय होता है। जिस राष्ट्र के पुरोहित जितने अधिक जागरूक हैं, उतना ही अधिक वह राष्ट्र उन्नत हो सकता है। अन्य राष्ट्रों से तुलना भी होगी। सभी राष्ट्रों के पुरोहित सक्षम, सावधान, क्रियाशील बने रहने का यत्न करते हैं, किन्तु वे उन्नति के साधने कितने जुटा पाते हैं, यह भी देखा जाता है। एक राष्ट्र में ९० प्रतिशत राष्ट्रवासी शिक्षित हैं, दूसरे राष्ट्र में १० प्रतिशत ही शिक्षित हैं, एक राष्ट्र में खाद्य पदार्थों की प्राप्ति अपनी कृषि से ही हो जाती है, अन्य पदार्थ भी अपने कल-कारखानों से ही तैयार हो जाते हैं, दूसरे राष्ट्र को इन पदार्थों के लिए अन्य राष्ट्रों पर निर्भर रहना पड़ता है। एक देश रक्षासाधन शस्त्रास्त्रों की दृष्टि से स्वात्मनिर्भर है, दूसरा राष्ट्र परापेक्षी है। इस स्थिति में कौन-सा राष्ट्र अधिक समुन्नत है, यह स्वतः निर्णय हो जाता है।

पुरोहितों के निर्वाचन के पश्चात् यज्ञपूर्वक उनका सामूहिक अभिषेक हो रहा है। अभिषेक सोम आदि ओषधियों के पत्र पुष्पों की मालाएँ भेंट करते हुए तथा जल छिड़कते हुए किया जा रहा है। पुरोहित कहते हैं कि अन्नादि ऐश्वर्य से भरपूर जगत् के उत्पादक प्रजापति परमेश्वर ने सोम राजावाले जल और ओषधियाँ उत्पन्न किये हैं, जिनसे हमारा अभिषेक किया जा रहा है। वे हमारे लिए मधुर हों, शान्तिदायक हों, उद्बोधक हों, पौरोहित्य के कार्य में सफल करनेवाले हों। ‘हम पुरोहित राष्ट्र में सदा जागरूक रहेंगे।’ यह हम यज्ञाग्नि में आहुति डालते हुए प्रजापति परमेश्वर से आशीर्वाद चाहते हैं। जिस मार्ग पर हम चले हैं, वह अकण्टक नहीं है। अनेक बाधाओं से जूझते हुए हमें राष्ट्रोत्थान और राष्ट्रकल्याण करना है, राष्ट्र की सेवा करनी है। हम किसी भी पद पर हों सेवक पहले हैं, अधिकारी बाद में हैं। हमें गर्व है इस बात का कि हमें जनता ने चुनकर इस बात का प्रमाणपत्र दिया है कि हम राष्ट्रसेवा के योग्य हैं। हम अपनी पूरी योग्यता से राष्ट्र का हित साधन करने में अपनी शक्ति लगायेंगे और सदा जागरूक रहेंगे। हम यज्ञाग्नि में स्वाहा’ के साथ आहुति देते हुए राष्ट्र की अग्नि में स्वयं को ‘स्वाहा’ करने की प्रेरणा ले रहे हैं। प्रभु का और जनता-जनार्दन का आशीर्वाद हमें प्राप्त होता रहे।

पाद-टिप्पणी

१. सुषुवे-घूङ् प्राणिगर्भविमोचने, लिट् ।

हम पुरोहित राष्ट्र में जागरुक रहें -रामनाथ विद्यालंकार 

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः देवरातः । देवता अग्न्यादयो मन्त्रोक्ताः । छन्दः आर्षी जगती ।

अग्नये गृहपतये स्वाहा सोमय् वनस्पतये स्वाहा मुरुतमोजसे स्वाहेन्द्रस्येन्द्रियाय स्वाहा पृथिवि मातुर्मा मा हिसीर्मोऽअहं त्वाम् ॥

-यजु० १० । २३

राज्याभिषेक के समय नवनिर्वाचित राजा आहुतियाँ दे रहा है—(अग्नयेगृहपतयेस्वाहा) गृहपति अग्नि के लिए आहुति हो। ( सोमाय वनस्पतयेस्वाहा) सोम वनस्पति के लिए आहुति हो। ( मरुताम् ओजसे स्वाहा ) सैनिकों के ओज के लिए आहुति हो। ( इन्द्रस्य इन्द्रियाय स्वाहा ) इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए आहुति हो। ( पृथिवी मातः ) हे पृथिवी माता ! ( मा मा हिंसीः ) तू मेरी हिंसा न करना, ( मो अहं त्वाम् ) न मैं तेरी हिंसा करूंगा।

