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( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व

|| ओ३म् ॥
( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वैदिक धर्म में सिर पर चोटी (शिखा ) धारण करने का असाधारण महत्व है। प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के
नवजात बच्चे पश्चात् सिर के उस भाग पर गौ के के खुर के प्रमाण वाले आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान सिर पर होता है, जहां से सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की ओर आकर समाप्त होती है
और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने के लिए अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है ।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
दूसरे शब्दों में उसी से वात संस्थान प्रारम्भ व संचालित होता है। यदि इसमें से निकलने वाली कोई भी नाड़ी किसी भी कारण
से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज़ (अधरंग) मारना कहते हैं। आप यह ध्यान रक्खें कि समस्त शरीर को जो भी
शक्ति मिलती है, वह सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है, उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है, जो गौ के नवजात
बच्चे के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती हैं।
बाल गर्मी पैदा करते हैं। बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्पा हर समय प्रदान करते रहते हैं,
जितनी कि उसे समस्त शरीर के वात नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित रखने के लिए आवश्यकता होती है। इसका
परिणाम यह होता है कि मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहता है जो समस्त शरीर को बल देता है।
किसी भी अंग में फालिज गिरने का भय नहीं रहता. है । और साथ ही लघु मस्तिष्क विकसित होता रहता है जिसमें जन्म-
जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
यह परीक्षण करके देखा गया है कि बड़ी गुच्छेदार शिखा धारण करने वाले दाक्षिणीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क शिखा न रहने
वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा विशेष विकसित पाये गये हैं। यह परीक्षण अनेक वैज्ञानिकों ने दक्षिण भारत में किया था।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है । वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा (विद्युत) से चैतन्य बनाता है।
इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा धारण करने का विधान कई स्थानों पर मिलता है, देखिये-
शिखिभ्यः स्वाहा॥

  • अथर्ववेद १९-२२-१५
    अर्थ- चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो। आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोमा केशा न शीर्षन्यशसे
    श्रियैशिखा सिँहस्य लोमत्विषिरिन्द्रियाणि ॥
  • यजुर्वेद अध्याय १९ मन्त्र ९२ यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
    याज्ञिकैगोदर्पण माजनि गोक्षुर्वच्च शिखा ।
  • यजुर्वेदीय काठकशाखा । अर्थात् सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त मानव को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
    नोट-गौ के खुर के प्रमाण से तात्पर्य है कि गाय के पैदा होने के समय बछड़े के खुर के बराबर सिर पर चोटी धारण करें।
    • केशानाँ शेष कारणं शिखास्थापनं केश शेष करणम्।

इति मंगल हेतोः ॥
.
-पारस्कर गृह्य सूत्र
मुण्डन संस्कार के बाद जब भी बाल सिर के कटावे तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावे, मंगलकारक होता है।
सदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च। बिशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥
यह

  • कात्यायन स्मृति ४ अर्थ-यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गांठ लगा कर रखें। बिना शिखा व यज्ञोपवीत के
    कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें अन्यथा वह न करने के ही समान है।
    बड़ी शिखा धारण करने से वीर्य की रक्षा करने में भी सहायता मिलती है। शिखा बल-बुद्धि लक्ष्मी व स्मृति को संरक्षण प्रदान
    करती है।
    एक अंग्रेज डॉक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक विरलि कल्पक में लिखा है जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है-
    ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है। किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ने
    लगती है।
    यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रकट होती है या प्रवेश
    करती है। परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।
    सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाध रण सुन्दर रंग भी देख लेते हैं। जो शक्ति परमात्मा के द्वारा मस्तिष्क में
    आती है वह वर्णनातीत है।
    प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी लिखा था-
    The Concentration of mind upwards sends a rush of this power through the of the head.
    अर्थात् शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से इस ओज शक्ति को धारण कर लेता है। श्री हापसन ने भारत भ्रमण के पश्चात्
    एक लेख में गार्ड पत्रिका नं० २५८ में लिखा था।
    For a long time in India I studied on Indian civilization and tradition southern Indians cut their hair up to
    half head only. I was highly effected by their mentality. I assert that the hair tuft on head is very useful in
    Culture of mind. I also believe in Hindu religion now. I am very particular about hair tuft.
    अर्थात् भारत में कई वर्षों तक रहकर मैंने भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का अध्ययन किया। दक्षिण भारत
    में आधे सिर तक बाल रखने की प्रथा है। उन मनुष्यों की बौद्धिक विलक्षणता से मैं प्रभावित हुआ। निश्चित रूप से शिखा
    बौद्धिक उन्नति में बहुत सहायक है । मेरा तो हिन्दू धर्म में अगाध विश्वास है और अब मैं चोटी धारण करने का कायल हो गया
    हूँ।
    इसी प्रकार सरल्यूकस वैज्ञानिक ने लिखा है-
    शिखा का शरीर के अंगों से प्रधान सम्बन्ध है। उसके द्वारा शरीर की वृद्धि तथा उसके तमाम अंगों का संचालन होता है। जब
    से मैंने इस वैज्ञानिक तथ्य का अन्वेषण किया है मैं स्वयं शिखा रखने लगा हूँ।

