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कुन फ़यकून इंसान व शैतान [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-४] ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      दर्शन व धर्म के सामने एक प्रश्न सदा से चला आया है वह यह कि संसार में वर्तमान पदार्थों की उत्पत्ति कैसे हुई? सभी धर्म जो परमात्मा की सत्ता मानने वाले हैं परमात्मा की सत्ता को नित्य मानते हैं उसका प्रारम्भ कभी नहीं हुआ। आर्यसमाज ईश्वरेत्तर तत्त्वों की सत्ता भी अनादि अर्थात् सदा से मानता है, परन्तु इस्लाम की मान्यता इसके विपरीत है। इस्लाम में प्राकृतिक वस्तुओं और चेतन पदार्थों को सदा रहने वाली तो माना है, परन्तु वे सदा से (अनादि) ही हैं ऐसा नहीं माना गया।[१] इस्लाम की मान्यता है कि परमात्मा ने कहा- कुन (हो जा) और सब कुछ उत्पन्न हो गया। इसीलिए सूरते बकर में आया है –

      🔥बदीअस्समावातेज़वल अरजे व इज़ाकज़ा अपरन फ़इन्नमा यकूलो लहू कुन फ़यकून। [बकर आयत ११७]

      (खुदा) बनाने वाला आसमानों व भूमि का और जब चाहता है करना कोई काम तो एक ही तरीका है वह उसको कहे कि हो जा बस हो जाता है। 

      आयत में लिखा है- ‘उस’ को कहता है हो जा। किसको कहता है? अनुपस्थित को? यह ‘हो जा’ भूतकाल में ही हो लिया। या अब भी यह आदेश दिया जाता है। वाक्य शैली से तो ज्ञात होता है कि यह आदेश सदा दिया जाता है। परन्तु क्या वर्तमान काल में कोई वस्तु इस आदेश को कारण बनाकर कार्यरूप में परिणित होती है? अब नहीं होती, तो पहले भी किस प्रकार होती होगी? आदेश अन्य कारण की उपस्थिति में दिया जाता तो कल्पना सम्भव थी। इसके विपरीत नहीं। अकारण कार्य के लिए प्रमाण चाहिए। 

[📎 पाद टिप्पणी १. विज्ञान भी प्रकृति को अनादि व नित्य मानता है। जिसका अन्त नहीं वह अनादि होगा ही। जो अनादि है वही नित्य होगा। यह दर्शनशास्त्र मानता है। -‘जिज्ञासु’]

      🔥फ़इन्नमा यकूलोलहू कुन फ़यकून। [अल इमरान आयत ४७]       

      🔥इन्नमा कौलना लिशैयिन इजाअरदनाहो अननकूलो लहुकुन फ़यकून। [सूरत नहल आयत ४०] 

      यही कथन हमारा किसी वस्तु को जब हम निश्चय करते हैं, इसके अतिरिक्त हम उससे कहें हो जा बस वह हो जाती है। 

      🔥इन्नमा अमरहु इजा अरादा शंअन अन यकूलोलहू कुन फ़यकून। [सूरते यासीन आयत ८२]

      इसके अतिरिक्त उसका आदेश नहीं कि जब वह कोई चीज़ चाहे, यह कहता है उसको हो जा, बस वह हो जाती है।

      इसके विपरीत निम्नलिखित आयतों में कुछ और ही दशा है –

      🔥इन्ना रब्बुकुमुल्लाहो अल्लज़ी ख़लक्स्समावातेवलअरज़े फ़ी सित्तते अय्यामिन सुम्मस्तवा अलल अरशे। [आयत ५२; सूरते यूनस आयत ३] 

      वास्तव में पालनहार तुम्हारा अल्ला है जिसने बनाया आसमानों व ज़मीन को छह दिन में फिर ठहर गया सिंहासन के ऊपर। 

      कोई प्रश्न कर सकता है कि उस समय सूरज तो था नहीं जो दिनों का हिसाब उससे हो जाता। फिर दिनों का अनुमान कैसे हुआ। 

      तफ़सीरे जलालैन में इसका उत्तर दिया है –

      छह दिन से आशय उतनी मात्रा है। क्योंकि उस समय सूरज न था। जो उनका हिसाब उससे होता। 

      कोई पूछे ६ दिन क्यों लगा दिए? लिखा है –

      और इसका कारण छह दिन में बनाया यद्यपि उसकी सामर्थ थी कि यदि चाहता तो एक क्षण में बना डालता यह है कि धीरे-धीरे व जल्दी न करना सिखलाए। 

      तफ़सीरे हुसैनी में कहा है –

      मकरे शैतानस्त ताजीलदर शताब। 

      खूए रहमानस्त सबरो हिसाब॥ 

      शैतान का स्वभाव है शाघ्रता दयालु प्रभु का स्वभाव है धीरज से व विधि से 

      तो यह कुन भी जल्दी न कहा जाता होगा। धैर्य व हिसाब से कहा जाता होगा। अर्थात् छह दिन में। 

      सूरते हम सजदा में फ़रमाया है –

      🔥कुलअइन्नकुमलतकफ़रुना बिल्लज़ी ख़लकत अरज़ा फ़ीयौमेने व…..कद्दराफीहा अकवातहाफ़ी अरबअते अय्यामिन फ़कजाहुना सबआ समावातेफ़ीयोमेने। [हा-मीम सजदा ९।१०।१२] 

      अर्थात् कह क्या तुम कुफ्र करते हो उससे जिसने बनाया ज़मीनों को दो दिन में.और निश्चित किए उसमें भोज्य पदार्थ ४ दिन में…फिर बनाए सात आसमान दो दिन में। 

      लीजिए अब तो दिनों की संख्या आठ हो गई। तफ़सीरे जलालैन में इस कठिनाई का समाधान किया है –

      ज़मीन दो दिन में रविवार व सोमवार को बनाई गई, उसमें सब वस्तुएँ मंगल व बुधवार में और आसमान जुमेरात (बृहस्पतिवार) व जुमा (शुक्रवार) की पिछली रात में काम पूरा हुआ और उसी समय बनाया गया आदम को। 

      भोजन सामग्री जो चार दिनों में उत्पन्न की थी उनके दो दिन भूमि की उत्पत्ति में सम्मिलित कर लिए इस प्रकार कुल संख्या फिर छह की छह रही। 

      यह हुई अचेतन सृष्टि की उत्पत्ति, अब मनुष्यों की भी सुन लीजिए। यह तो तफ़सीरे जलालैन ने ही बता दिया कि जुमा (शुक्रवार) की पिछली रात आदम का पुतला घड़ा गया था। घड़ा किससे गया? कैसे गया? 

      🔥ख़लकंतहु मिनतीन (स्वाद) 

      उत्पन्न किया उसको मिट्टी से। 

      🔥ख़लकतो बियदय्या (स्वाद) 

      बनाया मैंने दोनों हाथों से। 

      फ़इज़ा सवेतुहा बनफ़रवता फ़ीहे मिरुही। [सूरते हजर आयत २७] 

      ◾️अल्लाह के दो हाथ हैं – जब मैं ठीक कर लूँ (पैदा) उसको फूंक दूं उसमें रुह (आत्मा) अपनी। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि इन्सान का उपादान कारण मिट्टी है। कुछ स्थानों पर गन्दी मिट्टी कहा है, उसे अल्लाहताला ने दोनों हाथों से ठीक किया है और उसमें अपनी रुह (आत्मा) फूँकी है। क्या वास्तव में मानव शरीर की रचना मिट्टी से ही हुई है ? क्या उसको बनाने वाला दो हाथों वाला है ? यह प्रश्न हमारे इस अध्याय के विषय से बाहर है। यहाँ केवल यह देखना अद्दिष्ट है कि मानव की अपनी स्वयं सत्ता कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। मिट्टी वह है जो कुन के कहते ही ज़मीन के साथ पैदा हुई है चाहे वह कुन एक क्षण में कहा गया हो चाहे दो दिन में या छह दिन में। रुह (आत्मा) अल्लाह मियाँ की अपनी है। इसके अर्थ चाहे यह करो कि अल्लाह ने अपने शरीर में से मानव के शरीर में जीवन का सांस फूंका जैसा इञ्जील में वर्णन किया गया है और चाहे स्वामी दयानन्द की शंका की सार्थकता के आगे नतमस्तक हो जाओ और रुही (मेरी आत्मा) का अर्थ करो ‘अल्लाह मियाँ की प्यारी रुह’ रुह (आत्मा) या तो अल्ला मियाँ के अन्दर से निकली है या अभाव से भाव की गई है। इस प्रकार की मिट्टी और आत्मा कर्म में स्वतन्त्र नहीं हो सकती।[२] जो गुण व स्वभाव स्वतन्त्र कर्ता ने इसमें केन्द्रित कर दिये। उसके अनुसार वह कर्म करती जाएँगी फिर अल्लाह मियाँ की यह शिकायत कि –

      🔥इन्नल इन्सानो लिजुलूमिन कुफ्फारुन। [सूरते इब्राहिम आयत २७] 

      वास्तव में मनुष्य अत्याचारी व काफ़िर है, असंगत है, क्योंकि यह अत्याचार वृत्ति व कुफ्र की प्रकृति को उसके स्वभाव में अल्लाह द्वारा प्रदान किया गया है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ मनुष्य इस ईश्वरीय देन के विरुद्ध न्याय व ईमान का प्रदर्शन करते हैं, परन्तु वह भी तो उनका चमत्कार नहीं, बनाने वाले ने ऐसा बना दिया। 

[📎पाद टिप्पणी २. अधिक जानने के इच्छुक हमारी पुस्तक पं० रामचन्द्र देहलवी और उनका वैदिक दर्शन अवश्य पढ़ें। -‘जिज्ञासु’] 

      उत्पत्ति के इस सिद्धान्त पर शंका यह होती है कि जब नित्य सत्ता ईश्वरीय सत्ता के अतिरिक्त और कोई अन्य नहीं और अल्लाह पूर्ण है, पवित्र है, नेक है तो उसकी रचना में दोष, पाप व कमजोरियाँ प्रवेश कैसे पा गईं ? 

      पाप का आदि स्रोत कौन है? कुरान में इस प्रश्न को यों समाधान किया गया है –

      🔥वइजा कुलना लिलमलाइकते स्जिदू अलआदमा फ़सजद इल्ला इबलीस, अबा व स्तकबराब काना मिनलकाफ़िरीन। [सूरते बकर आयत ३४] 

      जब कहा हमने फ़रिश्तों को, नतमस्तक हो आदम के प्रति तो उन्होंने आदम के प्रति सिर झुकाया, परन्तु शैतान ने नहीं झुकाया। उसने घमण्ड किया और वास्तव में वह काफ़िरों में से था। 

      प्रश्न यह है कि जब शैतान भी अल्लाह ताला की ही रचना है और अल्लाह उसे जैसा चाहता बना सकता था तो उसे काफ़िर क्यों बनाया? 

      लीजिए गुनाह (पाप) की कहानी आगे चलती है –

      🔥वकुलना यादमो उसकुन अन्ता व जोजकल जन्नता व कुला मिनहारगवन हैसो शियतुमा बलातकरिवा हाजिहिश्शजरता फ़तकूना मिनज्ज़वालिमीन।फअजल्लाहुमश्शैतानो अन्हा फ़अखरजहुमा मिम्मा काना फ़ीहे वकुलन हबितू बअज़कुमलिबाज़े उदव्वुन । वलकुम फ़िलअरज़े मुस्तकरुन व मताउन इललहीन। [सूरते बकर आयत ३५-३६] 

      और कहा हमने ए आदम रहो तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में और खाओ इच्छानुसार जैसा चाहो और न निकट जाओ उस वृक्ष के। पापी हो जाओगे, परन्तु पथ-भ्रष्ट किया उनको शैतान ने और निकाल दिया उनमें से जिसमें वह थे और कहा हमने उतरो तुममें से कुछ लोग एक दूसरे के शत्रु हैं और तुम्हारे लिए भूमि पर ही ठिकाना है और कुछ समय लाभ है। 

      यहाँ से पाप का प्रारम्भ होता है। अल्लाह मियाँ ने तो आदम और उसकी पत्नी को स्वर्ग में डाल ही दिया था। कोई पूछे किन कर्मों के पुरस्कार स्वरूप? कहा जाएगा कर्मों के अभाव में। शैतान ने उनको बहकाया वह किसकी मेहरबानी से? बहिश्त कहा था? जहाँ से उतरने का आदेश हआ। फिर परस्पर शत्रु भी बना दिया यह वह गुण है जिसको ऊपर जुल्म और कुफ्र के नाम से वर्णन किया गया है। शैतान की उत्पत्ति प्रारम्भिक पाप है किसका? सूरते स्वाद में उपरोक्त वार्तालाप और भी विस्तार से वर्णन किया है –

      🔥काला या इब्लीसा मामनअका अनतसजुदाइम्मा ख़लकतो बियदय्या, अस्तकबरता अमकुन्ता मिनलआलीना काला अना खैरुन मिनहो, ख़लकतनी मिन नारिन व खलकतहू मिनतीने कालाफ़अखरजमिन्हा फ़इन्नका रजीमुनाव इन्ना अलैका लअनती इला योमिद्दीना, काला रब्बा फ़न्जुरनी इलायोमि युबअसूना, काला फ़इन्नका मिनलमुन्ज़रीन इलायोमिल वक्तिल मालूम। काला फ़बिइज्जतिका लउगवन्नहुम अजमईन। [सूरत स्वाद आयत ७५-७६, ७७, ७८,७९, ८० तथा ८१ तक]

      (अल्लाह ने कहा) ऐ शैतान क्या बात मना करती है तुझको उसके सामने नतमस्तक होने से जिसे स्वयं मैंने अपने दोनों हाथों से उत्पन्न किया है। तूने घमण्ड किया या था तू उच्च श्रेणी वालों में से था। (शैतान बोला) कहा मैं श्रेष्ठ हूँ इससे कि बनाया तूने मुझको अग्नि से और बनाया इसको मिट्टी से। (ख़ुदा बोले) अच्छा तू इन आसमानों में से निकल जा। वास्तव में तू सड़ा-गन्दा है। वास्तव में तुझ पर लानत फटकार है मेरी न्याय के दिन (कयामत) तक। कहा ए रब ढील दे मुझे उस दिन तक कि उठाए जाएँगे मुर्दे। कहा कि अच्छा तू ढील दिए गयों में से है दिन निश्चित तक। (शैतान बोला) अच्छा सोगन्ध है तेरी प्रतिष्ठा की पथ-भ्रष्ट करूँगा इनको सम्मिलित (रूप से)। 

      शैतान को तो उत्पन्न किया ही था और वह भी अग्नि से अब जब वह अपनी स्वाभाविक प्रकृति के चमत्कार को दिखाने लगा तो अल्ला मियाँ रुष्ट हुए। क्या जानते न थे कि है ही ऐसा? प्रश्न हो सकता है कि जब यह अल्लाह के अपने अधिकार क्षेत्र में था कि सबको अधीनस्य उत्पन्न करता तो शैतान को क्यों विद्रोही स्वभाव का उत्पन्न कर दिया या भूलचूक से ऐसा हो गया। यदि भूल नहीं हुई, अपितु इच्छा से उसे घमण्डी बनाया गया तो रुष्ट होने और डराने धमकाने से क्या तात्पर्य है? बेचारे को फटकारा तक गया है। फिर भी रहमानियत (कृपालुता) का गौरव है कि उसने मौहलत (अवसर) माँगा तो दे दिया गया। वह किस बात की? प्रलयकाल तक लोगों को मनुष्यों को पथ-भ्रष्ट करने की। भला मनुष्य पर यह कृपा क्यों की? घमण्ड करे शैतान उसका दण्ड मिले मनुष्यों को। विचित्र कृपालुता है! 