मुझे आप प्रजाजनों ने राजा के पद पर निर्वाचित और अभिषिक्त किया है। मैं यह जानता हूँ कि यह पद बड़े ही उत्तरदायित्व का है। जिन बड़ी-बड़ी आशाओं को लेकर आपने मेरा राजतिलक किया है, वे सब मुझे स्मरण हैं और मैं यह दृढ़ सङ्कल्प के साथ निवेदन करता हूँ कि उन सबको मैं भरसक पूर्ण करने के लिए उद्यत रहूँगा। आज अपने कार्यालय में जाने से पूर्व प्रथम दिन मैं यज्ञ रचा कर अपने कर्तव्य की कुछ बातें अपने और आपके सम्मुख रखने के लिए आहुतियाँ दे रहा हूँ। प्रथम आहुति ‘अग्नि’ के नाम पर देता हूँ। अग्नि गृहपति है, गृहों का रक्षक है। प्रत्येक गृह में अग्नि अनेक रूपों में आकर गृहों की कार्यसिद्धि करता है। अग्निहोत्र में हम अग्नि को प्रज्वलित करते हैं। भोजन बनाने के लिए हम अग्नि का प्रयोग करते हैं। अन्धकार में प्रकाश  करने के लिए भी हम विद्युदग्नि को ही चमकाते हैं। सूर्य भी एक अग्नि ही है, जो सारे दिन आकाश में विद्यमान रहकर हमें प्राण प्रदान करता है। इस भौतिक अग्नि के अतिरिक्त श्रद्धा की अग्नि, ईशस्तुति, ईशप्रार्थना, ईशोपासना की अग्नि, महत्त्वाकांक्षा की अग्नि, दृढ़ता की अग्नि, राष्ट्रप्रेम की अग्नि, शत्रुसंहार की अग्नि, राष्ट्रहित बलिदान की अग्नि आदि अग्नियों की भी हमारे राष्ट्रगृह के रक्षार्थ आवश्यकता पड़ती है। यह अग्नि राष्ट्र के प्रत्येक गृह में और प्रत्येक राष्ट्रवासी के हृदय में प्रज्वलित रहे इसके लिए मैं सदा प्रयत्नशील रहूँगा।

दूसरी आहुति मैं सोम वनस्पति’ के नाम से देता हूँ। सोम को वेद में ओषधियों का राजा कहा गया है, अत: सोम के अन्तर्गत सभी ओषधियाँ आ जाती हैं। मैं राष्ट्रवासियों की पुष्टि और रोगनिवृत्ति के लिए सभी उपयोगी ओषधियों के संग्रहार्थ और पर्यावरणशुद्धि, वृष्टि आदि के लिए वनस्पतियों के आरोपणार्थ एवं संवर्धनार्थ भी उद्यत रहूंगा। तीसरी आहुति मैं ‘मरुतों के ओज’ के नाम से देता हूँ। मरुत राष्ट के वे वीर क्षत्रियजन हैं, जो सदा राष्ट्ररक्षार्थ कमर कसे रहते हैं। अतः राष्ट्र की सैन्यशक्ति के विकास द्वारा क्षात्रबल के संवर्धन का भी मैं व्रत लेता हूँ। चतुर्थ आहुति मैं इन्द्र के इन्द्रत्व के लिए देता हूँ। इन्द्र वेद में जिनका प्रतिनिधित्व करता है, उनमें ऐश्वर्य भी एक है। अतः इन्द्र के इन्द्रत्व का अभिप्राय है राष्ट्र की ऐश्वर्यशालिता। मेरा राष्ट्र ऐश्वर्य में किसी राष्ट्र से कम न। रहे, इसके लिए भी मैं सजग रहूँगा।

इसके अतिरिक्त पृथिवी हम सबकी माता है। वह प्रदूषित और विकृत होने पर हमारे विनाश का कारण भी बन सकती है, और पर्यावरणशुद्धि द्वारा तथा अपने धरातल पर और गर्भ में विद्यमान समस्त वस्तुओं के प्रदान द्वारा वह सच्चे अर्थों में हमारी माता भी बन सकती है। अतः पृथिवी की पर्यावरणशुद्धि के लिए भी मैं सदा सचेत रहुँगा, जिससे हम उसकी हिंसा न करें और वह भी हमारी हिंसा का कारण न बने ।

ईश्वर को साक्षी रख कर आप सब प्रजाजनों के सम्मुख इन व्रतों को ग्रहण करता हूँ। प्रभु मुझे इन व्रतों के पालन की शक्ति दें और प्रजाजनों को अधिकार है कि यदि मैं इन व्रतों को पालन करने में असफल रहूँ, तो मुझे राजगद्दी से उतार दें।

निर्वाचित राजा की यज्ञाहुतियाँ -रामनाथ विद्यालंकार 

राजा का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

ऋषिः शुन:शेपः । देवता यजमानः । छन्दः विराड् धृतिः ।

अभिभूरस्य॒तास्ते पञ्च दिशः कल्पन्तां ब्रह्नस्त्वं ब्रह्मासि सवितासि त्यप्रसव वरुणोऽसि सत्यौजाऽइन्द्रोऽसि विशौजा रुद्रोऽसि सुशेवः । बहुंकार श्रेयस्कर भूर्यास्करेन्द्रस्य वज्रोऽसि तेने मे रध्य ।।

-यजु० १० । २८ |

हे राजन् ! तू ( अभिभूः असि ) दुष्टों का तिरस्कर्ता है। (एताः ते ) ये तेरी (पञ्च दिशः ) पाँच दिशाएँ-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊध्र्वा ( कल्पन्ताम् ) प्रजा को सुख देने में समर्थ होवें । ( ब्रह्मन्) हे महिमामय ! ( त्वं ब्रह्म असि ) तू ब्रह्म है, चतुर्वेदवित् है, (सविता असि ) सविता है, प्रेरक है, ( सत्यप्रसवः ) सत्य को जन्म देनेवाला (वरुणःअसि ) पाप-निवारक, वरणीय है, ( सत्यौजाः इन्द्रः असि ) सच्चे ओजवाला इन्द्र है, ( विशौजाः ) प्रजाओं में ओज भरनेवाला ( सुशेवः ) उत्तमसुखकारी (रुद्रःअसि ) रुद्र है। ( बहुकार ) हे बहुत-से कार्य करनेवाले ! ( श्रेयस्कर ) हे प्रशस्यकारी ! ( भूयस्कर) हे प्रचुर धन-धान्य आदि उत्पन्न करनेवाले ! तू (इन्द्रस्यवज्रः असि) इन्द्र का वज्र है। ( तेन ) इस कारण ( मे ) मुझे, हम प्रजाजनों को, (रध्य ) कार्यसिद्धि या सफलता प्रदान कर ।