सिर के जिस स्थान पर शिखा होती है उसे Pinial- Joint कहते हैं। उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे Picuitary कहते हैं।
इससे एक रस बनता है जो सम्पूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है। इसकी कार्य शक्ति
चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
मूलाधार से लेकर समस्त मेरु मण्डल में व्याप्त सुषुम्ना नाड़ी का एक मुख ब्रह्मरन्ध ( बुद्धि केन्द्र) में खुलता है।
इसमें से तेज (विद्युत) निर्गमन होता रहता है।
शिखा बन्धन द्वारा यह रुका रहता है। इसी कारण से शास्त्रकारों ने शिखा में गांठ लगाकर रखने का विधान किया है।
डॉक्टर क्लार्क ने लिखा है- के
मुझे विश्वास हो गया है कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है। चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं
बल्कि सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
अर्ल टामस ने सन् १८८१ में अलार्म पत्रिका के विशेषांक में लिखा था-
Hindus keep safety of Medulla oblongle by lock of hair. It is superior than other religious experiments.
Any way the safety of oblongle is essential.
अर्थात् सुषुम्ना की रक्षा हिन्दू शिखा रख कर करते हैं। अन्य धर्म के कई प्रयोगों में चोटी सबसे उत्तम है। किसी भी प्रकार
सुषुम्ना की रक्षा आवश्यक है।
गुच्छेदार चोटी बाहरी उष्णता को अन्दर आने से रोकती है और सुषुम्ना व लघुमस्तिष्क तथा सम्पूर्ण स्नायविक
संस्थान की गर्मी से रक्षा करती है और शारीरिक विशेष उष्णता को बाहर निकाल देती है। हां, यदि अत्यन्त उष्ण प्रदेश हो तो
शिखा न रखना भी हानिकारक नहीं होगा।
संन्यासी ( चतुर्थ आश्रमी ) को शिखा न रखने का आदेश इस आधार पर है कि उसने तीन आश्रमों में उसे रखकर शरीर को पुष्ट
कर लिया होता है और चौथे आश्रम में वह योगाभ्यास द्वारा वात नाड़ी संस्थान को पुष्ट करता रहता है, अतः उसके लिये
शिखा विहित नहीं रह जाती है।

  • इस प्रकार वैदिक धर्म में शिखा वैज्ञानिक- आयुर्वेदिक तथा धार्मिक दृष्टि से मानव मात्र के लिये अत्यन्त उपयोगी है । किन्तु
    उससे लाभ तभी होगा जबकि शास्त्रादेश के अनुसार गौ के पैदाशुदा बच्चे के खुर के बराबर की जगह पर रखकर उसे बड़ा
    किया जायेगा व ग्रन्थि लगाकर रखा जावेगा।
    जापानी पहलवान अपने सिर पर मोटी चोटी गांठ लगाकर धारण करते हैं, यह भारतीय परम्परा जापान में आज भी
    विद्यमान देखी जा सकती है।
    चोटी के बाल वायु मण्डल में से प्राणशक्ति ( आक्सीजन) को आकर्षण करते हैं और उसे शरीर में
    स्नायविक संस्थान के माध्यम से पहुंचाते हैं। इससे ब्रह्मचर्य के संयम में सहायता मिलती है। जबकि शिखाहीन व्यक्ति कामुक व
    उच्छृंखल देखे जाते हैं।
    शिखा मस्तिष्क को शान्त रखती है तथा प्रभु चिन्तन में साधक को सहायक होती है। शिखा गुच्छेदार रखने व उससे गांठ
    बांधने के कारण प्राचीन आर्यो में ब्रह्मचर्य -तेज- मेधा बुद्धि व दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
    जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में शिखा व सूत्र का परित्याग करना प्रारम्भ कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर
    ह्रास होता चला जा रहा है।

पागलपन-अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे, वे अब शिखाहीनों में बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व सूत्र की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा, अपने बलिदान
दिये। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी गुरु गोविन्दसिंह धर्मवीर हकीकतराय आदि सहस्रों भारतीयों ने चोटी जनेऊ की रक्षार्थ
अन्तिम बलिदान देकर भी इनकी
रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की, उसी चोटी जनेऊ को आज का बाबू टाइप का अंग्रेजीयत का गुलाम सांस्कृतिक
चिन्ह (चोटी जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है यह कितने दुःख की बात है।
आज के इस बाबू को इन परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता महसूस होती
है।
परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहन कर खड़े होकर मूतने (पेशाब करने) में कोई शर्म
अनुभव नहीं होती है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है तथा भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
आजकल का ये सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति जहाँ चाहे खड़े होकर स्त्रियों, बच्चों अन्य पुरुषों की उपस्थिति का ध्यान किये बिना
ही मूतने लगता है, जबकि टट्टी और पेशाब छिपकर आड़ में एकान्त स्थान में त्यागने की भारतीय परम्परा है।
प्रश्न- यदि केवल चोटी न रखकर समस्त सिर पर लम्बे बाल रखे जावें तो क्या हानि होगी?
उत्तर-तालु भाग पर लम्बे बालों से स्मृति शक्ति कम हो जावेगी, दाहिने कान के ऊपर सिर पर लम्बे बालों से जिगर को हानि
होगी व बायें कान के ऊपर के भाग पर रखने से प्लीहा को नुकसान पहुंचेगा।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से
चोटी नहीं रखनी चाहिए। उनका फैशन के चक्कर में पड़कर बाल कटाना अति हानिकारक रहता है।
अतः स्त्रियों को बाल कदापि नहीं कटाने चाहिये।
समाप्त।

