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मूर्तिपूजा किसने और क्यों चलाई ? 🤔 [ देवीभागवत पुराण कहिन ]

🔥प्राप्ते कलावहह दुष्टतरे च काले न त्वां भजन्ति मनुजा ननु वञ्चितास्ते। 

धूर्तैः पुराणचतुरैहरिशंकराणां सेवापराश्च विहितास्तव निर्मितानाम्॥ [देवीभागवत ५।१९।१२] 

अर्थ – इस घोर कलयुग में पुराणों के बनानेवाले, धूर्त, चतुर लोगों ने शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि की पूजा अपने पेट भरने के लिए चलाई है। 

लीजिए, इस बात का भी निर्णय कर दिया कि इन देवताओं की पूजा क्यों चलाई है।

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

🔥 वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े 🔥

🌻 वेदों की ओर लौटें 🌻

॥ओ३म्॥

कविता – ‘वीर वैरागी’ (बलिदान दिवस विशेष) ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

डर डर कर थे भीरु सरकते, कहीं गुप्तचर-चाल न हो।
स्वांग भूख का भरा शत्रु ने, कण के मिष मृति-जाल न हो।
लो ! धर दी तलवार धीर ने, हंसता काल कराल न हो।
प्यारा लगता प्राण-पखेरू, मुक्त मृत्यु का माल न हो॥

कोई यम को मार ले, भवसागर को फाँद जाय।
कौन मनचला वीर जो, वैरागी को बाँध जाय॥

आईं इन नयनों के आगे लीलाएं अद्भुत नाना।
एक खेल था चतुर खिलाड़ी का पिंजरे में बँध जाना॥
जिन आंखों ने पीठ देख अब तक वैरी को पहिचाना।
बैरि-बदन हंसता सम्मुख हो यह कौतुक अचरज माना॥

दर्शन को वर-वीर के लालायित दिल्ली हुई।
आरति कौतूहल भर निश्चल नयनों की हुई॥

धोखा था भोले भूपति को सुत रखते हैं वैरागी।
मस्त मोह-माया में रहते हैं मानो सर्वस-त्यागी।
गोदी में बालक बैठाया दया क्रूर मन से भागी।
अंग-अंग को काट रहे, नहिं जनक-हृदय ममता जागी॥

विजय क्षेत्र में सिंह सम जो हरते पर प्राण थे।
आज भेड़ बन चुप खड़े, क्या प्रमाण ? थे या न थे॥

कमरें बाँधे खड़े सूरमा देख रहे दलपति की ओर।
अभी शंख बजता है देखें पड़े शत्रु-पुर के किस छोर।
भीरु भगौड़े खेत रहेंगे घर घर घोर मचेगा शोर।
अगुआ आगे शत्रु सामने, थामे कौन जिगर का जोर॥

बन्दे ! आंखें मोड़ लीं, सचमुच वैरागी रहा।
सुभट सूर संग्राम का, चाप तोड़ त्यागी रहा॥

निज सुत मरने का मानो तुझ को रत्ती भर शोक न था।
अंग-अंग कटता जाता है तेरा तुझे नहीं परवा।
चेला बना वीरता-युग में किस निष्क्रिय प्रतिरोधी का।
इतने वीर मरे जाते हैं, मर कर कौन हुआ जेता॥

उठ उठ दल बल चुस्त कर, आत्मशक्ति तो लो दिखा।
हम हों लाख कृतघ्न तू था पुतला उपराम का॥

सेना ने तुझ को छोड़ा है तू सेना का साथ न छोड़।
शिष्यों ने तुझ से मुख मोड़ा, तू न शिष्य-दल से मुख-मोड़॥
मेल शान्ति से निष्क्रियता का क्या? क्या दया दैन्य का जोड़?
समझा समाधि-सुख सपनों को, भंग- भक्त के कान मरोड़॥

मूर्त योग ! वैराग्य-घन ! हम को वैरागी बना।
भक्तराज ! संन्यास-धन ! यह संन्यास हमें सिखा॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰
📖 पुस्तक -विचार वाटिका (भाग -२) [साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

[पण्डित जी की यह रचना मासिक ‘आर्य’ लाहौर के जून सन् १९२६ के अंक में पृष्ठ १४-१५ पर प्रकाशित हुई थी। तब पण्डित जी ही इस पत्र के सम्पादक थे । हर दृष्टि से पत्र का स्तर बहुत ऊंचा था।- जिज्ञासु]

॥ओ३म्॥

🔥 छत्रपति शिवाजी महाराज का पत्र आमेर नरेश राजा जयसिंह के नाम

[६ जून विशेष – आज ही के दिन यानी 6 जून, 1674 को छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। इसी दिन शिवाजी ने महाराष्ट्र में हिंदू राज्य की स्थापना की थी ।]

      ऐ सरदारों के सरदार, राजाओं के राजा, (तथा) भारतोद्यान की क्यारियों के व्यवस्थापक! ऐ रामचन्द्र के चैतन्य हृदयांश, तुझसे राजपूतों की ग्रीवा उन्नत है। तुझसे बाबर वंश की राज्यलक्ष्मी अधिक प्रबल हो रही है, (तथा) शुभ भाग्य, से तुझ से सहायता (मिलती) है। ऐ जवान (प्रबल) भाग्य (तथा) वृद्ध (प्रौढ़) बुद्धि वाले जयशाह ! सेवा (शिवा) का प्रणाम तथा आशीष स्वीकार कर। जगत का जनक तेरा रक्षक हो, (तथा) तुझको धर्म एवं न्याय का मार्ग दिखाये। 

      मैंने सुना है कि तू मुझ पर आक्रमण करने (एवं) दक्षिण – प्रान्त को विजय करने आया है। हिन्दुओं के हृदय तथा ऑखों के रक्त से तू संसार में लाल मुंह वाला (यशस्वी) हुआ चाहता है। पर तू यह नहीं जानता कि यह (तेरे मुँह पर) कालिख लग रही है क्योंकि इससे देश तथा धर्म को आपत्ति हो रही है यदि तू क्षणमात्र गिरेबान में सिर डाले (विचार करे) और यदि तू अपने हाथ और दामन पर (विवेक) दृष्टि करे तो तू देखेगा कि यह रंग किसके खून का है और इस रंग का (वास्तविक) रंग दोनों लोक में क्या है (लाल या काला)। यदि तू अपनी ओर से स्वयं दक्षिण – विजय करने आता (तो) मेरे सिर और आँख तेरे रास्ते के बिछौने बन जाते। मैं तेरे हमरकाब (घोड़े के साथ) बड़ी सेना लेकर चलता (और) एक सिरे से दूसरे सिरे तक (भूमि) तुझे सौंप देता (विजयी कर देता) पर तू तो औरंगजेब की ओर से (उस) भद्रजनों के धोखा देने वाले के बहकावे में पड़ कर आया है। अब मैं नहीं जानता कि तेरे साथ कौन खेल खेलूं। (अब) यदि मैं तुझ से मिल जाँऊ तो यह पुरुषत्व नहीं है, क्योंकि पुरुष लोग समय की सेवा नहीं करते, सिंह लोमड़ीपना नहीं करते। और यदि मैं तलवार तथा कुठार से काम लेता हूं तो दोनों ओर हिन्दुओं को ही हानि पहुंचती है। 

      बड़ा खेद तो यह है कि मुसलमानों का खून पीने के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य के निमित्त मेरी तलवार को म्यान से निकलना पड़े। यदि इस लड़ाई के लिये तुर्क आये होते तो (हम) शेर – मद के निमित्त (घर बैठे) शिकार आये होते। पर वह न्याय तथा धर्म से वंचित पापी जोकि मनुष्य के रूप में राक्षस है, जब अफजलखां से कोई श्रेष्ठता न प्रगट हुई, (और) न शाइस्ताखां की कोई योग्यता देखी तो तुझको हमारे युद्ध के निमित्त नियत करता है। क्योंकि वह स्वयं तो हमारे आक्रमण को सहने की योग्यता रखता नहीं। वह चाहता है कि हिन्दुओं के दल में कोई बलशाली संसार में न रह जाए, सिंहगण आपस में ही (लड़ भिड़ कर) घायल तथा शांत हो जाएं जिससे कि गीदड़ जंगल के सिंह बन बैठे। यह गुप्तभेद तेरे सिर में क्यों नहीं बैठता ! 

      प्रतीत होता है कि उसका जादू तुझे बहकाये रहता है। तूने संसार में बहुत भला बुरा देखा है। उद्यान से तूने फूल और कांटे दोनों ही संचित किये हैं। यह नहीं चाहिये कि त हम लोगों से युद्ध करे (और) हिन्दुओं के सिरों को धूल में मिलावे। ऐसी परिपक्व कर्मण्यता (प्राप्त होने) पर भी जवानी (यौवनोचित कार्य ) मत कर। प्रत्युत सादी के इस कथन को स्मरण कर “सब स्थानों पर घोड़ा नहीं दौड़ाया जाता। कहीं – कहीं ढाल भी फेंक कर भागना उचित होता है।” व्याघ्र मृग आदि पर व्याघ्रता करते हैं सिंहों के साथ गृह – युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते। यदि तेरी काटने वाली तलवार में पानी है, यदि तेरे कूदने वाले घोड़े में दम है तो तुझ को चाहिये कि धर्म के शत्रु पर आक्रमण करे (एवं) इस्लाम की जड़ – मूल खोद डाले। अगर देश का राजा दाराशिकोह होता तो हम लोगों के साथ भी कृपा तथा अनुग्रह के बर्ताव होते। पर तूने जसवन्तसिंह को धोखा दिया (तथा) हृदय में ऊंचनीच नहीं सोचा। तू लोमड़ी का खेल खेलकर अभी अघाया नहीं है, (और) सिंहों से युद्ध के निमित्त ढिठाई करके आया है। तुझको इस दौड़ धूप से क्या मिलता है, तेरी तृष्णा मुझे मृगतृष्णा दिखलाती है। तू उस तुच्छ व्यक्ति के सदृश है जो कि बहुत श्रम करता है और किसी सुन्दरी को अपने हाथ में लाता है, पर उसकी सौंदर्य – वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता, प्रत्युत उसको प्रतिद्वन्दियों के हाथ में सौंप देता है। 

      तू उस नीच की कृपा पर क्या अभिमान करता है? तू जुझारसिंह के काम का परिणाम जानता है। तू जानता है कि कमार छत्रसाल पर वह किस प्रकार से आपत्ति पहुचाना चाहता था। तू जानता है कि दूसरे हिन्दुओं पर भी उस दुष्ट के हाथ से क्या – क्या विपत्तियां नहीं आई। मैंने माना कि तूने उससे सम्बन्ध जोड़ लिया है और कुल की मर्यादा उसके सिर तोड़ी है (पर) उस राक्षस के निमित्त इस बन्धन का जाल क्या वस्तु है क्योंकि वह बन्धन तो इजारबन्द से अधिक दृढ़ नहीं है। वह तो अपने इष्ट साधन के लिए भाई के रक्त (तथा) बाप के प्राणों से भी नहीं डरता। यदि तू राजभक्ति की दुहाई दे तो तू यह तो स्मरण कर कि तूने शाहजहां के साथ क्या बर्ताव किया। यदि तुझको विधाता के यहां से बुद्धि का कुछ भाग मिला है, (और) तू पौरुष तथा पुरुषत्व की बड़ाई मारता है तो तू अपनी जन्म – भूमि के संताप से तलवार को तपा (तथा) अत्याचार से दुखियों के आंसू से (उस पर) पानी दे। यह अवसर हम लोगों के आपस में लड़ने का नहीं है क्योंकि हिन्दुओं पर (इस समय) बड़ा कठिन कार्य पड़ा है। हमारे लड़के बाले, देश, धन, देव – देवालय तथा पवित्र देवपूजक इन सब पर उसके काम से आपत्ति पड़ रही है, (तथा) उनका दु:ख सीमा तक पहुंच गया है। यदि कुछ दिन उसका काम ऐसा ही चलता रहा (तो) हम लोगों का कोई चिन्ह (भी) पृथ्वी पर न रह जायेगा। 

      बड़े आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर मुसलमान हमारे (इतने) बड़े इस देश पर प्रभुता जमावें। यह प्रबलता (कुछ) पुरुषार्थ के कारण नहीं है। यदि तुझको समझ की आंख हैं तो देख (कि) वह हमारे साथ कैसी धोखे की चालें चलता है, और अपने मुँह पर कैसा – कैसा रंग रंगता है। हमारे पाँवों को हमारी ही सांकलों से जकड़ता है (तथा) हमारे सिरों को हमारी ही तलवारों से काटता है। हम लोगों को (इस समय) हिन्दू, हिन्दुस्थान तथा हिन्दू-धर्म (की रक्षा) के निमित्त अत्यधिक प्रयत्न करना चाहिये। हमको चाहिये कि हम यत्न करें और कोई राय स्थिर करें (तथा) अपने देश के लिये खूब हाथ पाँव मारें। तलवार पर और तदबीर पर पानी दें (अर्थात् उन्हें चमकावें) और तुकों का जवाब तुर्की में (जैसे को तैसा) दें। यदि तू जसवन्तसिंह से मिल जाय और हृदय से उस कपट कलेवर के खंड पड़ जाए (तथा) राणा से भी तू एकता का व्यवहार कर ले तो आशा है कि बड़ा काम निकल जाये। चारों तरफ से धावा करके तुम लोग युद्ध करो। उस सांप के सिर को पत्थर के नीचे दबा लो (कुचल डालो) कि कुछ दिनों तक वह अपने ही परिणाम की सोच में पड़ा रहे (और) दक्षिण – प्रांत की ओर अपना जाल न फैलावे (और) मैं इस ओर भाला चलाने वाले वीरों के साथ इन दोनों बादशाहों का भेजा निकाल डालूं। मेघों की भांति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊं। दक्षिण देश के पटल पर से एक सिरे से दूसरे तक इस्लाम का नाम तथा चिन्ह धो डालूं। इसके पश्चात् कार्यदक्ष शूरों तथा भाला चलाने वाले वीरों के साथ लहरें लेती हुई तथा कोलाहल मचाती हुई नदी की भांति दक्षिण के पहाड़ों से निकल कर मैदान में आऊं और अत्यन्त शीघ्र तुम लोगों की सेवा में उपस्थित होऊं और फिर तुम लोगों को हिसाब पूछू, फिर हम लोग चारों ओर से घोर युद्ध उपस्थित कर और लड़ाई का मैदान उसके निमित्त संकीर्ण कर दें। हम लोग अपनी सेनाओं की तरंगों को दिल्ली में उस जर्जरीभूत घर में पहुंचा दें। उसके नाम में न तो औरंग (राजसिंहासन) और न जेब (शोभा) न उसकी अत्याचारी तलवार (रह जाय) और न कपट का जाल। हम लोग शुद्ध रक्त से भरी हुई एक नदी बहा दें (और उससे) अपने पितरों की आत्माओं का तर्पण करें। न्यायपरायण प्राणों के उत्पन्न करने वाले (ईश्वर) की सहायता से हम लोग उसका स्थान पृथ्वी के नीचे (कब्र में) बना दें। यह काम (कुछ) बहुत कठिन नहीं है। (केवल यथोचित) हृदय, हाथ तथा आंख की आवश्यकता है। दो हृदय (यदि) एक हो जायें तो पहाड़ को तोड़ सकते हैं। (तथा) समूह के समूह को तितर बितर कर सकते हैं। इस विषय में मुझको तुझ से बहुत कुछ कहना (सुनना) है, जिसको पत्र में लाना (लिखना) (युक्ति) सम्मत नहीं है। मैं चाहता हूं कि हम लोग परस्पर बातचीत कर लें जिससे कि व्यर्थ में दु:ख और श्रम ना मिले। यदि तू चाहे तो मैं तुझ से साक्षात् बातचीत करने आऊं (और) तेरी बातों को श्रवण गोचर करूं। हम लोग बातरूपी सुन्दरी का मुख एकान्त में खोलें (और) मैं उसके बालों के उलझन पर कंघी फेरूं। यत्न के दामन पर हाथ धर उस उन्मत्त राक्षस पर कोई मन्त्र चलावें। अपने कार्य की सिद्धि (की) ओर कोई रास्ता निकालें (और) दोनों, लोकों (इहलोक और परलोक) में अपना नाम ऊंचा करें। 

      तलवार की शपथ, घोड़े की शपथ, देश की शपथ, तथा धर्म की शपथ करता हूं कि इससे तुझ पर कदापि (कोई) आपत्ति नहीं आयेगी। अफजलखां के परिणाम से तू शंकित मत हो क्योंकि उसमें सच्चाई नहीं थी। बारह सौ बड़े लड़ाके डबशी सवार वह मेरे लिये घात में लगाये हुए था। यदि मैं पहिले ही उस पर हाथ न फेरता तो इस समय यह पत्र तुझको कौन लिखता? (पर) मुझको तुझसे ऐसे काम की आशा नहीं है (क्योंकि) तुझको भी स्वयं मुझसे कोई शत्रुता नहीं है। यदि मैं तेरा उत्तर यथेष्ट पाऊं तो तेरे समक्ष रात्रि को अकेले आऊं। मैं तुझको वे गुप्त पत्र दिखाऊं जोकि मैंने शाइस्ताखां की जेब से निकाल लिये थे। तेरी आंखों पर मैं संशय का जल छिड़ककूं (और) तेरी सुख निद्रा को दूर करूं। तेरे स्वप्न का सच्चा – सच्चा फलादेश करूं (और) उसके पश्चात् तेरा जवाब लूं। यदि यह पत्र तेरे मन के अनुकूल न पड़े तो (फिर) मैं हूं और मेरी काटने वाली तलवार तथा तेरी सेना। कल, जिस समय सूर्य अपना मुंह सन्ध्या में छिपा लेगा उस समय मेरा अर्द्धचन्द्र (खड्ग) म्यान को फेंक देगा (म्यान से निकल आवेगा) बस तेरा भला हो।  ✍🏻 शिवाजी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क्या आँखें खुल गईं ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