      परन्तु नहीं लगे हाथों मनुष्य को शिक्षा भी दे दी है –

      🔥वला तत्तबिऊ खुतवातिश्शैताने इन्नहूलकुम उदुव्वुन मुबीन, इन्नमा यामुरकुम बिस्सूएवल फुहशाए। [सूरते बकर आयत १६८-१६९[

      और मत पीछे चलो शैतान के। सचमुच वह तुम्हारे लिए बड़ा शत्रु है वह और कुछ नहीं (करेगा) तुम्हें बुराई व लज्जाजनक कार्यों का ही आदेश देगा। 

      या अल्ला ! इसे पैदा ही नहीं करना था, किया था तो हमारा शत्रु न बनाना था। उसने आज्ञा का उल्लंघन किया उस पर लानत (फटकार) हुई। था बुद्धिमान् कि मुहलत (अवसर) माँग ली। कृपालुता का सहारा ले लिया कि उसे अवसर दिया जाए इसमें हमें शंका आपत्ति नहीं। परन्तु हमें पथ-भ्रष्ट करने की सामर्थ्य क्यों प्रदान की गई? उसकी शैतानियत का कोई और उपयोग हो जाता। 

      इसी सूरते स्वाद का कथानक सूरते ऐराफ के प्रारम्भ में आया है अवसर प्राप्त होने पर शैतान ने अपनी इस महत्वाकाँक्षा की महानता का कि वह प्रलय के दिन तक लोगों को पथ-भ्रष्ट करेगा कारण बताया है –

      🔥काला फ़बिमा अग़वतीनीलअकदन लहमसिरातन मुस्तकाम, सुम्मालआतैनहम मिनबैने ऐदैहिम व मिन ख़लफ़हिम व अनईमा निहिम व अनशुमाइलहिम व ला तजिदो अकसरहुन शाकिरौन। काला अख़रज़ो मिन्हा मजओम्मान मदहूरा।लमनतबइका मिन्हुम लअमलअन्ना जहन्नमा मिन्कुम अजमईन। [सूरते आराफ १६, १७, १८] 

      (शैतान) ने कहा (ए ख़ुदा) चूँकि तूने पथभ्रष्ट किया मुझे अलबत्ता (निश्चय ही) मैं उनके लिए तेरे सीधे रास्ते पर बैठूंगा। फिर उनके आगे से, पीछे से, दाएँ से, बाएँ से और तू उन्हें प्रायः धन्यवादी नहीं पाएगा, (ख़ुदा ने) कहा-निकल यहाँ से लज्जित व फटकारे हुए। जो उन (लोगों) में से तेरे पीछे लगेंगे वास्तव में भरूँगा दोजख़ को तुम सबसे। 

      शैतान कहता ही तो है कि अल्लाह ने मुझे पथ-भ्रष्ट किया है। जब उसकी सत्ता अभाव से हुई है और जब वह अल्लाह के आदेश का सब प्रकार से पालक है तो उसमें शैतानियत का सामर्थ्य उत्पन्न ही किसने की है? फिर अल्लाताला हैं कि बजाए इसके कि कुन कहकर उसे शैतान से भला मानस बना दें विपरीत इसके शैतान को प्रलयकाल तक खुली पथ-भ्रष्टता का अवसर देते हैं और इस पथ-भ्रष्टता का लक्ष्य किसे बनाते हैं? बेचारे मनुष्यों को वह भी तो जैसे अल्लाह ने बना दिए बन गए। किसी के भाग्य में पथ-भ्रष्टता लिखी गई किसी के भाग्य में शैतान से बचा रहना लिखा गया फिर यह झाड़-झपट (लानत-फटकार) क्यों? कि दोज़ख़ को भर दूंगा। पहले ही आज्ञा हो गई कि दोज़ख़ भरा जाना है। इसलिए सबको सन्मार्ग नहीं दिखाया जाएगा। इस शाश्वत इच्छा के मार्ग में बाधा कौन उत्पन्न कर सकता है ? अब कहिए भलाई बुराई की कल्पना भ्रम है या कुछ और? 

      इस पर अल्ला मियाँ फरमाते हैं –

      🔥या मूसा इन्नहू अनल्लाहुल अजोजुलहकीम। [सुरते नहल आयत ९] 

      ए मूसा सचमुच मैं ख़ुदा हूँ बड़ी कार्य कुशलता वाला। 

      शैतान के सम्बन्ध में तो न प्रौढ़ता का ही प्रमाण दिया और न कार्य कुशलता का। हाँ यह और बात है कि अपने आपको कुछ कह लें। 

      ऐसे ही कुरान के सम्बन्ध में फ़रमाया है –

      🔥ला रैबा फ़ीहे हुदन लिल मुत्तकीन। [बकर आयत १] 

      इसमें सन्देह नहीं मार्गदर्शन करती है परहेज़गारों को। 

      परहेज़गार पहले ही निर्मित है, मार्गदर्शन किसका हुआ? लेखक के कथन का तात्पर्य क्या हुआ? दूसरे भी ऐसा ही कहें तब कोई अर्थ हुआ। 

      सूरते हजर में शैतान ने फिर यह कथन दुहराया –

      🔥काला रब्बे बिमाअगवैतनी लउजय्यनना लहूमफ़िल अरजे वलउग़वयन्नुमहुम अजमईन। [सूरते हजर आयत ३९]

      कहा ए रब (ख़ुदा) चूँकि पथ-भ्रष्ट किया है तूने मुझे निश्चय ही सजाऊँगा (उनको गुनाहों से) मैं ज़मीन पर उन सबको पथ-भ्रष्ट करूँगा। 

      यह सजाना (जीनत देना) क्या है ? दोज़ख़ के लिए संवारना? अल्लाह मियाँ की शाश्वत वाणी की ही तो आज्ञा पालना हो रही है। 

      लीजिए अल्लाह मियाँ स्वयं फ़रमाते हैं –

      🔥अलमतरअन्ना अरसलन्नश्शैताना अललकाफ़िरीना तवज्जुहम अज्जन। [सूरते मरियम आयत ८४] 

      क्या नहीं देखा तूने हमने भेजा शैतानों को काफ़िरों के ऊपर बहकाते हैं उनको उभार (उत्तेजित) कर।[३]

[📎पाद टिप्पणी ३. Saheeh International, Yusuf Ali, वाले अंग्रेज़ी कुरान व फ़ारुकी जी के हिन्दी कुरान में आयत की संख्या ८३ दी है। -‘जिज्ञासु’ ]

      हम ऊपर निवेदन कर चुके हैं कि नित्य सत्ता अनादि केवल अल्लाताला की ही होने से वास्तविक कर्ता उसी को मानना पड़ेगा। कोई बुरा है तो इसलिए नहीं कि उसने जानबूझकर किसी कानून का उल्लंघन किया है, अपितु इसलिए कि उसे ऐसा बनाया गया है। और यहाँ तो आदम को पढ़ाया भी अल्ला ने स्वयं ही है। फ़रिश्तों को नतमस्तक भी स्वयं ही बना दिया है और फिर पथ-भ्रष्ट भी स्वयं ही करा दिया है। शैतान की यह स्वीकारोक्ति भी सत्यता पर आधारित है कि मैं अल्लाहताला द्वारा ही पथ-भ्रष्ट किया हूँ। या तो उसे बनाने में अल्लाह मियाँ से भूल हो गई और समय पर उस भूल को सुधारा नहीं गया या फिर अल्लाह मियाँ की प्रारम्भ से इच्छा ही यही रही थी कि प्रायः मनुष्य अकृतज्ञ हों और उनसे दोज़ख़ भर जाए। सर्वशक्तिमान् ख़ुदा के सामने ननुनच करने की तो सामर्थ्य ही किसे है ? बिना शैतान से पथ-भ्रष्ट हुए भी दोज़ख़ में जाने का आदेश हो तो आज्ञा पालन करना ही होगा। यह भी तो अल्लाह की ही चाहना है कि हम दोज़ख़ में जाएँ। परन्तु अपने कर्मों के फलस्वरूप। हम उन कर्मों को करने पर विवश हैं। कर लेंगे, परन्तु एक बात कहेंगे और अवश्य कहेंगे कि बलात् कराए गए कर्मों का फल दण्ड व पुरस्कार नहीं होता। दोज़ख़ को दण्ड और स्वर्ग को पुरस्कार कहना भूल है, हाँ अल्लाह की शक्ति और इच्छा के आगे नतमस्तक हैं।

◾️एकाएक सृष्टि क्यों बना दी?- दर्शन शास्त्र में आगे एक और प्रश्न वह यह कि उत्पन्न करना जब अल्लाह मियाँ के स्वभाव में नहीं तो एकाएक उससे यह सृष्टि उत्पन्न कैसे हो गई। अल्लाह का अपना इसमें कोई लाभ नहीं और हो भी तो एक असीमित समय तक मात्र एकत्व में रहने के पश्चात् सृष्टि के इतने पदार्थों की बहुलता की सामर्थ्य उसमें कहाँ से आ गई? यदि सृष्टि बनाने का ज्ञान अल्लाह मियाँ की बुद्धि में पहले से था तो उसका प्रयोग इससे पूर्व कभी क्यों नहीं हुआ? और इस सृष्टि रचना के पश्चात् फिर भी इसके प्रयोग की क्या कभी संभावना है

      🔥अल्लाहो यब्दुअल ख़लका सुम्मायुईदुहूसुम्मा इलैहे तुरजऊन। [सूरते रूम आयत १०]

      अल्लाह पहली बार उत्पत्ति करता है, दोबारा करेगा, फिर लौटाए जाओगे। 

      कुरान के भाष्यकारों की सम्मति में प्रथम सृष्टि उत्पत्ति हो चुकी। दूसरी सृष्टि प्रलय (न्याय का दिन-कयामत) के दिन होगी और उसके पश्चात् उत्पत्ति का क्रम समाप्त हो जाएगा। तो इसके पश्चात् परमात्मा की सृष्टि उत्पत्ति की शक्ति किस काम आएगी। अल्लाह मियाँ की शक्ति में यह ह्रास व निरस्तीकरण क्या दोष नहीं कि उसकी अनादि व अनन्त सत्ता में केवल दो बार ही उसकी यह शक्ति काम में आई। जब गुण समाप्त हो गया तो गुणी भी समाप्त हो जाएगा। 

      मनोविज्ञान विशेषज्ञ जानते हैं कि चेतन सत्ताओं का ज्ञान अभ्यास व अनुभव के अनुसार होता है। अल्लाह मियाँ का वर्तमान सृष्टि से पूर्व का अनुभव तो बेकारी का है। फिर अनायास यह नूतन अभ्यास उसे कैसे प्राप्त हुआ कि सारे पदार्थ उसने उत्पन्न कर दिए? 

जैसे कि लिखा है –

      🔥वलइन अरसलनारीहन फ़रउहूमुसफ़रैन। [सूरते रूम आयत ५०]

      यदि हम एक वायु भेज दें तो देखें खेती पीली हुई। क्या अल्लाह मियाँ ने इससे पहले कहीं पीली खेतियाँ बनाकर देखी थीं कि उनका वर्णन लोहे महफूज़ (परमात्मा के ज्ञान) की शाश्वत पुस्तक पर नित्य वाणी के रूप में लिखकर रख दिया। यदि यही सृष्टि पहली व अन्तिम है तो इससे पहले पीलापन विद्यमान नहीं था। इसका ज्ञान अल्लाह मियाँ को कैसे हुआ? कहा जा सकता है कि वर्तमान सृष्टि के पदार्थ ज्ञान का परिणाम हैं। यहाँ समस्या यह है कि अल्लाह मियाँ के ज्ञान और कर्म में से पहले कौन था और पीछे कौन? मनोविज्ञान ज्ञान तत्त्व के अनुसार यह दोनों ही एक दूसरे के पूर्ववर्ती भी हैं और पश्चात्वर्ती भी। अल्लाह मियाँ का कौन-सा गुण पहले आता है? ज्ञान का गुण कि कर्म का गुण? दर्शन शास्त्र का यह गम्भीर प्रश्न है जिसका समाधान केवल नित्यकर्म के विश्वासुओं के पास ही है। मध्य में कार्य प्रारम्भ मानने से प्रश्न होता है इससे पूर्व तो यह कार्य हुआ नहीं फिर यह मस्तिष्क में (अल्लाह मियाँ के) कैसे आया और यदि उसके मस्तिष्क में था तो कर्म रूप में परिवर्तित होने में उसके क्या कारण बाधक था? [४]

[📎 पाद टिप्पणी ४. ऋषि दयानन्द की यह वेदोक्त दार्शनिक देन अत्यन्त युक्तियुक्त, मौलिक व बेजोड़ है कि ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव नित्य हैं। ज्ञान व कर्म दोनों ही अनादि होने से पहले व पीछे होने का यहाँ प्रश्न ही नहीं उठता। वेद का मन्त्र सन्ध्या में हम नित्य प्रति पाठ करते हैं, दोहराते हैं – 🔥”यथा पूर्वमकल्पयत्” ईश्वर अनादि काल से सृष्टि और प्रलय का चक्र चला रहा है। यथापूर्व यह सृष्टि रची गई है। -‘जिज्ञासु’ ]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

तकदीर (भाग्य) [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-३] । ✍🏻 पण्डित चमूपति जी

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      इस्लाम की एक मान्यता पर कुछ अन्य मतों को आपत्ति है, वह है भाग्य के सम्बन्ध में उसकी मान्यता। जिसके अर्थ यह हैं कि संसार में जो कुछ अच्छा-बुरा होता है अल्लाहताला के आदेश से होता है। अल्लाहताला नित्य सत्ता है उसके अतिरिक्त सारी सृष्टि उत्पन्न की हुई है। अर्थात् वे अभाव से भाव में आए हैं। उनका अस्तित्व व गुण अल्लाहताला द्वारा निर्मित है, कोई नेक हुआ तो उसका कारण यह है कि अल्लाहताला ने उसे नेक बनाया है उसका कारण यह नहीं कि वह अपनी इच्छा से या प्रयत्न से नेक बन गया प्रत्युत इसका कारण यह है कि अल्ला ने उसे भला बनाया। इसी प्रकार, इस पर आर्यसमाज की आलोचना यह है कि यदि हमारे नेक व बुरे कर्म हमारी ‘इच्छा से नहीं अपितु परमात्मा की इच्छा से होते हैं और हम कर्म करने में केवल विवश हैं तो न्याय का निर्णय यह है कि हमारे बुरे-भले का उत्तरदायित्व हम पर न डाला जाए। अपितु उसके वास्तविक कर्ता (परमात्मा) को ही उसका उत्तरदायी मानना चाहिए और दोज़ख़ व जन्नत हमारे लिए निर्धारित न किए जावें’। इस्लाम अपनी इस भाग्य की मान्यता के दार्शनिक परिणाम को स्वीकार करता है कि अल्लाहताला ने न केवल हमारे स्वभाव सृष्टि के आरम्भ से ही निश्चित कर दिए हैं, न केवल हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के कर्मों को लेखबद्ध लोहे महफूज़ (परमात्मा के पास सुरक्षित भाग्य पुस्तक) में पहले से ही लिख रखा है, अपितु हममें से कुछ को स्वर्ग (बहिश्त) के लिए व कुछ को दोज़ख़ (नरक) में रहने के लिए विशेषतया नियुक्त कर दिया है। इस सिद्धान्त के होते शुभ कर्मों का प्रयत्न, महत्वाकांक्षा, किसी महान् कार्य की लक्ष्य प्राप्ति का कोई अवसर ही नहीं रह जाता। हम इस सिद्धान्त को कुरान व उसके भाष्यकारों के अपने शब्दों में प्रस्तुत करेंगे। 

      सूरते फ़ातिह में आया है –

      🔥सिरातुल्लजीना अनअमतांअलैहिम गैरिलमग़जूबी अलैहिम व लज्ज्वाल्लीन। 

      मार्ग इन लोगों का जिन पर उपहार दिया है तूने, न कि उनका जिन पर अत्याचार किया गया न उनका जो पथभ्रष्ट हैं। 

      इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      न राहे आं कसानेकि ख़श्म गिरफ़्ता बर एशां यानी कबल अज़ वजूद बमअरज़े गज़बे तो आमदा अन्द व बदां सबब बर कुफ़र इकदाम नमूदा। 

      न उन लोगों का मार्ग जिन पर तूने क्रोध किया, अर्थात् उत्पन्न होने से पूर्व ही तेरे क्रोध के पात्र बने और इस कारण काफ़िर (गैर मुस्लिम) बने। 

      यदि इस्लाम व कुफ्र को अल्लाहताला ने पहले से कुछ व्यक्तियों के लिए विशेष निश्चित कर दिया है तो फिर अब इस्लाम धर्म के प्रचार के क्या अर्थ हुए? और काफ़िरों का क्या दोष है कि वे इस्लाम को स्वीकार नहीं करते। उपरोक्त वाक्य में मौजूद होने से पहले और इस कारण यह दो शब्द विशेषतया पाठकों को ध्यान देने योग्य हैं। 

      सूरते बकर में इसी विषय को और स्पष्ट किया है – 

      🔥इन्नल्लज़ीना कफ़रु सवाउन अलैहुम अन्ज़रतहुम अमलम तन्ज़िरुहुम ला योमिनून। ख़तमल्लाहो अलाकुलूबिहिम व अला समइहिम व अला अबसारिहिम गिशावतुन वलहुम अज़ाबुन अज़ीमुन। [सूरते बकर आयत ७] 

      जो काफ़िर हों, बराबर है उनके लिए तू डराए या न डराए वह ईमान न लाएँगे। सील लगा दी अल्लाह ने उनके दिलों पर और कान पर और उनकी आँखों पर परदा है और उनके लिए बड़ा दण्ड है।

      तफ़सीरे जलालैन में “जो काफ़िर हुए” के बाद लिखा है –

      जैसे अबूजहल अबूलहब और जिनके भाग्य में काफ़िर होना लिखा गया। 

      यदि काफ़िर होना भाग्य में लिखा गया है और वह अटल है तो किसी भी नियम प्रणाली से उन काफ़िरों को अपराधी नहीं कहा जा सकता और यदि दण्ड भी उसी प्रकार पहले से लिखा गया है तो उन्हें किसी न्याय व्यवस्था के अनुसार दण्ड का भागी नहीं मानना चाहिए। हाँ! विधाता की अवैधानिक रचना का प्रमाण भले ही हो जाए। 

      फिर फ़रमाया है –

      🔥फ़ी कुलुबिहिम मरजुन फ़ज़ादाहुमुल्लाहो मरजा। [सूरते बकर आयत १०] 

      उन लोगों के दिलों में बीमारी है फिर अल्लाह ने उनकी बीमारी और बढ़ा दी। 

      यह रोग वही है जिसका वर्णन हुआ कि उनके भाग्य में काफ़िर होना निश्चित हुआ था। तफ़सीरे जलालैन में लिखा है –

      अल्लाह ने उनके रोग को बढ़ाया इस प्रकार कि जो आदेश अल्लाह ने उतारे उनके लिए विद्रोही हुए। 

      यह हुआ कुफ्र पर कुफ्र और यह सब अल्लाह के आदेश से, मूज़िहुलकुरान में इन पीड़ाओं की और व्याख्या की है वह यह कि –

      एक पीड़ा यह थी कि जिस दीन (मत) को दिल न चाहता था स्वीकार करना पड़ा। दूसरा कष्ट अल्लाह ने दिया कि आदेश दिया धर्मयुद्ध (जिहाद) का जिनके शुभचिन्तक थे उनसे लड़ना पड़ा। 

      इस्लाम के समुदाय में प्रारम्भिक प्रवेश किस प्रकार हुआ इस पर इन वृद्ध महाशय की सम्पत्ति विचारणीय है – सर्वप्रथम बलपूर्वक इस्लाम को स्वीकार करना फिर बलपूर्वक धर्मयुद्ध में सम्मिलित होना और ये दोनों अल्लाहताला के आदेश से – हाय रे भाग्य! 