‘आर्य-द्रविड़ विवाद’ के जन्मदाता कौन ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

      भारत में फूट के लिए सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था, यद्यपि यह भी एक गोरखधन्धा है कि एकता के लिए भी सबसे अधिक उत्तरदाता विदेशी शासन था। 

      हमारी फूट के कारण विदेशी शासन हम पर आ धमका। देश के जागरूक नेताओं की बुद्धिमत्ता से एकता की आग प्रज्ज्वलित हुई। विदेशी शासक आग में ईधन, विदेशी अत्याचार घी का काम देते रहे। अन्त में विदेशी शासकों को भस्म होने से पूर्व ही भागना पड़ा। परन्तु अब विदेशी फूट डालने वालों का स्थान स्वदेशी स्वार्थियों ने ले लिया। 

      हिन्दी के परम समर्थक तथा कम्युनिस्टों के परम शत्रु राज गोपालाचारी, अंग्रेजी के गिरते हुए दासतामय भवन के सबसे बड़े स्तम्भ बन गये। 

      जो प्रोफेसर अंग्रेजी इतिहासकारों के आसनों पर आसीन हुये वही ‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ शब्दों के अनर्गल अर्थों के प्रयोग को भारत की छोटी से छोटी पाठशाला तक पहुंचाने में सबसे बड़े सहायक बन गये। 

      मैं दोनों भुजा उठाकर इस अनर्थ के विरुद्ध शंखनाद करना चाहता हूँ। मेरा कहना है कि सारे संस्कृत साहित्य में एक पंक्ति भी ऐसी नहीं जिससे आर्य नाम की नस्ल (Race) का अर्थ निकलता हों। इस शब्द का सम्बन्ध ▪️(१) या तो चरित्र से है ▪️(२) या भाषा से ▪️(३) या उस भाषा को बोलने वाले लोगों से ▪️(४) या उस देश से जहाँ इस प्रकार के चरित्र और भाषा वाले मनुष्य बसते हैं इसलिए किसी गोरे रंग वाली अथवा लम्बी नाक वाली जाति से इस शब्द का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं है इसी प्रकार द्रविड़ शब्द ब्राह्मणों के दश कुलों में से पांच कुलों में होता है जिनमें शंकराचार्य जैसे ब्राह्मण पैदा हुए।

      अथवा मनुस्मृति के उपलभ्यमान संस्करण के अनुसार द्रविड उन क्षत्रिय जातियों में से एक है जो 🔥‘आचारस्य वर्जनात् अथवा ब्राह्मणनामदर्शनात् वृषलत्स्वम् गताः।’  क्षत्रियोचित आचार छोड़ देने तथा ब्राह्मणों के साथ सम्पर्क नष्ट हो जाने के कारण शूद्र कहलाये। किन्तु काले रंग तथा चिपटी नाक का द्रविड़ शब्द से कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं । 

◼️आर्य और द्रविड़ शब्द पश्चिम की दृष्टि में –

      मैकडानल की वैदिक रीडर में जो कि आज भारत के सभी विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में पढ़ाई जाती है लिखा है :- 

      “The historical data of the hymuns show that the Indo-Aryans were still engaged in war with the aborigines, many victories over these forces being mentioned. that they were still moving forward as conquerors is indicated by references to reverse as obstacles to advances to.”

      “They were conscious of religious and racial unity, contrasting the aborigines with themselves by calling them non-sacrificers, and unbelievers as well as black skin’s and the Das’s colour’ as opposed to the Aryan colours.