[भारत-चीन युद्ध के समय देश की परिस्थितियों का वर्णन करता एक लेख]

      पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में घोषणा की कि “चीन ने हमारी आँखें खोल दीं।” ऐसे भावगर्भ वाक्य महान पुरुषों के मुख से कभी-कभी अचानक निकला करते हैं। सारे राष्ट्र का अपमान हुआ, हजारों जवान बलिदान हुए, करोड़ों का सामान नष्ट हुआ, पर आपकी आँखें खुल गईं।

      कुर्बान जाइए इस अदा पर, किसी की जान गई आपकी अदा ठहरी। यहाँ तो किसी की नहीं हजारों की जान गई। पर साथ ही हम यह नहीं भूल सकते कि आप हजार झुंझलाइये, पर इस अदा में एक शान, एक भोलापन जरूर है। आखिर जहाँ इस भूल की भयंकरता को नहीं भुलाया जा सकता, वहाँ अपनी भूल को इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करने में जो शानदार सादापन है। उसे भी किसी प्रकार किसी कीमत पर नहीं भुलाया जा सकता ? परन्तु प्रश्न तो कुछ और है ? न तो भूल पर झुंझलाने से हमारी समस्या का समाधान होगा न सादगी के गीत गाने से। 

      प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी आँखें सचमुच खुल गईं? जहाँ चारों ओर से देश के तन-मन-धन न्यौछावर करने के समाचार आ रहे हैं, वहाँ यह समाचार भी आ रहे हैं, फिर डाक्टर लोग सेना में भरती होने वालों से रिश्वत मांग रहे हैं, व्यापारी लोग जो इस विषय में सबसे बदनाम थे वह वस्तुओं के मूल्य न बढ़ाकर त्याग की तथा देशभक्ति की भावना का परिचय दे रहे हैं पर यह डाक्टर यह निर्लज्जता के अवतार डाक्टर जो देशभक्त नौजवानों से उनके जीवनदान की कीमत वसूल कर रहे हैं, इनका क्या नाम रखियेगा। यह लोग अनपढ़ तो नहीं, सुशिक्षित हैं। शिक्षित नहीं सुशिक्षित हैं। इन्हें यह कुशिक्षा कहाँ से मिली, धर्म के नाम पर मनुष्य डरता था, आज सम्प्रदाय निरपेक्ष शिक्षा की आड़ में जो चरित्र निरपेक्ष शिक्षा मिल रही है उसीके यह दुष्परिणाम हैं : भर्तृहरि ने कहा है :- आहार निद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः। 

      आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चार वस्तु तो मनुष्य तथा पशु दोनों में एक समान है। विशेषता है तो धर्म की, धर्म जो मैथुन में भी मर्यादा बांधता है। मैथुन मानव राष्ट्र के कल्याण के लिये होना चाहिये। मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होना चाहिये। यह धर्म आज धक्के दे दे कर बाहर निकाला जा रहा है। 

      साथ ही राजा का धर्म है दण्ड देना और आवश्यकतानुसार कठोर से कठोर दण्ड देना। परन्तु यहां तो दण्ड के स्थान में धमकियाँ दी जा रही है। रोज कोई न कोई मंत्री कालणा चेतावनी दे छोड़ते हैं। इस संकट के समय बेईमानी करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी। जनता प्रतीक्षा में बैठी है कब! पर वह कड़ी कार्रवाई केवल चेतावनी तक परिमित है तभी तो ऐसे डाक्टर मौजूद हैं जो सेना में भरती होने वालों से भी रिश्वत मांगते हैं। इस अवस्था में कैसे मान लें कि हमारी आँखें खुल गई।

      हमारी आँखें खुल गई यह उस दिन माना जायेगा जिस दिन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण की शिक्षा को उचित स्थान अर्थात् मुख्य स्थान प्राप्त होगा और साथ ही संकटकाल में अपने अधिकार का दुरुपयोग करने वालों को केवल चेतावनी नहीं सचमुच दण्ड दिया जाएगा पर चलो आँखें खुली नहीं तो खुलनी आरम्भ तो हो गई हैं। किसी दिन खुल भी जाएंगी। आर्यसमाज के एक एक बच्चे का धर्म हैं कि इस नेत्रोयोद्घाटन महायज्ञ में पूरे बल से सहयोग दें और जहां कहीं जिस कोने में कोई दुष्ट अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है , उसका प्रजा में भी भाण्डा फोड़ करें तथा अधिकारियों को ठीक-ठीक सूचना भी पहुँचाते रहें। यही ठीक आँखें खोलने का मार्ग है। परम पिता सचमुच हमारी आँखें खोल दें। [आर्य संसार १९६३ से संकलित]

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पूर्व : पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार) 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

      भारत में फूट के लिए सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था, यद्यपि यह भी एक गोरखधन्धा है कि एकता के लिए भी सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था। 

      हमारी फूट के कारण विदेशी शासन हम पर आ धमका। देश के जागरूक नेताओं की बुद्धिमत्ता से एकता की आग प्रज्ज्वलित हुई। विदेशी शासक आग में ईधन, विदेशी अत्याचार घी का काम देते रहे। अन्त में विदेशी शासकों को भस्म होने से पूर्व ही भागना पड़ा। परन्तु अब विदेशी फूट डालने वालों का स्थान स्वदेशी स्वार्थियों ने ले लिया। 

      हिन्दी के परम समर्थक तथा कम्युनिस्टों के परम शत्रु राज गोपालाचारी, अंग्रेजी के गिरते हुए दासतामय भवन के सबसे बड़े स्तम्भ बन गये। 

      जो प्रोफेसर अंग्रेजी इतिहासकारों के आसनों पर आसीन हुये वही ‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ शब्दों के अनर्गल अर्थों के प्रयोग को भारत की छोटी से छोटी पाठशाला तक पहुंचाने में सबसे बड़े सहायक बन गये। 

      मैं दोनों भुजा उठाकर इस अनर्थ के विरुद्ध शंखनाद करना चाहता हूँ। मेरा कहना है कि सारे संस्कृत साहित्य में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं जिससे आर्य नाम की नस्ल (Race) का अर्थ निकलता हों। इस शब्द का सम्बन्ध ▪️(१) या तो चरित्र से है ▪️(२) या भाषा से ▪️(३) या उस भाषा को बोलने वाले लोगों से ▪️(४) या उस देश से जहाँ इस प्रकार के चरित्र और भाषा वाले मनुष्य बसते हैं इसलिए किसी गोरे रंग वाली अथवा लम्बी नाक वाली जाति से इस शब्द का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार द्रविड़ शब्द ब्राह्मणों के दश कुलों में से पांच कुलों में होता है जिनमें शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।

      अथवा मनुस्मृति के उपलभ्यमान संस्करण के अनुसार द्रविड उन क्षत्रिय जातियों में से एक है जो 🔥‘आचारस्य वर्जनात् अथवा ब्राह्मणनामदर्शनात् वृषलत्स्वम् गताः।’  क्षत्रियोचित आचार छोड़ देने तथा ब्राह्मणों के साथ सम्पर्क नष्ट हो जाने के कारण शूद्र कहलाये। किन्तु काले रंग तथा चिपटी नाक का द्रविड़ शब्द से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं । 

◼️आर्य और द्रविड़ शब्द पश्चिम की दृष्टि में –

      मैकडानल की वैदिक रीडर में जो कि आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है लिखा है :- 

      “The historical data of the hymuns show that the Indo-Aryans were still engaged in war with the aborigines, many victories over these forces being mentioned. that they were still moving forward as conquerors is indicated by references to reverse as obstacles to advances to.”

      “They were conscious of religious and racial unity, contrasting the aborigines with themselves by calling them non-sacrificers, and unbelievers as well as black skin’s and the Das’s colour’ as opposed to the Aryan colours.

      ‘ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री यह दिखाती है कि इण्डो-आर्यन् लोग सिन्धु पार करके फिर भी भारत के आदिवासियों के साथ युद्ध में लगे हुये थे इन शत्रुओं पर उनकी कई विजयों का ऋग्वेद में वर्णन है अभी भी विजेता के दल आगे बढ़ रहे थे। यह इस बात से सूचित होता है कि वे कई स्थानों पर नदियों का अपने अभि प्रयाण के मार्ग में बाधा के रूप में वर्णन करते हैं।’

      “उन्हें यह अनुभव था कि उनमें जातिगत तथा धार्मिक एकता है। वे आदिवासियों को अपनी तुलना में यज्ञ हीन, विश्वास हीन, काली चमड़ी वाले, दास रंग वाले तथा अपने आपको आर्य रंग वाले कहते है” 

      यह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे। 

      प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है। 

      हाँ, ‘दास वर्णम्’ ‘आर्य वर्णम्’ यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्’ इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्’ यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे। 

      यदि इनके युद्ध का वर्णन है, तो वह युद्ध क्या एक ही देश के रहने वाले दो दलों में नहीं हो सकता, इन दोनों में से एक दल बाहर से आया था और दूसरा आदिवासी दल था इस कल्पना का एक ही और केवल मात्र एक उद्देश्य था, भारत में पग-पग पर फूट फैलाने वाले तथा भारत के एकता के परम शत्रु अंग्रेजी शासकों की तथा वैदिक धर्म द्रोही पादरियों की दुष्टता है। 

      अब अंग्रेज चले गए। क्या अब भी हमारे देशवासियों की आंखें खुलेंगी। 

◼️आर्य और द्रविड़ का असली अर्थ –

      अब जरा आर्यवर्ण तथा दासवर्ण इन शब्दों की परीक्षा करलें। 

      वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रसंग में है ही नहीं। धातु-पाठ में रंग-वांची वर्ण वाची शब्द के लिए वर्ण धातु पृथक ही दी गई है परन्तु निरुक्तकार ने इस वर्ण शब्द की व्यत्युत्ति वृ धातु से बताई है। वर्णो वृणोतेः (निरुक्त)। 

      ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य यह तीन आर्य वर्ण हैं, क्योंकि सत्यद्वारा असत्य नाश, बल द्वारा अन्याय का नाश धन द्वारा दारिद्रय का नाश यह तीन व्रत हैं।

      इनमें से जो एक व्रत का वरण अर्थात् चुनाव कर लेता है उसके ‘वर्णिक’ को जीवन अपने वर्ण की मर्यादानुसार अत्यन्त कठोर नाप तोल में बंध जाता है इसलिये वह व्रत आर्य वर्ण कहलाता है।

      जो अपने आप को सब प्रकार की शक्तियों से क्षीण पाता है। परन्तु स्वेच्छा पूर्वक ईर्षा-रहित होकर लोक कल्याणार्थ किसी व्रत वाले की सेवा का व्रत ले लेता है वह दास वर्ण का कहलाता है इसलिये शूद्रों के दासन्त नाम कहे हैं। जो व्रतहीन हैं वह दास नहीं, दस्यु हैं। 

      उन्हें अव्रताः कहकर व्रत वाले उनसे युद्ध करें यह बिलकुल उचित ही है। यह व्रतधारियों का व्रतहीनों से, हराम खोरों का श्रम शीलों से संग्राम सदा से चला आया है और सदा रहेगा। यह दोनों ही सदा से धरती पर रहे हैं इसलिए दोनों ही धरती के आदिवासी, मध्यवासी, तथा अन्तवासी हैं। 

      अस्तु Aborigines की यह कल्पना बिलकुल निराधार है। इसका वैदिक वाङ्मय तो क्या सारे संस्कृत साहित्य में वर्णन नहीं । 

◼️आर्य शब्द कैसे बना –

      अब देखना है कि आर्य शब्द यदि जाति विशेष का वाचक नहीं तो यह किसका वाचक है। 

इसके लिये इसकी व्युत्पत्ति को देखना चाहिए। 

      यह शब्द ‘ऋ गतौ’ (Ri to move) इस धातु से बना है, परन्तु ऋ धातु का अर्थ गति है इतना तो व्याकरण से ज्ञात हो गया अब निरुक्त प्रक्रिया से देखना चाहिये कि ऋ धातु का अर्थ किस प्रकार की गति है। इसके लिए दो शब्दों को ले लीजिए। एक ऋतु, दूसरा अनऋतु। ऋतु का अर्थ है नपा हुआ समय। ग्रीष्म ऋतु= गरमी के लिये नियत, नपा हुआ समय, वर्षा ऋतु = जिसमें वर्षा होती है वह नपा हुआ समय, शरद ऋतु=जिसमें सरदी पड़े वह नपा हुआ समय, बसन्त ऋतु=जिसमें सरदी से धुन्ध कोहरा आदि आकाश के आच्छादक वृत्तोका अन्त हो और समशीतोष्ण अवस्था हो वह नपा हुआ समय, इस प्रकार ‘ऋगतौ’ का अर्थ हुआ ऋ= मितगतौ अर्थात् न प के साथ चलना।

      इसीलिये जो पदार्थ जैसा है उसके सम्बन्ध में अन्यूना= नातिरिक्त, ठीक नपा तुला ज्ञान कहलाता है= ऋतु इसके विपरीत अन+ ऋतु। इसका बिलकुल संदेह नाशक प्रमाण कीजिये –

      🔥अर्वन्तोमित द्रवः (यजु १,) 

      वे घोड़े जो इतने सधे हों कि दौड़ते समय भी उनके पग नाप तौल के साथ उठे परिमित हों, ठीक नपे तुले हों वे अर्वन्तः कहलाते हैं। इसी ऋधातु से आर्य बना है। इस शब्द के सम्बन्ध में पाणिनि का सूत्र है 🔥अर्यः स्वामि वैश्योंः आर्य शब्द के दो अर्थ हैं एक स्वामी दूसरा वैश्य।

      इस पर योरोपियन विद्वानों की बाल लीला देखिए। 

      उनका कहना है यह शब्द ऋधातु से बना है जिसका अर्थ है। खेती करना यह ‘ऋ कृषौ’ धातु उन्होंने कहाँ से ढूढ़ निकाली, यह अकाण्ड ताण्डव भी देखिये। आर्य का अर्थ है स्वामी अथवा वैश्य। वैश्य के तीन कर्म हैं 

      (१) कृषि (२) गोपालन (३) वाणिज्य। सो क्योकि आर्य का अर्थ है वैश्य और वैश्य का कर्म है कृषि इसलिए ऋधातु का अर्थ है। खेती करना।

◼️बलिहारी है इस सीनाजोरी की,

      क्यों जी, वैश्य के तीन कर्मों में व्यापार और गोपालन को छोड़कर आपने खेती को ही क्यों चुना? इसका कारण उनसे ही सुनिये। 

      अंग्रेजी भाषा में एक शब्द है Arable Land अर्थात् कृषि योग्य भूमि। यह शब्द जिस भाषा से आया है उसका अर्थ खेती करना है इसलिए संस्कृत की ऋधातु का अर्थ खेती करना सिद्ध हुआ, यह तो ऐसी ही बात है कि हिन्दी में लुकना का अर्थ छिप जाना है। इसलिए Look at this room का अर्थ, इस घर में छिप जाओ, क्योंकि हिन्दी भाषा में धी का बेटी है इसलिए वेद में भी धी का अर्थ बेटी हुआ। 

सुनिये लाल बुझक्कड जी। (१) स्वामी (२) कृषि (३) गोपालन (४) व्यापार। इन चारों में समान है, वह है नाप तौल के साथ व्यवहार, स्वामी से भृत्य जो वेतन पाता है वह नाप तोल के बल पर पाता है। 

      ‘खेती के योग्य भूमि को नापना पड़ता है क्योंकि उस पर लगान लगता है, इसीलिए अंग्रेजी में भी कृषि योग्य भूमि Arable Land कहलाती है।

      गोपालन करने वाला दूध नापता है क्योंकि उस पर उसकी आजीविका निर्भर है व्यापारी के नाप-तौल का तो प्रश्न ही नहीं उठता वहां तो सारा काम ही नाप तौल का है। वैश्य हलवाई से कहिये लालाजी लड्डू खाने है तुरन्त आपका स्वागत करके आपको आसन पर बैठाएगा और अति मधुरता पूर्वक पूछेगा कितने तौलू यह कितने वैश्य कर्म का आधार है, इसलिए स्वामी और वैश्य दोनों आर्य कहलाते हैं। स्वामियों का स्वामी परमेश्वर हैं, आर्य का अर्थ है ईश्वर का पुत्र अर्थात् स्वामी का पुत्र अर्थात् परमेश्वर का पुत्र। परमेश्वर का गुण है न्यायपूर्वक नियमानुसार नाप-तौल कर कर्मों का फल देना।

      जो मनुष्य इसी प्रकार सबके साथ प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करता है वही भगवान के गुणों को धारण करने के कारण उसका सच्चा सपूत है। परमात्मा का एकलौता बेटा कोई नहीं। सृष्टि के आदि से आज तक जिन्होंने नाप-तौल युक्त व्यवहार किया वे आर्य कहलाए और जो करेंगे वे कहलाएगे चाहे किसी देश जाति अथवा सम्प्रदाय में उत्पन्न हुये हैं। यह है आर्य शब्द का अर्थ। जिनका जीवन सत्य रक्षा, न्याय-रक्षा अथवा धनहीन रक्षा के व्रतों से नपा-तुला हो वे आर्य वर्ग के लोग कहलायेंगे और उनका चुनाव किया हुआ व्रत आर्य वर्ण कहलाएगा। 

      अब बताइए कि इसमें गोरा रंग लम्बी नाक अथवा भारत के बाहर के किसी देश से आना किस प्रकार आ घुसा, जिन धूर्त शिरोमणि लोगों ने इस राष्ट्र की एकता के विध्वंस के लिये इस पवित्र शब्द की यह दुर्दशा की है उनसे पग-पग पर प्रतिक्षण लड़ना और तब तक, दम न लेना जब तक यह अविद्यान्धकार धरती से विदा न हो हर सत्य-प्रेमी का परम कर्तव्य है और राष्ट्र हितैषियों के लिये तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। क्योंकि इसी पर राष्ट्र की एकता निर्भर है। (आर्य संसार १९६५ से संकलित) 