      सूरते बकर में लिखा है –

      🔥बल्ला हो यल्तस्सो बिरहमतिही मन्यशाओ। [सूरते बकर आयत ८६] 

      अल्लाह विशेषतया निश्चित करता है कि अपनी कृपा जिसको वह चाहता है। इस पर तफ़सीरे हुसैनी की टिप्पणी है  –

      इख़्तिसास मे दिहदब नूबव्वुत व वही ए ख़ुद हर किरा ख्वाहद, 

      विशेष करता है नूबव्वुत (ईश्वरीय दूत) व वही (ईश्वरीय सन्देश) के लिए जिसको चाहता है। 

      कारण? वर्तमान समय के कुछ मुसलमान विद्वानों ने स्वामी दयानन्द की शंका की सत्यता के आगे सिर झुकाया है। एक साहब लिखते हैं –

      अल्लाहो अअलमो हैसायजअला रिसालतिन 

      जिस व्यक्ति को ख़ुदा नबी बनाता है उसकी दशा से भली भाँति परिचित होता है। 

      श्रीमान् जी! यह दशा किसकी बनाई हुई है। अल्लाह मियाँ की या विशिष्ट बनाए व्यक्ति की अपनी? दूतत्व (नबीपन) के लिए विशेषता अभाव से भाव में लाने से पूर्व होती है या पश्चात् ? 

पूर्व होता है तो विशेषता प्राप्त व्यक्ति के स्वेच्छापूर्वक किए कार्यों पर निर्भर न हुई। अल्लाहताला की इच्छा पर निर्भर हुई तो विशेषता प्राप्ति की निर्भरता अल्लाह की इच्छा पर हुई। किसी की अपनी योग्यता पर नहीं हुई। 

      इससे भी बढ़कर लिखा गया है –

      अल्लाहो यज्तबी मिन्रुसिलिहीमन्यशाओ। [आले उमरान आयत १७३] अल्लाह पसन्द करता है अपने पैग़म्बरों में से जिसको चाहता है। 

      सूरते बकर में आया है –

      🔥धलकदस्तफ़ीनहु फ़िदुनियां वइन्हूफ़िल आख़िरतिलमिनस्सालिहीन। [आयत १३०] 

      और निश्चय ही हमने पसन्द किया उसको दुनिया में व निश्चय ही वह न्याय के दिन नेकों में है। 

      मौलवी सनाउल्ला जी न्याय के दिन नेकों में होना ही इब्राहिम के “चुने जाने का कारण” नियत करते हैं और स्वामी दयानन्द के इस कथन पर साक्षी देते हैं कि “जो धर्मात्मा है वही परमात्मा को प्यारा है।” अब प्रश्न यह होगा कि आया पुण्य या पाप अपनी स्वेच्छानुसार किए कर्मों के आधार पर होता है या जैसे तफ़सीरे हुसैनी के लेखक का विश्वास है – ख़ुदा पहले से ही किसी को श्रेष्ठ व किसी को पापी निश्चित कर देता है ? यदि प्रत्येक मनुष्य की योग्यता समान है तो क्या दूसरे “धर्मात्मा” भी ईश्वरीय दूत (पैग़म्बर) हो सकते हैं या नहीं? यदि प्रत्येक “धर्मात्मा” इतना पवित्र हो सकता है जितना इब्राहिम तो उसे ईश्वरीय दूत पैग़म्बर भी हो सकना चाहिए। यदि दूसरों में इतना पवित्र होने का सामर्थ्य नहीं तो यह अल्लाह मियाँ का अन्याय है और यदि सामर्थ्य होते हुए भी ईश्वरीय दूत बनने के गौरव से वंचित है तो यह इससे भी बढ़कर अन्याय है। अन्याय नहीं अत्याचार है। 

      अल्लाह फ़रमाता है –

      🔥फ़मिनहुम मन आमनाव मिनहुममन कफ़रावलौ शाअल्ला हो माक्ततिलूव लाकिन्नल्लाहो यफ़अलोमा युरीदो। [सूरते बकर आयत २४८] 

      उनमें से कोई (इस्लाम पर) ईमान लाया और कोई काफ़िर हुआ यदि अल्लाह चाहता तो न लड़ते, परन्तु अल्लाहै करता है जो चाहता है। 

      यह लड़ाने की इच्छा भी निराली है ! 

      तफ़सीरे जलालेन में इसी स्थान पर लिखा है –

      जिस को चाहे भले कामों की सामर्थ्य दे और जिसको चाहे लज्जित करे, सामर्थ्य न दे। आगे लिखा है –

      🔥युअति अलहिकमतो मंय्यशाओ। [सूरते बकर आयत २६४]    

      देता है कर्मकुशलता जिसे चाहता है। 

      🔥फ़यन्फरालिमंय्याशाओ व यअजिबा मंय्यशाओ बल्लाहो अला कुल्ले शैइन कदीर। [बकर २८०] 

      फिर क्षमा करेगा जिसको चाहेगा और दण्ड देगा जिसे चाहेगा और अल्लाह सब बातों पर समर्थ है। 

      यह बात है तो कर्मों का विवाद किस बात का है और क्यों उत्पन्न किया है ? 

      सूरते रअद में है –

      इन्नअल्लाहा युज़िल्लो मन्यशाओ व यहदी इलेहे मनअताबा। [सूरते रअद आयत २६] 

      वास्तव में ख़ुदा गुमराह करता है जिसे चाहता है और राह दिखाता है अपनी ओर जो खिचता है। (प्रायश्चित करता है इस्लाम पर ईमान लाता है)। 

      इस पर मूज़हुल कुरान में लिखा है कि –

      यही स्वीकार है कि कोई बच ले और कोई राह पाए और जिसका हृदय प्रवृत हुआ, यह संकेत है कि उसको ख़ुदा ने समझाना चाहा। 

      आशय यह है कि पथ-भ्रष्ट होना या सन्मार्ग पर आना अपने प्रयत्न से नहीं अल्लाह मियाँ की इच्छा पर आधारित है तो पुरस्कार व दण्ड का पात्र कौन हुआ? और इस कथन के क्या अर्थ है ? 

      🔥लिय बलूकुम अय्युकुम अहसनो अमलन। [सूरते हूद आयत ७] 

      परीक्षा ले तुम्हारी कि कौन उत्तम है तुममें से कर्म करने में। 

      कार्यों का निर्धारण भी स्वयं करते हो फिर परीक्षा भी लेते हो। क्या सन्देह है कि भाग्य के अनुसार कार्य नहीं होगा? 

      सूरते बनी इसराईल में है –

      🔥व कुल्ला इन्सानिन अलज़मनहताइरहफ़ी उनकिही वयखरि जोलह योमल कमायते किताबन यलकहू मन्शूरा। [बनी इसराईल आयत १३] 

      और प्रत्येक व्यक्ति के लिए लटका दिया है हमने उसका कर्मों का हिसाब उसकी गर्दन के बीच और निकालेंगे उसके लिए न्याय के दिन एक पुस्तक खुली हुई देखेगा। 

      इस आयत की व्याख्या में तफ़सीरे जलालैन में लिखा है –

      मुजाहिद ने कहा कि कोई बच्चा भी ऐसा नहीं कि उसकी गर्दन में एक कागज न हो कि उसमें लिखा हुआ होता है कि यह सौभाग्यशाली है या दुर्भाग्यशाली? 

      यही कथन हुसैनी में उद्धृत करके आगे लिखा है –

      यानी आंचे तकदीर करदा अंद अज़ रोज़े अज़ल अज़ किरदारे ओ। लाज़िम साख्ता एम दर गर्दने ओ। यानी रा चारानेस्त अजां 

      अर्थात् जो कुछ भाग्य में लिख दिया है पहले से ही उसके कर्मों के सम्बन्ध में निश्चित किया है। उसकी गर्दन में, अर्थात् उससे बचने का कोई मार्ग नहीं है। 

      लीजिए हमारे कर्म तो पहले से ही निश्चित हो चुके, हमारी सद्भाग्यशीलता व दुर्भाग्यशीलता हमारे अस्तित्व में आने से पहले ही निश्चित हो चुकी। अब हमें इस भाग्य से या कर्म लेख के अनुसार ही काम कर देना है। कर्म में हमारा अधिकार ही कहाँ रहा? और जब हमारा कोई अधिकार ही नहीं तो पुरस्कार या दण्ड कैसा? 

      स्वयं कुरान कहता है –

      🔥बलौशिअना लाअतैना कुल्लानफ्सिन हुदाहावलाकिन हक्कल कोले मिन्नीलअम्तअन्ना जहन्नमा मिनलजन्नते वन्नासे अजमईन। [सूरते सिजदा आयत १२] 

      अर्थात् और यदि हम चाहते तो प्रत्येक व्यक्ति को सन्मार्ग दिखाते, परन्तु सच्चा है वचन मेरा कि निश्चय ही भरूँगा दोज़ख़ को जिन्नों व इन्सानों से इकट्ठा। 

      तफ़सीरे हुसैनी में इसका अनुवाद इस प्रकार किया है –

      व अगर मे ख्वास्तेम हर आईना दादेम दर दुनियां हर नफ़स रा आंचे राह याफ्ती आं बसूए ईमान व अमल सालिह व लेकिन साबित शुदा अस्त ईं हुकमे मन कि हर आईना पुर साजेम[१] दोज़ख़ रा अज़कुफ़्फ़ार व देव व आदमी बहर एशां। 

[📎पाद टिप्पणी १. मूल में ‘साज़म’ शब्द है जिसका अर्थ है मैं पूरा भरता हूँ, परन्तु आरम्भ में मे ‘ख्वास्तेम’ हम चाहते हैं को देखकर अनुवादक ने आगे ‘साजेम’ बहुवचन में ही कर दिया है। -‘जिज्ञासु’] 

      इस अनुवाद में दोज़ख़ की भरती में काफ़िरों की वृद्धि हुसैनी का अपना आविष्कार है, इस पर किसी काफ़िर को आपत्ति हो सकती है। लेकिन यह बात तो कुरान के अपने शब्दों में अंकित है कि अल्लाह सन्मार्ग दर्शन हर एक को करा सकता था, लेकिन नहीं कराता इसलिए कि उसने दोज़ख़ को बनाया है और उसे भरना है। 

      इस कथन के पश्चात् जहाँ-जहाँ यह वर्णन है कि अल्लाह गुनहगारों को सत्प्रेरणा नहीं करता जैसे यह कुरान केवल परहेज़गारों को मार्गदर्शन के लिए है जैसे बकर-सूरा-२ में वहाँ इस कथन के अर्थ यही करने होंगे कि गुनाहगार और परहेज़गार पहले से ही निर्धारित हैं और स्वामी दयानन्द की आपत्ति कि परहेज़गार तो सीधे रास्ते पर हैं ही और गुनाहगारों के लिए सत्प्रेरणा नहीं तो कुरान के उतरने का लाभ किसे है ? उत्तर रहित प्रश्न है। कुरान न होता तो भी परहेज़गार परहेज़गारी के लिए निर्धारित थे और गुनहगार गुनहगारी के लिए।[२]

[📎पाद टिप्पणी २. यह प्रश्न आज इस्लाम में गूञ्ज रहा है। ‘सोज़ो साज़’ में भी यही प्रश्न उठाया गया है। -‘जिज्ञासु’]

      यह हुआ भाग्य निर्णय कर्मों का कि हमारे लिए भले और बुरे कर्म पहले से ही निश्चित हैं और हम भाग्य लेख को पूरा करते हैं। दूसरा हमारा भाग्य लेख दुःख और सुख का है। कोई उत्पन्न होते ही दुःखी है कोई पैदा होते ही सुखी। यह भेद भाव क्यों? आर्यसमाज के सिद्धान्तों के अनुसार सुख-दुःख कर्मों का दण्ड व उपहार है। पर जो लोग इस जीवन से पूर्व किसी जीवन के पक्षधर नहीं वह वर्तमान जीवन के प्रारम्भ होते ही विभिन्न व्यक्तियों के किए हुए दुःख सुख की भिन्नता व स्तर की असमानता का क्या कारण बता सकते हैं? वर्तमान जीवन के कार्यों का फल दण्ड या पुरस्कार उन्होंने स्वर्ग या नरक को निर्धारित किया है। यद्यपि उपरोक्त भाग्य की मान्यता ने दण्ड व पुरस्कार का सिद्धान्त ही निराधार बना दिया है। इस पर भी यदि थोड़ी देर के लिए इस कठिनाई पर ध्यान न भी दें तो वर्तमान असमानता का दार्शनिक निदान क्या है ? न्याय दिन के सुख और दुःख का कारण वर्तमान कर्म तभी हो सकते हैं जब वर्तमान जीवन के सुख और दुःख इससे पूर्व किए गए कर्मों का फल हों। अन्यथा कर्मों और सुख-दुःख में कारण व कार्य का सम्बन्ध ही न होगा। यदि इस संसार में दुःख-सुख बिना पूर्ववर्ती कर्मों के दिए जाते हैं तो न्याय के दिन के स्वर्ग व नरक भी बिना कर्मों के क्यों न मिलेंगे? भाग्य के सम्बन्ध में जो चर्चा हमने ऊपर की है इससे स्पष्ट सिद्ध है कि इस्लाम के मतानुसार कर्म केवल दिल बहलाने की वस्तु है उनमें हमारी स्वेच्छा वृत्ति को कोई स्थान नहीं। हम अच्छा करने पर भी विवश हैं और बुरा करने पर भी। फिर स्वर्ग-नरक में जाने पर भी वैसे ही विवश हैं अल्लाह मियाँ का कथन अनादि है कि दोज़ख़ भरा जाएगा और वह पूरा होना है। हमारी विवेकशीलता इसी में है कि उस वचन को (सत्य सिद्ध कर दिखावें) करें। भला इससे बढ़कर इस्लाम क्या हो सकता है कि अल्लाताला का नित्य वचन हमारे कर्मों के कारण सत्य सिद्ध हो? फिर कर्म क्षमा भी किए जा सकते हैं। अल्लाह जिसे चाहे बिना कर्मों के स्वर्ग में ले जाए। फलतः मौलवी सनाउल्ला जी लिखते –

      “बेचारे अवयस्क बच्चों को तो इस बात की ख़बर भी नहीं कि शिरक (इस्लाम से विरोध) कुफ़र (स्पष्ट अमुस्लिम होना) क्या होता है इसलिए वे जन्नत में जाने से न रोके जाएँगे।” [हक प्रकाश पृष्ठ २२७-२२८] 

      यही सिद्धान्त इस्लाम का है। अब तो और भी कर्मों से मुक्ति हुई। मौलाना सनाउल्ला के समविचारक लोग यदि यह इच्छा करें और इस इच्छा को कार्यान्वित करें कि हर बच्चा जो बगैर शिरक और कुफ़र के विवेक के मर जाया करे तो अल्लाह मियाँ का यह वचन कि दोज़ख़ को भरना है, सम्भव है, पूरा हो ही न पाए। इस्लाम के प्रचार का यह निराला ढंग विचित्र है। परन्तु नहीं, मौलाना मुसलमान हैं और उन्हें अल्लाहमियाँ का आदेश कार्यान्वित कराना है। परमात्मा उन्हें पुरस्कृत करें अस्तु। 

      अब हम कुरान-करीम की उन वाणियों का दिग्दर्शन करायेंगे जिनमें इस संसार की (सम्पदा) भाग्य रेखा के हाथों बिना प्रयत्न व कर्मों के या अन्य किसी उपाय के बहुत सस्ती कर दी गई है। फ़रमाया है – 

      🔥अल्लाहो यरज़िको मनय्यशाओ बगैर हिसाब। [सूरते बकर आयत २१२] 

      अल्लाह दौलत देता है जिसे चाहता है बिना हिसाब के।

      🔥अल्लाहो यब्सतोरिज़का लिमन्यशाओ व यकदिरो। [सूरते रअद आयत २२] 

      अल्लाह विस्तार करता है धन-दौलत जिसके लिए चाहता है और तंग करता है। 

      🔥अल्लज़ी ख़लकनी फ़हुवा यहदिनीनवल्लज़ी हुवा युतमइनी व यसकीने। [सूरते शुअरा आयत ७८-७९] 

      जिसने उत्पन्न किया मुझको इसलिए वही मार्गदर्शन करता है और जो खिलाता है मुझको व पिलाता है मुझको। 

      जब खिलाना व पिलाना पूर्व कर्मों का फल नहीं तो उसमें समानता क्यों नहीं? हमारा वैभव व हमारी रिक्तता अल्लाह मियाँ की देन है। फिर हमारे लेख भी सदा से निश्चित होकर हमारी गर्दन में बाँध दिये गये हैं। अतः खाने-पीने में अनियमितता भी हमारे ऊपर नहीं आती और उसका परिणाम जो रोग उत्पन्न हो जाते हैं उसके उत्तरदायी विवशता के कारण हम नहीं। अल्लाह की बिना शर्त के पुरस्कार के अर्थ तो यह थे कि बराबर सबको पुरस्कृत करता और यदि संसार में रंगा-रंगी लाने के लिए असमानता आवश्यक थी तो वह असमानता हमें पीड़ित किए बिना भी तो हो सकती थी। असमानता केवल सुखों की हो जाती। हमारे खाने-पीने में रोग उत्पन्न करने का गुण ही न रखता। 

      बिना पूर्व जन्म के माने हमारी बीमारी हमारे पुराने कर्मों का फल तो हो नहीं सकती और वर्तमान जीवन के कर्मों में भी हम भाग्य के आगे नतमस्तक हैं तो क्या रोग भी अल्लाह मियाँ की देन समझी जाए। यह देन उसके कृपापूर्ण गौरव के सर्वथा उपयुक्त है! 