      ‘ऋग्वेद की ऋचाओं से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्री यह दिखाती है कि इण्डो-आर्यन् लोग सिन्धु पार करके फिर भी भारत के आदिवासियों के साथ युद्ध में लगे हुये थे इन शत्रुओं पर उनकी कई विजयों का ऋग्वेद में वर्णन है अभी भी विजेता के दल आगे बढ़ रहे थे। यह इस बात से सूचित होता है कि वे कई स्थानों पर नदियों का अपने अभि प्रयाण के मार्ग में बाधा के रूप में वर्णन करते हैं।’

      “उन्हें यह अनुभव था कि उनमें जातिगत तथा धार्मिक एकता है। वे आदिवासियों को अपनी तुलना में यज्ञ हीन, विश्वास हीन, काली चमड़ी वाले, दास रंग वाले तथा अपने आपको आर्य रंग वाले कहते है” 

      यह सारा का सारा ही आद्योपान्त अनर्गल प्रलाप है। सारे ऋग्वेद में कोई मनुष्य एक शब्द भी ऐसा दिखा सकता है क्या जिससे यह सिद्ध होता है कि काली चमड़ी वाले आदिवासी थे और आर्य रङ्ग वाले किसी और देश के निवासी थे। 

      प्रथम तो वेद में काली चमड़ी वाले (कृष्णत्वचः) यह शब्द ही कहीं उपलब्ध नहीं और ना ही कहीं गौरवचः ऐसा शब्द है। 

      हाँ, ‘दास वर्णम्’ ‘आर्य वर्णम्’ यह दो शब्द हैं जिनकी दुगति करके काले-गोरे दो दल कल्पना किये गए है। हलाँकि चारों वेदों में विशेष कर ऋग्वेद में कोई एक पंक्ति भी ऐसी नहीं है जिससे यह सिद्ध होता हो कि ‘आर्य वर्णम्’ इस देश में बाहर से आए, और ‘दास वर्णम्’ यहां के मूल निवासी (Aborigines) थे। 

      यदि इनके युद्ध का वर्णन है, तो वह युद्ध क्या एक ही देश के रहने वाले दो दलों में नहीं हो सकता, इन दोनों में से एक दल बाहर से आया था और दूसरा आदिवासी दल था इस कल्पना का एक ही और केवल मात्र एक उद्देश्य था, भारत में पग-पग पर फूट फैलाने वाले तथा भारत के एकता के परम शत्रु अंग्रेजी शासकों की तथा वैदिक धर्म द्रोही पादरियों की दुष्टता है। 

      अब अंग्रेज चले गए। क्या अब भी हमारे देशवासियों की आंखें खुलेंगी। 

◼️आर्य और द्रविड़ का असली अर्थ –

      अब जरा आर्यवर्ण तथा दासवर्ण इन शब्दों की परीक्षा करलें। 

      वर्ण शब्द का अर्थ इस प्रसंग में है ही नहीं। धातु-पाठ में रंग-वांची वर्ण वाची शब्द के लिए वर्ण धातु पृथक ही दी गई है परन्तु निरुक्तकार ने इस वर्ण शब्द की व्यत्युत्ति वृ धातु से बताई है। वर्णो वृणोतेः (निरुक्त)। 

      ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य यह तीन आर्य वर्ण हैं, क्योंकि सत्यद्वारा असत्य नाश, बल द्वारा अन्याय का नाश धन द्वारा दारिद्रय का नाश यह तीन व्रत हैं।

      इनमें से जो एक व्रत का वरण अर्थात् चुनाव कर लेता है उसके ‘वर्णिक’ को जीवन अपने वर्ण की मर्यादानुसार अत्यन्त कठोर नाप तोल में बंध जाता है इसलिये वह व्रत आर्य वर्ण कहलाता है।

      जो अपने आप को सब प्रकार की शक्तियों से क्षीण पाता है। परन्तु स्वेच्छा पूर्वक ईर्षा-रहित होकर लोक कल्याणार्थ किसी व्रत वाले की सेवा का व्रत ले लेता है वह दास वर्ण का कहलाता है इसलिये शूद्रों के दासन्त नाम कहे हैं। जो व्रतहीन हैं वह दास नहीं, दस्यु हैं। 

      उन्हें अव्रताः कहकर व्रत वाले उनसे युद्ध करें यह बिलकुल उचित ही है। यह व्रतधारियों का व्रतहीनों से, हराम खोरों का श्रम शीलों से संग्राम सदा से चला आया है और सदा रहेगा। यह दोनों ही सदा से धरती पर रहे हैं इसलिए दोनों ही धरती के आदिवासी, मध्यवासी, तथा अन्तवासी हैं। 

      अस्तु Aborigines की यह कल्पना बिलकुल निराधार है। इसका वैदिक वाङ्मय तो क्या सारे संस्कृत साहित्य में वर्णन नहीं । 

◼️आर्य शब्द कैसे बना –

      अब देखना है कि आर्य शब्द यदि जाति विशेष का वाचक नहीं तो यह किसका वाचक है। 

इसके लिये इसकी व्युत्पत्ति को देखना चाहिए। 

      यह शब्द ‘ऋ गतौ’ (Ri to move) इस धातु से बना है, परन्तु ऋ धातु का अर्थ गति है इतना तो व्याकरण से ज्ञात हो गया अब निरुक्त प्रक्रिया से देखना चाहिये कि ऋ धातु का अर्थ किस प्रकार की गति है। इसके लिए दो शब्दों को ले लीजिए। एक ऋतु, दूसरा अनऋतु। ऋतु का अर्थ है नपा हुआ समय। ग्रीष्म ऋतु= गरमी के लिये नियत, नपा हुआ समय, वर्षा ऋतु = जिसमें वर्षा होती है वह नपा हुआ समय, शरद ऋतु=जिसमें सरदी पड़े वह नपा हुआ समय, बसन्त ऋतु=जिसमें सरदी से धुन्ध कोहरा आदि आकाश के आच्छादक वृत्तोका अन्त हो और समशीतोष्ण अवस्था हो वह नपा हुआ समय, इस प्रकार ‘ऋगतौ’ का अर्थ हुआ ऋ= मितगतौ अर्थात् न प के साथ चलना।