नवनिर्वाचित राजा को प्रजा का प्रतिनिधि कह रहा है। हे वीर ! हम तुम्हें राज्यशासन के लिए सर्वगुणसम्पन्न मानकर प्रजा के बीच से चुनकर लायें हैं और बड़े उत्साह के साथ हमने तुम्हारा अभिषेक किया है। हे राजन् ! तुम ‘अभिभू’ हो, दुष्टों का तिरस्कार करनेवाले हो । पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊध्र्वा इन पाँचों दिशाओं में तुम अपनी कीर्ति का विस्तार यजुर्वेद ज्योति करनेवाले हो। ये पाचों दिशाएँ तुम्हारी प्रजा के लिए सुखदायक हों। तुम्हारे राज्य की किसी भी दिशा में कोई सत्पुरुष चला जाए, तो उसे स्वागत-सत्कार प्राप्त हो, ठोकरें न खानी पड़े। हे राष्ट्रधुरन्धर ! तुम देवों का अंश लेकर बने हो। हे ब्रह्मन् ! हे परम वृद्धि को प्राप्त राजन् ! तुम ‘ब्रह्मा’ हो, चतुर्वेदवित् हो। अतः वेदानुकूल ही प्रजा पर शासन करो। हे देव! तुम ‘सविता’ हो, प्रजा को शुभ कार्यों की एवं शुभ योजनाओं की प्रेरणा देनेवाले हो। हे सम्मानास्पद ! तुम सत्यप्रसव हो, सत्य को जन्म देनेवाले हो। तुम वरुण हो, पापनिवारक तथा वरणीय हो, श्रेष्ठ हो, अनृताचरण करनेवाले को पाशों से बाँधो और सत्यव्रती को पुरस्कृत करो। हे प्रजापालक! तुम सच्चे ओज से ओजस्वी ‘इन्द्र’ हो, परमैश्वर्यवान् एवं शत्रुविदारक हो। सच्चा ओज प्रकट करके असत्यकर्मा आततायियों का दमन करो। हे राजप्रवर! तुम ‘रुद्र’ हो, दुष्टों को रुलानेवाले तथा सज्जनों के रोगादि सन्ताप को द्रावण करनेवाले हो। तुम अपने इस गुण को क्रियान्वित करो। हे सद्गुणनिधान! तुम ‘सुशेव’ हो, उत्कृष्ट सुख के दाता हो, अतः प्रजा को श्रेष्ठ सुख प्राप्त कराओ। तुम ‘बहुकार’ हो, बहुत से कार्य करने में समर्थ हो। तुम ‘श्रेयस्कर’ हो, तुम्हारे कार्य कल्याणकारक ही होते हैं। तुम ‘भूयस्कर’ हो, प्रचुर धनधान्यादि उत्पन्न करनेवाले हो। तुम इन कर्तव्यों का पालन करते रहना। तुम ‘इन्द्र’ के वज़ हो। जैसे वेद का इन्द्र अपने वज्र से रिपुओं का संहार करता है, वैसे ही तुम भी करते रहना ।

हे नर श्रेष्ठ ! क्योंकि तुम उक्त सब गुणों से सम्पन्न हो, अतः हम प्रजाजनों को सदा सफलताएँ प्रदान करते रहना। हम तुम्हारा भावभीना स्वागत करते हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. (अभिभू:) दुष्टानां तिरस्कर्ता।

२. (सुशेव:) शोभनं शेवं सुखं यस्य सः । शेव=सुख, निघं० ३.६।।

३. (रध्य) सं राध्नुहि । –द० । रध्य, रध हिंसासंराध्योः, दिवादिः ।

राजा  का भवभीनी स्वागत-रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः प्रजापतिः । देवता सविता । छन्दः भुरिग् आर्षी पङ्किः।

युजे वां ब्रह्म पूर्घ्यं नमोभिर्वि श्लोकऽएतु पथ्येव सूरेः। शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि स्थुः ।।

 -यजु० ११ । ५

हे यजमान पति-पत्नी ! ( वाम् ) तुम दोनों के ( पूर्त्य ब्रह्म ) पूर्व योगियों से प्रत्यक्षीकृत ज्ञान को ( नमोभिः ) नमन के भावों से ( युजे ) जोड़ता हूँ। तुम्हें ( श्लोकः ) यश (विएतु) विशेषरूप से प्राप्त हो, ( सूरेः पथ्या इव ) जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है। इस धर्मोपदेश को ( शृण्वन्तु ) सुनें ( विश्वे) सब (अमृतस्य पुत्राः) अविनाशी सविता जगदीश्वर के पुत्र, ( ये ) जो ( दिव्यानि धामानि ) प्रकाशित धामों में ( आ तस्थुः ) आकर स्थित है