      जीवन का एक उपहार है पुत्र व पुत्रियाँ इस पर अल्लाहताला ने फ़रमाया है –

      यहबो लिमन्यशाओ इनासन व यहवोलिमन्यशा अज्जकूर ओ यज्ज़िहिम् ज़िकरानम व अनासन व यजअलोमन्यशाओ अकीमन। [सूरते शुरा आयत ४८] [३]

      देता है जिसे चाहता है बेटियाँ और देता है और कर देता है जिसे चाहता है। सन्तान रहित।

[📎पाद टिप्पणी ३. Saheeh International व फ़तह-उल-हमीद आदि में ये दो आयतें हैं। इनकी संख्या ४९ व ५० दी गई है। -‘जिज्ञासु’]

      इस आयत पर भी प्रश्न वही है जब प्राणियों में सम्भोग का फल प्रायः सन्तान होती है और मनुष्यों का प्रायः सम्भोग कर्म निष्प्रभावी क्यों रहे? क्या सन्तान होने न होने में कोई विधान काम करता है? या केवल अनियमितता है ? इसी प्रकार पुत्र या पुत्री उत्पन्न होने में कोई नियम है या केवल अनियमितता है? हमारी सन्तान हीनता का कारण या तो हमारा सृष्टि नियम के विपरीत कर्म हो सकता है या गत जीवन के कुकर्म जिसके दण्ड स्वरूप हमें निःसन्तान किया  जाता है। इस्लाम में अतीत काल के जीवन का सिद्धान्त नहीं और वर्तमान जीवन में मनुष्य की इच्छा का हस्तक्षेप न होने से कोई फल उत्पन्न होने का सामर्थ्य नहीं, सब कुछ अल्लाहताला पर निर्भर है। इस पर प्रश्न उठता है कि बिना किसी कर्म के ही सन्तान उत्पन्न क्यों नहीं कर देता? मौलाना सनाउल्ला जी इस प्रश्न पर बिगड़े हैं। पूछते हैं कि क्या किसी आस्तिक (ईश्वर को मानने वाले) का यह प्रश्न हो सकता है ? हज़रत ईसा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अपने मत पर विचार कर लें। यदि वह मत आस्तिकों का है तो यह प्रश्न आस्तिकों का क्यों नहीं? स्वामी दयानन्द को आपत्ति है इस्लाम के भाग्य के सिद्धान्त पर जिसके अनुसार अल्लाह मियाँ ही वास्तविक कर्ता है। हम सब उसकी कठपुतलियाँ हैं। इस दशा में सन्तान की उत्पत्ति पर माता-पिता की ओर से किसी कर्म की शर्त उचित नहीं। एक ओर भाग्य लेख और दूसरी ओर कानून परस्पर विरोधी सिद्धान्त हैं। और तो और सहीह बुखारी में अंजल की आज्ञा इसी आधार पर दी गई है कि सन्तान होना माता-पिता के कर्मों का फल ही नहीं केवल परमात्मा की देन है। 

      वास्तव में मनुष्य का न केवल दण्ड या पुरस्कार के भुगतने के हेतु अपितु उनकी अनुकूलता या प्रतिकूलता के अनुसार कर्मों के लिए विवश होना एक तर्क संगत परिणाम है। इसी सिद्धान्त का कि अल्लाहताला नित्य सत्ता है और शेष सभी सृष्टि अभाव से भाव में लाई गई है। अभाव से भाव में लाए पदार्थों की निजी अपने अस्तित्व सहित सत्ता हो ही नहीं सकती है। महाकवि जौक ने कहा ही तो है –

      अपनी खुशी न आए न अपनी खुशी चले। अच्छा बुरा नहीं हो सकता, बुरा अच्छा नहीं हो सकता जैसा बनाने वाले ने बना दिया बन गए फिर पुरस्कार या दण्ड कैसा? अभाव से भाव के सम्बन्ध में हम एक नया अध्याय लिखेंगे। सम्प्रति इस विषय के १-२ उद्धरण लिखे जा रहे हैं –

      कहा है –

      🔥वरब्बुका यख़्लको मायशाओव यख़्तारो। [सूरते कसस आयत ६८]

      और तेरा पालनहार जो चाहता है, पसन्द करता है वही उत्पन्न करता है। 

      🔥बदीअस्समावाते वलअरजे व इज़ाकज़ा अमरन फ़इन्नमा यकूलोकुन फ़यकूनः।[४] [सूरते बकर आयत ११८] 

      उत्पन्न करने वाला आसमानों और ज़मीनों का। जब वह चाहता है कोई काम करना तो एक ही उसका तरीका है कि कहता है हो जा और वह हो जाता है। 

[📎पाद टिप्पणी ४. फारुखी जी वाले हिन्दी कुरान में इस आयत की संख्या ११७ है।]

      यह सारी सृष्टि जब अल्लाह के एक आदेश का परिणाम है। इस आदेश से पूर्व इस सृष्टि का केवल अभाव था तो इसका कारण केवल अल्लाताला का आदेश ही तो हुआ। इस दशा में इस सृष्टि की अच्छाई-बुराई अल्लाहताला के आदेश की ही अच्छाई या बुराई है । हम सुख व दुःख भोगने में विवश हैं। अच्छे-बुरे काम करने में विवश हैं और अन्त में दोज़ख़ व जन्नत में जाने को भी विवश हैं। अल्लाह को दोज़ख़ व जन्नत को भरना है। स्वेच्छा से पैग़म्बर (ईश्वरीय दूत) बनाने हैं उनमें से चुनाव करना है और इसमें नियम है उसकी शर्त रहित बेरोक-टोक इच्छा का, फिर शिक्षा क्या और उपदेश के क्या अर्थ? सब खेल ही तो है। अल्लाह समर्थवान् सही पर हमारा उत्तरदायित्व कुछ नहीं। इस एक मान्यता से, आचार, दर्शन, विधान सब निराधार होकर रह जाते हैं। 

      तकदीर (भाग्य) के अर्थ हैं अल्लाहताला की असीम शक्ति का प्रयोग, अर्थात् उस सामर्थ्य की जिस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। प्रश्न होता है कि क्या अल्लाह पाप कर सकता है ? अर्थात् कोई ऐसा कर्म जो मनुष्य करे तो पाप कहलाए।न कर सके तो सर्वशक्तिमान् न रहा। तभी तो लिखा है –

      🔥वमकरु वमकरल्लाहो वल्लाही खैरुल माकरीन।[५] [सूरते आले इमरान आयत ५०]

      उन्होंने छल किया और छल किया अल्लाहै ने और अल्लाह सबसे बड़ा छल करने वाला है।

[📎पाद टिप्पणी  ५. फ़ारुकी जी के हिन्दी कुरान, फ़तह उलहमीद व Saheeh International में इस आयत की संख्या ५४ है। -‘जिज्ञासु’]

      इस आयत का विवरण तफ़सीरे हुसैनी में इस प्रकार का वर्णन किया गया है। 

      बअनवाए हील ईसा रा बदस्त आवुरदन्द व दर ख़ानाए महबूस साख्तन्द……..अलस्सुबाह महतर खुद कि यहूदा नाम दाश्त बदाँ खाना फ़िरस्तादन्द……हकताला दरां शब ईसा रा बर आसमान बुरदा बुवद……..यहूदा ईसारा नदीदव हकताला शबीह ईसा बरो……..फ़गन्द……..व अज़ दारश दर आवेख़्ता तीर बारां नमूदन्द। 

      भाँति-भाँति के बहानों से ईसा को पकड़ा और घर में बन्दी बनाया…….प्रातः अपने में से बड़े वृद्ध व्यक्ति को जिसका नाम यहूदा था घर के अन्दर भेजा………अल्लाहताला ने रात-रात में ईसा को आसमान पर उठा लिया था। ……..पर यहूदा ने……..ईसा को न देखा और अल्लाताला ने उसे ईसा की शक्ल दे दी। उसे फाँसी पर लटकाकर उस पर तीर बरसाए। 

      यहूदा को ईसा के रूप में प्रकट करके उसे मरवाना छल होता है, यही अर्थ निम्नलिखित आयत का है –

      🔥व यमकरुल्लाहो वल्लाहो खैरुलमाकरीन। [सूरते इन्फ़ाल आयत ३०]

      छल करता था अल्लाह और अल्लाह उच्च कोटि का छल करने वाला है। 

      🔥इन्नहुम याकैदूना कैदन व कैदू कदन। [सूरते तारिक आयत १५-१६] 

      वास्तव में मकर करते हैं एक मकर और मैं मकर करता हूँ एक मकर। 

      यही व्यवहार फ़रिश्तों से हुआ था कि उन्हें तो नाम सिखाए नहीं। आदम को सिखा दिए। फिर उनका मुकाबिला करा दिया। आदम अधिक विद्वान् निकला। जब अल्लाह ने अधिक ज्ञान दिया तो उसमें आदम की श्रेष्ठता क्या हुई? फ़रिश्तों को सिखा देता तो वे फ़ाज़िल हो जाते। 

      🔥व अल्लमा आदमल अस्मा आकुल्लबा सुम्मा अरजहुम अललमलाइकते, फ़काला अम्बिऊनी बिइस्म ए हाउलाए इन कुन्तुम सादिकीन…………कालू या आदमो अन्बइर्हमबिस्माइहिम काल अलम अकुल्लकुम इन्नीअलमौ रौबस्समावाते वलअरज़े। [सूरते बकर आयत ३१ व ३३] 

      और सिखाए आदम को सारे नाम। फिर किया सामने फ़रिश्तों के फिर कहा मुझे इनके नाम बताओ अगर सच्चे हो, कहा ए आदम बता दे इनके नाम। फिर जब बता दिए उनके नाम तो कहा क्या मैंने तुमसे न कहा था कि निश्चय ही मैं जानता हूँ गुप्त वस्तु को ज़मीन व आसमान की? 

      इसी प्रकार निम्नलिखित वचन हैं –

      🔥फ़यस्त्रवरुना मिनफहुम मस्खरल्लाहो मिनफहुम। [सूरते तौबा आयत ७९] 

      फिर ठट्ठा करते हैं और अल्लाह भी उनसे ठट्ठा करता है।       

      🔥इन्नलमुनाफ़िकूना युखाद ऊनल्लाहा व हुवाख़ाद अहुम। [नसा आयत १४२] 

      वास्तव में मुनाफिक (इस्लाम के विरोधी) धोखा देते हैं अल्लाह को और वह धोखा देता है उनको। 

      अल्लाह के धोखे में आ जाने की पराकाष्ठा यह है कि उत्तर में वह भी धोखा देने लगे। जैसा कि ईसा की कहानी में ऊपर वर्णन किया गया है। 

      सूरते बकर में आया है –

      🔥अल्लाहो उदुव्वुनलिल काफिरीन। [सूरते बकर आयत ९८]

      और अल्लाह है शत्रु काफ़िरों का। 

      लीजिए अब शत्रुता भी करने लगे, एक तो काफ़िर पैदा करना फिर शत्रुता पर तुल जाना। 

      सूरते निसा में लिखा है –

      🔥वल्लाहोअरकसहमबिमा कसबू, अतुरीदूना अन तहदू मन अज़ल्ललाहो वमन्यजुल्लिल्लाहो फ़लन तजिदालहूसबीला। [सूरत निसा आयत ८८]

      और अल्लाह ने उल्टा किया उन्हें साथ उसके जो उन्होंने किया। क्या तुम चाहते हो कि राह पर लाओ उसको जिसे पथ-भ्रष्ट किया अल्लाह ने और जिसे पथ-भ्रष्ट किया अल्लाह ने कदापि न पाएगा तू उसके लिए मार्ग। 

      इसकी विगत तफ़सीरे जलालैन में इस प्रकार दी गई है –

      जंगे उहद (इस्लाम के प्रारम्भिक युद्धों में से एक) से एक समूदाय गैर मुस्लिमों का भाग गया था। मुसलमान परेशान थे, अर्थात् उन्हें चिन्ता हुई कि उन्हें फिर मुसलमान बनावें तब अल्लाताला ने कहा कि इन्हें पथ-भ्रष्ट हमने किया है तुम इन्हें सन्मार्ग नहीं दिखा सकते। क्या ही अच्छा होता! कि इस्लाम मानने वाले भाग्य के इस चमत्कार के मानने वाले होते और शुद्धि को अल्लामियाँ की इच्छा मानकर उसके विरुद्ध शोर न मचाते। 

      कुरान स्वयं कहता है –

      🔥इन्नल्लजीना आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा आमनू सुम्मा कफ़रु सुम्मा अज़दादू कुफ़रा, लमयकु निल्लाहो लियग़फ़रि लहुम वला लियहदीहिम सबीला। [सूरते निसा आयत १३७] 

      वास्तव में जो मुसलमान बने फिर काफ़िर हुए, फिर ईमान लाए, फिर काफ़िर हुए। फिर कुफ्र में वृद्धि की। अल्लाह उनको क्षमा नहीं करता और उन्हें मार्ग नहीं दिखाता। 

      इस आयत की व्याख्या तफ़सीरे हुसैनी में इस प्रकार है –

      वास्तव में जो लोग मूसा अलैहस्सलाम पर। ईमान लाए अर्थात् यहूदी फिर काफ़िर बन गए। गोसाला (बछड़ा) पूजने के कारण। फिर ईमान लाए और तौबा की फिर काफ़िर हो गए। ईसा अलैहिस्सलाम की शान में……….फिर ज्यादा किया उन्होंने कुफ्र मुहम्मद सल्लेअल्ला व सल्लम से इंकार करके….नहीं बख्शेगा अल्ला उन्हें, हकताला ने जान लिया है कि उनकी समाप्ति कुफ्र पर है। 

      ◾️यह व्यर्थ प्रयत्न क्यों? – इसका अर्थ यह है कि जिनके पूर्वज हज़रत मूसा पर ईमान लाकर फिर उनसे व उनके पश्चात् हज़रत ईसा व हज़रत मुहम्मद से भी विरोधी रहे उनके लिए न इस्लाम है और न जन्नत। हम आश्चर्यचकित हैं कि यह मुसलमान लोग इस्लाम के प्रचार का व्यर्थ का प्रयत्न ही क्यों करते हैं ?[६]

[📎 पाद टिप्पणी ६. पण्डितजी का भाव यह है कि जब अल्लाह को अपना दोज़ख़ भरना ही है और वह जिसे चाहता है मार्गभ्रष्ट करता है फिर इस्लाम के प्रचार का प्रयास ही व्यर्थ है। -‘जिज्ञासु’] 

      भाग्य-लेख की समस्या की विशेषता यह है कि मनुष्य मात्र तो उससे बन्ध गये हैं, यह और बात है कि कानून के साथ नहीं, अल्लाह मियाँ की अनियमित और अवैधानिक इच्छाओं के साथ मगर अल्लाह मियाँ स्वयं स्वतन्त्र हैं। किसी आचार संहिता व तर्क के बन्धन में नहीं।  

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

अल्लाह-ताला एक सीमित व्यक्ति है [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-२] । ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      प्रत्येक धर्म में सर्वोच्चकोटि की कल्पना परमात्मा के सम्बन्ध में है। कुरान शरीफ़ में उसे अल्लाहताला कहा गया है। कुरान के कुछ वर्णनों पर विचार करने से विदित होता है कि इस्लाम में परमात्मा की कल्पना किसी असीम शक्ति की नहीं है, अपितु स्थान, समय व शक्ति के रूप में एक सीमित व्यक्ति की कल्पना है। स्थानीयता की सीमा के साक्षी निम्नलिखित उद्धरण हैं। शेष प्रकारों की सीमा का वर्णन आगे चलकर किया जाएगा। 

      🔥इन्ना रब्बुकुमुल्लाहोल्लज़ी ख़लकस्समावात् वलअरज़ाफ़ि सित्तते अय्यामिन सुम्मस्तवा अलल अरशे। [सूरते यूनिस आयत ३] 

      वास्तव में पालनहार तुम्हारा अल्लाह है। जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में फिर स्थिरता धारण की ऊपर अर्श (अल्लाह का सिंहासन) पर। 

      तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      मा बदो ईमान दारेम व तावीले आं बहक गुज़ारेम 

      व्याख्या अल्लाह पर छोड़ो – हम इस पर ईमान (श्रद्धा विश्वास) रखते हैं और उसकी व्याख्या अल्लाह मियाँ पर छोड़ते हैं। 

      सूरते हूद में आया है – 

      🔥व हुव ल्लज़ी ख़लकस्ममावाते वलअरज़े फ़ीसित्तते अय्यमिन व काना अरशहू अललमाए। [सूरते हूद आयत ७] 

      और जिसने उत्पन्न किया आकाशों को और भूमि को छह दिन में और है उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर। 

      इस पर तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है –

      दर बरखे अज़ तफ़ासीर आवुर्दा कि हकताला दर मबदए आफ़रीनशं याकूते सब्ज बयाफ़रीद व बनज़र हैबत दरां निगरीस्त, आं जौहर आब शुद पस हक सुबहाना वताला बाद रा बयाफरीद व आब रा बर बालाए ओ बदाश्त व अर्श रा बर ज़बर आब जाए दाद, 

      अर्थात् कुछ कुरान के भाष्यों में वर्णन है कि अल्लाहताला ने सृष्टि उत्पत्ति के प्रारम्भ में एक हरे रंग का याकूत (कीमती जवाहर पत्थर) बनाया और उसे आतंकपूर्ण दृष्टि से देखा। वह जौहर पानी हो गया फिर अल्लाहताला ने वायु बनाई और पानी को उस पर रखा। और अपने अर्श को (सिंहासन को) पानी के ऊपर स्थान दिया। 