      इसीलिये जो पदार्थ जैसा है उसके सम्बन्ध में अन्यूना= नातिरिक्त, ठीक नपा तुला ज्ञान कहलाता है= ऋतु इसके विपरीत अन+ ऋतु। इसका बिलकुल संदेह नाशक प्रमाण कीजिये –

      🔥अर्वन्तोमित द्रवः (यजु १,) 

      वे घोड़े जो इतने सधे हों कि दौड़ते समय भी उनके पग नाप तौल के साथ उठे परिमित हों, ठीक नपे तुले हों वे अर्वन्तः कहलाते हैं। इसी ऋधातु से आर्य बना है। इस शब्द के सम्बन्ध में पाणिनि का सूत्र है 🔥अर्यः स्वामि वैश्योंः आर्य शब्द के दो अर्थ हैं एक स्वामी दूसरा वैश्य।

      इस पर योरोपियन विद्वानों की बाल लीला देखिए। 

      उनका कहना है यह शब्द ऋधातु से बना है जिसका अर्थ है। खेती करना यह ‘ऋ कृषौ’ धातु उन्होंने कहाँ से ढूढ़ निकाली, यह अकाण्ड ताण्डव भी देखिये। आर्य का अर्थ है स्वामी अथवा वैश्य। वैश्य के तीन कर्म हैं 

      (१) कृषि (२) गोपालन (३) वाणिज्य। सो क्योकि आर्य का अर्थ है वैश्य और वैश्य का कर्म है कृषि इसलिए ऋधातु का अर्थ है। खेती करना।

◼️बलिहारी है इस सीनाजोरी की,

      क्यों जी, वैश्य के तीन कर्मों में व्यापार और गोपालन को छोड़कर आपने खेती को ही क्यों चुना? इसका कारण उनसे ही सुनिये। 

      अंग्रेजी भाषा में एक शब्द है Arable Land अर्थात् कृषि योग्य भूमि। यह शब्द जिस भाषा से आया है उसका अर्थ खेती करना है इसलिए संस्कृत की ऋधातु का अर्थ खेती करना सिद्ध हुआ, यह तो ऐसी ही बात है कि हिन्दी में लुकना का अर्थ छिप जाना है। इसलिए Look at this room का अर्थ, इस घर में छिप जाओ, क्योंकि हिन्दी भाषा में धी का बेटी है इसलिए वेद में भी धी का अर्थ बेटी हुआ। 

सुनिये लाल बुझक्कड जी। (१) स्वामी (२) कृषि (३) गोपालन (४) व्यापार। इन चारों में समान है, वह है नाप तौल के साथ व्यवहार, स्वामी से भृत्य जो वेतन पाता है वह नाप तोल के बल पर पाता है। 

      ‘खेती के योग्य भूमि को नापना पड़ता है क्योंकि उस पर लगान लगता है, इसीलिए अंग्रेजी में भी कृषि योग्य भूमि Arable Land कहलाती है।

      गोपालन करने वाला दूध नापता है क्योंकि उस पर उसकी आजीविका निर्भर है व्यापारी के नाप-तौल का तो प्रश्न ही नहीं उठता वहां तो सारा काम ही नाप तौल का है। वैश्य हलवाई से कहिये लालाजी लड्डू खाने है तुरन्त आपका स्वागत करके आपको आसन पर बैठाएगा और अति मधुरता पूर्वक पूछेगा कितने तौलू यह कितने वैश्य कर्म का आधार है, इसलिए स्वामी और वैश्य दोनों आर्य कहलाते हैं। स्वामियों का स्वामी परमेश्वर हैं, आर्य का अर्थ है ईश्वर का पुत्र अर्थात् स्वामी का पुत्र अर्थात् परमेश्वर का पुत्र। परमेश्वर का गुण है न्यायपूर्वक नियमानुसार नाप-तौल कर कर्मों का फल देना।

      जो मनुष्य इसी प्रकार सबके साथ प्रीति पूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करता है वही भगवान के गुणों को धारण करने के कारण उसका सच्चा सपूत है। परमात्मा का एकलौता बेटा कोई नहीं। सृष्टि के आदि से आज तक जिन्होंने नाप-तौल युक्त व्यवहार किया वे आर्य कहलाए और जो करेंगे वे कहलाएगे चाहे किसी देश जाति अथवा सम्प्रदाय में उत्पन्न हुये हैं। यह है आर्य शब्द का अर्थ। जिनका जीवन सत्य रक्षा, न्याय-रक्षा अथवा धनहीन रक्षा के व्रतों से नपा-तुला हो वे आर्य वर्ग के लोग कहलायेंगे और उनका चुनाव किया हुआ व्रत आर्य वर्ण कहलाएगा। 