तुमने गुरुचरणों में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया है, समस्त विद्याओं और कलाओं में तुम निष्णात हो चुके हो । समावर्तन संस्कार करा कर आचार्य से विदा लेकर अपने घर आकर विदुषी कन्या से विवाह करके गृहस्थाश्रम बसाकर आज तुम दोनों पति-पत्नी लोकोपकार-यज्ञ में प्रवृत्त हुए हो। पर यह क्या ! तुम्हारे अन्दर तो विद्वत्ता का अहङ्कार हिलोरें ले रहा है। तुम समझते हो कि तुम-जैसे विद्वान् और विदुषी संसार में दुर्लभ हैं, तुम्हारी विद्वत्ता की थाह पाना असम्भव है। परन्तु भले ही तुम चारों वेद, चारों उपवेद, छहों वेदाङ्ग, षड् दर्शन तथा इनसे अतिरिक्त भी इनकी शाखा-प्रशाखाओं सहित समग्र विद्याओं के धनी हो चुके हो, तो भी ये विद्याएँ तब तक किसी  काम आनेवाली नहीं हैं, जब तक तुम्हारे अन्दर नम्रता नहीं आती। अहङ्कार या अभिमान मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु हैं। ज्ञान के साथ नमन, नम्रता या विनय का गठजोड़ होना अनिवार्य है। वह विद्या विद्या नहीं है, जो विनय को नहीं देती। कवि ने कहा है-‘विद्या विनय को देती है, विनय से मनुष्य पात्रता को प्राप्त करता है। पात्र बनने से उसे धन मिलता है। धन पाकर वह धर्माचरण करता है। इससे वह सुख पाता है।’४ अहङ्कारी होकर यदि तुम धर्मोपदेश करोगे, ज्ञानचर्चा करोगे, तो उसका कुछ फल नहीं होगा। तुम्हारे अन्दर विनय आते ही विद्या फलवती होने लगेगी। इसलिए तुम्हारे महान् ज्ञान को मैं विनय को भावों के साथ जोड़ता हूँ। विनय के आने से तुम्हें यश प्राप्त होगा, जैसे विद्वान् भक्त को धर्ममार्ग में चलने की गति प्राप्त होती है।

विद्या और विनय के योग की बात मैं केवल तुम्हारे लिए ही नहीं कह रहा हूँ, किन्तु अविनाशी सविता प्रभु के सभी पुत्र-पुत्रियाँ इस उपदेश को सुनें, समझें, जीवन में लायें । किसी देश-विशेष के नर-नारियों के लिए ही यह विद्या विनय के सङ्गम का उपदेश नहीं है, किन्तु प्रभु से प्रकाशित सभी धामों में जो लोग स्थित हैं, उन सभी के लिए यह वेदोपदेश है। आओ, हम भी अपने अन्दर विद्या और विनय का सङ्गम करें।

पादटिप्पणियाँ

१. (पूर्व्यम्) पूर्वयोगिभिः प्रत्यक्षीकृतम्-२० । पूर्व शब्द से ‘पूर्वैःकृतमिनयों च, पा० ४.४.१३३ से कृत अर्थ में ये प्रत्यय।

२. (पथ्या) पथि साध्वी गति:-द० | पथोऽनपे ता पथ्याधर्मपथ्यर्थन्यायादनपेते’, पा० ४.४.९२ से यत् प्रत्यय।।

३. (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य-२० ।

४. विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम् ।।पात्रत्वाद् धनमाप्नोति धनाद् धर्मं ततः सुखम् ॥

विद्या के साथ विनय भी -रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

ऋषिः हिरण्यगर्भः । देवता सर्पा: । छन्दः भुरिग् आर्षी उष्णिक्।

नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।। येऽअन्तरिक्ष य दिवि तेभ्य: सर्पेभ्यो नमः॥

-यजु० १३।६

( नमः अस्तु ) स्तुति हो ( सर्पेभ्यः ) उन सप के लिए ( ये के च ) जो कोई (पृथिवीम्अनु ) पृथिवी पर स्थित हैं। ( ये अन्तरिक्षे ) जो अन्तरिक्ष में हैं, ( ये दिवि ) जो द्युलोक में हैं ( तेभ्यः सर्पेभ्यः नमः ) उन सर्यों के लिए भी स्तुति हो। |