      ◾️अल्लाह ऊपर ही है – इन उद्धरणों से सिद्ध हुआ कि अर्श कोई साकार वस्तु है। और अल्लाताला उस पर स्थित होने से साकार प्रतीत होता है। वायु के ऊपर जल है। जल के ऊपर अर्श है और अर्श के ऊपर अल्लामियाँ। निचला भाग स्वाभाविक रूप से अल्ला से रिक्त होगा। 

      सूरते हाका में इस स्थानीय सीमितता को स्वयं कुरान शरीफ़ के शब्दों में स्पष्ट किया गया है –

      🔥व यहमिलु अरशा रब्बुका फ़ौकहुम योमइज़िन समानियतन 

      और उठाएँगे तेरे रब (पालनहार) के सिंहासन को अपने ऊपर उस दिन आठ व्यक्ति। 

      जिसे आठ व्यक्ति उठाएँगे उसके साकार होने में क्या सन्देह रहा? यह आठ कौन हैं ? तफ़सीरे हुसैनी में लिखा है 

      दर मआलिम आवुर्दा कि दरां रोज़ हमलाए अर्श हश्त बाशन्द ब सूरते बुज़ कोही, अज़ सुम्महाए एशां ता बज़ानू मसाफ़ते आं मिकदारे बुवद कि अज़ आसमाने ता ब आसमाने। 

      अर्थात् मआलिम (कुरान भाष्य) में लिखा है कि उस दिन तख़्त के उठाने वाले आठ होंगे जिन की सूरत पहाड़ी बकरे की होगी। उनके सुम्मों (एड़ियों) से घुटनों तक इतनी दूरी होगी जितनी एक आकाश से दूसरे आकाश तक (होती है)। 

      सूरते सिजदा में लिखा है –

      🔥युदब्बिरुल अमरा मिनस्समाए इललअरजे सुम्मा यअरुजो, फ़ीयीमिन काना मिकदारहू अलफ़ा सिनतिन मिम्मा तउद्दून, 

      व्यवस्था करता है हर बात की भूमि की ओर फिर चढ़ जाता है आसमान की ओर एक दिन में, (ख़ुदाई दिन) जिसका अनुमान तुम्हारी गणना में एक हजार वर्ष है। 

      ◾️इतनी दूर! – आसमान से भूमि की समस्याओं की देखभाल करने वाला फिर हज़ार वर्ष में ऊपर चढ़ने वाला शरीर रहित कैसे हो सकता है ? कुछ लोगों का ऐसा विचार है कि यहाँ चढ़ना अल्लाहमियाँ का नहीं, अपितु फ़रिश्तों का वर्णन है। फिर भी अल्लाहताला भूमि से इतना दूर तो है ही कि फ़रिश्तों को उसके पास जाते हज़ार वर्ष लगते हैं। वह भी तो शरीरधारी ही हुआ। 

      सूरते मआरिज में कहा है –

      🔥तअरजुल मलाइकतो वर्रुहोइलैहि फ़ीयोमिन काना मिकदारहू ख़मसीना अलफ़ा सिनतुन [सूरते मआरिज आयत ४] 

      चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूह उसकी ओर में उस दिन में जिसकी सीमा है पचास हजार वर्ष। 

      एक हजार और पचास हजार के अन्तर को ध्यान में न भी लावें तो अल्लाहताला की दूरी और सीमितता का वर्णन यहाँ भी स्पष्ट शब्दों में हुआ है। 

      ◾️अर्श का वाम दक्ष! सूराए वाकिया की प्रारम्भिक आयतों में बहिश्त में (स्वर्ग में) व दोज़ख़ (नरक) में रहने वालों का वर्णन है। बहिश्त में रहने वालों को असहाबुलमैमना अर्थात् ख़ुदा के दाहिनी ओर रहने वाले और दोज़ख़ में रहने वालों को असहाबुल मशीमता अर्थात् ख़ुदा के बाएँ तरफ़ रहने वाले कहा गया है। तफ़सीरे हुसैनी में इन शब्दों की व्याख्या करते हुए लिखा है कि – (असहाबुलमैमना) ब बहिश्तरवन्द व आँ दर यमीन अर्श अस्त, अर्थात् वे बहिश्त में जाएँगे और बहिश्त अर्श के दाएँ ओर है और (असहाबुलमशीमता) ब दोज़ख़ बरवन्द दोज़ख़ बर चपे अर्श अस्त, अर्थात् उन्हें दोज़ख़ ले जाएँगे और दोज़ख़ अर्श के बाएँ ओर है । जब अर्श के दाएँ और बाएँ दो दिशाएँ हैं और इस प्रकार वहाँ जाने वालों को दाएँ ओर के लोग व बाएँ ओर के लोग कहा जाता है तो अर्श को सीमा रहित कौन कह सकता है? सीमित स्थान का निवासी होने से अल्लाहमियाँ भी सीमित ही हुए। 

      सूरते ऐराफ़ में आया है – 

      🔥फलम्मा तजल्ला रब्बुहूलिलजबलेजअलहूदक्कन व ख़र्रामूसा सअकन। [सूरते आराफ़ आयत १४३] 

      फिर जब दर्शन किया स्वामी उसके ने पहाड़ की ओर किया उसे टुकड़े-टुकड़े और गिर पड़ा मूसा बेहोश। 

      यहाँ परमात्मा की उस ज्योति का वर्णन नहीं जो है तो समस्त ब्रह्माण्ड को घेरे हुए। परन्तु मनुष्य दृष्टि-दोष के कारण उसे पहचानता नहीं, बल्कि किसी ऐसी ज्योति का वर्णन है जिससे प्रकट होने से पहाड़ टूट गया, यह ज्योति जिसका प्रभाव शारीरिक है। आध्यात्मिक नहीं शारीरिक होगा, अर्थात् बिजली की भाँति का जिसका प्रकटीकरण सीमित है और उसे देखकर मूसा बेहोश हुआ। दूसरे शब्दों में परमात्मा की ज्योति आँखों की दृष्टि का आकर्षण भी है जैसे कि मूज़िहुलकुरान में इसी आयत पर लिखा है – 

      “इससे ज्ञात हुआ कि हकताला (परमात्मा) को देखना सम्भव है।” इस ज्योति को सीमित न कहें तो क्या कहें ? 

      सूरते नूर में फ़र्माया है –

      🔥अल्लाहो नूरु स्समावाते वल अरजे मस्सल नूरिही कमिश्कातिन फ़ीहा मिस्ब्बाहुन अलमिस्बाहे फ़जुजाजतिजुजाते। कअन्नहा कोकबुन योकदो मिनशजरतिन मुबा रिकतिन जैतूनतिन लाशर कियतुवला ग़रबियतुनयकादो जैतुहा युज़ियो व लौलम तमस्सहू नारुन। [सूरत नूर आयत ३५] 

      अल्लाह ज्योति है आसमानों की व ज़मीन की, उस (ताक) की भाँति (धनुष सरीखा) जिसमें दीपक हो और वह दीपक शीशे में हो वह शीशा एक तारा है प्रकाशमान है एक वृक्ष के तेल से कि मुबारिक जैतून का है न पूर्व का है न पश्चिम का है। निकट है तेल उसका कि प्रकाशमान हो जाए, यद्यपि उसको आग न लगे। 

      ◾️क्या समझे? – अनेक कुरान के भाष्य देखने पर भी समझ में नहीं आया कि उदाहरण पर उदाहरण पर इस वाक्य का आशय क्या है? हाँ यह स्पष्ट है कि अल्लाहताला का वर्णन शारीरिकता से ऊपर उठ नहीं सका। ताक (तिरवाल) क्या है ? दीपक क्या? शीशा क्या? जैतून का तेल क्या? अल्लाह नूर (ज्योति) है और ताक के सदृश है और तेल बिना अग्नि के प्रकाशमान होने वाला है कुछ रहस्य-सा है जिसकी सूक्ष्मता हमारी मोटी समझ में नहीं आती। 

      सूरते बकर की आयतें – ३३ से ३९, सूरते एराफ़ की आयतें ९ से १५, सूरते स्वाद की आयतें-७० से ७८ आदि स्थानों पर अल्लाहमियाँ का फ़रिश्तों, आदम और शैतान से वार्तालाप वर्णित है। इस वार्तालाप में आदम को शिक्षा देकर स्वर्ग में प्रविष्ट किया है। फ़रिश्तों ने पहले तो घमण्ड किया है, परन्तु फिर नतमस्तक (सिजदा) करने को तैयार हो गए हैं और शैतान आदि से अन्त तक विद्रोही बना रहा। और उसे तीन दिन तक अवसर दिया गया। वार्तालाप की प्रक्रिया एक शरीरधारी मनुष्य की-सी है जो डराता है, धमकाता है और फिर असहाय होकर घटनाओं के बहाव को उसके अपने ढंग से बहने देता है इस वार्तालाप के उद्धरण मनुष्य और शैतान के अध्याय में लिखे गए हैं वहाँ देखिए। 

      सुरते स्वाद में आदम को उत्पन्न करने की युक्ति बताई है 

      🔥ख़लकतो बियदय्या 

      बनाया मैंने दोनों हाथों के द्वारा। 

      यदि यहाँ हाथों का प्रयोग उदाहरण के रूप में हुआ है तो इससे आदम की उत्पत्ति की कोई विशेषता नहीं रही, क्योंकि बनाया तो औरों को भी अल्लाह ने ही है तो वे अभिवादनीय क्यों नहीं? दो हाथों की विशेषता वास्तविक हाथों पर प्रयुक्त है, जो शारीरिक होने 

की निशानी है।  

      सूरते शूरा में लिखा है – 

      🔥व मा कान लिबशरिन अन युकल्लिमहुल्लाहो इल्ला वहयन       

      ओमिन वराए हिजाबिन और युरसिलो रसूलन [सूरते शूरा आयत ५१]

      और नहीं है (सम्भव) किसी मनुष्य के लिए कि अल्लाह बात करे उससे, परन्तु संकेत से या पर्दे के पीछे से या भेजे सन्देश लाने वाला। 

      यदि परमात्मा मनुष्य के अन्दर विद्यमान है तो उसकी बात बिना किसी माध्यम के होनी चाहिए। संकेत, परदा और फ़रिश्ता (सन्देशवाहक-जिबरील की भाँति) सर्वव्यापक परमात्मा किस लिए प्रयुक्त करेगा? 

      तफ़सीरे हुसैनी में इसी आयत की व्याख्या करते हुए लिखा है –

      दर मूज़िह आवुरदा कि ख़ुदा बा रसूलिल्लाह सलअम सखुन गुफ्त अज़ो वराए हिजाबैन यानी हज़रत रसूल पनाह दर दो हिजाब बूद। कि सखुने ख़ुदा शुनीद, हिजाबे अज़ सुर्ख व हिजाबे अज़ मरवारीद सफ़ेद व मसीरत दरमियान हर दो हिजाब हफ़्ताद साला राह बूद। 

      मूज़िह में लिखा है कि ख़ुदा ने रसूलिल्लाह के साथ दो परदों के पीछे से कलाम किया, अर्थात् हज़रत दो पर्दो के बीच में थे जब उन्होंने ख़ुदा का कलाम सुना, एक पर्दा सुर्ख जरी का था और एक पर्दा सफ़ेद मोतियों का था और उन दोनों की दूरी एक दूसरे से सत्तर साल के सफ़र जितनी थी। 

      परदा ख़ुदा और उसके अतिरिक्त के बीच दूरी की सीमा के अतिरिक्त और क्या काम दे सकता है? रसूल ने पर्दे में ख़ुदा से बातचीत की तो ख़ुदा भी तो उसी परदे में होगा। 

      सूरते निसा में कहा है –

      🔥या अय्युहहन्नासू कद जाअकुमुर्रसूलो बिलहक्के मिन रब्बिकुम फ़आमिनू। [सूरत निसा] 

      ऐ लोगो! निःसन्देह आया तुम्हारे पास पैग़म्बर साथ सच्ची बात के तुम्हारे रब (पालनहार) के पास से अतः ईमान लाओ। 

      पैग़म्बर भी मनुष्य है और जब वह कोई सत्य की बात लाता है तो उसका माध्यम उपरोक्त तीन माध्यमों में से एक होगा। या तो वह अल्लाह मियाँ का संकेत पकड़ेगा या पर्दे में होकर बात करेगा या फ़रिश्ते (सन्देशवाहक) के द्वारा वाणी सुनेगा। दूसरे शब्दों में अल्लाह किसी मकान में सीमित रहेगा। वह अन्य संसार से पृथक् है और वह रसूल से बिना माध्यम के बात नहीं करता। 

      सूरते कदर में लिखा है –

      🔥तनज़्ज़लुल मलाइकतोवर्रूहो बिइज़नेरब्बिहिम मिनकुल्ले अमरिन। [सूरते कदर आयत ४] 

      उतरते हैं फ़रिश्ते और आत्माएँ अपने रब के आदेश के साथ प्रत्येक कार्य के लिए। 

      सूरते फ़जर में जिक्र है –

      🔥व जाआ रब्बुका वलमलको सफ़्फ़न सफ़्फ़न, व जाआ योमइज़िन बिजहन्नमा। [सूरते फ़जर आयत २२] 

      और आएगा रब तेरा और फ़रिश्ते सफ़ (लाइन) बाँधकर और लाया जाएगा उस दिन दोज़ख़। 

      यह वर्णन कयामत (प्रलय-न्याय का दिन) का है उस दिन गुनहगार व बेगुनाह सबके सामने रब आएगा। जिससे सिद्ध हुआ कि इस प्रकटीकरण का अर्थ ऐसा प्रकटीकरण नहीं जो साधक लोगों को हृदय-शुद्धि द्वारा प्राप्त होता है और सामान्य लोग अपने हृदय की बुराइयों के कारण उससे वंचित होते हैं, क्योंकि पापियों का हृदय तो उस समय भी शुद्ध न होगा। उनका हृदय का दर्पण जंग लगा हुआ होगा और उनके सामने रब आएगा। यह शारीरिक प्रकटीकरण है। तफ़सीरे हुसैनी में इसे और स्पष्ट कर दिया है। लिखा है –

      (दोजख रा) बर चपे अर्श बदारन्द, अर्थात् दोज़ख़ को अर्श के बाएँ रखेंगे। 

      जब अर्श का दायाँ-बायाँ है तो स्पष्ट ही वह शारीरिक ही हुआ। वह दायाँ-बायाँ वास्तव में अर्श पर बैठने वाले का ही होगा। उपरोक्त उद्धरणों से अल्लाहताला की सीमित अवस्था स्वयं सिद्ध है इस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। ज़मीन व आसमान बनाकर अर्श पर विराजमान होना, अर्श का पानी पर रखा जाना, आठ फ़रिश्तों से उठाया जाना, हज़ार या पचास हजार वर्ष में स्वयं अल्लाह मियाँ का ज़मीन से आसमान तक या फ़रिश्तों का यह दूरी सफ़र करके उसकी ओर जाना, अर्श या अर्श पर बैठने वाले के दाएँ स्वर्ग और बाएँ नरक का होना, अल्लाह का आग की भाँति चमकना और पहाड़ का टुकड़े करना व मूसा को बेहोश करना, ताक चिराग जैतून का तेल या उनका नूर होना, डराना, धमकाना फिर चुप हो रहना, दो हाथों से पुतला तैयार करना, संकेत परदा या फ़रिश्ते के माध्यम से बात करना, फ़रिश्तों आदि का उसकी ओर से आना-जाना, न्याय के दिन उसका विशेषरूप से प्रकट होना, सीमा व उसके सीमाबद्ध व शरीरी होने के स्पष्ट चिह्न हैं। 

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क़ुर्आन का प्रारम्भ ही मिथ्या से [‘चौदहवीं का चाँद’ भाग-१] । ✍🏻 पण्डित चमूपति

[मौलाना सनाउल्ला खाँ कृत पुस्तक ‘हक़ प्रकाश’ का प्रतिउत्तर]

      वर्तमान कुरान का प्रारम्भ बिस्मिल्ला से होता है। सूरते तौबा के अतिरिक्त और सभी सूरतों के प्रारम्भ में यह मंगलाचरण के रूप में पाया जाता है। यही नहीं इस पवित्र वाक्य का पाठ मुसलमानों के अन्य कार्यों के प्रारम्भ में करना अनिवार्य माना गया है। 

      ऋषि दयानन्द को इस कल्मे (वाक्य) पर दो आपत्तियाँ हैं। प्रथम यह कि कुरान के प्रारम्भ में यह कल्मा परमात्मा की ओर से प्रेषित (इल्हाम) नहीं हुआ है। दूसरा यह कि मुसलमान लोग कछ ऐसे कार्यों में भी इसका पाठ करते हैं जो इस पवित्र वाक्य के गौरव के अधिकार क्षेत्र में नहीं। 

      पहली शंका कुरान की वर्णनशैली और ईश्वरी सन्देश के उतरने से सम्बन्ध रखती है। हदीसों (इस्लाम के प्रमाणिक श्रुति ग्रन्थ) में वर्णन है कि सर्वप्रथम सूरत ‘अलक’ की प्रथम पाँच आयतें परमात्मा की ओर से उतरीं। हज़रत जिबरील (ईश्वरीय दूत) ने हज़रत मुहम्मद से कहा – 

      🔥’इकरअ बिइस्मे रब्बिका अल्लज़ी ख़लका’ 

      पढ़! अपने परमात्मा के नाम सहित जिसने उत्पन्न किया। इन आयतों के पश्चात् सूरते मुज़मिल के उतरने की साक्षी है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ –

      🔥या अय्युहल मुज़म्मिलो 

      ऐ वस्त्रों में लिपटे हुए! 