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क्या माता सीता धरती से उत्पन्न हुई थी ? 🤔 ✍🏻 शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी

[२ वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के उप-मुख्यमंत्री डॉ॰ दिनेश शर्मा ने अजीबो-गरीब बयान दिया था। उन्होंने कहा की- ‘सीता माता का जन्म जमीन के अंदर किसी घड़े में हुआ था। इसका मतलब है कि रामायण काल में टेस्ट ट्यूब बेबी का कॉन्सेप्ट था।’ (दैनिक भास्कर, दिनांक २ जून २०१८) इस भ्रांति का निवारण के लिए हम शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी का एक लेख प्रस्तुत कर रहे है। उर्दू में लिखें इस लेख का हिंदी अनुवाद श्री राजेंद्र जिज्ञासु जी ने किया है। पाठक स्वयं पढ़ कर स्वविवेक से निर्णय लेवें। – 🌺 ‘अवत्सार’]

      प्रिय पाठकवृन्द ! आज हम आपकी सेवा में महारानी सीताजी की उत्पत्ति के विषय में कुछ बताना चाहते हैं। महाभारत के युद्ध में अच्छे-अच्छे विद्वानों के मारे जाने के पश्चात् एक घोर वाममार्ग का समय आया। जिसमें स्वार्थी, अनाचारी लोगों ने सुरापान, मांसाहार तथा व्यभिचार को धर्म ठहराया और प्राचीन ऋषि-मुनियों पर सुरापान, मांसाहार व व्यभिचार के दोषारोपण करने के लिए भागवतादि पुराणों की रचना की। इन पुराणो में जहाँ ऋषियों पर दुराचार सम्बन्धी दोष लगाये गये वहाँ उनकी उत्पत्ति को भी घृणितरूप से जनता के सामने उपस्थित किया। यदि आप पुराणों को पढ़ें तो आपको पता लगेगा कि पुराणों ने किसी की उत्पत्ति को सीधे ढंग से पेश नहीं किया। जहाँ इन वामपन्थी लोगों ने पुराणों का निर्माण किया वहाँ प्राचीन ग्रन्थों में भी मांस, व्यभिचार आदि के श्लोक घड़कर मिला दिये और पूज्य महात्माओं की उत्पत्ति को घृणितरूप से वर्णन करनेवाले श्लोक भी प्राचीन ग्रन्थों में मिला दिये। चूंकि इन धूर्त, पाखण्डी, वाममार्गी पौराणिक लोगों ने महारानी सीताजी की उत्पत्ति के बारे में भी वाल्मीकि रामायण में निम्न प्रकार के श्लोक बनाकर सम्मिलित कर दिये, जैसाकि जनक ने बताया है – 

      🔥अथ मे कृषतः क्षेत्र लांगलादुत्थिता तत॥१३॥ 

      🔥क्षेत्रं शोधयता लब्धा नाम्ना सीतेति विश्रुता। 

      भूतलादुत्थिता सा तु व्यवर्धत ममात्मजा॥१४॥ 

      [वा॰ रा॰ बाल॰ ६६ / १३ – १४] 

      अर्थ – मेरे द्वारा खेत को जोतने पर मेरे हल की फाली से यह ऊपर को उठ पड़ी॥१३॥ चूंकि वह मुझे खेत को जोतते हुए मिली, अतः उसका नाम सीता प्रसिद्ध हो गया वह मेरी पुत्री पृथिवी से निकली और वृद्धि को प्राप्त हुई॥१४॥ 

      अब सीता की इस उत्पत्ति पर ज़रा विचार कीजिए। प्रथम तो इस प्रकार की उत्पत्ति सृष्टि के नियम के विरुद्ध है, क्योंकि मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ३३ में स्पष्ट लिखा है कि – 

      🔥क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। 

      क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदहिनाम्॥३३॥ 

      अर्थ – श्री खेतरूप है और पुरुष बीजरूप है। खेत तथा बीज के मिलने से ही सब शरीरधारियों की उत्पत्ति सम्भव हो सकती है। 

      अतः बिना स्त्री-पुरुष के संयोग के जैवी सृष्टि में किसी भी शरीरधारी की उत्पत्ति असम्भव और सृष्टि-नियम के विरुद्ध है, अतः सिद्ध हुआ कि सीता की उत्पत्ति का इस प्रकार वर्णन करना पौराणिक गप्पाष्टक ही है। दूसरे स्वयं रामायण में भी इसके विरुद्ध प्रमाण मिल जाते हैं जैसाकि जब सीता अनसूया के पास गई और अनसूया ने उसको पतिव्रत धर्म का उपदेश किया तो उत्तर में सीता ने कहा कि –

      🔥पाणिप्रदानकाले च यत्पुरा त्वग्रिसंनिधौ। 

      अनुशिष्टं जनन्या मे वाक्यं तदपि मे धृतम्॥८॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ , अयोध्या स॰ ११८]

      अर्थ – पहले अग्रि के समीप जो मेरा हाथ राम को पकड़ाते हुए मेरी जननी ने मुझे शिक्षा दी थी वह वाक्य भी मैंने धारण किया हुआ है। 

      इस श्लोक में सीता ने स्पष्ट शब्दों में अपनी जननी माता का वर्णन किया है। इससे आगे जब हनुमान्जी सीता से मिलकर लौटने लगे तो सीता ने कपड़े में से खोलकर एक मणि हनुमान् को दी और कहा कि यह राम को दे देना। और मणि देने के पश्चात् सीता ने कहा कि –

      🔥मणिं दृष्ट्वा च रामो वै त्रयाणां संस्मरिष्यति। 

      वीरो जनन्या मम च राज्ञो दशरथस्य च॥२॥ 

      [वाल्मीकि रामा॰ सुन्दर॰ स॰ २८] 

      अर्थ – इस मणि को देखकर राम तीन को याद करेंगे – मेरी जननी को, मुझे और राजा दशरथ को। 

      सीता के इस कथन से भी सीता की जननी माता का होना स्पष्ट सिद्ध है। इससे यह तो सिद्ध है कि सीता की माता और वह भी पालन करनेवाली नहीं अपितु जननी अवश्य थी, किन्तु कथा में गौण होने के कारण उसका स्पष्ट वर्णन रामायण में नहीं आया। अब हम आपको पौराणिकों के घर से ही अपने पक्ष की पुष्टि के प्रमाण बताते हैं। जब प्रतिपक्षी स्वयं ही हमारी बात का अनुमोदन कर दें तो फिर उनके मिथ्यात्व में क्या सन्देह है। लीजिए शिवपुराण, रुद्रसंहिता, पार्वतीखण्ड अध्याय ३, श्लोक २९ में लिखा है कि – 

      🔥धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च। 

      तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति॥ 

      अर्थ – दूसरी धन्यभाग्यवाली जनक की स्त्री जिसका नाम योगिनी है उसकी कन्या महालक्ष्मी होगी, उसका नाम सीता होगा।

      ‘जादू वह जो सिर चढ़कर बोले’ यह जनश्रुति पौराणिकों पर ही ठीक घटित होती है। इन सम्पूर्ण प्रमाणों से यह स्पष्ट सिद्ध है कि योगिनी नाम की जनक की स्री थी। उसके गर्भ से ही सीता की उत्पत्ति हुई थी। पौराणिकों ने खेत से सीता का निकलना मिथ्या ही रामायण में मिला दिया। इसी प्रकार से अन्य ऋषि , मनीषियों की उत्पत्ति भी सृष्टि-नियम के विरुद्ध मिथ्या ही पुराणों ने प्रतिपादित की है। सज्जन लोग बुद्धिपूर्वक सच्चाई को ग्रहण करने का प्रयत्न करें।

✍🏻 लेखक – शास्त्रार्थ महारथी पण्डित मनसारामजी [अनुवादकर्ता – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

अमृतसर में पौराणिक विद्वानों तथा श्रीशंकराचार्य के साथ नौ घण्टे तक महान् शास्त्रार्थ ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[पौराणिक विद्वानों तथा श्री गोवर्धनपीठाधीश शंकराचार्य वा श्री स्वामी करपात्रीजी के साथ अमृतसर में मेरा १६, १७ नवम्बर को ६.५ घण्टे संस्कृत में और २.५ घण्टे हिन्दी में शास्त्रार्थ हुआ। यद्यपि यह शास्त्रार्थ मेरा व्यक्तिगत था, पुनरपि यतः मैं ऋषि दयानन्द प्रदर्शित वैदिक सिद्धान्तों में पूर्ण आस्था रखता हूँ अतः यह शास्त्रार्थ आर्यसमाज के साथ हुआ, ऐसा ही माना गया। इस शास्त्रार्थ का उल्लेख भी मुझे ही करना पड़ रहा है और यह मेरे स्वभाव के विपरीत है। पुनरपि इस शास्त्रार्थ में ऐसे कई आज तक अछूते प्रमाण, उनके गम्भीर अर्थ तथा युक्तियाँ दी गई जो आर्य जनता तथा आर्य विद्वानों के लिए भविष्य में कभी लाभप्रद हो सकते हैं। (विशेषकर १७ ता० के मध्याह्नोत्तर के शास्त्रार्थ के समय की)। अतः न चाहते हुए भी मैं इस शास्त्रार्थ की संक्षिप्त रूप रेखा उपस्थित कर रहा हूँ। इसमें एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो उस काल के वर्णन से बाहर का हो। हाँ, भाषान्तर अवश्य है। इसे वेदवाणी में शीघ्र ही प्रकाशित करना था, परन्तु श्री पूज्य गुरुवर के स्वर्गमन के कारण समय पर प्रकाशित नहीं कर सके। – युधिष्ठिर मीमांसक] 

      अमृतसर में ११ नवम्बर से १९ नवम्बर ६४ तक अखिल भारतवर्षीय सर्व वेदशाखा सम्मेलन का सप्तम अधिवेशन हुआ था। इसके अध्यक्ष गोवर्धन पीठाधीश (पुरी के शंकराचार्य) थे और श्री करपात्रीजी की अध्यक्षता में हुआ था। लगभग ५० वैदिक तथा अन्य विषयों के विद्वान् सम्मिलित हुए थे। सम्मेलन की ओर से प्रायः सदा ही कातपय आर्य विद्वानों को भी निमन्त्रण भेजा जाता है, मार्गव्यय आदि देने की व्यवस्था भी सम्मेलन की ओर से की जाती है।

      मुझे भी प्रायः सदा ही निमन्त्रण प्राप्त होता है। चार वर्ष पूर्व देहली के अधिवेशन में मैं सम्मिलित हुआ था और इस बार पुनः सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ। 

      देहली के अधिवेशन में अन्तिम दिन अध्यक्ष श्री करपात्रीजी के मध्याह्न में उठ जाने पर किसी पौराणिक वक्ता ने आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के प्रति पर्याप्त अनुचित बातें कहीं। मध्याह्नोत्तर सभा आरम्भ होने पर मैंने श्री करपात्रीजी से उनकी अनुपस्थिति में हुई अनुचित कार्यवाही के विषय में ध्यान आकृष्ट करके श्री स्वामी मेधानन्दनी सरस्वती के द्वारा पौराणिक वक्ता के द्वारा कही गई अनुचित-बातों का उत्तर दिलवा दिया। तत्पश्चात् मैंने ऋषि दयानन्द – के वेदभाष्य के वैशिष्टय के सम्बन्ध में विशिष्ट व्याख्यान दिया। उक्त आकस्मिक घटना के अतिरिक्त देहली अधिवेशन की कार्यवाही प्राय: संयत रूप से हुई। विद्वानों के विचार विमर्श चलते रहे। 

      इस बार श्री शंकराचार्यजी की ओर से निमन्त्रण प्राप्त होने पर मैंने उन्हें एक पत्र लिखा, जिसमें देहली में हुई अनुचित घटना का संकेत किया और लिखा कि जब आप लोग अपने से भिन्न विचार वाले विद्वानों को भी सम्मेलन में निमन्त्रित करते हैं, तब उनकी मान्यताओं का भी ध्यान रखना आप का कर्तव्य है। यदि हमें बुला कर हमारे सन्मुख ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के विषय में निरर्गल प्रलाप किया जाए तो उसका एकमात्र यही अभिप्राय होगा कि हमें बुलाकर अपमानित करने की आप की योजना है। यदि ऐसा है तो हमारा आना व्यर्थ है। मैं तो केवल शास्त्रीय चर्चा में ही भाग लेना चाहता हूँ। इत्यादि। 

      इस पत्र का जो उत्तर आया उसका पूर्वाध प्रायः प्रतिक्रियात्मक बातों से भरा था, परन्तु अन्त में लिखा था कि आप विश्वास रखें ऐसी कोई अनुचित कार्यवाही न होगी। आप आना चाहें तो आ सकते हैं। 

      यतः मुझे अमृतसर में कुछ अन्य भी कार्य था, अतः मैंने उत्तर दिया कि मैं १५ नवम्बर को मध्याह्नोत्तर पहुँचूंगा। तदनुसार सम्मेलन में १५ नवम्बर को सायं ५ बजे उपस्थित हुआ। 

      ◼️आर्यसमाज की उदासीनता – इस बार न मालूम मेरे पत्र के कारण अथवा उससे पूर्व आर्यसमाज अमृतसर के उत्सव में आर्यसमाज की ओर से हुए व्याख्यानों से कष्ट से होने के कारण आर्यसमान को नीचा दिखाने की सम्भवतः पूर्व से ही योजना बना रखी थी। मुझे इसका कुछ भी ज्ञान न था।

      अमृतसर नगर में आर्यसमाज का अच्छा जोर है। उन के सामने ही इस महान् आयोजन की तैयारी बहुत दिनों से चल रही थी। स्वयं शंकराचार्य महोदय तीन मास से डेरा लगाए बैठे थे, फिर भी अमृतसर आर्यसमाज के नेताओं ने इस सम्भावित आक्रमण के प्रतिरोध के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। ११ या १२ तारीख को सार्वदेशिक सभा को शास्त्रार्थ के लिए विद्वानों को भेजने के लिए तार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गई।

      देहली के अधिवेशन में भी यही स्थिति थी। सार्वदेशिक सभा और स्थानीय लगभग ११० समाजों के होते हुए भी किसी ने भी आवश्यकता के समय उचित उत्तर देने के लिए दो चार विद्वानों को बुला कर तैयार नहीं रखा था। उसमें श्री पं० बुद्धदेवजी और श्री स्वामी रामेश्वरानन्दजी कुछ समय के लिए व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हुए थे। वस्तुतः आर्यसमाज की यह उदासीनता उसके लिए बहुत हानिकारक हो रही है, विपक्षियों के हौसले बहुत बढ़ गए हैं। 

      ◼️शास्त्रार्थ का आरम्भ – १६ नवम्बर को प्रातः मैं १० बजे अधिवेशन में उपस्थित हुआ। मुझे देखकर एक पौराणिक विद्वान् ने (पूर्व योजनानुसार) उठ कर कहा [१] –

      “वेद में विज्ञान है या नहीं” इस पर अब शास्त्रार्थ होगा। हमारा पक्ष है कि वेद में विज्ञान नहीं है, वेद केवल यज्ञ कर्म के लिए हैं। इसलिए याज्ञिक अर्थ ही प्रामाणिक है। स्वामी दयानन्द ने आधुनिक विज्ञान को देखकर तदनुसार वेद से विज्ञान निकालने की चेष्टा की है। उदाहरणार्थ- 🔥‘आयं गौः पृश्निरक्रमीत्’ मन्त्र से पृथिवी का सूर्य के चारों ओर घूमना सिद्ध किया है, जबकि वेद का सिद्धान्त है कि सूर्य घूमता है। जो कोई वेद में विज्ञान – मानता है वह स्वामी दयानन्द के अर्थ की प्रामाणिकता सिद्ध करे।[२]

[💡पाद टिप्पणी १. यह ध्यान में रहे कि सम्मेलन की सारी कार्यवाही प्रायः संस्कृत में ही हुई। अतः शास्त्रार्थ भी संस्कृत में ही हुआ।]

[💡पाद टिप्पणी २. यह ध्यान रहे कि पूर्वपक्षी ने मुख्य विषय का प्रतिपादन न करके ऋषि दयानन्द के मन्त्रार्थ पर ही सीधी आक्षेप मुझे शास्त्रार्थ में घसीटने के लिए ही किया था।]

      यद्यपि यह मुझे ही लक्षित करके कहा गया था, पुनरपि इस आशा से कि सम्भव है स्थानीय आर्यसामाजिक व्यक्तियों ने किन्हीं अन्य विद्वानों का प्रबन्ध किया हुआ होगा। वे आए होगे, ऐसा सोच कर मैं मौन रहा। एक मिनट पश्चात् पुनः घोषणा की गई कि जो कोई स्वामी दयानन्द के उपस्थापित मन्त्रार्थ की प्रामाणिकता सिद्ध करना चाहे करे अन्यथा यह समझा जाएगा कि स्वामी दयानन्द का उक्त मन्त्रार्थ अशुद्ध है। 

      इस द्वितीय घोषणा पर मैं उठा। उठ कर कहा कि वेद में विज्ञान है इतना ही नहीं, विज्ञान ही वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। भारतीय विज्ञान और यूरोपीय विज्ञान में भूतलोकाश का अन्तर है और यूरोपीय विज्ञान प्राय: परिवर्तित होता रहता है। अतः जो व्यक्ति आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार वेद से विज्ञान निकालने की चेष्टा करता है तो वह वस्तुत: निन्ध है, परन्तु स्वामी दयानन्द ने वेदार्थ में जिस पृथिवी भ्रमण विज्ञान का प्रतिपादन किया है वह भारतीय विज्ञान है। आर्यभट्ट ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में पृथिवी भ्रमण का विस्तार से प्रतिपादन किया है। ऐतरेय और गोपथ ब्राह्मण में सूर्य के उदय और अन्त होने का निषेध किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि और आचार्य पृथिवी का भ्रमण तात्विक रूप से मानते थे।[३] जहाँ-जहाँ सूर्य भ्रमण का प्राचीन ग्रन्थों में उल्लेख है यह स्थूल दृष्टि से किया गया है। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण श्रौत यज्ञ विज्ञान मूलक है वे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय काल में होने वाले आधिदैविक यज्ञ के रूपक है (इस प्रकरण में कर्म काण्ड गत अग्न्याधान का पार्थिव अग्नि के आधान का रूपकत्व प्राचीन संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थों से विस्तार से बताया)। इस कारण जब कर्म काण्ड गत यज्ञ मूलतः आधिदैविक विज्ञान मूलक है अतः वेद के याज्ञिक अर्थ की भी परिसमाप्ति आधिदैविक विज्ञान में होती है। इसलिए वेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय विज्ञान ही है। साथ ही यह भी ध्यान रहे कि भारतीय परम्परा में यह बात सर्व सम्मत रूप से स्वीकृत है कि वेद के प्रत्येक मन्त्र का अर्थ तीन प्रकार का होता है। याज्ञिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक (इसमें स्कन्द स्वामी आदि के अनेक प्रमाण दिए) आधिदैविक अर्थ सारा विज्ञान मूलक ही है। अत: वेद का वैज्ञानिक अर्थ करना वस्तुतः ठीक है। 