शतपथब्राह्मण में लिखा है कि ये लोक ही सर्प हैं, क्योंकि जब ये सर्पते हैं, तब जो कुछ इनके अन्दर होता है, उसके साथ ही सर्पते हैं। इस कारण भी लोकों को सर्प कहा जाता है कि जो कोई पदार्थ या प्राणी सर्पता है, वह इन्हीं लोकों में रहता हुआ सर्पता है। एवं इन लोकों में सर्पण करनेवाले पदार्थ तथा प्राणी भी सर्प कहलाते हैं। मन्त्र कह रहा है कि हम उन सर्यों को नम:’ देते हैं, जो पृथिवी पर रहते हैं। ‘नम:’ के अर्थ वैदिक कोष निघण्टु में अन्न तथा वज्र दिये हैं। नमस्कार अर्थ भी वेद में भी लोक के समान होता ही है। प्रकृत में ‘नम:’ का अर्थ स्तुति या गुणवर्णन उचित है। पृथिवी पर रहनेवाले चर पदार्थ मनुष्यकृत रेलगाड़ी, मोटरकार, ट्रक, इञ्जन, ट्रैक्टर, युद्धयान आदि हैं। इनके गुण जानकर, उनका वर्णन करके तथा इन चर पदार्थों का उपयोग करके हम असीम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। पृथिवी पर रहनेवाले प्राणीरूप सर्प मनुष्य, सिंह, व्याघ्र, हाथी, पक्षी तथा अन्य जीवजन्तु हैं। इनका ज्ञान, गुणवर्णन तथा उचित उपयोग भी लाभदायक हो सकता है। अन्तरिक्ष में रहनेवाले सर्प अनेक ग्रह और उपग्रह हैं। इन ग्रह-उपग्रहों का हम पर फलित ज्योतिष का अभिमत प्रभाव भले ही न पड़ता हो, किन्तु प्राकृतिक प्रभाव तो पड़ता ही है। और अब तो ग्रह उपग्रहों में पहुँच कर वहाँ ग्राम और नगर बसाने की योजनाएँ चल रही हैं। द्युलोक में रहनेवाले सर्प सूर्यलोक तथा असंख्य नक्षत्रमण्डल हैं। मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या आदि १२ राशियाँ और २८ नक्षत्र, जिनमें हमारी पृथिवी के प्रवेश करने से संवत्सर का निर्माण होता है, सप्तर्षि आदि अनेक नक्षत्रपुञ्ज, आकाशगङ्गा के तारे ये सब द्युलोकस्थ सर्प हैं। इन सबका कुछ न कुछ प्राकृतिक प्रभाव हमारे स्वास्थ्य आदि पर तथा भौतिक घटनाचक्र आदि पर पड़ता है। अतः अपनी बुद्धि को इनके प्रति नत करके एतद्विषयक ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करना हमारे लिए कल्याणकारी हो सकता है।

अतः आओ इन सब पार्थिव, अन्तरिक्षस्थ तथा द्युलोकस्थ सर्यों के प्रति हम अपने ज्ञान और कर्म को प्रेरित करें।

पादटिप्पणियाँ

१. इमें वै लोकाः सर्पास्ते हानेन सर्वेण सर्पन्ति। श० ७.३.१.२५।।

२. इमे वै लोकाः सर्पा यदि किं च सर्पति एष्वेव तल्लोकेषु सर्पति । श०७.३.१.२७।।

३. निघं० अत्र २.७, वज्र २.२० ।

सर्पों के प्रति-रामनाथ विद्यालंकार  

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः त्रिशिराः । देवता भूमिः । छन्दः पञ्चपादा आर्षी प्रस्तारपङ्कि: ।

भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधया विश्वस्य भुवनस्य धर्मी। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिंसीः ।

-यजु० १३ । १८

हे पृथिवी ! तू ( भू: असि) भू है, ( भूमिः असि ) भूमि है, ( अदिति:४ असि ) अदिति है, (विश्वधायाः५) विश्वधाया है, विश्व को दूध पिलानेवाली है, (विश्वस्य भुवनस्य धर्ती) सब प्राणियों को धारण करनेवाली है। हे पृथिवी माता के पुत्र मनुष्य! तू (पृथिवींयच्छ) पृथिवी को नियन्त्रित कर, इसकी क्षति को रोक, ( पृथिवीं दूंह) पृथिवी को दृढ़ कर, ( पृथिवीं मा हिंसीः ) पृथिवी की हिंसा मत कर। |

वेद के अनुसार पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ। हे पृथिवी माता ! तू ‘भू:’ है, विशिष्ट अस्तित्ववाली है। नभोमण्डल में जो अगणित लोकलोकान्तर दिखायी देते हैं, उनके बीच तेरा विशेष अस्तित्व है, क्योंकि तू अनेक प्राणियों को जन्म देकर उनकी माता बनती है। तू केवल ‘भूः’ ही नहीं, अपितु ‘भूमि’ भी है, अर्थात् अपने भूतल पर निवास करनेवाली प्राणियों को अस्तित्व देनेवाली भी है। तुझ पर बसनेवाले सिंह, व्याघ्र, हाथी, हरिण आदि कैसी शान से रहते हैं। तुझ पर रहनेवाले मानव की शान तो निराली ही है, जिसने अपने बुद्धिकौशल से सुखी जीवन के लिए अनेक ज्ञान-विज्ञानों तथा अनेक उपयोगी वस्तुओं का आविष्कार किया है । हे माँ! तू ‘अदिति’ है, अखण्डनीया है, अलग-अलग टुकड़ों में बाँटने योग्य नहीं है। जैसे माँ के कभी टुकड़े नहीं किये जाते, वैसे ही पृथिवी भी टुकड़ों में नहीं बाँटी जा सकती । माँ के अङ्ग प्रत्यङ्ग तो होते हैं, पर उनमें सामञ्जस्य और एकसूत्रत्व रहता है, वैसे ही पृथिवी के भी विभिन्न राष्ट्र तो हो सकते हैं, परन्तु यजुर्वेद ज्योति उनमें परस्पर सौहार्द और एकसूत्रत्व रहना चाहिए। माँ के अङ्ग-प्रत्यङ्ग यदि एक-दूसरे से विद्रोह या विरोध करने लगे, तो उसका जीवन विपत्ति में पड़ जाएगा। ऐसे ही पृथिवी के अलग-अलग राष्ट्र यदि वाणी और क्रिया से एक-दूसरे के विरोध में तत्पर हो जाएँगे, तो पृथिवी भी निर्जीव हो जाएगी।