      ये दोनों आयतें हज़रत मुहम्मद को सम्बोधित की गई हैं। मुसलमान ऐसे सम्बोधन को या हज़रत मुहम्मद के लिए विशेष या उनके भक्तों के लिए सामान्यतया नियत करते हैं। जब किसी आयत का मुसलमानों से पाठ (किरअत) कराना हो तो वहाँ ‘इकरअ’ (पढ़) या कुन (कह) भूमिका इस आयत के प्रारम्भ में ईश्वरीय सन्देश के एक भाग के रूप में वर्णन किया जाता है। यह है इल्हाम ईश्वरीय सन्देश कुरान की वर्णनशैली जिस से इल्हाम प्रारम्भ ही हुआ था। 

      अब यदि अल्लाह को कुरान के इल्हाम का आरम्भ बिस्मिल्लाह से करना होता तो सूरते अलक के प्रारम्भ में हज़रत जिबरील ने बिस्मिल्ला पढ़ी होती या इकरअ के पश्चात् बिइस्मेरब्बिका के स्थान पर बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम कहा होता। 

      मुज़िहुल कुरान में सूरत फ़ातिहा की टिप्पणी पर जो वर्तमान कुरान की पहली सूरत है, लिखा है – 

      यह सूरत अल्लाह साहब ने भक्तों की वाणी से कहलवाई है कि इस प्रकार कहा करें। 

      यदि यह सूरत होती तो इसके पूर्व कुल (कह) या इकरअ (पढ़) जरूर पढ़ा जाता। 

      कुरान की कई सूरतों का प्रारम्भ स्वयं कुरान की विशेषता से हुआ है। अतएव सूरते बकर के प्रारम्भ में, जो कुरान की दूसरी सूरत है प्रारम्भ में ही कहा – 

      🔥’ज़ालिकल किताबोला रैबाफ़ीहे, हुदन लिलमुत्तकीन’ 

      यह पुस्तक है इसमें कुछ सन्देह (की सम्भावना) नहीं। आदेश करती है परहेज़गारों (बुराइयों से बचने वालों) को। तफ़सीरे इत्तिकान (कुरान भाष्य) में वर्णन है कि इब्ने मसूद अपने कुरान में सूरते फ़ातिहा को सम्मिलित नहीं करते थे। उनकी कुरान की प्रति का प्रारम्भ सूरते बकर से होता था। वे हज़रत मुहम्मद के विश्वस्त मित्रों (सहाबा) में से थे। कुरान की भूमिका के रूप में यह आयत जिसका हमने ऊपर उल्लेख किया है, समुचित है। ऋषि दयानन्द ने कुरान के प्रारम्भ के लिए यदि इसे इल्हामी (ईश्वरीय रचना) माना जाए यह वाक्य प्रस्तावित किये हैं। यह प्रस्ताव कुरान की अपनी वर्णनशैली के सर्वथा अनुकूल है और इब्ने मसूद इस शैली को स्वीकार करते थे। मौलाना मुहम्मद अली अपने अंग्रेज़ी कुरान अनुवाद में पृष्ठ ८२ पर लिखते हैं –

      कुछ लोगों का विचार था कि बिस्मिल्ला जिससे कुरान की प्रत्येक सूरत प्रारम्भ हुई है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। 

      एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढ़ाने का समर्थन करती है वह है, प्रारम्भिक वाक्य (कल्मा) के रूप में बढ़ाया गया है यह इस सूरत का भाग नहीं। 

      एक और बात जो बिस्मिल्ला के कुरान शरीफ़ में बाहर से बढाने का समर्थन करती है वह है सूरते तौबा के प्रारम्भ में कल्माए तस्मिआ (बिस्मिल्ला)का वर्णन न करना। वहाँ लिखने वालों की भूल है या कोई और कारण है जिससे बिस्मिल्ला लिखने से छूट गया है। यह न लिखा जाना पढ़ने वालों (कारियों) में इस विवाद का भी विषय बना है कि सूरते इन्फाल और सूरते तौबा जिनके मध्य बिस्मिल्ला निरस्त है दो पृथक् सूरते हैं या एक ही सूरत के दो भाग-अनुमान यह होता है कि बिस्मिल्ला कुरान का भाग नहीं है। लेखकों की ओर से पुण्य के रूप (शुभ वचन) भूमिका के रूप में जोड़ दिया गया है और बाद में उसे भी ईश्वरीय सन्देश (इल्हाम) का ही भाग समझ लिया गया है। 

      यही दशा सूरते फ़ातिहा की है, यह है तो मुसलमानों के पाठ के लिए, परन्तु इसके प्रारम्भ में कुन (कह) या इकरअ (पढ़) अंकित नहीं है। और इसे भी इब्ने मसूद ने अपनी पाण्डुलिपि में निरस्त कर दिया था। 

      स्वामी दयानन्द की शंका एक ऐतिहासिक शंका है यदि बिस्मिल्ला और सूरते फ़ातिहा पीछे से जोड़े गए हैं तो शेष पुस्तक की शुद्धता का क्या विश्वास? यदि बिस्मिल्ला ही अशुद्ध तो इन्शा व इम्ला (अन्य लिखने-पढ़ने) का तो फिर विश्वास ही कैसे किया जाए? 

      कुछ उत्तर देने वालों ने इस शंका का इल्ज़ामी (प्रतिपक्षी) उत्तर वेद की शैली से दिया है कि वहाँ भी मन्त्रों के मन्त्र और सूक्तों के सूक्त परमात्मा की स्तुति में आए हैं और उनके प्रारम्भ में कोई भूमिका रूप में ईश्वरीय सन्देश नहीं आया। 

      ◾️वेद ज्ञान मौखिक नहीं – वेद का ईश्वरीय सन्देश आध्यात्मिक, मानसिक है, मौखिक नहीं। ऋषियों के हृदय की दशा उस ईश्वरीय ज्ञान के समय प्रार्थी की दशा थी। उन्हें कुल (कह) कहने की क्या आवश्यकता थी। वेद में तो सर्वत्र यही शैली बरती गई है। बाद के वेदपाठी वर्णनशैली से भूमिकागत भाव ग्रहण करते हैं। यही नहीं, इस शैली के परिपालन में संस्कृत साहित्य में अब तक यह नियम बरता जाता है कि बोलने वाले व सुनने वाले का नाम लिखते नहीं। पाठक भाषा के अर्थों से अनुमान लगाता है। कुरान में भूमिका रूप में ऐसे शब्द स्पष्टतया लिखे गए हैं, क्योंकि कुरान का ईश्वरीय सन्देश मौखिक है जिबरईल पाठ कराते हैं और हजरत मुहम्मद करते हैं। इसमें ‘कह’ कहना होता है। सम्भव है कोई मौलाना ( इस्लामी विद्वान्) इस बाह्य प्रवेश को उदाहरण निश्चय करके यह कहें कि अन्य स्थानों पर इस उदाहरण की भाँति ऐसी ही भूमिका स्वयं कल्पित करनी चाहिए। निवेदन यह है कि उदाहरण पुस्तक के प्रारम्भ में देना चाहिए था न कि आगे चलकर, उदाहरण और वह बाद में लिखा जाये यह पुस्तक लेखन के नियमों के विपरीत है। 

      ऋषि दयानन्द की दूसरी शंका बिस्मिल्ला के सामान्य प्रयोग पर है। ऋषि ने ऐसे तीन कामों का नाम लिया है जो प्रत्येक जाति व प्रत्येक मत में निन्दनीय हैं। कुरान में मांसादि का विधान है और बलि का आदेश है। इस पर हम अपनी सम्मति न देकर शेख ख़ुदा बख्श साहब एम० ए० प्रोफ़ेसर कलकत्ता विश्वविद्यालय के एक लेख से जो उन्होंने ईदुज्ज़हा के अवसर पर कलकत्ता के स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित कराई थी, निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत किए देते हैं –

      ◾️ख़ुदा बख्श जी का मत – “सचमुच-सचमुच बड़ा ख़ुदा जो दयालु व दया करने वाला है वह ख़ुदा आज खून की नदियों का चीखते हुए जानवरों की असह्य व अवर्णनीय पीड़ा का इच्छुक नहीं प्रायश्चित?…. वास्तविक प्रायश्चित वह है जो मनुष्य के अपने हृदय में होता है। सभी प्राणियों की ओर अपनी भावना परिवर्तित कर दी जाए। भविष्य के काल का धर्म प्रायश्चित के इस कठोर व निर्दयी प्रकार को त्याग देगा। ताकि वह इन दोनों पर भी दयापूर्ण घृणा से दृष्टिपात करे। जब बलि का अर्थ अपने मन के अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु या अन्य सत्ता का बलिदान है।” [- ‘माडर्न रिव्यु से अनुवादित’]

      दयालु व दया करने वाले परमात्मा का नाम लेने का स्वाभाविक परिणाम यह होना चाहिए था कि हम वाणी हीन जीवों पर दया का व्यवहार करते, परन्तु किया हमने इसके सर्वथा विरोधी कार्य…..। यह बात प्रत्येक सद्बुद्धि वाले मनुष्य को खटकती है। 

      ◾️मुजिहुल कुरान में लिखा है –

      जब किसी जानवर का वध करें उस पर बिस्मिल्ला व अल्लाहो अकबर पढ़ लिया करें। कुरान में जहाँ कहीं हलाल (वैध) व हराम ( अवैध) का वर्णन आया है वहाँ हलाल (वैध) उस वध को निश्चित किया है जिस पर अल्लाह का नाम पढ़ा गया हो। कल्मा पवित्र है दयापूर्ण है, परन्तु उसका प्रयोग उसके आशय के सर्वथा विपरीत है। 

      ▪️(२) इस्लाम में बहु विवाह की आज्ञा तो है ही पत्नियों के अतिरिक्त रखैलों की भी परम्परा है। लिखा है – 

      🔥वल्लज़ीन लिफ़रूजिहिम हाफ़िजून इल्ला अललअज़वाजुहुम औ मामलकत ईमानु हुम। सूरतुल मौमिनीन आयत ऐन 

      और जो रक्षा करते हैं अपने गुप्त अंगों की, परन्तु नहीं अपनी पत्नियों व रखैलों से। तफ़सीरे जलालैन सूरते बकर आयत २२३       

      🔥निसाउकुम हर सुल्लकुम फ़आतू हरसकुम अन्ना शिअतुम 

      तुम्हारी पत्नियाँ तुम्हारी खेतियाँ हैं जाओ अपनी खेती की ओर जिस प्रकार चाहो। तफ़सीरे जलालैन में इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है –

      बिस्मिल्ला कहकर – सम्भोग करो जिस प्रकार चाहो, उठकर, बैठकर, लेटकर, उल्टे-सीधे जिस प्रकार चाहो .. सम्भोग के समय बिस्मिल्ला कह लिया करो। 

      बिस्मिल्ला का सम्बन्ध बहु विवाह से हो रखैलों की वैधता से हो। इस प्रकार के सम्भोग से हो यह स्वामी दयानन्द को बुरा लगता है।

     ▪️(३) सूरते आल इमरान आयत २७ – 

      🔥ला यत्तख़िजु मौमिनूनलकाफ़िरीना औलियाया मिनदूनिल मौमिनीना………इल्ला अन तत्तकू मिनहुम तुकतुन 

      न बनायें मुसलमान काफ़िरों को अपना मित्र केवल मुसलमानों को ही अपना मित्र बनावें। 

      इसकी व्याख्या में लिखा है –

      यदि किसी भय के कारण सहूलियत के रूप में (काफ़िरों के साथ) वाणी से मित्रता का वचन कर लिया जाए और हृदय में उनसे ईर्ष्या व वैर भाव रहे तो इसमें कोई हानि नहीं…….जिस स्थान पर इस्लाम पूरा शक्तिशाली नहीं बना है वहाँ अब भी यही आदेश प्रचलित है। 

      स्वामी दयानन्द इस मिथ्यावाद की आज्ञा भी ईश्वरीय पुस्तक में नहीं दे सकते। ऐसे आदेश या कामों का प्रारम्भ दयालु व दयाकर्ता, पवित्र और सच्चे परमात्मा के नाम से हो यह स्वामी दयानन्द को स्वीकार नहीं। [इस्लामी साहित्य व कुर्आन के मर्मज्ञ विद्वान् श्री अनवरशेख़ को भी करनी कथनी के इस दोहरे व्यवहार पर घोर आपत्ति है। -‘जिज्ञासु’]

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰ 

📖 ‘चौदहवीं का चाँद’ पुस्तक से संकलित

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ ओ३म् ॥

आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदभाष्य (वेदार्थ) की कसौटियां । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      यह पहिले बतलाया जा चुका है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान, अपौरुषेय, नित्य तथा सृष्टिनियमों के अनुकूल है। अतः उसका अर्थ करते समय भी उन्हीं कसौटियों को यथार्थ समझना अनिवार्य है, जो कि इन पूर्वोक्त बातों का विरोध न करती हों, अतः वेदार्थ की दृष्टि से संक्षेपतः उनका निरूपण करते हैं –

      ▪️(१) वेद में सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन होना चाहिये, जो मानव समाज में परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाले न हों। 

      ▪️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उस में न होना चाहिये। 

      ▪️(३) ईश्वर के गुण, कर्म तथा सृष्टि नियमों के विरुद्ध न हो। 

      ▪️(४) ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ वेद सब सत्य विद्यानों का पुस्तक है, उस से यह अवश्य विदित हो। 

      ▪️(५) मानवजीवन के प्रत्येक अङ्ग पर प्रकाश डालता हो, अर्थात् मानव की ज्ञानसम्बन्धी सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हो। 

      ▪️(६) न्यायादि शास्त्रों के नियमों के विपरीत न हो, दूसरे शब्दों में तर्क की कसौटी पर ठीक उतरे, अर्थात् तर्कसम्मत हो। 

      ▪️(७) जिसमें किसी व्यक्तिविशेष का इतिहास न हो। 

      ▪️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान कराता हो। 

      ▪️(९) आप्तसम्मत हो, ऋषि-मुनियों की धारणायें भी जिसके अनुरूप हों। 

      ▪️(१०) जिस की एक आज्ञा दूसरी आज्ञा को न काटती हो।

      अति संक्षेप से ये वेदार्थ की कसौटियाँ कही जा सकती हैं। इनके विषय में पूर्व(जिज्ञासु रचना मञ्जरी पृ॰ ३९-४०) संक्षेप से लिखा जा चुका है, यहाँ इस विषय में कुछ और प्रकाश डालना अनुपयुक्त न होगा –

      ◾️(१) सर्वतन्त्र-सिद्धान्त या सार्वभौम-नियम – 

      जो बातें सबके अनुकूल, सब में सत्य, जिनको सब सदा से मानते आये, मानते हैं और मानेंगे, जिनका कोई भी विरोधी न हो, जो प्राणिमात्र के कल्याणकारक हैं, ऐसे सर्वतन्त्र सर्वमान्य सिद्धान्त ही संसार में सुख और शान्ति के प्रतिपादक हो सकते हैं। वेद तो स्पष्ट ही कहता है –

      🔥…मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।       

      ……मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे॥ [यजु॰ ३६।१८] 

      प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखो। 🔥“यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः” [यजु० ४०।७], 🔥”भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीराः” [केनोप॰ २।५], 🔥”स्वस्ति गोम्यो जगते पुरुषेभ्यः” [अथर्व॰ १।३१।४], वेद के इन मन्त्रों तथा उपनिषद् के वचनों में स्पष्ट इस उपर्युक्त बात का प्रतिपादन हमें मिलता है। ऐसी अवस्था में यदि कोई वेद का अर्थ इसके विरुद्ध करता है, तो कैसे माननीय हो सकता है ! ईश्वर का ज्ञान वेद, फिर भी जाति जाति में, और देश-देश में फूट डलवाने वाली बात कहे, यह कैसे हो सकता है। वह तो समता का प्रतिपादक है, न कि विषमता का। मानवहृदय की विषमता दूर करना ही तो उसका ध्येय है। वेद का प्रत्येक मन्त्र किसी न किसी रूप में सर्वतन्त्र सिद्धान्त का प्रतिपादक है, यह हमारा कहना है। इस कसौटी को लेकर प्रत्येक को वेद के अर्थ का परीक्षण करना चाहिये। 

      ◾️(२) किसी देश या जातिविशेष का सम्बन्ध उसमें न होना चाहिये – 

      ऐसा होने से ईश्वर में पक्षपात सिद्ध होगा। दूसरे-जिस जाति वा देश का वर्णन वेद में होगा, वेद की उत्पत्ति उसके पीछे ही माननी पड़ेगी, इस प्रकार उसकी नित्यता नहीं रह सकती। ऋ॰ १।३।११, १२ में –

      🔥”चोदयित्री सूनृतानां चेतन्ती सुमतीनाम्”। 

      🔥”धियो विश्वा वि रोजति”। 

      विश्व के लिये बुद्धियों वा ज्ञान के प्रकाश का उपदेश वेद करता है। योगदर्शन [२।३१] में भी 🔥’जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्’ ऐसा लिखा है। 

      इसके विरुद्ध जो शङ्का करते हैं, कि वेद में अमुक जाति वा अमुक व्यक्तियों का इतिहास है, इसके विषय में हम आगे लिखेंगे। 

      ◾️(३) ईश्वर के गुण, कर्म और सृष्टिनियमों के विरुद्ध न हो –

      ईश्वर सर्वज्ञ है, उत्पत्ति, स्थिति, संहार का कर्ता, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी आदि गुणों से युक्त है। यदि वेद के मन्त्रों के अर्थ इन गुणों के विपरीत हों तो यही कहना होगा कि वह वेद का ठीक अर्थ नहीं है, अन्यथा वेद ईश्वर की कृति नहीं माना जा सकता। वेद कहता है –

