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आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदभाष्य (वेदार्थ) की कसौटियां । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      यह पहिले बतलाया जा चुका है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान, अपौरुषेय, नित्य तथा सृष्टिनियमों के अनुकूल है। अतः उसका अर्थ करते समय भी उन्हीं कसौटियों को यथार्थ समझना अनिवार्य है, जो कि इन पूर्वोक्त बातों का विरोध न करती हों, अतः वेदार्थ की दृष्टि से संक्षेपतः उनका निरूपण करते हैं –

      ▪️(१) वेद में सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन होना चाहिये, जो मानव समाज में परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाले न हों। 

      ▪️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उस में न होना चाहिये। 

      ▪️(३) ईश्वर के गुण, कर्म तथा सृष्टि नियमों के विरुद्ध न हो। 

      ▪️(४) ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ वेद सब सत्य विद्यानों का पुस्तक है, उस से यह अवश्य विदित हो। 

      ▪️(५) मानवजीवन के प्रत्येक अङ्ग पर प्रकाश डालता हो, अर्थात् मानव की ज्ञानसम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हो। 

      ▪️(६) न्यायादि शास्त्रों के नियमों के विपरीत न हो, दूसरे शब्दों में तर्क की कसौटी पर ठीक उतरे, अर्थात् तर्कसम्मत हो। 

      ▪️(७) जिसमें किसी व्यक्तिविशेष का इतिहास न हो। 

      ▪️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान कराता हो। 

      ▪️(९) आप्तसम्मत हो, ऋषि-मुनियों की धारणायें भी जिसके अनुरूप हों। 

      ▪️(१०) जिस की एक आज्ञा दूसरी आज्ञा को न काटती हो।

      अति संक्षेप से ये वेदार्थ की कसौटियाँ कही जा सकती हैं। इनके विषय में पूर्व(जिज्ञासु रचना मञ्जरी पृ॰ ३९-४०) संक्षेप से लिखा जा चुका है, यहाँ इस विषय में कुछ और प्रकाश डालना अनुपयुक्त न होगा –

      ◾️(१) सर्वतन्त्र-सिद्धान्त या सार्वभौम-नियम – 

      जो बातें सबके अनुकूल, सब में सत्य, जिनको सब सदा से मानते आये, मानते हैं और मानेंगे, जिनका कोई भी विरोधी न हो, जो प्राणिमात्र के कल्याणकारक हैं, ऐसे सर्वतन्त्र सर्वमान्य सिद्धान्त ही संसार में सुख और शान्ति के प्रतिपादक हो सकते हैं। वेद तो स्पष्ट ही कहता है –

      🔥…मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।       

      ……मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ [यजु॰ ३६।१८] 

      प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखो। 🔥“यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः” [यजु० ४०।७], 🔥”भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः” [केनोप॰ २।५], 🔥”स्वस्ति गोम्यो जगते पुरुषेभ्यः” [अथर्व॰ १।३१।४], वेद के इन मन्त्रों तथा उपनिषद् के वचनों में स्पष्ट इस उपर्युक्त बात का प्रतिपादन हमें मिलता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई वेद का अर्थ इसके विरुद्ध करता है, तो कैसे माननीय हो सकता है ! ईश्वर का ज्ञान वेद, फिर भी जाति जाति में, और देश-देश में फूट डलवाने वाली बात कहे, यह कैसे हो सकता है। वह तो समता का प्रतिपादक है, न कि विषमता का। मानवहृदय की विषमता दूर करना ही तो उसका ध्येय है। वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी रूप में सर्वतन्त्र सिद्धान्त का प्रतिपादक है, यह हमारा कहना है। इस कसौटी को लेकर प्रत्येक को वेद के अर्थ का परीक्षण करना चाहिये। 