[💡पाद टिप्पणी ३. इस विषय में जो महानुभाव विस्तार से जानना चाहे वे ऋषि दयानन्द कृत यजुर्वेद भाष्य के अस्मद् आचार्य श्री पं० ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु कृत भाष्य विवरण अ॰ ३ मं॰ ६ पृष्ठ २४९-२५६ तक देखें।] 

      मेरी इस स्थापना के पश्चात् पूर्वपक्षी पण्डित ने मुख्य विषय छोड़ कर मन्त्रार्थ तीन प्रकार का होता है या नहीं इस पर ही बल दिया और पूर्वाह्न का सारा समय इसी विषय में व्यतीत हुआ। अन्त में शंकराचार्य महोदय ने मुझे कहा कि आप तीन प्रकार का अर्थ होता है बार बार कहते हैं किसी एक मन्त्र का ही तीन प्रकार का अर्थ करके बतावे ‘अग्निमीळे’ का ही करें। यतः यह प्रश्न लगभग एक बजे किया गया था, सभा समाप्त होने को थी; अत: मैंने कहा कि कल प्रातः मैं उक्त मन्त्र के तीनों प्रकार के अर्थ बताऊँगा।[४] तत्पश्चात् सभा विसर्जित हुई। 

[💡पाद टिप्पणी ४. कार्यवश मुझे मध्याह्नोत्तर उपस्थित नहीं होना था।]

      १७ ता० को प्रातः ठीक १० बजे मैं सम्मेलन में उपस्थित हुआ और खड़े होकर पूर्व प्रतिज्ञानुसार ‘अग्निमीळे’ मन्त्र का तीन प्रकार का व्याख्यान आरम्भ किया। कुछ समय पश्चात् जनता की ओर से हिन्दी में बोलने के लिए आवाजें आनी शुरू हुई। अध्यक्ष श्री शंकराचार्यजी ने मुझे कहा कि आप के पक्ष के लोग कोलाहल मचा रहे हैं इन्हें शान्त करें। इसके उत्तर में मैंने कहा कि मेरे पक्ष का यहाँ कोई नहीं है, कारण मुझे यहाँ के किसी व्यक्ति ने नहीं बुलाया है। आप के निमन्त्रण पर आया हूँ। अतः जो कोई भी कोलाहल कर रहे हैं सब आप के ही पक्ष के हैं।

      इस प्रकार अन्त में कार्यवाही हिन्दी में आरम्भ हुई। मैंने यज्ञीय मन्त्रार्थ जो कि उभय पक्ष सम्मत था करके उसी – के आधार पर आधिदैविक व्याख्या की। आध्यात्मिक व्याख्या अभी पूरी तरह उपस्थित ही नहीं की थी कि अधिक काल हो जाने के बहाने अध्यक्ष महोदय के आदेश से मुझे बैठना पड़ा। इसके पश्चात् पूर्वपक्षी विद्वान् ने पुनः अपना पैतरा बदला। ब्राह्मण ग्रन्थ वेद है या नहीं इस पर प्रश्न किया। पूर्वाह्न में सारा वादविवाद इसी विषय में होता रहा।

      मैंने इस प्रकरण में कहा कि जिस 🔥मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् वचन के अनुसार ब्राह्मण की वेद संज्ञा मानी जाती है वह वचन केवल कृष्ण यजुर्वेद के श्रौत सूत्रों में ही मिलता है। ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद के श्रौत सूत्रों में नहीं है। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और सामवेद की मन्त्र संहिताएँ स्वतन्त्र हैं और इनके ब्राह्मण स्वतन्त्र पृथक है, परन्तु कृष्ण यजुर्वेद की संहिताओं – (शाखाओं) में मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का सम्मिश्रण है, अतः प्राचीन परम्परा के अनुसार उनके एक देश मन्त्र की ही वेद संज्ञा प्राप्त थी ब्राह्मण भाग[५] की नहीं। इस प्रकार सम्पूर्ण संहिता का वेदत्व सिद्ध करने के लिए कृष्ण यजुर्वेद के श्रौतसूत्रकारों को ही ऐसा वचन बनाना पड़ा। इसीलिए इस सूत्र की व्याख्या में हरदत्त और धूर्त स्वामी ने स्पष्ट लिखा है 🔥कैश्चिन्मन्त्राणामेव वेदत्वमाश्रितम् अर्थात् किन्हीं व्यक्तियों ने मन्त्रों का ही वेदत्व माना है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राचीन अनेक आचार्य मन्त्र को ही वेद मानते थे ब्राह्मण को नहीं। इतना ही नहीं, यदि इस वचन को प्रमाण भी मान लें तब भी आप स्तम्बादि श्रौत सूत्रों के परिभाषा प्रकरण में पठित होने के कारण यह पारिभाषिक संज्ञा है ऐसा मानना पड़ेगा। पारिभाषिक संज्ञा उसी शास्त्र में स्वीकार की जाती है जिसमें वह बताई गई है। यथा पाणिनि की अ ए ओ वर्णों की गुण संज्ञा पाणिनीय शास्त्र में ही स्वीकार की जाएगी। लोक वा न्याय आदि शास्त्रों में गुण शब्द से अ ए ओ का ग्रहण नहीं होगा। अतः 🔥’मन्त्रबाह्मणयोर्वेदनामधेयम्’ सूत्र से ब्राह्मण ग्रन्थों की सामान्य रूप से वेद संज्ञा नहीं हो सकती। मैंने इस सूत्र पर पूरा विस्तृत विचार १२ वर्ष पूर्व ‘मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् इत्यत्र कश्चिदभिनवो विचार:’ पुस्तिका में उपस्थित किया है। श्री करपात्रीजी (वहीं उपस्थित थे) ने उसका उत्तर देने का प्रयत्न तो किया, परन्तु इस बात का उत्तर नहीं दिया कि कृष्ण यजुर्वेदियों को ही ऐसा सूत्र बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी, ऋग्वेदादि के श्रौत सूत्रकारों ने क्यों नहीं सूत्र बनाया। कारण स्पष्ट है ऋग्वेदादि में मन्त्र ब्राह्मण का पूर्णतया पार्थक्य है संमिश्रण नहीं, अतः उन्हें ऐसा वचन बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी, इसका कोई उत्तर नहीं दिया। इतना ही नहीं मेरी घोषणा है कि कोई भी पौराणिक विद्वान् इस विवेचना का सही उत्तर आकल्पान्त नहीं दे सकता। इसके साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ के अनेक प्रमाण उद्धृत किये जिनसे स्पष्ट होता है कि ब्राह्मण वेद से पृथक हैं। इस प्रकार १ बजे यह प्रकरण समाप्त हुआ। 

[💡पाद टिप्पणी ५. यहाँ ब्राह्मण भाग में ‘भाग’ शब्द का प्रयोग कृष्ण यजुर्वेद की संहिता की दृष्टि से किया है। आर्यसमाज के अनेक विद्वान् प्रायः मन्त्र भाग और ब्राह्मण भाग शब्दों का प्रयोग करते हैं, वह अशुद्ध है क्योंकि यदि मन्त्र भाग भी वेद है ऐसा कहा जाएगा तो उसका दूसरा भाग भी वेद माना जाएगा। जो वृक्षत्व वृक्ष की कुछ शाखाओं में है वह उसकी दूसरी शाखाओं तथा मूल वा तने में भी है। अत: मन्त्र भाग वेद है ऐसा स्वीकार करने पर ब्राह्मण भाग को भी न्याय की दृष्टि से भी आपाततः वेद मानना पड़ जाएगा। अतः मन्त्र और ब्राह्मण के साथ भाग शब्द का भूल कर भी व्यवहार नहीं करना चाहिए।]

      मध्याह्नोत्तर पुन: ३:३० बजे से संस्कृत में शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और अन्त तक संस्कृत में ही होता रहा। 

      प्रथम मैंने गोपथ ब्राह्मण पृ० २।१० का वचन उपस्थित किया – 🔥एवमिमे सर्वे वेदाः निर्मिताः सकल्पाः सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः (इतना ही उपस्थित किया शेष अगली बार के लिए छोड़ दिया)। इस वचन में रहस्य अर्थात् आरण्यक ब्राह्मण और उपनिषदों को वेद से पृथक् करके गिनाया है। यदि ये वेद के अन्तर्गत ही हैं तो पृथक् गिनाने की क्या आवश्यकता? इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषदें वेद नहीं हैं। ऐसे प्रमाणों को उपस्थित करने पर पौराणिक विद्वान् कहा करते हैं कि यद्यपि ब्राह्मण ग्रन्थ वेद के अन्तर्गत है तथापि 🔥‘ब्राह्मण वसिष्ठ न्याय’[६] से ब्राह्मण ग्रन्थों का वैशिष्टय दिखाने के लिए पृथक् निर्देश किया है। पूर्वपक्षी यही बात न कह दे, इसलिए मैंने स्पष्ट कर दिया कि ब्राह्मण वसिष्ठ न्याय वहाँ लगता है जहाँ वक्ता और श्रोता दोनों यह मानते हो कि वसिष्ठ भी ब्राह्मण है। यदि इनमें से एक भी यह न जानता हो कि वसिष्ठ भी ब्राह्मण है तब यह न्याय नहीं लगता। यहाँ भी यह न्याय तभी लग सकता है जब दोनों पक्ष यह स्वीकार करलें कि ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थ वेद हैं यह तो अभी साध्य है। इतना ही नहीं 🔥सरहस्याः सब्राह्मणाः सोपनिषत्काः में स शब्द का प्रयोग है। इसका प्रयोग अप्रधान के साथ ही सदा होता है यथा 🔥देवदत्तः सपुत्र: समागतः (देवदत्त पुत्र सहित आया) यहाँ देवदत्त का आगमन मुख्य है पुत्र का गौण। इसलिए इस वचन में ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों को पृथक स्वीकार करते हुए (जैसे देवदत्त और उसका पुत्र पृथक् है) वेद से इनकी हीनता अप्रधानता ही व्यक्त की गई है। 

[💡पाद टिप्पणी ६. ब्राह्मणा आयाताः वसिष्ठोऽप्यायातः। यहाँ वसिष्ठ के ब्राह्मण होने से ‘बाहाणाः आयाताः’ कहने से कार्य चल सकता था फिर भी वसिष्ठ का पृथक् निर्देश इसलिए किया कि वह अन्य ब्राह्मणों से विशिष्ठ है, प्रधान है।]

      इस पर पूर्वपक्षी वक्ता ने यथार्थ उत्तर न देते हुए इधर उधर की बातें करके अपना समय बिताया। तदनन्तर मैंने पुनः कहा कि पूर्व आक्षेपों का कोई समाधान नहीं किया गया, इस के साथ ही उक्त वचन में आगे कहा है 🔥सेतिहासाः सपुराणाः क्या इतिहास (महाभारत) और पुराण आप के मतानुसार ( हमारे मत में नहीं ) जो व्यास कृत हैं वेद हैं? जैसे ब्राह्मण ग्रन्थ आदि। क्योंकि इनको भी उसी प्रकार स्मरण किया है। इतना ही नहीं अपौरुषेय वेद में (आप के मतानुसार) गोपथ में व्यास निर्मित महाभारत वा पुराणों का निर्देश कैसे हुआ? 

      इस पर पूर्वपक्षी ने कहा कि प्रतिद्वापर में व्यासजी पुराणों की रचना करते हैं अतः यह कर्म प्रवाह से नित्य है यथा सूर्य चन्द्रादि का निर्माण। इस पर मैंने कहा कि आप के पुराणों में यह नहीं लिखा कि प्रतिद्वापर व्यासजी पुराणों का प्रवचन करते हैं, बल्कि वेदों का प्रवचन करते हैं इतना ही लिखा है अतः आप का उक्त कथन ठीक नहीं। साथ ही मैंने पूछा कि 🔥मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् वचन से तो ब्राह्मण ग्रन्थों की वेद संज्ञा नहीं हो सकती, कोई ऐसा लक्षण बताइये जिस से ब्राह्मण ग्रन्थ भी वेद माने जाएँ। 

      इस पर पूर्वपक्षी ने कहा कि 🔥सम्प्रदायाविच्छिन्नत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृत्वं वेदत्वम् अर्थात् गुरु परम्परा का विच्छेद न होने पर भी जिस ग्रंथ का कर्ता स्मृत न हो वह वेद है। इस से जैसे मन्त्रों का कर्ता स्मृत नहीं वैसे ही ब्राह्मण ग्रंथों का कर्ता स्मृत न होने से दोनों समान रूप से वेद है। 

      पूर्वपक्षी के इस लक्षण पर ब्राह्मण ग्रन्थों के लेखकों का नाम उपस्थित किया जा सकता था परन्तु वैसा न करके मैंने उनके लक्षण में ही क्रमशः दो दोष उपस्थित किए।

      ◾️(१) आप के मत में जिन ग्रन्थों का गुरुशिष्य सम्प्रदाय नष्ट न हुआ हो वे वेद है। हम आपके ग्रन्थों से जानते है कि ब्राह्मण आरण्यक और उपनिषद् ग्रन्थ पहले सस्वर थे अब शतपथ और तैत्तिरीय ब्राह्मण को छोड़ कर सब स्वर-रहित हो गए। अतः स्वर के लुप्त होने से स्पष्ट है कि इन ब्राह्मण ग्रन्थों के पठनपाठन में गुरुशिष्य सम्प्रदाय का नाश हुआ है। क्योंकि जहाँ जहाँ गुरुशिष्य सम्प्रदाय का नाश नहीं हुआ, उन ग्रन्थों में अक्षर मात्रा वर्ण स्वर का एक भी पाठान्तर नहीं मिलता। यथा शाकल संहिता माध्यन्दिन संहिता, तैत्तिरीय संहिता आदि। जिन ब्राह्मण ग्रन्थों में स्वरों का लोप हो गया वह लोप विना सम्प्रदाय नाश के हो नहीं सकता, अतः जिन ब्राह्मणों के स्वरों का नाश हो चुका है अर्थात् सम्प्रदाय भंग हो चुका है वे आपके लक्षणानुसार ही वेद नहीं हो सकते। 

      इस अभूतपूर्व करारी चोट से सभी पूर्वपक्षी घबरा गए। पूर्वपक्षी विज्ञान ने पराजय से बचने के लिए स्वमत विरुद्ध ‘स्वर रहित भी ग्रन्थ वेद है’ मत स्वीकार किया। इस पर मैंने श्री शंकराचार्यजी से व्यवस्था मांगी कि क्या ऋग्वेद के मन्त्रों से स्वर हटा दिए जाएँ तो आप उन्हें वेद मानेगे। उनके पास भी कोई उत्तर नहीं था, अतः उन्होंने स्वीकार किया कि स्वर रहित भी मन्त्र वेद ही है। इस पर मैंने कहा कि आपका यह कहना ठीक नहीं।[७] स्वर रहित ग्रन्थ कदापि वेद नहीं हो सकते क्योंकि मीमांसा के कल्प सूत्राधिकरण में ‘कल्पसूत्र वेद हैं या नहीं’ पर विचार करते हुए इनके वेदस्व को हटाने के लिए युक्ति दी है 🔥असन्निबन्धनत्वात्। इसका टीकाकारों ने अर्थ किया है 🔥स्वररहितत्वात् स्वररहित होने से कल्पसूत्र वेद नहीं है। इससे स्पष्ट है कि स्वर रहित ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हो सकते। इसी प्रसंग में मैंने कहा कि आरम्भ से ही उन ब्राह्मणों पर स्वर नहीं था, यह भी आप नहीं कह सकते क्योंकि पहले लौकिक भाषा भी सस्वर थी। पाणिनि का 🔥विभाषा भाषायाम् (६१) सूत्र इसमें प्रमाण है। इस पर श्री शंकराचार्य कहने लगे कि पाणिनि ने स्वर प्रक्रिया में सारे उदाहरण वेद के दिए है लौकिक भाषा में भी स्वर होता तो उसके भी उदाहरण देते। श्री शंकराचार्य के वक्तव्य के उत्तर में मैंने कहा कि पाणिनि ने कोई उदाहरण अपनी अष्टाध्यायी में नहीं दिए। जो उदाहरण मिलते हैं वे काशिका में वामन के हैं और सिद्धान्तकौमुदी में भट्टोजि दीक्षित के। इतना ही नहीं आप अपना कौमुदी ग्रन्थ भेजिए मैं पचासों सूत्रों के वे उदाहरण दिखाऊँगा जो वेद के नहीं है लौकिक भाषा के हैं। इस पर श्री शंकराचार्य जी को जो अपने को महावैयाकरण मानते हैं, निरुत्तर होना पड़ा। 

[💡पाद टिप्पणी ७. यहाँ से आगे प्रायः मध्यस्थ स्वरूप श्री शंकराचार्यजी से ही वादविवाद होता रहा।] 