      🔥विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखः॥ [ऋ॰ १०।८१।३] 

      🔥य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे॥ [अथर्व॰ ७।८७।१] 

      🔥प्रजापतिः ससृजे विश्वरूपम्॥ [अथर्व॰ १०।७।८] 

      🔥यस्मिन भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्यस्मिन्नध्याहिंता। 

      यत्राग्निश्चन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठन्त्यापिताः॥ [अथर्व॰ १०।१७।१२] 

      सब का स्रष्टा, धा, नियन्ता परमेश्वर है, इत्यादि मन्त्र उपयुक्त कसोटी के सर्वथा अनुरूप हैं। 

      ◾️(४) वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक हो – 

      जब वेद ईश्वरीय ज्ञान है, तो वह पूर्ण ज्ञान होना चाहिये, जो प्राणिमात्र को अपेक्षित है। अन्यथा उसकी अपूर्णता उसके वेदत्व का ही विघात करेगी। इसलिये ऋषि-मुनि ‘सर्वज्ञानमयो हि सः’ [मनु॰ २।७] वह समस्त विद्याओं का भण्डार है, ऐसा मानते हैं। यद्यपि यह बात अभी तक प्रायः साध्य कोटि में है, और तब तक रहेगी, जब तक सम्पूर्ण विद्याओं के ज्ञाता नहीं हो जाते। उससे पूर्व हमें इसका निर्बाध ज्ञान कैसे हो सकता है। पुनरपि हमें अंशतः इस का ज्ञान अवश्य हो रहा है। पर वेद में समस्त विद्यायें होनी चाहिये, इसका बाध तो कोई नहीं कर सकता। यह बात सर्वसम्मत है। स्वामी दयानन्दजी ने ही नहीं, स्वामी शङ्कराचार्य ने भी ऐसा ही माना है –

      🔥”महत ऋग्वेदादेः शास्त्रस्यानेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म। नहीदृशस्य शास्त्रस्यर्ग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञादन्यतः सम्भवोऽस्ति”। [वेदांत शाङ्करभाष्य १।१।३] 

      अर्थात्- अनेक विद्याओं के स्रोत ऋग्वेदादि का कर्ता विना सर्वज्ञ जगदीश्वर के कोई नहीं हो सकता।

      ◾️(५) मानव-जीवन के प्रत्येक प्रङ्ग पर प्रकाश डालता हो – 

      इस नियम से चारों वर्णों और चारों आश्रमों के सब धर्मों का मूलतः उपदेश वेद में होना अनिवार्य है। 🔥”ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” [यजु॰ ३१।११] इत्यादि मन्त्र चारों वर्गों के कर्तव्यों का उपदेश करते हैं, इसी प्रकार चारों आश्रमों के कर्तव्यों का निरूपण करनेवाले ब्रह्मचर्यसूक्त [अथर्व॰ ११।५] तथा गृहस्थाश्रम (अथर्व॰ १४।२३] आदि के प्रकरण वेदों में अनेक स्थलों में हैं। 

     ◾️(६) तर्कसम्मत हो – 

     🔥”बुद्धि पूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे” (वैशे॰ ६।१।१) के अनुसार वेद में तर्क के विरुद्ध कुछ नहीं हो सकता। 🔥”तर्क एव ऋषिः” [निरु॰ १३।१२] ऋषियों के इन वचनों के आधार पर हमें मानना होगा कि वेद का कोई भी मन्त्र इसकी अवहेलना नहीं कर सकता। यह बात भी अभी वेद के मर्मज्ञ विद्वानों को छोड़कर अन्य साधारण जनता के लिये तो प्रायः साध्यकोटि में ही कही जा सकती है। 

     ◾️(७) व्यक्तिविशेषों का इतिहास न हो – 

      इन्द्र-कण्व-अङ्गिरः आदि शब्दों के आगे तरप-तमप (Comparative तथा Superlative degree) प्रत्यय हमें वेद में [ऋ॰ ७।७९।३ तथा ऋ॰ १।४८।४] स्पष्ट मिलते हैं। तरप्-तमप् प्रत्यय विशेषणवाची शब्दों के ही आगे प्रयुक्त होते हैं, न कि व्यक्तिविशेषों के नाम के आगे। इस से हम समझ सकते हैं कि ये विशेषणवाची शब्द हैं, न कि किन्हीं व्यक्तिविशेषों के नाम। स्थालीपुलाक-न्याय से यहाँ हम इतना ही लिखना पर्याप्त समझते हैं। शेष ऐतिहासिक स्थलों के विषय में आगे लिखा जायगा। 

      ◾️(८) त्रिविध अर्थों का ज्ञान करानेवाला हो –

      निरुक्तकार यास्क मुनि के मत में वेद के प्रत्येक मन्त्र का तीन प्रकार का अर्थ होना चाहिये, ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार स्कन्दस्वामी ने (निरुक्त का प्रमाण देकर) कहा है [देखो भाष्यविवरण पृ॰ २१, ३३]। ऐसी दशा में हमें किसी का भी किया अर्थ सामने आने पर देखना होगा कि वह तीनों अर्थों को कहता है, या तीनों में से किसी एक को, या तीनों से भिन्न ही कुछ बोल रहा है। इस कसोटी से हमें वेदार्थ करनेवाले व्यक्ति की योग्यता का भी पता तत्काल लग जायगा कि उसको वेदार्थ के विषय में कहाँ तक गहरा ज्ञान है। 

      ◾️(९) ऋषि-मुनियों की धारणा के अनुकूल हो –

      जैसा हमने ऊपर यास्क का मत दिखाया, इसी प्रकार यास्कमुनि की अन्य धारणाओं तथा अन्य ऋषियों की वेदार्थ विषय में जो धारणाएं हैं, उनको लेकर वेदार्थ की परीक्षा करनी होगी। जब यास्क प्रत्येक मन्त्र के तीन अर्थ मानता है, तो हमें बाधित होकर वैसा ही वेद का अर्थ ग्राह्य समझना होगा, दूसरा नहीं। 

      ◾️(१०) जिसकी एक आज्ञा दूसरी प्राज्ञा को न काटती हो –

      विप्रतिषिद्ध बात या तो पागल कहता है, या अज्ञानी। सो ईश्वर से बढ़ कर ज्ञानी और कौन हो सकता है ! अतः उसका ज्ञान भी परस्पर विरुद्ध कभी नहीं हो सकता। यह बात वेद में पूरी लाग होती है। अतः वेद के अर्थ में ऐसी किसी विप्रतिषिद्धता की सम्भावना नहीं हो सकती।

      ये सब कसौटियाँ हमने अति संक्षेप से निर्देश-मात्र वर्णन की हैं। इस विषय में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यहाँ इतना ही पर्याप्त होगा। इन कसौटियों को लेकर ही हमें आगे वेदार्थविषय में विवेचना करनी होगी। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यास्क और मन्त्रों के कर्ता ऋषि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

इस विषय में यास्क की क्या सम्मति है सो भी सुनिये –

🤨पूर्वपक्षी – 

      ◾️(१) देखो निरुक्त ३।११ – 

      🔥ऋषिः कुत्सो भवति, कर्त्ता स्तोमानाम् इत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात्- कुत्स ऋषि होता है, स्तोमों (मन्त्रों) का कर्ता, ऐसा औपमन्यवाचार्य का मत है। इसमें 🔥”कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ मन्त्रों का बनानेवाला – कितना विस्पष्ट है। क्या इससे प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं कि यास्क ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता (बनानेवाला) मानता है ? 

      ◾️(२) और देखिये- निरु० १०।४२ –

      🔥अम्यासे भूयांसमर्थ मन्यन्ते तत् परच्छेपस्य शीलम्। 

      यहाँ परुच्छेप ने मन्त्र बनाये, ऐसी झलक प्रतीत होती है। आगे का पाठ निम्न प्रकार है –

      🔥परुच्छेप ऋषिः पर्ववच्छेपः परुषि परुषि शेपोऽस्येति वा।

      यहाँ भी परुच्छेप को ‘ऋषि’ कहा गया है। क्या इन प्रमाणों से ऋषि मन्त्रों के कर्ता हैं, इसमें कुछ भी सन्देह रह जाता है ? 

🌺सिद्धान्ती –

      ◾️(१) सबसे प्रथम हम निरुक्त के 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ स्वयं न करके आचार्य यास्क के अपने शब्दों में ही दर्शा देते हैं –

      देखिये निरुक्त ३।११ में 🔥”कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः” में जिस औपमन्यव आचार्य के मत से ‘कर्ता स्तोमानाम्’ ऐसा यास्क ने लिखा, उसी औपमन्यव आचार्य के मत से यास्क ने निरु० २।११ में ऋग्वेद दशम मण्डल के ९८ सूक्त के ५वे मन्त्र में आये हुये ऋषि शब्द का अर्थ दर्शाते हुए लिखा है –

      🔥ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात् ऋषि-द्रष्टा होने से – स्तोमों (मन्त्रों) को देखा (न कि बनाया), ऐसा औपमन्यव आचार्य का मत है। 

      कितना विस्पष्ट लेख है। जिस औपमन्यव आचार्य के मत से 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” लिखा, उसी का मत दिखाते हुये यास्क ने 🔥”स्तोमान् ददर्श” ऐसा लिखा। यदि दूसरे के मत से लिखा होता तो पूर्वपक्षी को यह कहने का अवसर भी मिल सकता था कि एक आचार्य ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता मानता है, दूसरे द्रष्टा। परन्तु यहाँ पर तो दोनों स्थलों में वही एक ही औपमन्यव आचार्य है। अतः इसमें शङ्का का यत्किञ्चित् भी स्थान नहीं रह जाता। 

      ◾️(२) 🔥”परुच्छेपस्य शीलम्”- यहाँ दुर्गाचार्य का मत निम्न प्रकार है –

      🔥”परुच्छेपस्य मन्त्रदृशः शीलम्” स हि नित्यमभ्यस्तैः शब्दः स्तौति। मन्त्रदृशोऽपि, स्वभाव उपेक्ष्य इत्युपप्रदर्शनायेदमुक्तम्। 

      कैसी हृदयग्राही सङ्गति लग रही है। इसमें भी कोई खींचातानी का व्यर्थालाप करे तो अन्धेर है। 

      इस विषय में एतद्देशीय तथा विदेशीय विद्वान् कुछ आशङ्कायें उठाते हैं कि –

      ▪️(क) 🔥”नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यः …..॥ [ते० आ० ४।१।१ तथा- शा० आरण्यक।] 

      🔥आङ्गिरसो मन्त्रकृतां मन्त्रकृदासीत्॥ [ताण्डयमहाब्राह्मण १३।३।२४॥ तथैव आपस्त० श्रौतसूत्रे॥] 

      ▪️(ख) 🔥यावन्तो वा मन्त्रकृतः॥ [कात्यायनश्रौतसू० ३।२।८।। तथा च–बौधायन श्रौ० सू०]

      ▪️(ग) गृह्यसूत्रों में – 🔥श्रद्धाया दुहिता-स्वसर्षीणां मन्त्रकृतां बभूव॥ [काठक गृह्यसूत्र ४१।११॥] 

      🔥ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यः॥ [सत्याषाढ श्री. सू० ३।१॥] 

      इत्यादि प्रमाणों को लेकर ऋषियों को मन्त्रों के बनानेवाले बताते हैं । (विशेष देखो ऋग्वेद पर व्याख्यान पृ० ३४ से ३५)। 

      इस पर अधिक न लिख कर हम कुछ ही स्थलों का भाष्यकारों का अर्थ दर्शाये देते हैं –

      ◾️(१) तै॰आ० के भाष्य में महाविद्वान् भट्टभास्कर का निम्न लेख है –

      🔥अथ नम ऋषिभ्यो द्रष्टुभ्यः, मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्राणां द्रष्टभ्यः, दर्शनमेव कर्त्तृत्वम्॥

      ◾️(२) सायणाचार्य ने भी तै॰आ० के इसी स्थल पर लिखा है –

      🔥ऋषिरतीन्द्रियार्थद्रष्टा मन्त्रकृत करोतिधातुस्तत्र दर्शनार्थः॥ 

      इन दोनों उद्धरणों से सर्व श्रौतगह्यादि में इस शब्द के अर्थ की अवस्था समझ में आ जाती है। इस प्रकार वेद तथा इन गृह्य श्रौत आदि मन में कर्तत्व से द्रष्टृत्व ही यास्क और औपमन्यव सदृश ऋषियों को अभिमत है। तब हमें ‘मन्त्रकृतां’ का ऐसा अर्थ मानने में क्या विप्रतपत्ति हो सकती है। 

      यहाँ यास्क का प्रमाण सब प्रमाणों में सर्वत: उपरि है। 

      (३) आप कहेंगे कि “डुकृञ्” तो ‘करणे’ अर्थ में धातुपाठ में पढ़ा है। सो भी अज्ञान की बात है। देखिये महामुनि भगवान् पतञ्जलि ‘करोति’ का अर्थ क्या मानते हैं –

      महाभाष्य 🔥”भूवादयो धातवः” के भाष्य में –

      🔥बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति। तद्यथा वपिः प्रकिरणे दृष्टः, छेदने चापि वर्तते केशश्मश्रु वपतीति…..। करोतिरभूतप्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि वर्तते पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते। निक्षेपणे चापि वर्तते कटे कुरु, घटे कुरु, अश्मानमितः कुरु स्थापयेति गम्यते। [महाभाष्य अ० १।३।१]

      अर्थात्-धातु बहुत अर्थवाले भी होते हैं। जैसे वप् धातु बखेरने अर्थ में देखा जाता है। काटने के अर्थ में भी होता है। जैसे केशश्मश्रु को (वपति) काटता है, करोति अभूतप्रादुर्भाव (जो नहीं था और हो गया) अर्थ में देखा जाता है। निर्मलीकरण (धोने) अर्थ में भी होता है। जैसे पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु का अर्थ पृष्ठ को धोओ पाँवों को धोवो, यह है। ‘इतः कुरु’ का अर्थ इधर कर दो, रख दो या हटा दो, यही प्रतीत होता है इत्यादि। अकस्मात् यहाँ करोति का ही अपना अभिमत अर्थ पतञ्जलि ने दे दिया है। अब भी इसे कोई कल्पनामात्र ही समझता रहे तो परमात्मा ही उसकी बुद्धि को सुमार्ग= सीधे सरल मार्ग पर लावे। इससे अधिक और क्या कह सकते हैं। 

     ◾️(४) वर्तमान उपलब्ध आधुनिक वेदभाष्यकारों में सर्वप्रथम आचार्य स्कन्द स्वामी (जिसके हम बहुत कृतज्ञ हैं) की सम्मति देते हैं- 

      निरुक्त भा० २ पृ० ५८३ – 

      🔥क्रियासामान्यवचनत्वात् करोतिरत्र रक्षणार्थ उत्तारणार्थो वा। 

      धात्वर्थ पर हम पुनः किसी समय अवसर मिलने पर विचार करेंगे, यहाँ पर इतना ही पर्याप्त है। 

      अन्त में निरुक्त का एक स्थल और उपस्थित करते हैं –

      ◾️(५) निरुक्त ७।३ –

      🔥एवमुच्चावचैरभिप्रायैऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। 

      ऋषियों को मन्त्रों का दर्शन होता है, न कि वह मन्त्रों के बनाने वाले होते हैं, यह इस लेख से विस्पष्ट है। 

      स्कन्दस्वामी (४।१९ पृ० २४६९) ऋषि का अर्थ स्तोता करते हैं। 

      🔥च्यवन इत्येतदनवगतम्। च्यावन इत्येव न्याय्यम्। ऋषिरभिधेयः, तदाह च्यावयिता स्तोमानाम्, देवानां प्रतिगमयिता स्तोतेत्यर्थः। 

      इसी प्रकार इस विषय में अन्य भी बहुत से प्रमाण हैं, परन्तु यहाँ पर इतने ही पर्याप्त हैं । अतः यास्क वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, यह सर्वथा सिद्ध है। 

      ◼️यास्क और वेदों का नित्यत्व तथा प्रयोजनत्व – यह भी पूर्व निर्दिष्ट प्रमाण- 🔥”पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” में पुरुष की विद्या अनित्य होने से- तद्भिन्न नित्य विद्या वाले (प्रभु) की नित्य विद्या होने से नित्यत्व सिद्ध है।

      🔥“कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” इस वचन से वेद में सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्मों की सम्पत्ति (सम्पादन प्रकार) सम्पूर्णता प्रतिपादित है। इसी से वेद ज्ञान की प्रयोजनता प्रत्येक मनुष्य को स्वकल्याणार्थ अवश्य है, यह भी सुस्पष्ट है। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

ऋषिभाष्य की अध्ययनविधि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      अब हम यहाँ ऋषिभाष्य के अध्ययन विषयक कुछ विशेष निर्देश[१] कर देना भी आवश्यक समझते हैं, जिससे इस भाष्य का अध्ययन करनेवालों की बाधायें पर्याप्त दूर हो सकती हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. सामान्य निर्देश यह है कि श्री स्वामी जी महाराज अग्नि-वायु-इन्द्र आदि शब्दों से अभिधा (मुख्य) वृत्ति से ही परमेश्वर अर्थ लेते हैं, गौणीवृत्ति से नहीं। यह बात समझकर ही वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। जैसा कि हम पूर्व भी दर्शा चुके हैं।]

◼️(१) ऋषि दयानन्दकृत वेदभाष्य का अध्ययन करनेवाले अनेक सज्जनों की एक ही जैसी शङ्कायें हमारे सम्मुख समय-समय पर आती रही हैं –

