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वेदों की आनुपूर्वी । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

[क्या प्राचीन ऋषियों के काल में वेद ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है?]

      वेद के मन्त्रों में आये पद, मण्डल[१], सूक्त तथा अध्यायों में आये मन्त्रों का क्रम सृष्टि के आदि में जो था, इस समय भी वही है, या उसमें कुछ परिवर्तनादि हुआ है, यह अत्यन्त ही गम्भीर और विचारणीय विषय है। इस विषय का सम्बन्ध वास्तव में तो हमारे आदिकाल से लेकर आज तक के भूतकाल के साहित्य तथा इतिहास के साथ है। दुर्भाग्यवश हमारा पिछला समस्त इतिहास तो दूर रहा, हमें दो सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास भी यथावत् रूप में नहीं मिल रहा, विशेष कर वैदिक साहित्य का। हाँ कुछ बातें हमें ठीक मिल रही हैं, जो संख्या में अत्यन्त अल्प है। ऐसी स्थिति में जो भी सामग्री हमें अपने इस प्राचीन साहित्य के विषय में मिलती है, उसी पर सन्तोष करना होगा। 

[📎पाद टिप्पणी १. इस विषय में ऋग्वेद में जो अष्टक, अध्याय, वर्ग और मन्त्र तथा दूसरा मण्डल, अनुवाक, सूक्त और मन्त्र तथा तीसरा मण्डल, सूक्त और मन्त्र का अवान्तर विच्छेद है, वह आर्ष है। ऐसा ऋग्वेद के भाष्यकार वेङ्कटमाधव ने अष्टक ५ अध्याय ५ के आरम्भ (आर्षानुक्रमणी पृ० १३) में लिखा है।]

      वेद नित्य हैं, सदा से चले आ रहे हैं। इनका बनाने वाला कोई व्यक्ति विशेष नहीं। इनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं इत्यादि विषय हम पूर्व प्रकरणों में भली-भान्ति स्पष्ट कर पाये हैं। सब ऋषि-मुनि तथा अन्य विद्वान् वेद को नित्य मानते चले आ रहे हैं, यह सब पूर्व ही विस्तार से दर्शा चुके हैं। प्राचीन ऋषियों के काल में वेद क्या ऐसा का ऐसा ही था, जैसा कि इस समय हमें उपलब्ध हो रहा है? प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह विचार उठना अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता, अत: इसकी विवेचना आवश्यक ही है। 

      ◾️(१) जहाँ तक हमें पता लगता है ब्राह्मणग्रन्थों के काल में ये ऋग, यजुः आदि वेद वही थे, जो इस समय हैं, क्योंकि गोपथब्राह्मण में लिखा –

      🔥”अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम्’ इत्येवमादिं कृत्वा ऋग्वेदमधीयते। .…’इषे त्वोजे त्वा वायवस्थ देवो वः सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मण’ इत्येदमादिं कृत्वा यजुर्वेदमधीयते। …’अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये नि होता सत्सि बर्हिषि’ इत्येबमादिं कृत्वा सामवेदमधीयते।” (गो० १।१।२९) । 

      इससे स्पष्ट है कि गोपथब्राह्मण के काल तक ऋग, यजुः, साम – इन तीनों वेदों की संहितायें वही थीं, जो इस समय वर्तमान में हैं। इनके आरम्भ के मन्त्रों की प्रतीके वही की वही हैं, जो इन तीनों संहिताओं में हैं। यही बात हम पीछे के काल में भी पाते हैं (देखो विवरण टिप्पणी पृ. ६)। 

      गोपथब्राह्मण के उपर्युक्त लेख से यद्यपि इनकी सारी वर्णानुपूर्वी का निर्णय नहीं हो सकता, पर इतना तो स्पष्ट सिद्ध है कि इन संहिताओं के आदि मन्त्र का स्वरूप वही है, जो उस काल में पूर्व काल की परम्परा से चला आ रहा था, और अब तक भी वैसा का वैसा चला आ रहा है। गोपथ के इस स्थल में जो अथर्ववेद का आरम्भ 🔥’शन्नो देवी०’ से कहा गया है, वह पैप्पलाद शाखा का पाठ माना जाता है। हम आगे विशदरूप में बतायेंगे कि पैप्पलाद शाखाग्रन्थ है, और वह ऋषिप्रोक्त है। महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने 🔥’तेन प्रोक्तम्’ (अ० ४।३।१०१) सूत्र के भाष्य में शाखाविषय में ‘पैप्पलादकन्’ ऐसा उदाहरण दिया है। सम्भव है गोपथ ब्राह्मण अथर्ववेद की उसी शाखा का हो, जिसका आदि मन्त्र “शन्नो देवी.” कहा है। ऐसी अवस्था में अथर्ववेद के नाम से 🔥’शन्नो देवी.’ आदि मन्त्र का उल्लेख करना अन्य विरोधी प्रमाण होने से विशेष महत्त्व नहीं रखता।