      ◾️(२) इसके पश्चात् पूर्वपक्षी के वेद के लक्षण के दूसरे अंश पर दूसरा दोष उपस्थित किया । सम्प्रदाय के नाश न होने पर भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनके कर्ता का हमें ज्ञान नहीं परन्तु वे वेद नहीं माने जाते। यथा माध्यन्दिन संहिता का पदपाठ। ऋग्वेद के पदपाठ का कर्ता वा प्रवक्ता शाकल्य था, सामवेद का गार्ग्य, अथर्व का शौनक, तैत्तिरीय का आत्रेय। ऐसे माध्यन्दिन पदपाठ का कर्ता कौन है, यह किसी को ज्ञात नहीं और इसके गुरूशिष्य सम्प्रदाय का नाश भी नहीं हुआ। यदि सन्देश हो तो अपने वैदिकों से पूछ लें। अतः आपके लक्षण के अनुसार यह पदपाठ भी अपौरुषेय वेद होगा परन्तु पदपाठ को अपौरुषेय नित्य नहीं माना जाता। अत: आपका लक्षण उभयथा दोष युक्त है। 

      इस पर भी पूर्वपक्षी विद्वान् ने पुनः पराजय से बचने के लिए स्वमत विपरीत पदपाठ को भी नित्य अपौरुषेय वेद स्वीकार किया। इस पर मैंने पुनः मध्यस्थ श्री शंकराचार्यजी से व्यवस्था माँगी। श्री शंकराचार्य और श्री करपात्री जी दोनों ने पदपाठ को भी वेद स्वीकार किया। 

      इस स्वपक्ष विरुद्ध मत के स्वीकार करने पर मैं विशेष रूप से श्री शंकराचार्य और करपात्रीजी से ही सीधा जूझ पड़ा और पदपाठ अनित्य हैं पौरुषेय हैं, इस बात के सिद्ध करने के लिए एक पर एक प्रमाणों की कमशः झड़ी लगा दी। सबसे प्रथम यास्क का 🔥वनेन वायो न्यधायि चाकन मन्त्र के व्याख्यान में शाकल्य कृत पदपाठ के संबंध में लिखा वचन – 🔥वा इति च य इति च चकार शाकल्यः उदात्त त्वेषमाख्यालमभविष्यत् असुसमाप्तश्चार्थः (‘वाया’ को शाकल्य ने वा यः दो पद मानकर दो टुकड़े किए हैं ऐसा करने से यत् का योग होने से अधायि क्रिया उदात्त होनी चाहिए परन्तु वेद में अनुदात्त है और यत् के निर्देश से मन्त्रार्थ भी पूरा नहीं होता जब तक तत् का अध्याहार न किया जाए) उपस्थित करके कहा कि यास्क शाकल्य कृत पदपाठ को केवल अनित्य ही नहीं मानता अपितु उसमें दोष भी उपस्थित करता है। इस पर मध्यस्थ ने निरुक्त तथा उक्त मन्त्र का पता पूछा। स्थान निर्देश करने पर कई पण्डित उक्त ग्रन्थ निकाल निकाल कर पन्ने उलटने लगे लगभग १० मिनट पीछे करपात्रीजी ने इसका समाधान करने की चेष्टा की कि यास्क के चकार का अर्थ बनाना नहीं है प्रवचन करना है। व्याकरण के अनुसार तो वेद के अनेक पद अशुद्ध कहे जा सकते है पर उन्हें कोई अशुद्ध नहीं मानता। अतएव अर्थ की दृष्टि से वायः एक पद ही है परन्तु अध्ययन कृत अदृष्ट के लिए वा यः ऐसा ही परम्परा से स्वीकार किया जाता है इत्यादि। 

      इस पर मैंने उत्तर दिया कि यदि अर्थ की दृष्टि से वायः दो पद युक्त नहीं तो यास्क का शाकल्य पर दोष देना और उसे पौरुषेय कहना ठीक है। अन्यथा यदि आप पदपाठ को अपौरुषेय नित्य मानते हैं तो कह दीजिए कि यास्क का दोष दर्शन गलत है, मैं बैठ आता हूँ। इतना ही नहीं अब मैं अन्य प्रमाण देता हूँ जिसमें स्पष्टतया पदपाठ को अनित्य बताया है – कैयट महाभाष्य प्रदीप २*।१।१०९ [*अस्पष्ट] में लिखता है- 🔥संहिताया एव नित्यत्वं पदविच्छेदस्य तु पौरुषेयत्वम्। अतः पदपाठ अनित्य पौरुषेय हैं यह स्पष्ट है इस कारण पदपाठ अपौरुषेय वेद नहीं हो सकते। 

      इस पर भी करपात्रीजी कैयट के वचन पर विचार करके[८] कहने लगे कि वैयाकरण वेद विषय में प्रमाण नहीं। कैयट की अनेक बातों का नागेश ने खण्डन कर दिया है अत: कैयट का वचन प्रमाण नहीं। 

[💡पाद टिप्पणी ८. कैयट के वचन का पूरा पता देने पर भी जब शीघ्रता से पूर्वपक्षियों से न निकाला जा सका तो महाभाष्य मेरे पास भेजा, मैंने उक्त पृष्ठ निकाल कर उन्हें दिया।]

      इस पर मैंने उत्तर दिया कि यद्यपि नागेश ने कैयट के अनेक मतों का खण्डन किया है पुनरपि इस स्थल पर खण्डन नहीं किया, अत: यह उसे भी स्वीकृत है। इतना ही नहीं, नागेश ने तो महामाष्य ६।३ की टीका में पदपाठों में सम्प्रदाय भ्रंश भी माना है जिसे न आप स्वीकार करते है और न मैं। यह भी ध्यान रहे कि यदि कैयट ने पदपाठों के पौरुषेयत्व का विधान स्वयं अपने रूप में किया होता तब तो उसे कथंचित् अप्रमाण कहा जा सकता था। परन्तु कैयट ने उक्त मत तो महाभाष्यकार पतञ्जलि के 🔥न लक्षणेन पदकारा अनुर्क्त्याः पदकारैर्नाम लक्षणमनुवर्त्यम् (सूत्रकार को पदकारों का अनुसरण नहीं करना चाहिए पदकारों को सूत्रकारों के लक्षणों का अनुसरण करना चाहिए) वचन की व्याख्या में लिखा है। महाभाष्य के उक्त वचन का यह स्पष्ट अभिप्राय है कि पदपाठ पौरुषेय अनित्य है। यदि आप महाभाष्यकार पतञ्जलि के वचन को भी वैयाकरण होने मात्र से अप्रमाण कहें तो मैं बैठ जाता हूँ, मुझे ऐसी अवस्था में कुछ नहीं कहना। 

      इस पर पुन: कुछ समय परस्पर विचार विनिमय करके श्री करपात्रीजी बोले कि महाभाष्यकार का उक्त वचन प्रौढिवादमात्र (एक देशी जबरदस्ती का उत्तर) है सिद्धान्तरूप नहीं। महाभाष्यकार कई स्थानों पर प्रौढिवाद से उत्तर देते हैं वे उत्तर प्रामाणिक नहीं माने जाते। 

      इस वक्तव्य पर मैंने कहा कि यह सत्य है कि महाभाष्य में प्रौढिवाद से अनेक उत्तर दिए गए हैं परन्तु कौन सा उत्तर प्रौढिवाद से दिया गया है इसके परिज्ञान के लिए दो कसौटियों हैं। पहली – जिस उत्तर के विपरीत अन्यत्र लेख मिले उन परस्पर विरोधी उत्तरों में एक प्रौढिवाद का उत्तर होगा दूसरा सिद्धान्तरूप का। दूसरी – प्रौढिवाद का उत्तर एक स्थान पर ही मिलेगा उसका पुन: पुनः निर्देश न होगा। तदनुसार पदपाठ विषयक उक्त मन्तव्य का विरोधी वचन सम्पूर्ण महाभाष्य में उपलब्ध नहीं अतः यह प्रौढ़िवाद से कहा गया है यह कहना असत्य है। इतना ही नहीं यह वचन महाभाष्य में अध्याय ६ और ८ में दो स्थानों पर और भी आया है। इसलिए अनेक स्थानों में समानरूप से कहा गया उत्तर प्रौढ़िवाद का नहीं माना जा सकता। इतने पर भी यदि वैयाकरण होने से महाभाष्यकार के वचन से सन्तोष न हो तो मैं वैदिक विद्वान का मत उपस्थित करता हूँ – भृतहरि महाभाष्य की टीका में पृष्ठ २६८ पर लिखता है – 🔥एवं च कृत्वा वृको मासकृत इत्यवग्रहभेदोऽपि भवति। चन्द्रमसि प्रवृत्तो मासशब्दो अवगृह्यते वृके मासकृत् (वृको मासकृत मन्त्र में चन्द्रमा अर्थ में मास ऽकृत् ऐसा एक पद मानकर अवग्रह किया जाता है और वृक अर्थ में मा सकृत् दो पद माने जाते हैं)। यदि यह कहा जाए कि भर्तृहरि का वचन भी वैयाकरण होने से अप्रमाण है तो यह अशुद्ध है। भर्तृहरि वैयाकरण होते हुए भी परम वैदिक है। उसकी वैदिकता को गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान जैसे जैन आचार्य भी मुक्त कण्ठ से स्वीकार करते हैं। वर्धमान लिखता है- 🔥तत्र भवतां वेदविदामलंकारभूतेन भर्तृहरिणा। यास्क भी वैदिक है अतः यास्क भर्तृहरि पतञ्जलि कैयट आदि के उद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि पदपाठ ग्रन्थ अनित्य पौरुषेय हैं, ये पढपाठ ग्रन्थ अपौरुषेय वेद नहीं हो सकते। इस प्रकार आपका वेद लक्षण उभयथा दोष दुष्ट होने से त्याज्य है। 

      इसके पश्चात् सादे पाँच बजे का समय हो जाने के कारण श्री शंकराचार्यजी ने अपने भाषण में – “यह शास्त्रार्थ जय पराजय के लिए नहीं किया गया ज्ञानवर्धन के लिए किया गया है अतः यहाँ पराजय का कोई प्रश्न नहीं, यहाँ तो वाद कथा हुई है। श्री मीमांसकजी मेरे पूर्वाश्रम के मित्रों में से हैं इनकी योग्यता मैं जानता हूँ। बड़ी विद्वत्ता से इन्होंने अपने पक्ष का पोषण किया है। अब अतिकाल होने से यह सभा समाप्त की जाती है। अगले दिन ज्योतिष सम्मेलन होगा……………” आदि कह कर लीपापोती करके सभा विसर्जित की। 

      श्री शंकराचार्यजी के उक्त भाषण के मध्य में ही जब आपने वादकथा का निर्देश किया तब मैंने बीच में टोकते हुए उनसे कहा कि इस वादविवाद को वादकथा कहना शास्त्रार्थ के नियमों के विरुद्ध है। आपने दो बार अस्थान में मेरे लिए निग्रह स्थान का प्रयोग किया था अर्थात् आप निग्रह स्थान में आ गए। उस समय मैंने जानबूझ कर कि कहीं यह कथा न्याय शास्त्र में न चली जाए, कुछ नहीं कहा। परन्तु आपको ज्ञात होना चाहिए कि वाद कथा में प्रतिपक्षी के लिए निग्रह स्थान का प्रयोग नहीं होता। यत: आपने निग्रह स्थान का प्रयोग किया, अतः आपके वचनानुसार ही यह कथा वाद कथा न होकर जल्प वा वितण्डा कथा रही यह प्रमाणित होता है। 

      ◼️विशेष- जब से पदपाठों के अनित्यत्व का प्रकरण चला उस अन्तिम डेढ़ घण्टे में पौराणिक ३-४ विद्वान् बराबर अपनी पुस्तकों में से मेरे दिए गए उद्धरण निकाल निकाल कर श्री शंकराचार्यजी तथा श्री करपात्रीजी के हाथों में देते रहे। वे दोनों प्रतिवार ५-१० मिनट विचार करके उत्तर देते थे। इससे संस्कृत से अनभिज्ञ पौराणिक जनता पर भी आर्यसमाज का भारी प्रभाव पड़ा। प्रायः अनेक व्यक्ति कहते सुने गए कि आर्यसमाज का पण्डित बहुत तगड़ा रहा। वह अकेला मुँह जबानी २-३ मिनट ही बोलता था और उसका उत्तर देने के लिए कई कई पण्डित मिलकर पुस्तकों के पन्ने उलटते थे और दोनों ( श्री शंकराचार्य तथा करपात्रीजी) पुस्तकें देखकर और ५-७ मिनट सोच कर उत्तर देते थे। 

      इस प्रकार इस शास्त्रार्थ का पौराणिक मनता पर तो भारी प्रभाव पड़ा ही किन्तु अमृतसर की आर्यजनता भी कहने लगी कि आपने आर्यसमाज की लाज रख ली। मैंने आर्यसमाजियों के उक्त कथन पर कहा कि आप लोग इस भारी तैयारी को देखते हुए भी सोते रहे। मैं तो सम्मेलन द्वारा निमन्त्रित होकर आया था, आप लोगों ने क्या किया? यह उदासीनता आर्यसमाज को ले डूबेगी। 

      यह भी ज्ञात रहे कि सारे विवाद प्रकरण में कथन प्रतिकथन को टेप रिकार्ड मशीन से रिकार्ड किया गया परन्तु अनेक अवसरों पर मशीन बन्द होती थी ( मेरे पास ही मशीन थी अतः मैं देखता रहता था)। जहाँ तक मुझे शत है अन्तिम दृश्य का तो रिकार्ड किया ही नहीं गया। इस लेख में एक दो स्थान पर श्री करपात्रीजी और श्री शंकराचार्यजी के नामों में परिवर्तन हो सकता है क्योंकि प्रायः अन्तिम समय में दोनों ही महानुभाव उत्तर देने में प्रवृत्त हो जाते थे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

वेदों का विभाग ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान भेद से वेद के चार विभाग ऋग्, यजुः, साम और अथर्व नाम से सृष्टि के आदि में प्रसिद्ध हुए। 🔥ऋचन्ति[१] स्तुवन्ति पदार्थानां गुणकर्मस्वभावमनया सा ऋक’ – पदार्थों के गुण कर्म स्वभाव बताने वाला ऋग्वेद है। 🔥’यजन्ति येन मनुष्या ईश्वरं धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति, शिल्पविद्यासङ्गतिकरणं च कुर्वन्ति शुभविद्यागुणदानं च कुर्वन्ति तद् यजुः’ – अर्थात् जिससे मनुष्य ईश्वर से लेकर पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, शिल्पक्रियासहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुणों का दान करें वह यजुर्वेद है। 🔥’स्यति कर्माणाति सामवेदः’ – जिससे कर्मों की समाप्ति द्वारा कर्म बन्धन छूटें, वह सामवेद है। ‘थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्-प्रतिषेधः’ (निरु॰ ११।१८), 🔥चर संशये (चुरादिः), संशयराहित्यं सम्पाद्यते येनेत्यर्थकथनम् – अर्थात् जिस के द्वारा संशयों की निवृत्ति हो उसे अथर्ववेद कहते हैं ।

[📎पाद टिप्पणी १. निरु॰ १३।७ में – 🔥“यदेनमृग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति” और काठक सं॰ ४०।७ के ब्राह्मण में – 🔥”ऋग्भिः शंसन्ति, यजुर्भिर्यजन्ति, सामभिः स्तुवन्ति अथर्वभिर्जपन्ति॥” ऐसा कहा है।]

      ऋग्वेद ज्ञान काण्ड है, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है। सब पदार्थों के गुणों का निरूपण ऋग्वेद करता है, ‘ऋग्भिः शंसन्ति’ का यही अभिप्राय है, पदार्थों के लक्षण बताना उनका शंसन करना ही है। वस्तु के ज्ञान हो जाने के पश्चात् उसको कार्यरूप में परिणत करने की क्रिया का नाम कर्मकाण्ड है, जो यजुर्वेद का प्रधान विषय है। जिसके द्वारा मनुष्यों की कर्म ग्रह ग्रन्थियाँ परिसमाप्त होती हैं, वह उपासना सामवेद का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह सब हो जाने पर विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करने का नाम विज्ञान है, जो अथर्ववेद का विषय है। इन-इन विषयों की उस-उस वेद में प्रधानता है, ऐसा समझना चाहिये। इस विषय में विशेष ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका प्रश्नोत्तरविषय (पृ॰ ३६४ से ३६६) में देखें। 

      अब हमें यह विचार करना है कि [२]दुर्ग, भट्टभास्कर, महीधरादि ने जो यह लिखा कि ब्रह्मा से परम्परा द्वारा प्राप्त एक वेद के चार विभाग महर्षिव्यास ने किये, उनका यह कथन कहाँ तक सत्य है? 