      ◾️(क) बिना ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का सम्यक् अनुशीलन किये वेदभाष्य समझ में नहीं आ सकता। सर्वप्रथम इस पर अधिकार होना आवश्यक है। 

      ◾️(ख) संस्कृतपदार्थ देखने से मन्त्र का अभिप्राय कुछ भी समझ में नहीं आता। 

      ◾️(ग) संस्कृत और भाषा मेल नहीं खाती। 

      जिन महानुभावों को ऐसी शङ्का होती है, वह उनका भ्रममात्र है। मन्त्र का अभिप्राय अन्वय से ही ज्ञात हो सकता है। इसलिये मन्त्रोच्चारण के पश्चात् अर्थ समझने के लिए सब से प्रथम अन्वय को ही देखना चाहिए। तत्पश्चात् ही संस्कृतपदार्थ को देखने से ज्ञात होगा कि आचार्य ने उक्त अभिप्राय मन्त्र के किन-किन शब्दों से और कैसे-कैसे निकाला। इसका रहस्य आर्षशैली से संस्कृत पढ़े लिखे ही यथावत् रीति से अनुभव कर सकते हैं। 

      इस प्रक्रिया को न समझकर बहुत से संस्कृत पढ़े लिखे भी भूल करते देखे गये हैं। यह भी ज्ञात रहे कि भाषार्थ भाषा जाननेवालों की सुगमता को लक्ष्य में रखकर अन्वय के अनुसार ही किया गया है। “भ्रान्ति निवारण” पृ०६ में ऋषि का लेख निम्न प्रकार है –

      “भाषा में संस्कृत का अभिप्रायमात्र लिखा है। केवल शब्दार्थ ही नहीं, क्योंकि भाषा करने का तो यह तात्पर्य है कि जिन लोगों को संस्कृत का बोध नहीं, उनको बिना भाषार्थ के यथार्थ वेदज्ञान नहीं हो सकता”। 

      इस भाषार्थ को संस्कृत के पढ़े-लिखे अपनी संस्कृत के अभिमान में नही देखते, वास्तव में मन्त्र का अभिप्राय ‘अन्वय’ से याथातथ्य ज्ञात हो जाता है। भाषार्थ देखने से वह और भी स्पष्ट विदित हो जाता है, कुछ भी सन्देह नहीं रह जाता। श्री स्वामी जी महाराज के उक्त अर्थ में प्रमाण क्या हैं, तथा सब प्रक्रियाओं को लक्ष्य में रखते हुए तत्तद पद का अर्थ क्या होगा, बस इसके लिये संस्कृत पदार्थ है। ऋषिभाष्य में यह विशेष रहस्य की बात है, जिसको साधारण संस्कृत पढ़े-लिखे समझ नहीं सकते। वास्तव में संस्कृतपदार्थ ही ऋषि दयानन्द का मुख्य वेदार्थ है, अन्वय उसका एक अंश है, इसी में आचार्य की अपूर्व योग्यता और अगाध पाण्डित्य का परिचय मिलता है। 

      आशा है विज्ञ पाठक इतने से समझ लेंगे कि संस्कृतपदार्थ और भाषार्थ के मेल न मिलने की बात सर्वथा अज्ञतापूर्ण है, तथा संस्कृत में पदार्थ देखने का क्या प्रकार है, यह भी उनकी समझ में आ जायेगा। जिनको इस विषय में सन्देह हो, वे सज्जन मिलकर समझ सकते हैं। 

◼️(२) श्री स्वामीजी के संस्कृतपदार्थ में सब प्रक्रियाओं का अर्थ विद्यमान है, यह समझना चाहिये। जहाँ दो प्रकार का अन्वय है, वहाँ भी कहीं तो अन्वय सबका सब समान है, केवल अर्थभेद दिखा दिया है। जैसे यजु० १।८ पृ० ५७, ५८। कहीं-कहीं तीन प्रकार का अन्वय दिखाया है जेसे १।११ पृ० ६६, ६७। यहाँ तीनों अन्वय भिन्न हैं।

◼️(३) महर्षिकृतभाष्य में जड़पदार्थों के सम्बोधन में सर्वत्र व्यत्यय मानकर विकल्प में प्रथमान्त में अर्थ किया गया है, यह बात प्रत्येक पाठक को ध्यान में रखनी चाहिये। वर्तमान भ्रान्त संसार को जड़पदार्थों की पूजा वा उपासना से अभीष्ट कामनायों की प्राप्ति होती है, इस मिथ्याविचार को दूर करने की भावना से ऋषि दयानन्द ने जड़पदार्थों के सम्बोधन में उपर्युक्त प्रकार वर्ता है, जो वर्तमान अवस्था में तो सर्वोत्कृष्ट प्रकार ही कहा जायगा। हाँ, वेदार्थ का सच्चा ज्ञान होने पर सम्बोधन मान कर भी अर्थ किया जा सकता है। जब हम वेदमन्त्रों का मुख्य अर्थ आध्यात्मिक मानते हैं (जो वास्तव में मुख्य ही है), तो आधिभौतिक अर्थ में स्वभावतः सम्बोधन पदों को प्रथमा में ही समझने से हमें वेद में सब सत्यविद्याओं का ज्ञान उपलब्ध हो सकता है। नहीं तो जैसे विदेशी विद्वान् कहते हैं कि वेद जङ्गलियों की भौतिकपदार्थ सम्बन्धी प्रार्थना मात्र है, यही मानना पड़ेगा, चाहे इसके लिये उन्हें विग्रहवती (शरीरधारी) देवताओं की कल्पना ही करनी पड़ी, जैसा कि पिछले लगभग दो तीन सहस्र वर्ष से की जा रही है, जिन विग्रहवती देवताओं का मीमांसाशास्त्र के आचार्य कुमारिल भट्टादि ने भी स्पष्ट खण्डन किया है (देखो मीमांसा ९।१।५)। 

◼️(४) यजु० १।२ पृ० ३६ आदि में जहाँ-जहाँ “यज्ञो वै वसु” इत्यादि शतपथ तथा अन्य ब्राह्मणों के प्रमाणों में ‘व’ शब्द का प्रयोग है, वहां कोई कोई सज्जन शङ्का उठाया करते हैं कि यह ‘वै’ शब्द अर्थबोधक नहीं है। उनकी जानकारी के लिए हम यहाँ केवल एक ही स्थल उपस्थित करते हैं। लोगाक्षिगृह्यसूत्र का भाषयकार देवपाल पृ० -३२ में लिखता है ‘वैशब्दोऽवधारणार्थः’। 

◼️(५) ◾️(क) पाठकों को विदित होगा कि हमने भाषापदार्थ की सङ्गति, जो पूर्व संस्कृतसङ्गति के साथ ही थी, पाठकों की सुगमता के लिए भाषा पदार्थ से पहिले रखी है। इस विषय में यह विदित रहे कि तीन अध्याय तक की ‘क’ हस्तलेख कापी में भी भाषासङ्गति भाषा पदार्थ से पूर्व में ही है।

      ◾️(ख) भाषार्थ (पदार्थ) के स्थान में ‘पदार्थान्वय भाषा’ ऐसे बहुत से मन्त्रों में उपलब्ध होता है। अर्थात् भाषा ‘पदार्थ’ अन्वय के आधार पर है।

      ◾️(ग) संस्कृतपदार्थ में प्रत्येक व्याख्येय पद के अन्त में [।] इस प्रकार के विराम हैं। सो वे यजु० ५।३४ तक तो हैं, आगे ४०वें अध्याय के अन्त तक नहीं। हाँ, जहाँ प्रमाण पा जाता है, वहाँ तो प्रमाण के अन्त में विराम है। ऋग्वेदभाष्य के आरम्भ-आरम्भ में विराम हैं, आगे अन्त तक प्रमाणमात्र में हैं। भाषापदार्थ में भी यजु० ५।३५ से आगे विराम नहीं हैं। पाठकों को इसका ध्यान रहे। 

     ◾️(घ) द्वितीय अध्याय ६वें मन्त्र से लेकर २०वें मन्त्र तक आचार्य प्रदर्शित मन्त्र की सङ्गति विशेष देखने योग्य है।

◼️(६) वेदमन्त्रों में एक ही मन्त्र के अनेक अर्थ होने में यह हेतु है कि यह सृष्टि जीव के ज्ञान की अपेक्षा अनन्त है। कोई भी एक जीव इसका पारावार नहीं पा सकता, क्योंकि यह उसकी शक्ति से बाहिर है। इस अनन्त सृष्टि में अनन्त पदार्थ हैं, उनमें से यदि एक-एक का वर्णन होने लगे तो एक-एक ग्रन्थ बन जावे। केवल अग्नि, वायु, जल, मिट्टी, तुलसी की पत्ती वा आक (मदार) का ही वर्णन करने लगें तो एक-एक पृथक ग्रन्थ की रचना करनी पड़े। परमात्मा ने जीवों को ऐसा ज्ञान दिया कि एक ही मन्त्र में जिस ऋषि को जिस विषय की प्रौढ़ता प्राप्त थी, उस उस ने उस-उस विषय का ज्ञान उस-उस मन्त्र से उपलब्ध किया। इन्हीं से वेदाङ्ग तथा उपाङ्गों की रचना पृथक्-पृथक् हुई। 

      इस प्रकार ही ज्ञान देने से विश्वभूमण्डल का ज्ञान जीवों को दिया जा सकता था। यह बात तभी हो सकती है, जब एक-एक शब्द के अनेक अर्थ हों। अन्यथा “सर्वज्ञानमयो हि सः” मनु के इस वचनानुसार सम्पूर्ण विद्यानों का समावेश वेद में हो ही कैसे सकता है। सब व्यवहार तथा सर्वविध ज्ञान का भण्डार तो वेद ही है। वेद का स्वाध्याय करने वालों को यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए। 

◼️(७) वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधियज्ञपरक होता है, यह हम पृ० ४८-५० तथा ६७, ६८ पर सविस्तर निरूपण कर चुके हैं। याज्ञिक अर्थ मुख्य अर्थ नहीं, यह भी कह चुके हैं। यहाँ इतनी बात ध्यान में रखने योग्य है कि महर्षि दयानन्द ने “यज्ञ” शब्द से देवपूजा, संगतिकरण और दान इन तीनों अर्थों के आधार पर अति विस्तृत अर्थ लिये हैं। संसार के समस्त शुभकार्य “यज्ञ” शब्द के अन्तर्गत आ जाते हैं। इस भाष्य का स्वाध्याय करते हुये यह बात ध्यान में रखनी अनिवार्य है, तभी इस भाष्य का स्वरूप समझ में आ सकता 

◼️(८) भविष्य में वेदार्थगवेषण का कार्य बहुत ही योग्यता और गम्भीरता से होने की आवश्यकता है। इसके लिए विपुल सामग्री और प्रौढ़ पाण्डित्य चाहिये, तथा अनेक श्रद्धापूर्ण विद्वानों द्वारा निरन्तर परिश्रम से ही यह कार्य हो सकता है। भावी वेदार्थ की खोज में ऋषि का भाष्य प्रकाश का काम देगा, यह हमें पूर्ण विश्वास है। हमारा यह विवरण[२] इस ओर एक छोटा सा यत्न है। विज्ञ पाठक महानुभाव हमारे इस विवरण[२] को इसी दृष्टि से देखने का कष्ट करें, तभी इसकी उपयोगिता का ज्ञान हो सकता है। 

[📎पाद टिप्पणी २. यजुर्वेदभाष्य-विवरण की भूमिका]

      आशा है पाठक ऋषि भाष्य का अध्ययन करते समय हमारे इन निर्देशों पर अवश्य ध्यान देंगे और उनसे अवश्य लाभ उठावेंगे। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

सर्गारम्भ में वेद का अर्थ । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु

      यह पूर्व कहा जा चुका है कि शब्द बिना अर्थ के नहीं रह सकता, और भाषा बिना ज्ञान के, ऐसी दशा में आदिज्ञान के साथ ही अर्थ[१] का प्रकाश भी उन आदि ऋषियों के हृदयों में हुआ। उनसे ही आगे भाषा का व्यवहार चला, और उन्हीं से अर्थ का ज्ञान आगे सबको हुआ। व्यवहार की भाषा वेद से ही चली, अर्थात् लौकिक भाषा का निर्माण वेद में वर्णित नियमों के आधार पर ही हुआ और वह वेद की भाषा से भिन्न थी। इतना तो ठीक है कि वेद से निकली होने के कारण देववाणी (संस्कृत) में वेद से लिये शब्दों का बाहुल्य रहा। यह भी कहा जा सकता है कि वेद के कुछ शब्दों को छोड़ कर लोक में उन्हीं शब्दों का व्यवहार हुआ, जो वेद में थे, अतः वेद के आधार पर निर्मित भाषा में जो शब्द मनुष्यों द्वारा बोले गये, वे लौकिक हैं और वेद में प्रयुक्त आनुपूर्वी से युक्त शब्द जो कभी किसी जाति विशेष के मनुष्यों द्वारा बोले नहीं गये, वे वैदिक हैं। इन लौकिक-वैदिक शब्दों का वर्णन महामुनि पतञ्जलि निम्न प्रकार करते हैं –

      🔥”केषां शब्दानां ? लौकिकानां वैदिकानां च। तत्र लौकिकास्तावद्गौरश्वः पुरुषो हस्ती शकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति। वैदिकाः खल्वपि-शं नो देवीरभिष्टये। इषे त्वोर्जे त्वा। अग्निमीळे पुरोहितम्। अग्न आयाहि वीतये॥” (महाभाष्यारम्भे)। 

      यहाँ वैदिक शब्दों में एक भी शब्द ऐसा नहीं, जो लोक में न बोला जाता हो। उधर ‘अश्वो ब्राह्मणः’ आदि सभी शब्द वेद में आते हैं। तब स्वभावतः प्रश्न उठता है कि फिर लौकिक और वैदिक शब्दों में भेद क्या हुआ? इसका उत्तर यह है कि वेद की आनुपूर्वी (क्रम) नित्य होती है। 🔥”अग्निमीळे पुरोहितम्” ऐसा ही पाठ रहेगा, 🔥”पुरोहितमग्निमीळे” इत्यादि नहीं हो सकता, अर्थात् वेद में ये शब्द आगे-पीछे कभी नहीं हो सकते। लौकिक शब्दों में यह बात नहीं। मीमांसकों ने 🔥“य एव लौकिकास्त एव वैदिकाः” ऐसा सिद्धान्त निश्चय किया है, उसका अभिप्राय यही है कि सामान्यतया जो शब्द वेद में आये हैं, वही लोक में आते हैं। दूसरे शब्दों में वेदवाणी की पुत्री देववाणी का व्यवहार वेद के शब्दों को लेकर हुआ। यह बात ध्यान में रखने की है कि वेद में कुछ विशेष शब्द आते हैं, जो लोक में नहीं आते। यह ज्ञान सृष्टि के आदि में ही सब ऋषि-मुनियों को था, उन्हीं के द्वारा आगे भी सबको हुआ। 

[📎पाद टिप्पणी १. (ऋ॰ १०।७१।१) में “नामधेय दधानाः” से यह बात अवभासित होती है। ‘अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्’ से यह अवभासित होता है कि वाणी (वैदिक वा लौकिक) ऋषियों द्वारा सबको बताई गई, पढ़ाई गई वा निर्धारित हुई।]

      लौकिक-वैदिक शब्दों के विषय में अर्थ के सामान्य, विशेष नियमों का ज्ञान आरम्भ में ही हुआ होगा। आगे अध्ययन-अध्यापन का व्यवहार कैसे चला होगा, इसमें सामान्य व्यवस्था तो वही हो सकती है, जो अब है अर्थात् बिना सिखाये कोई सीख नहीं सकता, किसी न किसी के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान और आगे लौकिक शब्दों के अर्थ-सम्बन्ध का ज्ञान भी होना ही चाहिये। अध्यापन की प्रक्रिया में उस समय कोई भेद रहा हो, ऐसा तो समझ में नहीं पाता। इतना भेद अवश्य रहा होगा कि अतः उस समय भाषा देववाणी थी, अतः उन्हें वेद का अर्थ समझने में अतीव सुगमता थी। आरम्भ में वेदार्थ ज्ञान की क्या शैली थी, इस विषय में निरुक्तकार केवल इतना सङ्कत करते हैं – 

      🔥”साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवः। तेऽवरेभ्योऽसाक्षावकृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् सम्प्रादुः”॥ [निरु॰१।२०] 

      अर्थात्- साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने, जिनको ज्ञान नहीं था, उनको उपदेश के द्वारा वेदार्थ का ज्ञान कराया। 

      🔥’अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥ [ऋ॰ १।१।१] 

      🔥’विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद् भद्रं तन्न आ सुव’॥ [यजु॰ ३०।३] 

      इनमें तथा इसी प्रकार वेद के अन्य मन्त्रों में अर्थ का ज्ञान तत्काल ही हो जाता रहा होगा। इस समय भी इनके अर्थ समझने में कोई विशेष कठिनाई नहीं, न ही लौकिक शब्दों से कोई विशेष भेद है, सिवाय इसके कि ‘अग्नि’ आदि शब्दों का अर्थ वेद में केवल इतना ही नहीं होता, जितना कि लोक में। मन्त्र उच्चारण करने के साथ ही उसका अर्थ हृदयङ्गम हो जाता होगा, जैसा कि इस समय भी हो रहा है। भेद केवल इतना ही कहा जा सकता है कि उस समय वैदिक शब्दों के व्यापक अर्थों का ज्ञान प्रायः करके सबको था, क्योंकि आरम्भ में वह ऋषियों के द्वारा सबको मिला था। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