      ◾️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उसमें न होना चाहिये – 

      ऐसा होने से ईश्वर में पक्षपात सिद्ध होगा। दूसरे-जिस जाति वा देश का वर्णन वेद में होगा, वेद की उत्पत्ति उसके पीछे ही माननी पड़ेगी, इस प्रकार उसकी नित्यता नहीं रह सकती। ऋ॰ १।३।११, १२ में –

      🔥”चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्”। 

      🔥”धियो विश्वा वि रोजति”। 

      विश्व के लिये बुद्धियों वा ज्ञान के प्रकाश का उपदेश वेद करता है। योगदर्शन [२।३१] में भी 🔥’जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्’ ऐसा लिखा है। 

      इसके विरुद्ध जो शङ्का करते हैं, कि वेद में अमुक जाति वा अमुक व्यक्तियों का इतिहास है, इसके विषय में हम आगे लिखेंगे। 

      ◾️(३) ईश्वर के गुण, कर्म और सृष्टिनियमों के विरुद्ध न हो –

      ईश्वर सर्वज्ञ है, उत्पत्ति, स्थिति, संहार का कर्ता, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है। यदि वेद के मन्त्रों के अर्थ इन गुणों के विपरीत हों तो यही कहना होगा कि वह वेद का ठीक अर्थ नहीं है, अन्यथा वेद ईश्वर की कृति नहीं माना जा सकता। वेद कहता है –

      🔥विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः॥ [ऋ॰ १०।८१।३] 

      🔥य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे॥ [अथर्व॰ ७।८७।१] 

      🔥प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्॥ [अथर्व॰ १०।७।८] 

      🔥यस्मिन भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्यस्मिन्नध्याहिंता। 

      यत्राग्निश्चन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठन्त्यापिताः॥ [अथर्व॰ १०।१७।१२] 

      सब का स्रष्टा, धा, नियन्ता परमेश्वर है, इत्यादि मन्त्र उपयुक्त कसोटी के सर्वथा अनुरूप हैं। 

      ◾️(४) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हो – 

      जब वेद ईश्वरीय ज्ञान है, तो वह पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जो प्राणिमात्र को अपेक्षित है। अन्यथा उसकी अपूर्णता उसके वेदत्व का ही विघात करेगी। इसलिये ऋषि-मुनि ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ [मनु॰ २।७] वह समस्त विद्याओं का भण्डार है, ऐसा मानते हैं। यद्यपि यह बात अभी तक प्रायः साध्य कोटि में है, और तब तक रहेगी, जब तक सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता नहीं हो जाते। उससे पूर्व हमें इसका निर्बाध ज्ञान कैसे हो सकता है। पुनरपि हमें अंशतः इस का ज्ञान अवश्य हो रहा है। पर वेद में समस्त विद्यायें होनी चाहिये, इसका बाध तो कोई नहीं कर सकता। यह बात सर्वसम्मत है। स्वामी दयानन्दजी ने ही नहीं, स्वामी शङ्कराचार्य ने भी ऐसा ही माना है –

      🔥”महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्ग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति”। [वेदांत शाङ्करभाष्य १।१।३] 

      अर्थात्- अनेक विद्याओं के स्रोत ऋग्वेदादि का कर्ता विना सर्वज्ञ जगदीश्वर के कोई नहीं हो सकता।

      ◾️(५) मानव-जीवन के प्रत्येक प्रङ्ग पर प्रकाश डालता हो – 

      इस नियम से चारों वर्णों और चारों आश्रमों के सब धर्मों का मूलतः उपदेश वेद में होना अनिवार्य है। 🔥”ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” [यजु॰ ३१।११] इत्यादि मन्त्र चारों वर्गों के कर्तव्यों का उपदेश करते हैं, इसी प्रकार चारों आश्रमों के कर्तव्यों का निरूपण करनेवाले ब्रह्मचर्यसूक्त [अथर्व॰ ११।५] तथा गृहस्थाश्रम (अथर्व॰ १४।२३] आदि के प्रकरण वेदों में अनेक स्थलों में हैं। 