      ◾️(२) अब हम इस बात को एक अन्य रीति से भी स्पष्ट करते हैं। शतपथब्राह्मण में यजुर्वेद के मन्त्रों की प्रतीके बराबर आरम्भ से कुछ अध्याय तक निरन्तर (आगे भी यत्र-तत्र) देकर तत्तद् विषय में मन्त्रों का विनियोग दर्शाया गया है। १७ अ० तक के मन्त्रों के पाठ तथा आनुपूर्वी के विषय में इन प्रतीकों से हमें बहुत कुछ सहायता मिल सकती है। यह आनुपूर्वी और पाठ वैसा का वैसा है, जैसा हमें यजुर्वेद में मिल रहा है। हाँ ! इतना अवश्य है कि कहीं-कहीं मन्त्रों के किसी प्रकरण को याज्ञिकप्रक्रिया के कारण कुछ क्रमभेद से भी विनियुक्त किया गया है, जैसा कि यजुर्वेद के प्रारम्भिक दर्शेष्टिसंबन्धी ४ मन्त्रों का विनियोग शतपथब्राह्मण में प्रारम्भ में न करके पौर्णमासेष्टि के अनन्तर किया है। क्योंकि याज्ञिकप्रक्रिया में प्रथम[२] पौर्णमासेष्टि करने का विधान है (अ० ७।८०।४)। इससे यह तो पता लग ही जाता है कि शतपथब्राह्मणकार के समय यजुर्वेद के कम से कम १७ अध्याय तक के मन्त्रों की आनुपूर्वी तो वही थी जो अब है। इसमें किञ्चिन्मात्र भी सन्देह का स्थान नहीं रह जाता। 

[📎पाद टिप्पणी २. “🔥पोर्णमासी प्रथमा यज्ञियासीदह्नां रात्रीणामतिशर्वरेषु। ये त्वां यज्ञैर्यज्ञिये अर्धयन्त्यमी ते नाके सुकृतः प्रविष्टाः ॥ अथर्व० ७।८०।४॥] 

      ◾️(३) ऋग्, यजुः, साम, अथर्व इन चारों वेदों की अनुक्रमणियाँ भी उनकी इस आनुपूर्वी को जो वर्तमान में मिल रही है, वैसी की वैसी सिद्ध करने में परम सहायक हैं, चाहे उनका निर्माणकाल कभी का रहा हो। कम से कम इनसे यह तो सिद्ध हो ही जाता है, कि उन-उन सर्वानुक्रमणियों के काल में वर्तमान चारों वेदों की आनुपूर्वी वही थी, जैसी कि अब है, इसमें यत्किञ्चित् भी भेद नहीं हुआ। उन सर्वानुक्रमणियों के टीका कार भी हमें इस विषय में पूरी-पूरी सहायता दे रहे हैं। वे सब के सब इसी बात का प्रतिपादन करते हैं। इन ग्रन्थों की तो रचना ही इस आनुपूर्वी (क्रम) की रक्षा के लिये हुई, इसमें क्या सन्देह है ? ऋक्सर्वानुक्रमणी से यह बात विशेष रूप में सिद्ध हो रही है। 

      ◾️(४) अब हम यह बताना चाहते हैं कि महाभाष्यकार पतञ्जलि मुनि वेद की आनुपूर्वी और स्वर दोनों को ही नित्य (नियत) मानते हैं – 

      🔥”स्वरो नियत आम्नायेऽस्यवामशब्दय। वर्णानुपूर्वी खल्वप्याम्नाये नियता…” (महाभाष्य ५।२।५६) 

      अर्थात-वेद में अस्यवामादि शब्दों का स्वर नित्य[३] होता है, और उनकी वर्णानुपूर्वी (क्रम) भी नित्य होती है। 

[📎पाद टिप्पणी ३. यहाँ नित्य और नियत पर्यायवाची शब्द हैं। 🔥’अव्ययात् त्यप्’ (अ० ४।२।१०४) पर वात्तिक है – 🔥”त्यब् ने वे”, नियतं ध्रुवम्। काशिकाकार आदि वैयाकरण इसकी यही व्याख्या करते हैं।]

      महाभाष्यकार का यह प्रमाण ही इतना स्पष्ट है कि इसके आगे और किसी प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इसीलिये समस्त ऋषि-मुनि वेद को नित्य मानते हैं। 