हे पृथिवी! तू ‘विश्वधायाः’ है, सब सन्तानों को अपना दूध पिलानेवाली है, अपने अन्दर विद्यमान नाना खाद्य एवं पेय पदार्थों से उनका पोषण करनेवाली है। खाद्य पेय से अतिरिक्त तुझमें विद्यमान सोना, चाँदी, हीरे, मोती आदि अन्य पदार्थ भी तेरा दूध ही हैं, जिनसे तू अपने पुत्र-पुत्रियों को उपकृत करती है। हे जननी ! तू सकल भुवन को, सकल प्राणि-समूह को अपनी गोद में धारण करनेवाली है।

हे मानव ! अपनी इस पृथिवी माता पर तू गर्व कर, इसकी क्षति को रोक। देख, प्रतिवर्ष बरसात की उमड़ती नदियों से, समुद्र के तूफान से न जाने कितनी भूमि कट जाती है और उस पर बसे हुए लोगों के घर उजड़ जाते हैं। तू धरती माँ के इस अङ्ग-विच्छेद को रोक, पृथिवी को दृढ़ कर। बाँधों से नदियों की धारा को बाँध । वृक्षारोपण करके पहाड़ों की कटती हुई भूमि को कटने से बचा। तू पृथिवी की हिंसा मत कर, इसकी उपजाऊ शक्ति को नष्ट मत होने दे, अन्यथा सोना उगलनेवाली यह धरती बञ्जर हो जाएगी। हे मनुज ! अपनी धरती माता की सेवा कर, इसके पर्यावरण प्रदूषण को रोक, इसे सजा संवार कर रख। तब यह भी युग युग तक तेरी सेवाकरती रहेगी।

पाद-टिप्पणियाँ

१. प्रस्तारपङ्कि १२+१२-८+८=४० की होती है, यहाँ ११+१३+५+५+६=४० को प्रस्तारपङ्कि कहा गया है।

२. भवतीति भूः ।।

३. भवन्ति पदार्था अस्यामिति भूमिः ‘भुवः कित्’ उ० ४.४६ से मिप्रत्यये तथा उसका किवद्भाव-द० ।।

४. दो अवखण्डने। दीयते अवखण्ड्यते इति दिति:, न दिति: अदितिःअनवखण्डनीया । निरुक्त में– अदितिः अदीना देवमाता, निरु० ४.४९,दाङ क्षये ।।

५. विश्वं धापयति दुग्धं पाययतीति विश्वधायाः, घेट् पाने ।

६. माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः , अ० १२.१.१२|

पृथिवी की हिंसा मत कर -रामनाथ विद्यालंकार 

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः : विरूपः । देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी उष्णिक्।

अग्निर्योतिष ज्योतिष्मान् रुक्मो वर्चस वर्चस्वान्। सहस्रदाऽअसि सहस्त्राय त्वा

-यजु० १३।४०

हे विद्वन् ! ( अग्निः ) अग्रनायक आप ( ज्योतिषा) विद्या की ज्योति से ( ज्योतिष्मान् ) ज्योतिर्मय हैं। ( रुक्मः ) अध्यात्म रुचिवाले स्वर्णसम आप (वर्चसा ) ब्रह्मवर्चस से (वर्चस्वान्) वर्चस्वी हैं। आप ( सहस्रदाः असि) सहस्त्र विद्याओं और गुणों के दाता हैं, (सहस्राय त्वा ) सहस्त्र विद्याओं और गुणों की प्राप्ति के लिए आपको [वरण करतेहैं]।

किसी भी समाज या राष्ट्र में विद्वानों का विशेष महत्त्व होता है। जहाँ विद्वान् लोग बड़ी संख्या में हैं, वहाँ विद्या का प्रचार भी अधिक होता है। वह राष्ट्र ज्ञान-विज्ञान में भी अग्रणी होता है। मन्त्र विद्वान् को सम्बोधन कर रहा है। हे विद्वन् ! अग्रनायक आप विद्या की ज्योति से ज्योतिष्मान् हैं। जैसे अग्नि से भौतिक ज्वालाएँ निकलती हैं, वैसे ही आपके मुख से ज्ञानप्रकाश की ज्वालाएँ निकलती हैं। जैसे अग्नि अशुद्ध स्वर्ण को मलिनता को दग्ध करके स्वर्ण को निखार देता है। वैसे ही आप अज्ञान को दग्ध करके मनुष्य को विशुद्ध ज्ञानी बना देते हो। हे विद्वन् ! जहाँ विद्याओं का धन आपके पास है, वहाँ आपकी अध्यात्म रुचि और आपका योगाभ्यास आपको ब्रह्मवर्चस्वी तथा योगी बना रहा है। ब्रह्मवर्चस्वी और योगी आप महात्मा और ऋषि की पदवी प्राप्त कर रहे हो। हे वैदुष्य और अध्यात्म विद्या के धनी विद्वन् ! आप ‘सहस्रदा:’ हैं,  सहस्रों विद्याओं-उपविद्याओं और सहस्र गुणों के दाता हैं, सहस्र योगक्रियाओं के दाता हैं। सहस्त्र विद्याओं, उपविद्याओं, सहस्र गुणों और सहस्र योगविद्याओं की प्राप्ति के लिए मैंआपको गुरु के रूप में वरण करता हूँ। |