     ◾️(६) तर्कसम्मत हो – 

     🔥”बुद्धि पूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे” (वैशे॰ ६।१।१) के अनुसार वेद में तर्क के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता। 🔥”तर्क एव ऋषिः” [निरु॰ १३।१२] ऋषियों के इन वचनों के आधार पर हमें मानना होगा कि वेद का कोई भी मन्त्र इसकी अवहेलना नहीं कर सकता। यह बात भी अभी वेद के मर्मज्ञ विद्वानों को छोड़कर अन्य साधारण जनता के लिये तो प्रायः साध्यकोटि में ही कही जा सकती है। 

     ◾️(७) व्यक्तिविशेषों का इतिहास न हो – 

      इन्द्र-कण्व-अङ्गिरः आदि शब्दों के आगे तरप-तमप (Comparative तथा Superlative degree) प्रत्यय हमें वेद में [ऋ॰ ७।७९।३ तथा ऋ॰ १।४८।४] स्पष्ट मिलते हैं। तरप्-तमप् प्रत्यय विशेषणवाची शब्दों के ही आगे प्रयुक्त होते हैं, न कि व्यक्तिविशेषों के नाम के आगे। इस से हम समझ सकते हैं कि ये विशेषणवाची शब्द हैं, न कि किन्हीं व्यक्तिविशेषों के नाम। स्थालीपुलाक-न्याय से यहाँ हम इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं। शेष ऐतिहासिक स्थलों के विषय में आगे लिखा जायगा। 

      ◾️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान करानेवाला हो –

      निरुक्तकार यास्क मुनि के मत में वेद के प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होना चाहिये, ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार स्कन्दस्वामी ने (निरुक्त का प्रमाण देकर) कहा है [देखो भाष्यविवरण पृ॰ २१, ३३]। ऐसी दशा में हमें किसी का भी किया अर्थ सामने आने पर देखना होगा कि वह तीनों अर्थों को कहता है, या तीनों में से किसी एक को, या तीनों से भिन्न ही कुछ बोल रहा है। इस कसोटी से हमें वेदार्थ करनेवाले व्यक्ति की योग्यता का भी पता तत्काल लग जायगा कि उसको वेदार्थ के विषय में कहाँ तक गहरा ज्ञान है। 

      ◾️(९) ऋषि-मुनियों की धारणा के अनुकूल हो –

      जैसा हमने ऊपर यास्क का मत दिखाया, इसी प्रकार यास्कमुनि की अन्य धारणाओं तथा अन्य ऋषियों की वेदार्थ विषय में जो धारणाएं हैं, उनको लेकर वेदार्थ की परीक्षा करनी होगी। जब यास्क प्रत्येक मन्त्र के तीन अर्थ मानता है, तो हमें बाधित होकर वैसा ही वेद का अर्थ ग्राह्य समझना होगा, दूसरा नहीं। 

      ◾️(१०) जिसकी एक आज्ञा दूसरी प्राज्ञा को न काटती हो –

      विप्रतिषिद्ध बात या तो पागल कहता है, या अज्ञानी। सो ईश्वर से बढ़ कर ज्ञानी और कौन हो सकता है ! अतः उसका ज्ञान भी परस्पर विरुद्ध कभी नहीं हो सकता। यह बात वेद में पूरी लाग होती है। अतः वेद के अर्थ में ऐसी किसी विप्रतिषिद्धता की सम्भावना नहीं हो सकती।

      ये सब कसौटियाँ हमने अति संक्षेप से निर्देश-मात्र वर्णन की हैं। इस विषय में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा। इन कसौटियों को लेकर ही हमें आगे वेदार्थविषय में विवेचना करनी होगी। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यास्क और मन्त्रों के कर्ता ऋषि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

इस विषय में यास्क की क्या सम्मति है सो भी सुनिये –

🤨पूर्वपक्षी – 

      ◾️(१) देखो निरुक्त ३।११ – 

      🔥ऋषिः कुत्सो भवति, कर्त्ता स्तोमानाम् इत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात्- कुत्स ऋषि होता है, स्तोमों (मन्त्रों) का कर्ता, ऐसा औपमन्यवाचार्य का मत है। इसमें 🔥”कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ मन्त्रों का बनानेवाला – कितना विस्पष्ट है। क्या इससे प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं कि यास्क ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता (बनानेवाला) मानता है ? 