[📎पाद टिप्पणी २. महीधर अपने भाष्य के आरम्भ में, भट्टभास्कर तै॰ सं॰ भाष्य के आरम्भ में, दुर्ग निरु॰ १।२० की टीका में ‘व्यासजी ने वेद को चार विभाग में किया ऐसा लिखते हैं। विष्णुपुराण ३।३।१९,२० तथा मत्स्यपुराण १४४।११ में भी ऐसा ही कहा गया है।]

      स्वयं ऋग्वेद (१०।९०।९) में तथा अथर्ववेद (१०।७।२०) में चारों वेदों का विभागशः वर्णन है। अथर्ववेद (४।३५।६ तथा १९।९।१२ में) “वेदा” बहुवचन पद स्पष्ट आता है। इससे वेद एक है, यह बात अयुक्त सिद्ध हो जाती है। ब्राह्मणग्रन्थों में शतपथ (१४।५।४।१०) तथा गोपथ (१।१।१६ तथा ३।१) में स्पष्ट चारों वेदों का नाम निर्देश तथा ‘सर्वांश्च वेदान्’ इत्यादि लेख पाया जाता है। 

      उपनिषदों में ‘अपरा’ विद्या का परिगणन करते हुए स्पष्ट ही उल्लेख है –

      🔥”तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः, शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति” मुण्डक १।१।५॥

      मनु के श्लोक हम पूर्व लिख चुके हैं[३], चरक तथा काश्यप संहिता में भी चारों वेदों की सत्ता स्पष्ट वर्णित है (देखो चरक सूत्रस्थान अध्याय ३०।१८ तथा काश्यप संहिता पृ॰ ४३)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. द्र॰ पूर्ववर्ती लेख – “वेद और प्राचीन ऋषि-मुनियों की परम्परा” (लेखक – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु) – 🌺 ‘अवत्सार’]

      महाभारत में भी वेद चार हैं, ऐसा कहा है (देखो शल्यपर्व अ॰ ४१। श्लो॰ ३१४॥ द्रोणपर्व अ॰ ५१ । श्लो॰ २२)। 

      महाभाष्य पस्पशाह्निक में लिखा है –

      🔥”चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहुषा भिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहस्त्रर्त्मा सामवेद एकविंशतिधा बाह्वृच्यं नवधाथर्वणो वेदः………” पृ॰ ६५॥ 

      रामायण में भी इस प्रकार लिखा है – 🔥नानुग्वेदविनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम्॥ (रामा॰ किष्किन्धा काण्ड सर्ग ३ श्लोक २८) 

जब स्वयं वेद से तथा अन्य आप्तवचनों से यह सिद्ध है कि वेद सृष्टि में आदि में ही ऋग यजुः साम अथर्व इन चार विभागों में विभक्त विद्यमान थे, तब वेदव्यास ने एक वेद के चार विभाग किये- यह कल्पना सर्वथा अयुक्त है। हाँ वेदव्यास ने उस काल में भिन्न-भिन्न बहुत सी शाखायें बन चुकने के कारण ब्राह्मण और श्रौतादि का सम्बन्ध निश्चय कर दिया हो, कि किस-किस शाखा का कौन-कौन ब्राह्मण है। अथवा उन्होंने वेद की कुछ शाखाओं का प्रवचन या उनकी व्यवस्था की हो। जैसे आजकल भी काशी आदि में ऋग्वेदी कुलों ने ही अथर्ववेद का ग्रहण, (उसकी रक्षा का परम पवित्र कर्त्तव्य समझकर) स्वयं अपनी इच्छा से अपने ऊपर लिया हुआ है। ऐसे कुलों का विभाग व्यासजी के समय में प्रथम आरम्भ हुआ हो, ऐसा भी सम्भव है। 

      प्रकृत विषय में एक विचार और उपस्थित होता है, वह यह कि वैदिकसाहित्य में तीन वेद वा चार वेद दोनों प्रकार का व्यवहार मिलता है। वेद चार हैं यह व्यवहार ऋग-यजुः-साम-अथर्व चारों वेदों में, तैत्तिराय, काठक, मैत्रायणी, पप्पलाद, जैमिनीय आदि शाखाओं में, तथा प्रायः सभी ब्राह्मण, श्रोत, गह्यादि में सर्वत्र मिलता है । ऋग्वेद के 🔥‘चत्वारि वाक् परिमिता पदानि’ (ऋ॰ १।१६४।४५) तथा 🔥‘चत्वारि श्रृङ्गा॰’ (ऋ॰ ४।५८।३) आदि के व्याख्यान में यास्क ने –

      🔥”चत्वारि शृङ्गति वेदा वा एत उक्ताः” (निरु॰ १३।७) में स्पष्ट ही चारों वेदों का ग्रहण किया है।

      यहाँ पूर्वपक्षी कह सकता है कि यजु॰ ३१।७ में तीन वेदों की उत्पत्ति का वर्णन है। मनु महाराज भी 🔥’त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ (मनु. १।२३) वेद तीन हैं, यह स्वीकार करते हैं। शतपथब्राह्मण में 🔥’अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात सामवेदः’ (श॰ १४।५।४।१०) तीन वेद माने हैं। अतः वेद तीन ही हैं। 

      इसका समाधान हमारे पूर्वोक्त कथन से हो जाता है कि वेद चार हैं, इस विषय में वेद तथा अन्य सब वैदिक ग्रन्थ सहमत हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि फिर तीन विभाग का क्या अभिप्राय है? जहाँ भी वेद के तीन होने का वर्णन है, वहाँ विद्याभेद से है, क्योंकि जिस शतपथब्राह्मण में चारों वेदों का नामों सहित उल्लेख है, उसी में यह भी कहा है –

      🔥”त्रयी वै विद्या ऋचो यजूंषि सामानि इति”॥ श॰ ४।६।७।१॥ 

      अर्थात् त्रयी नाम ऋग्-यजुः-साम का विद्या के कारण है। 

      मीमांसा द्वितीय अध्याय के प्रथमपाद में ऋग् आदि का लक्षण इस प्रकार किया है –

      🔥तेषामृग यत्रार्थवशेन पादव्यवस्था॥ मी॰ २।१।३५॥ इस शास्त्र में ‘ऋक्’ शब्द से पादबद्ध ऋचाओं का ग्रहण करना चाहिये। 

      🔥गीतिषु सामाख्या॥ मी॰ २।१।३६॥ गान विधायक मन्त्र ‘साम’ कहलाते हैं। 

      🔥शेषे यजुः शब्दः॥ मी॰ २।१।३७॥ शेष में ‘यजुः’ का व्यवहार समझना चाहिये। 

      इस प्रकार विद्याभेद से याज्ञिक प्रक्रिया में पारिभाषिक रीति से वेद मन्त्र तीन प्रकार के माने जाते हैं, वास्तव में वेद चार ही हैं जो ज्ञान, कर्म, उपासना तथा विज्ञान काण्ड के भेद से हैं। यही प्राचीन परम्परा है।

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

आर्यावर्त क्या है ? ✍🏻 प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

      जब कभी भ्रान्त विचार चल पड़ते हैं तो उनके अवश्यम्भावी अनिष्टकारी परिणामों से बचना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार का एक अशुद्ध भ्रान्त विचार यह है कि आर्यावर्त की सीमा उत्तर भारत तक ही है और आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित तथाकथित विन्ध्य पर्वत तक है।

      इस भ्रान्त धारणा ने एक महा अनिष्टकारी कुफल की सृष्टि कर दी कि विन्ध्य के उत्तर अर्थात् उत्तरी भारत में आर्य बसते हैं और दक्षिणी भारत में द्रविड़ बसते हैं। फलस्वरूप राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं। आज जो उत्तर और दक्षिण भारत में आर्य और द्रविड़ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, उनके मूल में भी यही भ्रान्त विचार है कि आर्यावर्त उत्तर भारत को ही कहते हैं। 

      आर्य समाज से बाहर इस प्रकार के विचार रखने वाले बहुत से लोग हैं। इनकी प्रेरणा स्थली यथासम्भव पश्चिम की विद्वत्मण्ड़ली है। जो आर्य विचार विद्वेषिणी है। भारतवर्ष में इस विचारधारा के प्रवक्ता के रूप में श्री रामधारी सिंहजी ‘दिनकर’ का नाम लिया जा सकता है। अपने महान् ग्रन्थ ‘संस्कृत के चार अध्याय’ में श्री दिनकर जी स्वामी दयानन्दजी पर खूब बरसते हैं और उत्तर दक्षिण के आर्य-द्रविड़ विवाद का दायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती पर थोपने का असफल प्रयास करते हैं। 

श्री दिनकरजी ने लिखा है – 

      “स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात् आर्यों की रचना है।”

      “हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बसते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिन्दुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगदान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्राविड़ भाषाओं में सन्निहित हिन्दुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है।”

      “इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे हैं।” 

      श्री दिनकरजी यदि सत्यार्थ प्रकाश के तत्सम्बन्धी स्थल देख जाते तो इतना भ्रामक विचार देने में चिन्ता करते। ऐसी उद्धत शब्दावली और ऐसा उपहसनीय आक्षेप सचमुच दिनकरजी को शोभा नहीं देता।

      इधर आर्यसमाज के विद्धानों में भी एकाध की धारणा है कि आर्यावर्त उत्तरी भारत को ही कहते हैं। प्रो॰ सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार गुरुकुल कांगड़ी के मान्य विद्वान हैं, संसद सदस्य हैं। आपने एक लेख लिखा है ‘‘इस देश के भिन्न-भिन्न नाम।” यह लेख कई जगह छपा है। इस लेख से जहां महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का विरोध है वहीं उस अनिष्टकारी विचारधारा की पुष्टि भी होती है कि उत्तर भारत के लोग आर्य हैं और दक्षिण भारत के लोग आर्य नहीं हैं।

      श्री सिद्धान्तलङ्कारजी ने कई प्रमाण देकर एक निष्कर्ष निकाला है, “इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम इस देश (उत्तर भारत) का नाम ‘आर्यावर्त’ या ‘आर्य देश’ था। इस देश से भिन्न-भिन्न देशों को यहाँ के निवासी ‘म्लेच्छ देश’ या ‘दस्यु देश’ कहते थे। वे लोग अपने देश को ‘आर्य देश’ इसलिए कहते थे क्योंकि वे अपने को ‘आर्य’ या श्रेष्ठ कहते थे, ठीक ऐसे जैसे आज के युग में पाकिस्तान वाले अपने को पाक या पवित्र कहने लगे हैं।”

      यह धारणा चिन्त्य है, ये विचार भ्रान्त हैं। इस पर विचार अवश्य होना चाहिये। 

      गुरुकुल कांगड़ी आर्यसमाज का दुर्ग है। वहाँ से ऋषि की मान्यता को बल दिया जाता है। वहाँ के विद्वानों, अनुसन्धानकर्ताओं पर आर्यजगत् गर्व करता है। ‘वैदिक एज’ जैसे भारतीय विचारधारा विरोधी ग्रन्थ का उत्तर ‘गुरुकुल कांगड़ी, के सुयोग्य विद्वान् श्री धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड ने लिखकर अपनी यशोवृद्धि तो की है, गुरुकुल की भी यशश्चन्द्रिका को अधिक चारु कर दिया। स्वयं सिद्धान्तालङ्कार जी भी ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के मान्य विद्वान हैं। पर जाने, अनजाने उनसे ऋषि दयानन्द का और भारतीय परम्परा का विरोध हो गया। फिर श्री दिनकरजी का क्या दोष? उनको उपालम्भ किस बात का? 

      श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने यह सिद्ध करने के लिए कि आर्यावर्त केवल उत्तर भारत को कहते हैं, निम्न प्रमाण दिये हैं – 

      ▪️(१) 🔥आसमुद्रात्तुवै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

      तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बधाः॥ मनु॰ २।२२ 

      अर्थात्, पूर्व के समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से लेकर पश्चिम के समुद्र (अरब सागर) तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश ‘आर्यावर्त’ है । 

      ▪️(२) 🔥कः पुनरार्यावर्तः। प्रागादर्शात् प्रत्यक् कालक 

      वनात् दक्षिणेन हिमवन्तं उत्तरेण पारियात्रम्। – महाभाष्य 

      (हिमालय के दक्षिण और विन्ध्याचल के उत्तर आर्यावर्त है ।) 

      ▪️(३) 🔥आर्यावर्तः प्रागादर्शात प्रत्यक् कालकवनाद् 

      उदक् पारियात्रात् दक्षिणेन हिमवतः उत्तरेण च विन्ध्यस्य। -वसिष्ठ धर्मसूत्र 

      ये सारे प्रमाण उन ग्रन्थों के हैं जो प्रत्येक भारतीय को मान्य हैं। इनमें से कुछ को तो स्वामी दयानन्दजी ने भी प्रसङ्गानुपात से उद्धृत किया है। यदि ये प्रमाण मान्य हैं तो इनमें तो सुस्पष्ट लिखा है कि आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर विन्ध्य पर्वत है। पर यह विन्ध्य पर्वत कहाँ है? क्या उत्तर और दक्षिण भारत को पृथक करने वाले विन्ध्याचल को ही प्राचीन ग्रन्थकार विन्ध्य के नाम से अभिहित कर रहे हैं या किसी अन्य पर्वत का विन्ध्य नाम है।

      एक क्षण के लिए स्वीकार कर लेते हैं कि नर्मदा नदी के उत्तर उत्तर प्रदेश के दक्षिण विन्ध्य है। अब मनुस्मृति के श्लोक की सङ्गति लगाइये। यह आज का तथाकथित विन्ध्य कर्क रेखा के निकट है। यदि इसे ही दक्षिणी सीमा मान लें तो पूर्व में ब्रह्म देश पड़ेगा, समुद्र नहीं, और पश्चिम में भी समुद्र अत्यल्प नाम मात्र को पड़ेगा और ९९ प्रतिशत सीमा स्थल की बनेगी जो पश्चिम के अफगानिस्तान इत्यादि देश होंगे । 

      फिर मनु का वाक्य, 🔥“आसमुद्रात्तुवैपूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्’’ सङ्गत नहीं हुआ। 

      वस्तुतः आज के तथा कथित विन्ध्य का भारत के प्राचीन भूगोल में विन्ध्य नाम नहीं था और मनुस्मृति में या अन्य ग्रंथों में जो विन्ध्य पर्वत का वर्णन है वह समुद्र तटवर्ती पर्वत है जिसे हम पूर्वीघाट पश्चिमी घाट पर्वतमाला का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का वक्तव्य बिलकुल सुस्पष्ट है। वे लिखते हैं- ‘‘हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।”

      सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लासे यहाँ ऋषि दयानन्दजी ने उत्तर और दक्षिण दोनों भारत को आर्यावर्त माना है और दोनों जगह के निवासियों को आर्य माना है। इससे श्री दिनकरजी का आक्षेप तो निर्मूल हो ही जाता है, साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि श्री दिनकरजी ने शीघ्रता का परिचय दिया है न कि धैर्यपूर्वक मनन का। 

      अस्तु, एक प्रश्न यह रह जाता है कि स्वामी दयानन्दजी ने विन्ध्याचल को रामेश्वर के पास कैसे कह दिया। वैसे सत्यार्थप्रकाश के उस स्थल के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विन्ध्य की व्याख्या करने की आवश्यकता तो समझते हैं पर उसे विवादास्पद नहीं समझते। अन्यथा उसके भी प्रभूत प्रमाण वे दे ही देते।

      किन्तु आज तो यह विवादास्पद हो गया है। श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने इसे उत्तर और दक्षिण का भेदक पर्वत ही माना है। वस्तुतः प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे दक्षिण समुद्र तटवर्ती पर्वत कहा गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में वर्णन आता है। वहाँ कई श्लोकों में विन्ध्य पर्वत का प्रसंग उठा हुआ है।

      सन्दर्भ यह है कि रावण सीता को चुराकर ले जा चुका है। जटायु मारा जा चुका है। बालि को मारकर राम ने सुग्रीव को राजा बना दिया है और हनुमान आदि सीता की खोज में निकले हैं। वहाँ समुद्र के किनारे एक पर्वत पर सम्पाति से अङ्गद हनुमान आदि मिले हैं और उनका वार्तालाप होता है। कई श्लोक हमारे सहायक सिद्ध होते हैं – 

      सुग्रीव बालि के भय से दक्षिण दिशा को भागा था उसका वर्णन है- 

      ▪️(१) 🔥दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिण दिशम्।

      विन्ध्यपादपसंकीर्णा चन्दनद्रुम शोभिनाम्॥ – ४६।१

      अर्थ-उस दिशा को छोड़ कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विन्ध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। 

      यदि विन्ध्य के पास चन्दन के वृक्ष हैं तो यह कर्क रेखा पार कर विन्ध्य नहीं, रामेश्वर का विन्ध्य है। 

      तीन दिशाओं से सुग्रीव के सैनिक लौट आये, सीता का पता न चला। किन्तु दक्षिण दिशा के सैनिक वीर हनुमान – 

      ▪️(२) 🔥“ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्चगहनानि च” ४८।२

      आगे स्वयं प्रभा तापसी ने हनुमान से कहा – 

      ▪️(३) 🔥एष विन्थ्यो गिरिः श्रीमान् नाना द्रुमलता युतः।

      एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः॥ ५२।३९।३२

      यहाँ विन्ध्यपर्वत, प्रस्रवण गिरि और सागर महोदधि तीनों पास ही हैं। 

      और देखिये – 

      ▪️(४) 🔥विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे। 

      उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा॥ ५३।३ 

      सीता को न पाकर हनुमान आदि विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिन्ता करने लगे। पुनरपि सम्पाति विन्ध्य की कन्दरा से निकल कर हनुमान आदि से बोला – 

      ▪️(५) 🔥कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः 

      उपविष्टान् हरीन् दृष्टिवा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत्॥ ५६।३

      सम्पाति कहता है । 

      ▪️(६) 🔥निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानारर्षभाः॥

      यों तो और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सुस्पष्ट है कि विन्ध्ये पर्वत दक्षिण समुद्र तट पर है न कि नर्मदा नदी के उत्तर। 

      एक प्रमाण और देखिए – 

      ▪️(७) 🔥दक्षिणस्योदधेः तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः॥

      इन सारे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि विन्ध्य पर्वत रामेश्वर के पास है, उत्तर दक्षिण भारत को विभक्त करने वाला नहीं। 

      एक बार जब यह निश्चय हो गया कि विन्ध्याचल पर्यन्त आर्यावर्त की सीमा का अर्थ है कन्या कुमारी पर्यन्त सम्पूर्ण भारत न कि केवल उत्तर भारत। अब इस सन्दर्भ में मनु के ‘‘आसमुद्रातु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात” की भी सङ्गति बैठती है। जब सम्पूर्ण भारत ही आर्यावर्त है तब जैसा श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने लिखा है कि पूर्व में बङ्गाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है यह ठीक है। अन्यथा नहीं। 

      अब ऐसी धारणा बना लेना कि उत्तर भारत वाले अपने को पवित्र और दक्षिण भारत वालों को हीन समझते थे यह केवल कल्पनामात्र है और है अत्यन्त अनिष्टकारी कल्पना । 

      आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को ठीक रूप में देखें। सम्पूर्ण देश एक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है। 

      पाश्चात्य विद्वान हम में फूट डालने के लिये उत्तर भारत को आर्यावर्त कहकर दक्षिण भारत को उत्तर भारत से फोड़ना चाहते थे। किन्तु हमें तो अपनी स्थिति सुस्पष्ट करनी चाहिये। यह क्षेत्र है जिसमें कार्य करने की आवश्यकता है। हमें प्रचार करना चाहिये कि सारा भारत आर्यावर्त हैं। यहाँ के सभी निवासी आर्य हैं। द्रविड़ या आदिवासी और बनवासी इत्यादि समस्याएँ तो अंग्रेजों की भेदनीति के फल हैं हमें अपनी जनता को बचा लेना चाहिये। 

      यहाँ जो कुछ लिखा गया है केवल एक ही दृष्टिकोण से – 

      *सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिये।*

      यदि आर्य, द्रविड़, आदिवासी, बनवासी, इत्यादि की कल्पित भेद भित्तियाँ ध्वस्त की जा सकें तो भारतीय जनता का अति कल्याण हो। (आर्य संसार १९६६ से संङ्कलित)

✍🏻 लेखक –  प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य का विद्वानों पर प्रभाव ✍🏻 पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

      स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा किये गये वेदभाष्य का प्रभाव अनेक देशी-विदेशी विद्वानों पर पड़ा है। किसी ने उसे स्पष्ट रूप से स्वीकार न करते हुए भी उनके विचारों में जो विशेष परिवर्तन हुआ, उससे आँका है। 

      इसके लिये हम एक भारतीय विद्वान् योगिराज अरविन्द घोष और विदेशी प्रतिप्रसिद्ध विद्वान् मैक्समूलर के विचार उद्धृत करते हैं। 

      श्री अरविन्द घोष ‘युजन’ ( =योगी) व्यक्ति थे। अतः उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारमार्थिक अर्थ के विषय में ही लिखा। योगिराज अरविन्द घोष ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के विषय में वैदिक मैगजीन १९१६ में लिखा था[१] –

[📎पाद टिप्पणी १. आगे उद्धृत श्री अरविन्द का मूल अंग्रेजी लेख और उसका हिन्दी भावांश पं. भगवदत्तजी कृत-वैदिक वाङ्मय का इतिहास भाग २, ‘वेदों के भाष्यकार’ ग्रन्थ से लिया है। द्र॰-पृष्ठ ८८-९२, सन् १९७६ का संस्करण]

      It is objected to the sense Dayananda gave to the Veda that it is no true sense but an arbitrary fabrication of imaginative learning and ingenuity, to his method that it is fantastic and unacceptable to the critical reason, to his teaching of a revealed Scripture that the very idea is a rejected superstition impossible for any enlightened mind to admit or to announce sincerely. 