      इस पर एक शङ्का हो सकती है कि महाभाष्यकार ने 🔥”तेन प्रोक्तम्” (अ० ४।३।१०१) के भाष्य में लिखा है –

      🔥’यद्यप्यर्थो नित्यः, या स्वसौ वर्णानुपूर्वी साऽनित्या। तभेदाच्चैतद् भवति-काठकं, कालापकं, मौवकं, पप्पलादकमिति।’ 

      अर्थात्- यद्यपि अर्थ नित्य है, परन्तु वर्णानुपूर्वी अनित्य है। उसी के भेद से काठक, कालापक, मोदक, पैप्पलादक ये भेद होते हैं। इससे विदित होता है कि महाभाष्यकार वेद की वर्णानुपूर्वी को अनित्य मानते हैं। 

      इसका उत्तर यह है कि महाभाष्यकार ने यहाँ जितने उदाहरण दिये हैं, वे सब शाखाग्रन्थों के हैं, मूल वेद के नहीं। प्रवचन भेद से शाखाओं में वर्णानुपूर्वी की भिन्नता होनी स्वाभाविक है (शाखा के विषय में हम अगले प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे)। इतने पर भी यदि पूर्वपक्षी को सन्तोष न हो तो मानना पड़ेगा कि अपने ग्रन्थ में दो परस्पर विरोधी वचनों को लिखनेवाला पतञ्जलि अत्यन्त प्रमत्त पुरुष था, जो ठीक नहीं। 

      ◾️(५) निरुक्तकार यास्कमुनि भी वेद की आनुपूर्वी को नित्य मानते हैं, जैसा कि –

      🔥”नियतवाचोयुक्तयो नियतानुपूर्व्या भवन्ति।” निरु० १।१६ 

      अर्थात्- वेद की आनुपूर्वी नित्य है। 

      यही बात जैमिनि, कपिल, कणाद, गौतमादि ऋषि-मुनि मानते हैं, यह हम पूर्व [४] कह आये हैं। 

[📎पाद टिप्पणी ४. द्रष्टव्य – यजुर्वेदभाष्य विवरण भूमिका ( 📖 जिज्ञासु रचना मञ्जरी ) – पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु]

      ◾️(६) इस विषय में सब से बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाणं तो उन ब्राह्मण कुलों के अनुपम तप और त्याग का है, जिससे अब तक वेद की आनुपूर्वी हम तक वैसी की वैसी सुरक्षित पहुंच रही है, जिन्होंने एक-एक मन्त्र के जटा-माला-शिखा-रेखा-ध्वज-दण्ड-रथ-घनपाठादि को बराबर कण्ठस्थ करके सदैव सुरक्षित रक्खा, और अब तक रख रहे हैं। उनके पाठ में किसी प्रकार का व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हो सकता, न हो ही रहा है। यदि यह प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने न होता, तो सम्भव था कि किसी को कहने का अवसर होता कि न जाने वेद में किस-किस काल में क्या क्या परिवर्तन, परिवर्द्धन होते रहे, इसको कोई क्या कह सकता है। पर ऐसा प्रत्यक्ष प्रमाण संसार भर में केवल भारतवर्ष में ही मिलेगा, जहाँ वेद के एक-एक अक्षर और मात्रा की रक्षा का ऐसा सुन्दर और सुनिश्चित प्रबन्ध सदा से निरन्तर चलता रहा हो। वेद की आनुपूर्वी को सुरक्षित रखने का यह ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है। 

[अगला विषय – आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता] 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

यास्क और मन्त्रों के कर्ता ऋषि । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

इस विषय में यास्क की क्या सम्मति है सो भी सुनिये –

🤨पूर्वपक्षी – 

      ◾️(१) देखो निरुक्त ३।११ – 

      🔥ऋषिः कुत्सो भवति, कर्त्ता स्तोमानाम् इत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात्- कुत्स ऋषि होता है, स्तोमों (मन्त्रों) का कर्ता, ऐसा औपमन्यवाचार्य का मत है। इसमें 🔥”कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ मन्त्रों का बनानेवाला – कितना विस्पष्ट है। क्या इससे प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं कि यास्क ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता (बनानेवाला) मानता है ? 

      ◾️(२) और देखिये- निरु० १०।४२ –

      🔥अम्यासे भूयांसमर्थ मन्यन्ते तत् परच्छेपस्य शीलम्। 

      यहाँ परुच्छेप ने मन्त्र बनाये, ऐसी झलक प्रतीत होती है। आगे का पाठ निम्न प्रकार है –

      🔥परुच्छेप ऋषिः पर्ववच्छेपः परुषि परुषि शेपोऽस्येति वा।

      यहाँ भी परुच्छेप को ‘ऋषि’ कहा गया है। क्या इन प्रमाणों से ऋषि मन्त्रों के कर्ता हैं, इसमें कुछ भी सन्देह रह जाता है ? 