      ◾️(२) और देखिये- निरु० १०।४२ –

      🔥अम्यासे भूयांसमर्थ मन्यन्ते तत् परच्छेपस्य शीलम्। 

      यहाँ परुच्छेप ने मन्त्र बनाये, ऐसी झलक प्रतीत होती है। आगे का पाठ निम्न प्रकार है –

      🔥परुच्छेप ऋषिः पर्ववच्छेपः परुषि परुषि शेपोऽस्येति वा।

      यहाँ भी परुच्छेप को ‘ऋषि’ कहा गया है। क्या इन प्रमाणों से ऋषि मन्त्रों के कर्ता हैं, इसमें कुछ भी सन्देह रह जाता है ? 

🌺सिद्धान्ती –

      ◾️(१) सबसे प्रथम हम निरुक्त के 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ स्वयं न करके आचार्य यास्क के अपने शब्दों में ही दर्शा देते हैं –

      देखिये निरुक्त ३।११ में 🔥”कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः” में जिस औपमन्यव आचार्य के मत से ‘कर्ता स्तोमानाम्’ ऐसा यास्क ने लिखा, उसी औपमन्यव आचार्य के मत से यास्क ने निरु० २।११ में ऋग्वेद दशम मण्डल के ९८ सूक्त के ५वे मन्त्र में आये हुये ऋषि शब्द का अर्थ दर्शाते हुए लिखा है –

      🔥ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात् ऋषि-द्रष्टा होने से – स्तोमों (मन्त्रों) को देखा (न कि बनाया), ऐसा औपमन्यव आचार्य का मत है। 

      कितना विस्पष्ट लेख है। जिस औपमन्यव आचार्य के मत से 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” लिखा, उसी का मत दिखाते हुये यास्क ने 🔥”स्तोमान् ददर्श” ऐसा लिखा। यदि दूसरे के मत से लिखा होता तो पूर्वपक्षी को यह कहने का अवसर भी मिल सकता था कि एक आचार्य ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता मानता है, दूसरे द्रष्टा। परन्तु यहाँ पर तो दोनों स्थलों में वही एक ही औपमन्यव आचार्य है। अतः इसमें शङ्का का यत्किञ्चित् भी स्थान नहीं रह जाता। 

      ◾️(२) 🔥”परुच्छेपस्य शीलम्”- यहाँ दुर्गाचार्य का मत निम्न प्रकार है –

      🔥”परुच्छेपस्य मन्त्रदृशः शीलम्” स हि नित्यमभ्यस्तैः शब्दः स्तौति। मन्त्रदृशोऽपि, स्वभाव उपेक्ष्य इत्युपप्रदर्शनायेदमुक्तम्। 

      कैसी हृदयग्राही सङ्गति लग रही है। इसमें भी कोई खींचातानी का व्यर्थालाप करे तो अन्धेर है। 

      इस विषय में एतद्देशीय तथा विदेशीय विद्वान् कुछ आशङ्कायें उठाते हैं कि –

      ▪️(क) 🔥”नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यः …..॥ [ते० आ० ४।१।१ तथा- शा० आरण्यक।] 

      🔥आङ्गिरसो मन्त्रकृतां मन्त्रकृदासीत्॥ [ताण्डयमहाब्राह्मण १३।३।२४॥ तथैव आपस्त० श्रौतसूत्रे॥] 

      ▪️(ख) 🔥यावन्तो वा मन्त्रकृतः॥ [कात्यायनश्रौतसू० ३।२।८।। तथा च–बौधायन श्रौ० सू०]