      अब बताइए कि इसमें गोरा रंग लम्बी नाक अथवा भारत के बाहर के किसी देश से आना किस प्रकार आ घुसा, जिन धूर्त शिरोमणि लोगों ने इस राष्ट्र की एकता के विध्वंस के लिये इस पवित्र शब्द की यह दुर्दशा की है उनसे पग-पग पर प्रतिक्षण लड़ना और तब तक, दम न लेना जब तक यह अविद्यान्धकार धरती से विदा न हो हर सत्य-प्रेमी का परम कर्तव्य है और राष्ट्र हितैषियों के लिये तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है। क्योंकि इसी पर राष्ट्र की एकता निर्भर है। (आर्य संसार १९६५ से संकलित) 

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

आर्यावर्त क्या है ? ✍🏻 प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

      जब कभी भ्रान्त विचार चल पड़ते हैं तो उनके अवश्यम्भावी अनिष्टकारी परिणामों से बचना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार का एक अशुद्ध भ्रान्त विचार यह है कि आर्यावर्त की सीमा उत्तर भारत तक ही है और आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित तथाकथित विन्ध्य पर्वत तक है।

      इस भ्रान्त धारणा ने एक महा अनिष्टकारी कुफल की सृष्टि कर दी कि विन्ध्य के उत्तर अर्थात् उत्तरी भारत में आर्य बसते हैं और दक्षिणी भारत में द्रविड़ बसते हैं। फलस्वरूप राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं। आज जो उत्तर और दक्षिण भारत में आर्य और द्रविड़ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, उनके मूल में भी यही भ्रान्त विचार है कि आर्यावर्त उत्तर भारत को ही कहते हैं। 

      आर्य समाज से बाहर इस प्रकार के विचार रखने वाले बहुत से लोग हैं। इनकी प्रेरणा स्थली यथासम्भव पश्चिम की विद्वत्मण्ड़ली है। जो आर्य विचार विद्वेषिणी है। भारतवर्ष में इस विचारधारा के प्रवक्ता के रूप में श्री रामधारी सिंहजी ‘दिनकर’ का नाम लिया जा सकता है। अपने महान् ग्रन्थ ‘संस्कृत के चार अध्याय’ में श्री दिनकर जी स्वामी दयानन्दजी पर खूब बरसते हैं और उत्तर दक्षिण के आर्य-द्रविड़ विवाद का दायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती पर थोपने का असफल प्रयास करते हैं। 

श्री दिनकरजी ने लिखा है – 

      “स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात् आर्यों की रचना है।”

      “हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बसते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिन्दुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगदान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्राविड़ भाषाओं में सन्निहित हिन्दुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है।”

      “इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे हैं।” 

      श्री दिनकरजी यदि सत्यार्थ प्रकाश के तत्सम्बन्धी स्थल देख जाते तो इतना भ्रामक विचार देने में चिन्ता करते। ऐसी उद्धत शब्दावली और ऐसा उपहसनीय आक्षेप सचमुच दिनकरजी को शोभा नहीं देता।

      इधर आर्यसमाज के विद्धानों में भी एकाध की धारणा है कि आर्यावर्त उत्तरी भारत को ही कहते हैं। प्रो॰ सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार गुरुकुल कांगड़ी के मान्य विद्वान हैं, संसद सदस्य हैं। आपने एक लेख लिखा है ‘‘इस देश के भिन्न-भिन्न नाम।” यह लेख कई जगह छपा है। इस लेख से जहां महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का विरोध है वहीं उस अनिष्टकारी विचारधारा की पुष्टि भी होती है कि उत्तर भारत के लोग आर्य हैं और दक्षिण भारत के लोग आर्य नहीं हैं।

      श्री सिद्धान्तलङ्कारजी ने कई प्रमाण देकर एक निष्कर्ष निकाला है, “इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम इस देश (उत्तर भारत) का नाम ‘आर्यावर्त’ या ‘आर्य देश’ था। इस देश से भिन्न-भिन्न देशों को यहाँ के निवासी ‘म्लेच्छ देश’ या ‘दस्यु देश’ कहते थे। वे लोग अपने देश को ‘आर्य देश’ इसलिए कहते थे क्योंकि वे अपने को ‘आर्य’ या श्रेष्ठ कहते थे, ठीक ऐसे जैसे आज के युग में पाकिस्तान वाले अपने को पाक या पवित्र कहने लगे हैं।”