      I shall only sate the broad principles underlying his thought about the Veda as they present themselves to me. 

      To start with the negation of his work by his critics, in whose mouth does it lie to accure Dayananda’s dealing with the Veda of a fantastic or arbitrary ingenuity? Not in the mouth of those who accept Sayana’s traditional interpretation. For if ever there was a monument of arbitiarily erudite ingenuity, of great learning divorced as great learning too often is, from sound judgment and sure taste and a faithful critical and comparative observation, from direct seeing and often even from plainest common sense or of a constant fitting of the text into the Procrushean bed of preconceived theory, it is surely this commentary, other wise so imposing so useful as first crude material, so erudite and laborious, left to us by the Acharya Sayana. Nor does the reproach lie in the mouth of those who take us final the recent labours of European scholarship. For if ever there was a toil of interpretation in which the loosest vein has been given to an ingenious speculation, in which doubtful indications have been snatched at as certain proofs, in which the boldest conclusions have been insisted upon with the scantiest justification, the most enormous difficulties ignored and preconceived prejudic maintained in face of the clear and often admitted suggestions of the text, it is surely this labour, so eminently respectable otherwise for its industry, good will and power of research, per formed through a long century by European Vedic scholarship. 

      What is the main positive issue in this matter? An interpretation of Veda must stand or fall by its central conception of the Vedic religion and the amount of support given to it by the intrinsic evidence of the Veda itself. Here Dayanada’s view is quite clear its foundation inexpugnable. The Vedic hymns are chanted to the One deity under many names, names which are used and even designed to express His qualities and powers. Was this conception of Dayanada’s arbitrary conceit fetched out of his own too ingenious imagination ? Not at all; it is the explicit statement of the Veda it self; “One existent, sages” not the ignorant, mind you, but seers, the men of knowledge.–“speak of in many ways, as Indra, as Yama, as Matarisvan, as Agni.” The Vedic Rishis ought surely to have known something about their own religion, more, let us hope than Roth or Max Mueller, and this is what they knew. 

      We are aware how modern scholars twist away from the evidence. This hymn, they say, was a late production, this loftier idea which it expresses with so clear a force rose up somehow in the later Aryan mind or was borrowed by those ignorent fire-worshipers, sun worshipers, sky-worshipers from their cultured and philosophic Dravidian enemies. But throughout the Veda we have confirmatory hymns and expressions. Agni or Indra or another is expressly hymned as one with all the other gods. Agni contains all other divine powers within himself, the Maruts are described as all the gods, one deity is addressed by the names of other as well as his own, or, most commonly, he is given as Lord and King of the universe, attributes only appro priate to the Supreme Deity. An, but that cannot mean, ought not to mean, must not mean the worship of One; let us invent a new word, call it henotheism and suppose that the Rishis did not really believe Indra or Agni to be the Supreme Deity but treated any god or every god as such for the nonce, perhaps that he might feel the more flattered and lend a more gracious ear for so hyperbolic a compliment ! But why should not the foundation of Vedic thought be natural monotheism rather than this new fangled monstrosity of henotheism ? Well, because primitive barbarians could not possibly have risen to such high conception and if you allow them to have so risen you imperil our theory of evolutionary stages of the human development and you destory our whole idea about the sense of the Vedic hymns and their place in the history of mankind. Truth must hide herself. common sense disappear from the field so that a theory may flourish ! I ask, in this point, and it is the fundamental point, who deals most straightforwardly with the text, Dayananda or the Western scholars ? 

      But if this fundamental point of Dayanada is granted, if the character given by the Vedic Rishis them selves to their gods is admitted, we are bound. when ever the hymns speak of Agni or another, to see behind that name present always to the thought of Rishis, the one Supreme Deity or else one of His powers with its attendant qualities or workings. Immediately the whole character of the Veda is fixed in the sense Dayananda gave to it; the merely ritual, mythological!, polytheistic interpretation of Sayana collapses, the merely meteorological and naturalistic European interpretation collapses. We have instead a real scripture, one of the world’s sacred books and the divine word of a lofty and noble religion. 

      अर्थात्[२] दयानन्द के वेदभाष्य के सम्बन्ध में अनेक शंकाएँ की जाती हैं। ….. मैं दयानन्द के वेद-भाष्य के आधाररूप उन प्रसिद्ध नियमों का उल्लेख करूँगा, जो मुझे समझ पाए हैं। 

[📎पाद टिप्पणी २. हमने श्री अरविन्द के लेख का भावमात्र दिया है। वैदिक मैगजीन,१९१६]

      सायण-भाष्य को ठीक समझनेवाले व्यक्ति स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। महाविद्वान् सायण का भाष्य ऊपर से महत्त्व वाला दिखाई देता हुआ भी वेद का यथार्थ और सीधा अर्थ नहीं है। पाश्चात्य विद्वान् भी स्वामी दयानन्द सरस्वती के भाष्य के विषय में कुछ नहीं कह सकते। उनका परिश्रम, शुभेच्छा, अनुसन्धान शक्ति से एक शताब्दी में किया गया अर्थ भी ठीक नहीं, क्योंकि इसमें पूर्वापर सम्बन्ध का अभाव है और सन्दिग्ध विषयों को प्रमाणभूत मान कर अर्थ किया गया है। 

      वेदार्थ तो वेद से होना चाहिए। इस विषय में स्वामी दयानन्द सरस्वती का विचार सुस्पष्ट है, उसकी आधारशिला अभेद्य है। वेद के सूक्त भिन्न-भिन्न नामों से एक ईश्वर को ही सम्बोधन करके गाए हैं । विप्र, अर्थात् ऋषि एक परमात्मा को ही अग्नि, इन्द्र, यम, मातरिश्वा और वायु आदि नामों से बहुत प्रकार से कहते हैं। वैदिक ऋषि अपने धर्म के विषय में मैक्समूलर या राथ की अपेक्षा अधिक जानते थे। अतः वेद स्पष्ट कहता है कि जितने भी नाम हैं वे सब एक ईश्वर के ही अनेक नाम हैं। 

      हम जानते हैं कि आधुनिक विद्वान् किस प्रकार इस बात को खींच तान करके उलटते हैं। वे कहते हैं, यह सूक्त नये काल का है। ऐसे ऊँचे विचार बहुत प्राचीन आर्य लोगों के मन में नहीं आ सकता था। इसके विपरीत हम देखते हैं कि वेद में अनेक सूक्त इसी भाव को बताते हैं। अग्नि में ही सब दूसरी दैवी शक्तियाँ हैं, इत्यादि। देवताओं के ऐसे विशेषण हैं, जो सिवाय ईश्वर के और किसी के हो नहीं सकते। पाश्चात्य इस बात से घबराते हैं। वेद का ऐसा अर्थ नहीं होना चाहिए, निस्सन्देह ऐसे अर्थ से उनका चिरकाल से पनप रहा विचार नष्ट होता है। अतः सत्य को छिपाना चाहिए। मैं पूछता हूं, इस बात में, इस मौलिक बात में स्वामी दयानन्द सरस्वती वेद का सीधा अर्थ करते हैं या पाश्चात्य विद्वान्। 

      इस एक के समझने से, दयानन्द के इस मौलिक सिद्धान्त के मानने से नहीं, वैदिक ऋषियों के इस विश्वास के जानने से कि सब देवता एक महान् आत्मा के नाम हैं, हम वेद का वास्तविक भाव जान लेते हैं। बस वेद का वही तात्पर्य निकलता है, जो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इससे निकाला। केवल याज्ञिक अर्थ या सायण का बहुदेवतावाद आदि का अर्थ भस्मीभूत हो जाता है। पाश्चात्यों का केवल अन्तरिक्ष आदि लोकों के देवताओं के सम्बन्ध में किया हुआ अर्थ मलियामेट हो जाता है। इसके स्थान में वेद एक वास्तविक धर्म ग्रन्थ, संसार का एक पवित्र पुस्तक और एक श्रेष्ठ और उच्च धर्म का देवी शब्द हो जाता।

      ◼️प्रा॰ मैक्समूलर[३] और स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य – यद्यपि प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्रा॰ मैक्समूलर की स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के सम्बन्ध में क्या धारणा थी अथवा उनके वेदभाष्य का प्रा॰ मैक्समूलर पर क्या प्रभाव पड़ा। इसके लिये यदि हम मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों की उत्तर कालीन विचारों से तुलना करें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसके विचारों में जो परिवर्तन दिखाई देता है, उसके पीछे दयानन्द के वेदभाष्य का प्रभाव अवश्य है। एक स्थान पर तो वह स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की अपूर्वता को हल्के स्वर से स्वीकार भी करता है। उसने नागर प्रशासक के रूप में भारत आनेवाले व्यक्तियों के सम्मुख ७ व्याख्यान दिये थे। उनका विषय था- INDIA WHAT CAN IT TEACH US अर्थात् ‘हम भारत से क्या सीखें’ इसके तीसरे भाषण में कहा था –

      “We may divide the whole of Sanskrit literature, begining with the Rig Veda and ending with Dayanada’s Introduction to his edition of the Rig Veda, his by no means uninteresting Rig-Veda-Bhumika, into two great periods.” 

      अर्थात् ‘ऋग्वेदकाल से प्रारम्भ करके दयानन्द द्वारा स्वसम्पादित ऋग्वेद की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को हम दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह बात भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है। (भाषण ३, पृष्ठ १०२)। 

[📎पाद टिप्पणी ३. प्रा॰ मैक्समूलर ने ऋग्वेद सायणभाष्य के आरम्भ में स्वनाम का ‘मोक्षमूलर’ रूप में संस्कृतीकरण किया था। अतः स्वामी दयानन्द सरस्वती उनका उल्लेख सर्वत्र ‘मोक्षमूलर’ शब्द से ही स्वग्रन्थों में करते थे।]

      प्रा॰ मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों और उत्तरकालीन विचारों का निर्देश हम आगे करेंगे। पहले हम मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में लिखते हैं। 

      ◼️स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के नियमित ग्राहक – स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्य के प्रतिमास छपनेवाले अङ्कों के टाइटल पृष्ठों पर वेदभाष्य के नियमित ग्राहकों के नाम पते छपते थे। उनमें हमने एक स्थान पर प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के नाम छपे देखे थे। मुशी समर्थदान ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञानुसार ३० जून १८७९ ई॰ में श्यामजीकृष्ण वर्मा को जो पत्र इङ्गलैण्ड लिखा था, उसमें भी मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों के वेदभाष्य का नियमित ग्राहक होना सिद्ध होता है । (यह पत्र हम आगे उद्धृत करेंगे।)

      स्वामी दयानन्द सरस्वती अपने वेदभाष्य में तथा अन्यत्र जब भी अवसर प्राप्त होता, प्रा॰ मैक्समूलर का प्रतिवाद करने में नहीं चूकते थे। इसी प्रकार एक अवसर पर मैक्समूलर ने कहा था- दयानन्द मेरे वेदभाष्य का कितना ही खण्डन क्यों न करें, मेरे द्वारा प्रकाशित ऋग्वेद सायणभाष्य सदा उनकी मेज पर खुला रहता है, (द्र॰-पूर्व पृष्ठ ८६, तथा टि॰ २)। इस प्रकार दोनों ही एक दूसरे के कार्य से न केवल भले प्रकार परिचित थे, अपितु एक-दूसरे के कार्यों की वास्तविकता को भी समझते थे। फिर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती यह स्पष्ट रूप से जानना चाहते थे कि प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स के अपने वेद भाष्य के सम्बन्ध में क्या विचार हैं। मुशी समर्थदान प्रबन्धक वेदभाष्य कार्यालय ने ३० जून १८७९ को स्वामी दयानन्द सरस्वती की आज्ञा[४] से श्यामजी कृष्णवर्मा को आक्सफोर्ड (इङ्गलैण्ड) के पते से एक पत्र लिखा था। उस में लिखा है- प्रा॰ मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स दोनों से भिजवा देना और लिखना कि उन लोगों का स्वामीजी और वेदभाष्य के विषय में क्या कहना है। स्वामीजी उनके भाष्य का खण्डन करते हैं, उसके बाबत क्या कहते हैं।[५]

[📎पाद टिप्पणी ४. ‘मैं यह पत्र स्वामीजी की आज्ञानुसार लिखता हूं।’ ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, पृष्ठ २७६, पं॰१०]

[📎पाद टिप्पणी ५. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ २७७, पं॰ ८-११] 

      पुनः प्राषाढ़ सुदि ६, मंगलवार (२३ जुलाई १८८०) को श्यामजी कृष्णवर्मा को लिखे पत्र में स्वामी दयानन्द पूछते हैं-

      श्रीयुत प्रियवराध्यापक मूनियर विलियंस मोक्षमूलराख्यानामधुना वेदादिशास्त्राणां मध्ये कीदृङ् निश्चयः प्रेम तदर्थप्रचाराय चिकीर्षाऽस्ति।[६]

[📎पाद टिप्पणी ६. ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन, भाग १, पृष्ठ ३४७, पं॰ २३-२४]

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती के महत्त्व को स्वीकारना – हम पहले लिख चुके हैं कि अपने समय के इन दोनों प्रतिवादिभयङ्करों का कभी परस्पर साक्षात् नहीं हुआ परन्तु दोनों एक दूसरे के कार्य से भले प्रकार परिचित थे। 

      ◼️मैक्समूलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती को इङ्गलेण्ड आने का निमन्त्रण –  स्वामी दयानन्द सरस्वती के पं॰ लेखराम-लिखित जीवनचरित से स्पष्ट होता है कि मैक्समूलर ने सन् १८७५ में स्वामी दयानन्द सरस्वती को इंग्लैंड आने का निमन्त्रण भेजा था। उक्त जीवनचरित के पृष्ठ २८७ (हिन्दी अनु॰ प्र॰ संस्क॰) पर मैक्समूलर के पत्र का निम्न सारांश दिया है –

      ‘यदि आप यहां आवें तो बहुत बड़ी कृपा होगी। और वहां के धन्य भाग हैं, जहाँ आपने जन्म लिया है।’ 

      इसके उत्तर में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो पत्र लिखा था, उसका सारांश उसी जीवनचरित के पृष्ठ २८८ में इस प्रकार छपा 

      मेरी इच्छा आने की अवश्य थी, परन्तु यहाँ के लोग अभी मुझे नास्तिक कहते हैं। जब तक में इस देश को अच्छी तरह से न बतादूँ कि में कैसा नास्तिक हूं, तब तक नहीं आ सकता। 

      पं॰ लेखराम ने तो यह भी लिखा है…’वहाँ ( बम्बई) के भाटियों ने जहाज पर ले जाने का वचन भी दे दिया था’ (वही, पृष्ठ २८८)। पुनः पृष्ठ २९३ पर लिखा है- [लखनऊ में] ‘एक बंगाली बाबू को अंग्रेजी पढ़ाने को नौकर रखा था। और पढ़ना आरम्भ किया था।’ इण्डियन मिरर (कलकत्ता), बिहार बन्धु (पटना), हिन्दूबान्धव (लाहौर) के समाचारपत्रों में इस आशय की सूचनाएँ छपी थीं। 

      ‘ईश्वर जो कुछ करता है अच्छा ही करता है’ इस सुभाषित के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती का इङ्गलैण्ड जाना नहीं हुआ, यह अच्छा ही हुआ। अन्यथा पाश्चात्य भक्तों को यह कहने का अवसर मिल जाता कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जो कार्य किया है, उसकी प्रेरणा उन्हें पाश्चात्य विचारधारा से मिली है। 