      ▪️(ग) गृह्यसूत्रों में – 🔥श्रद्धाया दुहिता-स्वसर्षीणां मन्त्रकृतां बभूव॥ [काठक गृह्यसूत्र ४१।११॥] 

      🔥ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यः॥ [सत्याषाढ श्री. सू० ३।१॥] 

      इत्यादि प्रमाणों को लेकर ऋषियों को मन्त्रों के बनानेवाले बताते हैं । (विशेष देखो ऋग्वेद पर व्याख्यान पृ० ३४ से ३५)। 

      इस पर अधिक न लिख कर हम कुछ ही स्थलों का भाष्यकारों का अर्थ दर्शाये देते हैं –

      ◾️(१) तै॰आ० के भाष्य में महाविद्वान् भट्टभास्कर का निम्न लेख है –

      🔥अथ नम ऋषिभ्यो द्रष्टुभ्यः, मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्राणां द्रष्टभ्यः, दर्शनमेव कर्त्तृत्वम्॥

      ◾️(२) सायणाचार्य ने भी तै॰आ० के इसी स्थल पर लिखा है –

      🔥ऋषिरतीन्द्रियार्थद्रष्टा मन्त्रकृत करोतिधातुस्तत्र दर्शनार्थः॥ 

      इन दोनों उद्धरणों से सर्व श्रौतगह्यादि में इस शब्द के अर्थ की अवस्था समझ में आ जाती है। इस प्रकार वेद तथा इन गृह्य श्रौत आदि मन में कर्तत्व से द्रष्टृत्व ही यास्क और औपमन्यव सदृश ऋषियों को अभिमत है। तब हमें ‘मन्त्रकृतां’ का ऐसा अर्थ मानने में क्या विप्रतपत्ति हो सकती है। 

      यहाँ यास्क का प्रमाण सब प्रमाणों में सर्वत: उपरि है। 

      (३) आप कहेंगे कि “डुकृञ्” तो ‘करणे’ अर्थ में धातुपाठ में पढ़ा है। सो भी अज्ञान की बात है। देखिये महामुनि भगवान् पतञ्जलि ‘करोति’ का अर्थ क्या मानते हैं –

      महाभाष्य 🔥”भूवादयो धातवः” के भाष्य में –

      🔥बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति। तद्यथा वपिः प्रकिरणे दृष्टः, छेदने चापि वर्तते केशश्मश्रु वपतीति…..। करोतिरभूतप्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि वर्तते पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते। निक्षेपणे चापि वर्तते कटे कुरु, घटे कुरु, अश्मानमितः कुरु स्थापयेति गम्यते। [महाभाष्य अ० १।३।१]

      अर्थात्-धातु बहुत अर्थवाले भी होते हैं। जैसे वप् धातु बखेरने अर्थ में देखा जाता है। काटने के अर्थ में भी होता है। जैसे केशश्मश्रु को (वपति) काटता है, करोति अभूतप्रादुर्भाव (जो नहीं था और हो गया) अर्थ में देखा जाता है। निर्मलीकरण (धोने) अर्थ में भी होता है। जैसे पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु का अर्थ पृष्ठ को धोओ पाँवों को धोवो, यह है। ‘इतः कुरु’ का अर्थ इधर कर दो, रख दो या हटा दो, यही प्रतीत होता है इत्यादि। अकस्मात् यहाँ करोति का ही अपना अभिमत अर्थ पतञ्जलि ने दे दिया है। अब भी इसे कोई कल्पनामात्र ही समझता रहे तो परमात्मा ही उसकी बुद्धि को सुमार्ग= सीधे सरल मार्ग पर लावे। इससे अधिक और क्या कह सकते हैं। 

     ◾️(४) वर्तमान उपलब्ध आधुनिक वेदभाष्यकारों में सर्वप्रथम आचार्य स्कन्द स्वामी (जिसके हम बहुत कृतज्ञ हैं) की सम्मति देते हैं- 