      यह धारणा चिन्त्य है, ये विचार भ्रान्त हैं। इस पर विचार अवश्य होना चाहिये। 

      गुरुकुल कांगड़ी आर्यसमाज का दुर्ग है। वहाँ से ऋषि की मान्यता को बल दिया जाता है। वहाँ के विद्वानों, अनुसन्धानकर्ताओं पर आर्यजगत् गर्व करता है। ‘वैदिक एज’ जैसे भारतीय विचारधारा विरोधी ग्रन्थ का उत्तर ‘गुरुकुल कांगड़ी, के सुयोग्य विद्वान् श्री धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड ने लिखकर अपनी यशोवृद्धि तो की है, गुरुकुल की भी यशश्चन्द्रिका को अधिक चारु कर दिया। स्वयं सिद्धान्तालङ्कार जी भी ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के मान्य विद्वान हैं। पर जाने, अनजाने उनसे ऋषि दयानन्द का और भारतीय परम्परा का विरोध हो गया। फिर श्री दिनकरजी का क्या दोष? उनको उपालम्भ किस बात का? 

      श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने यह सिद्ध करने के लिए कि आर्यावर्त केवल उत्तर भारत को कहते हैं, निम्न प्रमाण दिये हैं – 

      ▪️(१) 🔥आसमुद्रात्तुवै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

      तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बधाः॥ मनु॰ २।२२ 

      अर्थात्, पूर्व के समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से लेकर पश्चिम के समुद्र (अरब सागर) तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश ‘आर्यावर्त’ है । 

      ▪️(२) 🔥कः पुनरार्यावर्तः। प्रागादर्शात् प्रत्यक् कालक 

      वनात् दक्षिणेन हिमवन्तं उत्तरेण पारियात्रम्। – महाभाष्य 

      (हिमालय के दक्षिण और विन्ध्याचल के उत्तर आर्यावर्त है ।) 

      ▪️(३) 🔥आर्यावर्तः प्रागादर्शात प्रत्यक् कालकवनाद् 

      उदक् पारियात्रात् दक्षिणेन हिमवतः उत्तरेण च विन्ध्यस्य। -वसिष्ठ धर्मसूत्र 

      ये सारे प्रमाण उन ग्रन्थों के हैं जो प्रत्येक भारतीय को मान्य हैं। इनमें से कुछ को तो स्वामी दयानन्दजी ने भी प्रसङ्गानुपात से उद्धृत किया है। यदि ये प्रमाण मान्य हैं तो इनमें तो सुस्पष्ट लिखा है कि आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर विन्ध्य पर्वत है। पर यह विन्ध्य पर्वत कहाँ है? क्या उत्तर और दक्षिण भारत को पृथक करने वाले विन्ध्याचल को ही प्राचीन ग्रन्थकार विन्ध्य के नाम से अभिहित कर रहे हैं या किसी अन्य पर्वत का विन्ध्य नाम है।

      एक क्षण के लिए स्वीकार कर लेते हैं कि नर्मदा नदी के उत्तर उत्तर प्रदेश के दक्षिण विन्ध्य है। अब मनुस्मृति के श्लोक की सङ्गति लगाइये। यह आज का तथाकथित विन्ध्य कर्क रेखा के निकट है। यदि इसे ही दक्षिणी सीमा मान लें तो पूर्व में ब्रह्म देश पड़ेगा, समुद्र नहीं, और पश्चिम में भी समुद्र अत्यल्प नाम मात्र को पड़ेगा और ९९ प्रतिशत सीमा स्थल की बनेगी जो पश्चिम के अफगानिस्तान इत्यादि देश होंगे । 

      फिर मनु का वाक्य, 🔥“आसमुद्रात्तुवैपूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्’’ सङ्गत नहीं हुआ। 

      वस्तुतः आज के तथा कथित विन्ध्य का भारत के प्राचीन भूगोल में विन्ध्य नाम नहीं था और मनुस्मृति में या अन्य ग्रंथों में जो विन्ध्य पर्वत का वर्णन है वह समुद्र तटवर्ती पर्वत है जिसे हम पूर्वीघाट पश्चिमी घाट पर्वतमाला का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का वक्तव्य बिलकुल सुस्पष्ट है। वे लिखते हैं- ‘‘हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।”

      सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लासे यहाँ ऋषि दयानन्दजी ने उत्तर और दक्षिण दोनों भारत को आर्यावर्त माना है और दोनों जगह के निवासियों को आर्य माना है। इससे श्री दिनकरजी का आक्षेप तो निर्मूल हो ही जाता है, साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि श्री दिनकरजी ने शीघ्रता का परिचय दिया है न कि धैर्यपूर्वक मनन का। 

      अस्तु, एक प्रश्न यह रह जाता है कि स्वामी दयानन्दजी ने विन्ध्याचल को रामेश्वर के पास कैसे कह दिया। वैसे सत्यार्थप्रकाश के उस स्थल के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विन्ध्य की व्याख्या करने की आवश्यकता तो समझते हैं पर उसे विवादास्पद नहीं समझते। अन्यथा उसके भी प्रभूत प्रमाण वे दे ही देते।