आप मुझे पहले अपरा विद्या का ज्ञान दीजिए, मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष का पण्डित बनाइये। मझे दर्शनशास्त्र पढ़ाइये, इतिहास और धर्मशास्त्र का अध्यापन कराइये, सूर्यविज्ञान सिखाइये, भौतिक विज्ञान में निष्णात कीजिए। फिर अध्यात्म रुचिवाले और निखरे स्वर्ण के समान शुद्धबुद्धि तथा सदाचारी आप मुझे परा विद्या भी सिखाइये। परा वह विद्या है, जिससे अक्षर ब्रह्म का, अविनश्वर परमेश्वर का साक्षात्कार होता है। जो ज्ञान मुण्डक उपनिषद् में अङ्गिरस ऋषि ने शौनक को दिया है, वह ज्ञान आप मुझे दीजिए। परब्रह्म के कार्यों का विवरण सुनाइये। वह सृष्टि की उत्पत्ति, सृष्टि का धारण, सृष्टि का संहार कैसे करता है, यह सब समझाइये । प्रणव को धनुष बना कर, आत्मा को शर बना कर, ब्रह्म को लक्ष्य बना कर कैसे अप्रमत्त होकर लक्ष्यवेध किया जाता है, इसका क्रियात्मक अभ्यास कराइये। मुझे ध्यानयोग में निष्णात कीजिए।

हे गुरुवर ! आप अग्नि हैं, आप सुवर्ण हैं, मुझे भी अग्नि और सुवर्ण बना दीजिए। मैं आपकी शिष्यता स्वीकार करता हूँ। संसारचक्र में भ्रमते हुए मुझे ऊपर उठा कर ब्रह्मलोक में पहुँचा दीजिए। तब मैं आत्मविभोर होकर गाऊँगा, पृथिवी से उठकर मैं अन्तरिक्ष में आया, अन्तरिक्ष से द्युलोक में आया और द्युलोक से उठकर स्वर्लोक में पहुँच गया हूँ, जहाँ आनन्द ही आनन्द है, आनन्द ही आनन्द है।

पाद-टिप्पणी

१. रुक्मः, रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च। अध्यात्मरुचिः स्वर्णश्च । ‘रुक्म=हिरण्य,निघं० १.२’ ।

सहस्त्रदाः विद्वान् -रामनाथ विद्यालंकार 

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः उशनाः । देवता मन्त्रोक्ताः । छन्दः निवृद् ब्राह्मी बृहती।

कुलायिनी घृतवती पुरन्धिः स्योने सीद सदने पृथिव्याः। भि त्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा ब्रह्म पीपिहि सौभगायश्विनाध्वर्यु सादयतामिह त्वा

-यजु० १४।२

हे (स्योने ) सुखकारिणी नारी! ( कुलायिनी ) प्रशस्त घरानेवाली, (घृतवती ) प्रशस्त दीप्ति’ वाली, ( पुरन्धिः ) बुद्धिमती तू ( पृथिव्याः सदने ) मातृभूमि के राष्ट्रपति-सदन में (सीद ) स्थित हो। ( रुद्राः ) वानप्रस्थ विद्वगण, ( वसवः ) गृहस्थ विद्वद्गण (त्वाअभिगृणन्तु) तुझे आशीर्वाद दें। तू ( सौभगाय) सौभाग्य के लिए (इमा ब्रह्म ) इन आशीर्वादों को ( पीपिहि) ग्रहण कर । ( अश्विना ) तेरे माता-पिता और ( अध्वर्यु) यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा ( त्वा) तुझे ( इह ) इस राष्ट्रपति-सदन में ( सादयताम् ) स्थित करें।

हे देवी! प्रजा ने तुम्हें मातृभूमि के राष्ट्रपति-पद पर सर्वसम्मति से चुना है। तुम ‘कुलायिनी’ हो, ‘कुलाय’ नीड को कहते हैं, तुम प्रशस्त घराने से उत्पन्न हो। तुम ‘घृतवती’ अर्थात् दीप्तिमयी हो। तुम ‘पुरन्धि’ अर्थात् बुद्धिमती हो। तुम ‘स्योना’ अर्थात् प्रजा को सुख देने में समर्थ हो। तुम मातृभूमि के इस राष्ट्रपति-सदन में स्थित होकर राष्ट्रपति के कर्तव्यों का पालन करो। रुद्र और वसु अर्थात् वानप्रस्थ और गृहस्थ विद्वज्जन तुम्हें आशीर्वाद दें, तुम्हारे सम्बन्ध में दो शब्द कहें, तुम्हें उद्बोधन दें, तुम्हारे उत्तरदायित्व को तुम्हें स्मरण करायें, तुम्हारा अभिनन्दन करें । तुम इन आशीर्वचनों को ग्रहण करो, यजुर्वेद- ज्योति हृदयङ्गम करो, धरोहर की तरह अपने मन में संजो कर रखोऔर समय समय पर स्मरण कर लिया करना कि जनता के प्रतिनिधियों ने किन कामनाओं और आशाओं के साथ तुम्हें इस पद पर प्रतिष्ठित किया है। इससे तुम्हें कर्तव्य-पालन के लिए बल मिलेगा और तुम्हारा सौभाग्य बढ़ेगा, तुम्हारी और राष्ट्र की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगेंगे। यज्ञ के संयोजक और ब्रह्मा तुम्हें राष्ट्रपति-सदन में प्रतिष्ठित कर रहे हैं।