      निरुक्त भा० २ पृ० ५८३ – 

      🔥क्रियासामान्यवचनत्वात् करोतिरत्र रक्षणार्थ उत्तारणार्थो वा। 

      धात्वर्थ पर हम पुनः किसी समय अवसर मिलने पर विचार करेंगे, यहाँ पर इतना ही पर्याप्त है। 

      अन्त में निरुक्त का एक स्थल और उपस्थित करते हैं –

      ◾️(५) निरुक्त ७।३ –

      🔥एवमुच्चावचैरभिप्रायैऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। 

      ऋषियों को मन्त्रों का दर्शन होता है, न कि वह मन्त्रों के बनाने वाले होते हैं, यह इस लेख से विस्पष्ट है। 

      स्कन्दस्वामी (४।१९ पृ० २४६९) ऋषि का अर्थ स्तोता करते हैं। 

      🔥च्यवन इत्येतदनवगतम्। च्यावन इत्येव न्याय्यम्। ऋषिरभिधेयः, तदाह च्यावयिता स्तोमानाम्, देवानां प्रतिगमयिता स्तोतेत्यर्थः। 

      इसी प्रकार इस विषय में अन्य भी बहुत से प्रमाण हैं, परन्तु यहाँ पर इतने ही पर्याप्त हैं । अतः यास्क वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, यह सर्वथा सिद्ध है। 

      ◼️यास्क और वेदों का नित्यत्व तथा प्रयोजनत्व – यह भी पूर्व निर्दिष्ट प्रमाण- 🔥”पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” में पुरुष की विद्या अनित्य होने से- तद्भिन्न नित्य विद्या वाले (प्रभु) की नित्य विद्या होने से नित्यत्व सिद्ध है।

      🔥“कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” इस वचन से वेद में सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्मों की सम्पत्ति (सम्पादन प्रकार) सम्पूर्णता प्रतिपादित है। इसी से वेद ज्ञान की प्रयोजनता प्रत्येक मनुष्य को स्वकल्याणार्थ अवश्य है, यह भी सुस्पष्ट है। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

सर्गारम्भ में वेद का अर्थ । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      यह पूर्व कहा जा चुका है कि शब्द बिना अर्थ के नहीं रह सकता, और भाषा बिना ज्ञान के, ऐसी दशा में आदिज्ञान के साथ ही अर्थ[१] का प्रकाश भी उन आदि ऋषियों के हृदयों में हुआ। उनसे ही आगे भाषा का व्यवहार चला, और उन्हीं से अर्थ का ज्ञान आगे सबको हुआ। व्यवहार की भाषा वेद से ही चली, अर्थात् लौकिक भाषा का निर्माण वेद में वर्णित नियमों के आधार पर ही हुआ और वह वेद की भाषा से भिन्न थी। इतना तो ठीक है कि वेद से निकली होने के कारण देववाणी (संस्कृत) में वेद से लिये शब्दों का बाहुल्य रहा। यह भी कहा जा सकता है कि वेद के कुछ शब्दों को छोड़ कर लोक में उन्हीं शब्दों का व्यवहार हुआ, जो वेद में थे, अतः वेद के आधार पर निर्मित भाषा में जो शब्द मनुष्यों द्वारा बोले गये, वे लौकिक हैं और वेद में प्रयुक्त आनुपूर्वी से युक्त शब्द जो कभी किसी जाति विशेष के मनुष्यों द्वारा बोले नहीं गये, वे वैदिक हैं। इन लौकिक-वैदिक शब्दों का वर्णन महामुनि पतञ्जलि निम्न प्रकार करते हैं –

      🔥”केषां शब्दानां ? लौकिकानां वैदिकानां च। तत्र लौकिकास्तावद्गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति। वैदिकाः खल्वपि-शं नो देवीरभिष्टये। इषे त्वोर्जे त्वा। अग्निमीळे पुरोहितम्। अग्न आयाहि वीतये॥” (महाभाष्यारम्भे)। 