🌺सिद्धान्ती –

      ◾️(१) सबसे प्रथम हम निरुक्त के 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” का अर्थ स्वयं न करके आचार्य यास्क के अपने शब्दों में ही दर्शा देते हैं –

      देखिये निरुक्त ३।११ में 🔥”कर्ता स्तोमानामित्यौपमन्यवः” में जिस औपमन्यव आचार्य के मत से ‘कर्ता स्तोमानाम्’ ऐसा यास्क ने लिखा, उसी औपमन्यव आचार्य के मत से यास्क ने निरु० २।११ में ऋग्वेद दशम मण्डल के ९८ सूक्त के ५वे मन्त्र में आये हुये ऋषि शब्द का अर्थ दर्शाते हुए लिखा है –

      🔥ऋषिर्दर्शनात् स्तोमान् ददर्शेत्यौपमन्यवः॥

      अर्थात् ऋषि-द्रष्टा होने से – स्तोमों (मन्त्रों) को देखा (न कि बनाया), ऐसा औपमन्यव आचार्य का मत है। 

      कितना विस्पष्ट लेख है। जिस औपमन्यव आचार्य के मत से 🔥“कर्ता स्तोमानाम्” लिखा, उसी का मत दिखाते हुये यास्क ने 🔥”स्तोमान् ददर्श” ऐसा लिखा। यदि दूसरे के मत से लिखा होता तो पूर्वपक्षी को यह कहने का अवसर भी मिल सकता था कि एक आचार्य ऋषियों को मन्त्रों का कर्ता मानता है, दूसरे द्रष्टा। परन्तु यहाँ पर तो दोनों स्थलों में वही एक ही औपमन्यव आचार्य है। अतः इसमें शङ्का का यत्किञ्चित् भी स्थान नहीं रह जाता। 

      ◾️(२) 🔥”परुच्छेपस्य शीलम्”- यहाँ दुर्गाचार्य का मत निम्न प्रकार है –

      🔥”परुच्छेपस्य मन्त्रदृशः शीलम्” स हि नित्यमभ्यस्तैः शब्दः स्तौति। मन्त्रदृशोऽपि, स्वभाव उपेक्ष्य इत्युपप्रदर्शनायेदमुक्तम्। 

      कैसी हृदयग्राही सङ्गति लग रही है। इसमें भी कोई खींचातानी का व्यर्थालाप करे तो अन्धेर है। 

      इस विषय में एतद्देशीय तथा विदेशीय विद्वान् कुछ आशङ्कायें उठाते हैं कि –

      ▪️(क) 🔥”नम ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यः …..॥ [ते० आ० ४।१।१ तथा- शा० आरण्यक।] 

      🔥आङ्गिरसो मन्त्रकृतां मन्त्रकृदासीत्॥ [ताण्डयमहाब्राह्मण १३।३।२४॥ तथैव आपस्त० श्रौतसूत्रे॥] 

      ▪️(ख) 🔥यावन्तो वा मन्त्रकृतः॥ [कात्यायनश्रौतसू० ३।२।८।। तथा च–बौधायन श्रौ० सू०]

      ▪️(ग) गृह्यसूत्रों में – 🔥श्रद्धाया दुहिता-स्वसर्षीणां मन्त्रकृतां बभूव॥ [काठक गृह्यसूत्र ४१।११॥] 

      🔥ऋषिभ्यो मन्त्रकृद्भ्यः॥ [सत्याषाढ श्री. सू० ३।१॥] 

      इत्यादि प्रमाणों को लेकर ऋषियों को मन्त्रों के बनानेवाले बताते हैं । (विशेष देखो ऋग्वेद पर व्याख्यान पृ० ३४ से ३५)। 

      इस पर अधिक न लिख कर हम कुछ ही स्थलों का भाष्यकारों का अर्थ दर्शाये देते हैं –

      ◾️(१) तै॰आ० के भाष्य में महाविद्वान् भट्टभास्कर का निम्न लेख है –

      🔥अथ नम ऋषिभ्यो द्रष्टुभ्यः, मन्त्रकृद्भ्यो मन्त्राणां द्रष्टभ्यः, दर्शनमेव कर्त्तृत्वम्॥