      ◼️स्वा॰ द॰ स॰ का जीवनचरित लिखने की आङ्काक्षा – स्वामी दयानन्द सरस्वती के निधन के कुछ समय पश्चात् प्रा॰ मैक्समूलर ने स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखने का संकल्प किया था, और उसके लिये परोपकारिणी सभा के तात्कालिक मन्त्री मोहनलाल विष्णूलाल पाण्डया को पत्र लिखा था। यह वृत्तान्त अजमेर के ‘देश हितैषी’ पत्र के खण्ड ४ अङ्क ४ सं॰ १९४२ (?) के पृष्ठ ८५ से ज्ञात होता है। पाण्ड्याजी ने स्वामी दयानन्द सरस्वती की जीवनचरित सम्बन्धी सामग्री स्वयं एकत्र न करके सब आर्यसमाजियों को प्रेरणा दी थी कि जिन्हें स्वामीजी की कोई विशेष घटना ज्ञात होवे, वह प्रा. मैक्समूलर साहब को लिखें। इसी प्रकार का वर्णन ‘फर्रुखाबाद का इतिहास’ के पृष्ठ २५५ पर भी मिलता है। 

      हन्त ! परोपकारिणी सभा के मन्त्री केवल आर्य समाजियों को प्रेरित मात्र करके अपने उत्तरदायित्व से मुक्त न होकर प्रा॰ मैक्समलर को स्वामीजी की जीवनघटनाओं को संग्रहीत करके भेजते तो प्रा॰ मैक्समलर द्वारा स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवनचरित लिखा जाना एक गौरव की बात होती। अस्तु 

      इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रा॰ मैक्समूलर और स्वामी दयानन्द सरस्वती के मन्तव्यों में वैपरीत्य होते हए भी दोनों में व्यक्तिगत सौहार्द उसी प्रकार का लक्षित होता है, जैसे मोनियर विलियम्स और स्वामी दयानन्द सरस्वती में परस्पर था।

      अब हम प्रा॰ मैक्समूलर के वेदविषयक प्रारम्भिक और उत्तरवर्ती विचारों का संक्षेप से वर्णन करते हैं। इससे स्पष्ट हो जायेगा कि प्रा. मैक्समूलर के विचारों में उत्तरकाल में कितना अधिक परिवर्तन हुआ

था। 

      ◼️प्रारम्भिक विचार- मैक्समूलर के आरम्भिक काल में वेदों के सम्बन्ध में क्या विचार थे, इसके निदर्शनार्थ उसके कुछ उद्धरण नीचे देते हैं –

      मैक्समूलर के कुछ पत्र अपनी पत्नी पुत्र आदि के नाम लिखे हुए उपलब्ध हुए हैं।[७] पत्रलेखक पत्रों में अपने हृदय के भाव बिना किसी लाग लपेट के लिखता है। अतः किसी भी व्यक्ति के लिखे हुए ग्रन्थों की अपेक्षा उसके पत्रों में लिखे विचार अधिक प्रामाणिक माने जाते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ७. Life and letters of Frederich Max Muller, Two Vols.]

      ▪️१. सन् १८६६ के एक पत्र में मैक्समूलर अपनी पत्नी को लिखता –

      वेद का अनुवाद और मेरा यह संस्करण[सायणभाष्य सहित ऋग्वेद का संस्करण] उत्तरकाल में भारत के भाग्य पर दूर तक प्रभाव डालेगा। यह उसके धर्म का मूल है। और मैं निश्चय से अनुभव करता हूं कि उन्हें यह दिखाना कि यह मूल कैसा है, गत तीन सहस्र वर्ष में उससे उपजने वाली सब बातों के उखाड़ने का एक मात्र उपाय है।[८]

[📎पाद टिप्पणी ८. ……This adition of mine and the translation of the Veda Will here after tell to a great extent on the fate of India, ……It is the root of their religion and to show them what the root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung from it during the last three thousand years.] 

      ▪️२. एक पत्र में वह अपने पुत्र को लिखता है –

      ‘संसार की सब धर्मपुस्तकों में से नई प्रतिज्ञा[अर्थात् ईसा की बाईबल] उत्कृष्ट है। इसके पश्चात कुरान जो प्राचार की शिक्षा में नई प्रतिज्ञा का रूपान्तर है, रखा जा सकता है। इसके पश्चात् पुरातन प्रतिज्ञा[अर्थात् यहूदी बाइबल] दाक्षिणात्य बौद्ध पिटक, बेद, और अवेस्ता आदि हैं।'[९] 

[📎पाद टिप्पणी ९. Would you say that anyone sacred book is superior to all others in the world ?……I say the New Testament. After that, I should place the Koran, which in its moral teachings, is hardly more than a later edition of the New Testament. Then would follow,……the old Testament, the Southern Buddhist Tripitika….. The Veda and the Avesta.] 

      ▪️३. १६ दिसम्बर सन् १८६८ में भारत सचिव ड्यूक आफ आर्गाइल को एक पत्र में मैक्समूलर लिखता है –

      ‘भारत का प्राचीन धर्म नष्टप्राय है और यदि ईसाई धर्म उसका स्थान नहीं लेता तो यह किसका दोष होगा ?'[१०]

[📎पाद टिप्पणी १०. The ancient religion of India is doomed and if Christianity does not step in, whose fault it be ?] 

      ▪️४. मैक्समूलर लिखता है- 

      ‘वैदिक सूक्तों की एक बड़ी संख्या परम बालिश, जटिल अधर्म और साधारण है।'[११] 

[📎पाद टिप्पणी ११. “Large number of Vedic hymns are childish in the extreme : tedious, low, common place.” Chips from a German Workshop, second edition, 1866, p. 27.]

      ▪️५. मैक्समूलर के नाम उसके घनिष्ठ मित्र ई॰ बी॰ पुसे का पत्र – 

      ‘आपका कार्य भारतीयों को ईसाई बनाने के यत्न में नवगुण लाने वाला है।'[१२]

[📎पाद टिप्पणी १२. ‘Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India……’]

      वाह क्या कहना? जैसा मैक्समूलर वैसा ही उसका मित्र ? ऐसों के लिये ही तो कहावत है- 🔥उष्ट्राणां विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभाः। 

      वस्तुतः इस काल के जो भी ईसाई यहूदी वेद और संस्कृत भाषा पर काम कर रहे थे, उन सबके मस्तिष्क में ईसाई यहूदी मत का पक्षपात कार्य कर रहा था। मोनियर विलियम्स ने संस्कृत अंग्रेजी कोश की रचना की, इसके पीछे भी ईसाईयत की भावना काम कर रही थी। उसने उक्त कोष भारतीयों को ईसाई बनाने में अपने देशवासियों को सहायता पहुंचाने के लिये लिखा था। वह कोश की भूमिका में लिखता है- 

      “That the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit, so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian Religion.” 

(भूमिका, पृष्ठ९) 

      हमारा प्रयोजन मैक्समूलर के प्रारम्भिक विचारों को प्रस्तुत करना था, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो गया। अब हम उसके उत्तरकालीन विचारों को प्रस्तुत करते हैं –

      ◼️उत्तरकालीन विचार – मैक्समूलर के उत्तरकालीन विचारों का संकलन हम उसके उन व्याख्यानों से उद्धत करते हैं, जिन्हें उसने भारत में प्रशासकीय सेवा में आनेवाले उम्मीदवारों के सम्मुख सन् १८८२ में “INDIA WHAT CAN IT TEACH US’ (हम भारत से क्या सीखें ? ) शीर्षक व्याख्यानमाला में प्रस्तुत किया था। 

      सबसे पहले तो हमारा ध्यान उक्त व्याख्यानमाला का शीर्षक ही आकृष्ट करता है। यह शीर्षक ही मैक्समूलर के विचारों में पाये परिवर्तन की घोषणा करता है। अन्यथा भारतीयों को असभ्य जाहिल मानने वाले व्यक्ति को तो भारत में प्रशासन चलाने आनेवाले व्यक्तियों को बताना चाहिये था कि तुम्हें वहाँ जाकर असभ्य भारतीयों को कैसे सभ्य बनाना है, न कि उन्हें यह बताया जाये कि ‘हम भारत से क्या सीखें ?’ अब हम इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद[१३] से कतिपय विचार उद्धत करते हैं –

[📎पाद टिप्पणी १३. अनुवादक- श्री कमलाकर तिवारी एवं रमेश तिवारी। प्रकाशक-इतिहास प्रकाशन संस्थान, इलाहाबाद। प्रथम संस्करण, जुलाई १९६४]

      ▪️वैदिक धर्म ने कोई भी बाह्य प्रभाव ग्रहण नहीं किया – 

      “वेदिक साहित्य को ऐतिहासिक महत्त्व देने में जब कोई आपत्ति नहीं मिल सकी तो भी अकारण आलोचकों ने एक महती और अन्तिम आपत्ति उठायी। ऐसे लोगों ने बल देकर कहना आरम्भ किया कि वैदिक काव्य यदि सम्पूर्णरूपेण विदेशी नहीं, तो उस पर विदेशी प्रभाव और विशेषकर सेमेटिक प्रभाव तो अवश्य ही है। संस्कृत विद्वानों ने वेद के अनेक आकर्षक तत्त्वों का वर्णन किया है। उन्हीं के अनुसार वेद का सर्वाधिक आकर्षक तत्त्व यह है कि यह केवल धार्मिक विचारों की प्रति प्राचीन स्थिति से ही हमें परिचित नहीं कराता, वरन् वैदिक धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है, जिसने अपने सम्पूर्ण विकासकाल में कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं ग्रहण किया तथा संसार के सभी धर्मों की तुलना में वह सर्वाधिक शताब्दियों तक निर्बाध रूप से चलता रहा है।” (पृष्ठ १३५)। 

      ▪️वैदिक भाषा, साहित्य धर्म वा यज्ञ पर कोई भी बाह्य प्रभाव नहीं है-  

      “प्राचीन भारतीय साहित्य पर विदेशी प्रभाव सिद्ध करने के लिये जितने तर्क दिये जा चुके हैं, उन सबको कसौटी पर कस लेने के पश्चात् अब हम इस स्थिति में आ गये हैं कि हम कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार का बाह्य प्रभाव वैदिक भाषा, साहित्य, धर्म या यज्ञ पर नहीं है। वह जिस किसी भी रूप में हमारे सामने है, उसका उसी रूप और उसी देश में विकास हुआ है, जो उत्तर में अगम्य पर्वत श्रेणियों से, पश्चिम में सिन्ध तथा रेगिस्तान से, दक्षिण में अगाध सागर से एवं पूर्व में गंगा से पूर्ण रूपेण रक्षित था। हमारे सामने एक ऐसा काव्य (वैदिक धर्म) है, जो वहीं जन्मा और वहीं विकसित हुआ।” (पृष्ठ १४५)। 

      ▪️बहुदेवतावाद वा एकदेवतावाद- 

      “यदि आप हमसे यह पूछ बैठे कि वैदिक धर्म एकदेववादी है या बहुदेववादी, तो इसका उत्तर दे सकना मेरे लिए कम कठिन नहीं होगा। एकदेववाद का जो अर्थ लगाया जाता है, उस अर्थ में तो वैदिक धर्म एकदेववादी नहीं है। यद्यपि अनेक ऋचाएँ ऐसी हैं, जिनमें एकदेववाद की बात जितना बल देकर कही गयी है, उतना बल देकर तो ओल्ड टेस्टामेण्ट में भी नहीं कही गयी है। न्यू टेस्टामेण्ट एवं कुरान की भी यही स्थिति है। एक वैदिक ऋषि का कथन है कि “वह एक है, सन्त जन उसे विभिन्न नामों से पुकारते हैं, जैसे अग्नि, यम, मातरिश्वन्”[१४]। पृष्ठ( १४८)। 

[📎पाद टिप्पणी १४. 🔥इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः। ऋ॰ १।१६४।४६] 

      “यदि एकदेववाद या बहुदेववाद में निर्णय करना हो तो प्रथम दृष्टि में तो यही प्रतीत होगा कि वैदिक धर्म बहुदेववादी है, परन्तु बहुदेववाद से हम जो अर्थ लगाते हैं, उस अर्थ में यह शब्द वैदिक धर्म का विशेषण नहीं बन सकता। वास्तव में बहुदेववाद की विचारधारा को हमने ग्रहण किया है रोम और यूनान से। हम समझते हैं कि बहुदेव में देवताओं का एक संगठित रूप होता है, जिनमें प्रत्येक की शक्तिमात्रा दूसरे से भिन्न होती है और वे सब-के-सब उस परमेश्वर के सहायक हैं, जिसे वे जीअस या जुपिटर कहते हैं। वेदों का बहुदेववाद इससे भिन्न है। वह न केवल यूनानियों या रोम वालों से भिन्न है, वरन् वह पालिनेशियन, अमेरिकन तथा अफ्रीकन भावनाओं से भी भिन्न है और यह भिन्नता उसी प्रकार की है जैसे स्वशासनाधिकारप्राप्त ग्रामों का संघ राजतंत्रीय शासन से भिन्न होता है।” (पृष्ठ १४६)। 

      ▪️केवल एक ही देव – “……. उन ऋषियों ने स्पष्ट रूप से समझ लिया था कि यद्यपि ये नाम केवल नाममात्र हैं और जिसके ये नाम हैं, वह एक है और केवल एक है।” (पृष्ठ १५१)। 

      “उसी विद्वान् लेखक (यास्क) का कथन है कि देव तो वास्तव में एक ही है….. ये ढेर सारे देवता उसी आत्मन् के विभिन्न सदस्य हैं।” (पृष्ठ २२३)। 

      ▪️वेद का चरम लक्ष्य – “मैं तो यहाँ तक कह सकता है कि भारत का दर्शनशास्त्र ही वहाँ का सर्वोच्च धर्म है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में प्राचीनतम दर्शनशास्त्र का प्राचीनतम नाम है- वेदान्त अर्थात् वेद का अन्त, वेद का लक्ष्य या वेद का सर्वोच्च उद्देश्य।” (पृष्ठ २२३)। 

      ”लोगों ने वेद की महत्ता को कम करने के कम प्रयत्न नहीं किए हैं, पर उसका महत्त्व आज भी वैसा ही है।” (पृष्ठ २२७) ।

      “वेदान्तदर्शन के अनेक प्रमुख अङ्ग गवई गाँव के निरक्षर व्यक्ति भी पूरी तरह समझते हैं।” (पृष्ठ २२७)। 

      मैक्समूलर ने अपने व्याख्यानों की समाप्ति ‘शापन हावर’ के उपनिषदविषयक उद्गारों को उद्धृत कर इस प्रकार किया। 

      यदि आप ये समझते हों कि मेरे द्वारा प्रस्तुत विवरण अतिरञ्जित हैं, तो मैं आपके समक्ष एक महान दार्शनिक-आलोचक के कुछ शब्द रखूँगा। उस विद्वान् की यही विशेषता थी कि दूसरों के विचारों की व्यर्थ प्रशंसा करना उसके स्वभाव के विपरीत था। इस प्रसिद्ध विद्वान् शापन हावर ने उपनिषदों पर अपना विचार प्रगट करते हुए लिखा है कि-

      “समूचे संसार में कोई भी अध्ययन इतना लाभजनक और ऊँचा उठाने वाला नहीं है, जैसा कि उपनिषदों का अध्ययन। यह मेरे जीवन का संतोष रहा है और यही मेरी मृत्यु का भी सन्तोष रहेगा।” (पृष्ठ २३०)।

      इन उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन व्याख्यानों के समय (सन् १८८२) तक भारत, भारतीय धर्म और वेद के विषय में मैक्समूलर के विचारों में बहुत अन्तर हो गया था। परन्तु यह अन्तर किन कारणों से हुआ, क्या स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य इसमें कारण था वा नहीं, इसका स्पष्ट संकेत नहीं मिलता। स्वामी दयानन्द सरस्वती के वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य से मैक्समूलर भली प्रकार परिचित था और स्वामी दयानन्द सरस्वती भी अपने वेदभाष्यसम्बन्धी कार्य के विषय में मैक्समूलर और मोनियर विलियम्स की प्रतिक्रिया जानने को सदा उद्यत रहते थे, यह हम पूर्व लिख चुके हैं। और इनके मध्य श्यामजीकृष्णवर्मा, जो संस्कृत अध्यापन के लिये लन्दन गए हुए थे, सम्पर्कमाध्यम के रूप में भूमिका निभा रहे थे। इन सब घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि मैक्समूलर के विचारों में परिवर्तन का प्रमुख कारण स्वामी दयानन्द सरस्वती का वेदभाष्य अवश्य रहा होगा। इसकी पुष्टि मैक्समूलर के निम्न कथन से भी होती – 

      ‘ऋग्वेदकाल से आरम्भ करके दयानन्द द्वारा सम्पादित ऋग्वेद भाष्य की भूमिका लिखे जाने के समय तक के साहित्य को दो भागों में बाँट सकते हैं। यहाँ यह भी बता देना समुचित ही होगा कि दयानन्द द्वारा लिखी गई ऋग्वेद की भूमिका भी कम रुचिपूर्ण नहीं है।’ हम भारत से क्या सीखें, पृष्ठ १०२। 

      सबसे अधिक खेद का विषय यह है कि भारत के विश्वविद्यालयों में मैक्समूलर के वे ही विचार पढ़ाये जाते हैं, जो उसने प्रारम्भिक काल में ईसाई मत के जोश में लिखे थे। मेरा सुझाव है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय में, जिसमें भी संस्कृत भाषा से सम्बद्ध विषय पढ़ाये जाते हों, वहाँ कम से कम मैक्समूलर के INDIA WHAT CAN IT TEACH US ? (हम भारत से क्या सीखें ) शीर्षक व्याख्यानसंकलन पाठ्यपुस्तकों में अवश्य रखा जाय, तभी मैक्समूलर-भक्त अपनी अन्ध भक्ति को त्यागकर कुछ प्रकाश पा सकेंगे। 

✍🏻 लेखक – महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक

[ 📖 साभार ग्रन्थ – मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