      यहाँ वैदिक शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो लोक में न बोला जाता हो। उधर ‘अश्वो ब्राह्मणः’ आदि सभी शब्द वेद में आते हैं। तब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि फिर लौकिक और वैदिक शब्दों में भेद क्या हुआ? इसका उत्तर यह है कि वेद की आनुपूर्वी (क्रम) नित्य होती है। 🔥”अग्निमीळे पुरोहितम्” ऐसा ही पाठ रहेगा, 🔥”पुरोहितमग्निमीळे” इत्यादि नहीं हो सकता, अर्थात् वेद में ये शब्द आगे-पीछे कभी नहीं हो सकते। लौकिक शब्दों में यह बात नहीं। मीमांसकों ने 🔥“य एव लौकिकास्त एव वैदिकाः” ऐसा सिद्धान्त निश्चय किया है, उसका अभिप्राय यही है कि सामान्यतया जो शब्द वेद में आये हैं, वही लोक में आते हैं। दूसरे शब्दों में वेदवाणी की पुत्री देववाणी का व्यवहार वेद के शब्दों को लेकर हुआ। यह बात ध्यान में रखने की है कि वेद में कुछ विशेष शब्द आते हैं, जो लोक में नहीं आते। यह ज्ञान सृष्टि के आदि में ही सब ऋषि-मुनियों को था, उन्हीं के द्वारा आगे भी सबको हुआ। 

[📎पाद टिप्पणी १. (ऋ॰ १०।७१।१) में “नामधेय दधानाः” से यह बात अवभासित होती है। ‘अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्’ से यह अवभासित होता है कि वाणी (वैदिक वा लौकिक) ऋषियों द्वारा सबको बताई गई, पढ़ाई गई वा निर्धारित हुई।]

      लौकिक-वैदिक शब्दों के विषय में अर्थ के सामान्य, विशेष नियमों का ज्ञान आरम्भ में ही हुआ होगा। आगे अध्ययन-अध्यापन का व्यवहार कैसे चला होगा, इसमें सामान्य व्यवस्था तो वही हो सकती है, जो अब है अर्थात् बिना सिखाये कोई सीख नहीं सकता, किसी न किसी के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान और आगे लौकिक शब्दों के अर्थ-सम्बन्ध का ज्ञान भी होना ही चाहिये। अध्यापन की प्रक्रिया में उस समय कोई भेद रहा हो, ऐसा तो समझ में नहीं पाता। इतना भेद अवश्य रहा होगा कि अतः उस समय भाषा देववाणी थी, अतः उन्हें वेद का अर्थ समझने में अतीव सुगमता थी। आरम्भ में वेदार्थ ज्ञान की क्या शैली थी, इस विषय में निरुक्तकार केवल इतना सङ्कत करते हैं – 

      🔥”साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवः। तेऽवरेभ्योऽसाक्षावकृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः”॥ [निरु॰१।२०] 

      अर्थात्- साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने, जिनको ज्ञान नहीं था, उनको उपदेश के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान कराया। 

      🔥’अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ [ऋ॰ १।१।१] 

      🔥’विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव’॥ [यजु॰ ३०।३] 

      इनमें तथा इसी प्रकार वेद के अन्य मन्त्रों में अर्थ का ज्ञान तत्काल ही हो जाता रहा होगा। इस समय भी इनके अर्थ समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं, न ही लौकिक शब्दों से कोई विशेष भेद है, सिवाय इसके कि ‘अग्नि’ आदि शब्दों का अर्थ वेद में केवल इतना ही नहीं होता, जितना कि लोक में। मन्त्र उच्चारण करने के साथ ही उसका अर्थ हृदयङ्गम हो जाता होगा, जैसा कि इस समय भी हो रहा है। भेद केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उस समय वैदिक शब्दों के व्यापक अर्थों का ज्ञान प्रायः करके सबको था, क्योंकि आरम्भ में वह ऋषियों के द्वारा सबको मिला था। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