      किन्तु आज तो यह विवादास्पद हो गया है। श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने इसे उत्तर और दक्षिण का भेदक पर्वत ही माना है। वस्तुतः प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे दक्षिण समुद्र तटवर्ती पर्वत कहा गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में वर्णन आता है। वहाँ कई श्लोकों में विन्ध्य पर्वत का प्रसंग उठा हुआ है।

      सन्दर्भ यह है कि रावण सीता को चुराकर ले जा चुका है। जटायु मारा जा चुका है। बालि को मारकर राम ने सुग्रीव को राजा बना दिया है और हनुमान आदि सीता की खोज में निकले हैं। वहाँ समुद्र के किनारे एक पर्वत पर सम्पाति से अङ्गद हनुमान आदि मिले हैं और उनका वार्तालाप होता है। कई श्लोक हमारे सहायक सिद्ध होते हैं – 

      सुग्रीव बालि के भय से दक्षिण दिशा को भागा था उसका वर्णन है- 

      ▪️(१) 🔥दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिण दिशम्।

      विन्ध्यपादपसंकीर्णा चन्दनद्रुम शोभिनाम्॥ – ४६।१

      अर्थ-उस दिशा को छोड़ कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विन्ध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। 

      यदि विन्ध्य के पास चन्दन के वृक्ष हैं तो यह कर्क रेखा पार कर विन्ध्य नहीं, रामेश्वर का विन्ध्य है। 

      तीन दिशाओं से सुग्रीव के सैनिक लौट आये, सीता का पता न चला। किन्तु दक्षिण दिशा के सैनिक वीर हनुमान – 

      ▪️(२) 🔥“ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्चगहनानि च” ४८।२

      आगे स्वयं प्रभा तापसी ने हनुमान से कहा – 

      ▪️(३) 🔥एष विन्थ्यो गिरिः श्रीमान् नाना द्रुमलता युतः।

      एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः॥ ५२।३९।३२

      यहाँ विन्ध्यपर्वत, प्रस्रवण गिरि और सागर महोदधि तीनों पास ही हैं। 

      और देखिये – 

      ▪️(४) 🔥विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे। 

      उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा॥ ५३।३ 

      सीता को न पाकर हनुमान आदि विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिन्ता करने लगे। पुनरपि सम्पाति विन्ध्य की कन्दरा से निकल कर हनुमान आदि से बोला – 

      ▪️(५) 🔥कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः 

      उपविष्टान् हरीन् दृष्टिवा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत्॥ ५६।३

      सम्पाति कहता है । 

      ▪️(६) 🔥निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानारर्षभाः॥

      यों तो और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सुस्पष्ट है कि विन्ध्ये पर्वत दक्षिण समुद्र तट पर है न कि नर्मदा नदी के उत्तर। 

      एक प्रमाण और देखिए – 

      ▪️(७) 🔥दक्षिणस्योदधेः तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः॥

      इन सारे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि विन्ध्य पर्वत रामेश्वर के पास है, उत्तर दक्षिण भारत को विभक्त करने वाला नहीं। 

      एक बार जब यह निश्चय हो गया कि विन्ध्याचल पर्यन्त आर्यावर्त की सीमा का अर्थ है कन्या कुमारी पर्यन्त सम्पूर्ण भारत न कि केवल उत्तर भारत। अब इस सन्दर्भ में मनु के ‘‘आसमुद्रातु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात” की भी सङ्गति बैठती है। जब सम्पूर्ण भारत ही आर्यावर्त है तब जैसा श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने लिखा है कि पूर्व में बङ्गाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है यह ठीक है। अन्यथा नहीं। 

      अब ऐसी धारणा बना लेना कि उत्तर भारत वाले अपने को पवित्र और दक्षिण भारत वालों को हीन समझते थे यह केवल कल्पनामात्र है और है अत्यन्त अनिष्टकारी कल्पना । 

      आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को ठीक रूप में देखें। सम्पूर्ण देश एक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है। 

      पाश्चात्य विद्वान हम में फूट डालने के लिये उत्तर भारत को आर्यावर्त कहकर दक्षिण भारत को उत्तर भारत से फोड़ना चाहते थे। किन्तु हमें तो अपनी स्थिति सुस्पष्ट करनी चाहिये। यह क्षेत्र है जिसमें कार्य करने की आवश्यकता है। हमें प्रचार करना चाहिये कि सारा भारत आर्यावर्त हैं। यहाँ के सभी निवासी आर्य हैं। द्रविड़ या आदिवासी और बनवासी इत्यादि समस्याएँ तो अंग्रेजों की भेदनीति के फल हैं हमें अपनी जनता को बचा लेना चाहिये। 

      यहाँ जो कुछ लिखा गया है केवल एक ही दृष्टिकोण से – 

      *सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिये।*

      यदि आर्य, द्रविड़, आदिवासी, बनवासी, इत्यादि की कल्पित भेद भित्तियाँ ध्वस्त की जा सकें तो भारतीय जनता का अति कल्याण हो। (आर्य संसार १९६६ से संङ्कलित)

✍🏻 लेखक –  प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