याद रखना तुम्हें इस पद पर लाने में उस गरीब जनता का भी योगदान है जो झोंपड़ियों में रहती है और उन पूँजीपतियों का भी हाथ है, जो वैभवसम्पन्न कोठियों में निवास करते हैं। आपको गरीबी-अमीरी का भेद मिटा कर विषमता दूर करनी है। इस यज्ञमण्डप में विद्वान् और निरक्षर सभी स्त्री पुरुष आपकी आरती उतार रहे हैं। आशा है आप सभी को साक्षर की श्रेणी में ला सकेंगी। हम चाहते हैं कि जब आपका कार्यकाल पूरा होने पर हम आपका विदाई– समारोह करें, तब गौरव के साथ कह सकें कि आपने जैसे देश को अपने हाथ में लिया था, उसे बहुत आगे बढ़ाकर पद छोड़ रही हैं। जनता आपकी है, आप जनता की हैं। राष्ट्रपति रहते हुए भी आप जनता के बीच आएँ, जनता के सुख-दु:ख को देखें, वे दु:ख दूर करें। आप सफल हों, आपका गौरव गान हो। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं।

पादटिप्पणियाँ

१. घृतदीप्ति, घृ क्षरणदीप्त्योः ।

२. पुरन्धिः बहुधीः, निरु० ६.५१।।

३. पि गतौ अस्मात् शप: श्लुः, तुजादित्वाद् अभ्यासस्य दीर्घश्च-२० ।

नारी राष्ट्रपति-सदन में -रामनाथ विद्यालंकार 

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार

बल और संग्राम का अधिपति -रामनाथ विद्यालंकार 

ऋषिः परमेष्ठी। देवता अग्निः । छन्दः निवृद् आर्षी गायत्री।

अयमग्निः सहस्रिणो वार्जस्य शतिनस्पतिः। मूर्धा कूवी रयीणाम्

-यजु० १५ । २१ |

( अयम् ) यह (अग्निः ) अग्रनायक परमेश्वर (सह त्रिणः) सहस्र गुणों से युक्त (वाजस्य) बल का और ( शतिनः ) सौ सैन्य बलों से युक्त ( वाजस्य ) संग्राम का (पतिः) अधिपति है, ( रयीणां मूर्धा ) ऐश्वर्यों का मूर्धा है, ( कविः ) क्रान्तद्रष्टा है।

आओ, तुम्हें एक विशिष्ट अग्नि की गाथा सुनायें । यह अग्नि पार्थिव आग, अन्तरिक्षस्थ विद्युत् और द्युलोकस्थ सूर्याग्नि से बढ़कर है। ये भौतिक अग्नियाँ उसी विशिष्ट अग्नि की भा से भासभान होती हैं। वह ‘अग्नि’ है अग्रनायक, तेज:पुञ्ज, हृदयों में सत्य, न्याय और दया की बिजली चमकानेवाला परमेश्वराग्नि। वह ‘वाज’ का अधिपति है। ‘वाज’ बल को भी कहते हैं और संग्राम को भी । वह सहस्र गुणगणों से युक्त बल का अधिपति है। उसका बल बड़े से बड़े बलियों के बल से अधिक है। उसका बल बड़े से बड़े यन्त्रों के बल को मात करता है। उसका बल अकेला ही भूगोल-खगोल का सर्जन, धारण और संहरण करने में समर्थ है। उसमें केवल बल ही नहीं है, बल के साथ सहस्र गुणगण भी विद्यमान हैं। वह सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, जगदादिकारण, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, सर्वजगदुत्पादक, सनातन, सर्वमङ्गलमय, करुणाकर, परम सहायक, सर्वानन्दयुक्त,  सकलदुःखविनाशक, अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, परमैश्वर्यनायक, साम्राज्यप्रसारक, पतितपावन, विश्वविनोदक, विश्वासविलासक, निरञ्जन, निर्विकार, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, दारिद्रयविनाशक, सुनीतिवर्धक, निर्बलपालक, ज्ञानप्रद, धर्म-सुशिक्षक, पुरुषार्थप्रापक, विश्ववन्द्य आदि है। इस प्रकार वह सहस्रगुणगणयुक्त बल के माहात्म्य से समन्वित है। ‘वाज’ का संग्राम अर्थ लें तो वह सैन्य बलों वाले संग्राम का अधिपति भी है। जिस संग्राम में शत सेनाएँ आ भिड़ती हैं, ऐसे संग्राम का नेतृत्व करनेवाला और विजयी होनेवाला तथा विजयी करनेवाला भी वह है। ये शतसंख्यात सेनाएँ अविद्या, दुराचार, दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य आदि हैं, जो काम-क्रोध-लोभ सैनिकों की हैं । इस अध्यात्म संग्राम रूपी ‘वाज’ का भी वह अधिपति है, नायक है। वह ऐश्वर्यों का मूर्धा भी है, सब भौतिक और आध्यात्मिक ऐश्वर्योंका वह मूर्धाभिषिक्त राजा है। वह ‘कवि’ भी है, वेदकाव्य का कवि और क्रान्तद्रष्टा है, दूरदर्शी है। |

आओ, हम सब मिलकर उस परमेशरूप अग्निदेव के गुण-कर्मों को स्मरण करते हुए उसका जयगान करें।

पादटिप्पणियाँ

१. वाज=बल, संग्राम, निघं० २.९, २.१७॥

२. द्रष्टव्य : भगवद्गीता, अध्याय १६ ।।

बल और संग्राम का अधिप ति-रामनाथ विद्यालंकार