      ◾️(२) सायणाचार्य ने भी तै॰आ० के इसी स्थल पर लिखा है –

      🔥ऋषिरतीन्द्रियार्थद्रष्टा मन्त्रकृत करोतिधातुस्तत्र दर्शनार्थः॥ 

      इन दोनों उद्धरणों से सर्व श्रौतगह्यादि में इस शब्द के अर्थ की अवस्था समझ में आ जाती है। इस प्रकार वेद तथा इन गृह्य श्रौत आदि मन में कर्तत्व से द्रष्टृत्व ही यास्क और औपमन्यव सदृश ऋषियों को अभिमत है। तब हमें ‘मन्त्रकृतां’ का ऐसा अर्थ मानने में क्या विप्रतपत्ति हो सकती है। 

      यहाँ यास्क का प्रमाण सब प्रमाणों में सर्वत: उपरि है। 

      (३) आप कहेंगे कि “डुकृञ्” तो ‘करणे’ अर्थ में धातुपाठ में पढ़ा है। सो भी अज्ञान की बात है। देखिये महामुनि भगवान् पतञ्जलि ‘करोति’ का अर्थ क्या मानते हैं –

      महाभाष्य 🔥”भूवादयो धातवः” के भाष्य में –

      🔥बह्वर्था अपि धातवो भवन्ति। तद्यथा वपिः प्रकिरणे दृष्टः, छेदने चापि वर्तते केशश्मश्रु वपतीति…..। करोतिरभूतप्रादुर्भावे दृष्टः, निर्मलीकरणे चापि वर्तते पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु, उन्मृदानेति गम्यते। निक्षेपणे चापि वर्तते कटे कुरु, घटे कुरु, अश्मानमितः कुरु स्थापयेति गम्यते। [महाभाष्य अ० १।३।१]

      अर्थात्-धातु बहुत अर्थवाले भी होते हैं। जैसे वप् धातु बखेरने अर्थ में देखा जाता है। काटने के अर्थ में भी होता है। जैसे केशश्मश्रु को (वपति) काटता है, करोति अभूतप्रादुर्भाव (जो नहीं था और हो गया) अर्थ में देखा जाता है। निर्मलीकरण (धोने) अर्थ में भी होता है। जैसे पृष्ठं कुरु, पादौ कुरु का अर्थ पृष्ठ को धोओ पाँवों को धोवो, यह है। ‘इतः कुरु’ का अर्थ इधर कर दो, रख दो या हटा दो, यही प्रतीत होता है इत्यादि। अकस्मात् यहाँ करोति का ही अपना अभिमत अर्थ पतञ्जलि ने दे दिया है। अब भी इसे कोई कल्पनामात्र ही समझता रहे तो परमात्मा ही उसकी बुद्धि को सुमार्ग= सीधे सरल मार्ग पर लावे। इससे अधिक और क्या कह सकते हैं। 

     ◾️(४) वर्तमान उपलब्ध आधुनिक वेदभाष्यकारों में सर्वप्रथम आचार्य स्कन्द स्वामी (जिसके हम बहुत कृतज्ञ हैं) की सम्मति देते हैं- 

      निरुक्त भा० २ पृ० ५८३ – 

      🔥क्रियासामान्यवचनत्वात् करोतिरत्र रक्षणार्थ उत्तारणार्थो वा। 

      धात्वर्थ पर हम पुनः किसी समय अवसर मिलने पर विचार करेंगे, यहाँ पर इतना ही पर्याप्त है। 

      अन्त में निरुक्त का एक स्थल और उपस्थित करते हैं –

      ◾️(५) निरुक्त ७।३ –

      🔥एवमुच्चावचैरभिप्रायैऋषीणां मन्त्रदृष्टयो भवन्ति। 

      ऋषियों को मन्त्रों का दर्शन होता है, न कि वह मन्त्रों के बनाने वाले होते हैं, यह इस लेख से विस्पष्ट है। 

      स्कन्दस्वामी (४।१९ पृ० २४६९) ऋषि का अर्थ स्तोता करते हैं। 

      🔥च्यवन इत्येतदनवगतम्। च्यावन इत्येव न्याय्यम्। ऋषिरभिधेयः, तदाह च्यावयिता स्तोमानाम्, देवानां प्रतिगमयिता स्तोतेत्यर्थः। 

      इसी प्रकार इस विषय में अन्य भी बहुत से प्रमाण हैं, परन्तु यहाँ पर इतने ही पर्याप्त हैं । अतः यास्क वेदों को अपौरुषेय मानते हैं, यह सर्वथा सिद्ध है। 

      ◼️यास्क और वेदों का नित्यत्व तथा प्रयोजनत्व – यह भी पूर्व निर्दिष्ट प्रमाण- 🔥”पुरुषविद्यानित्यत्वात् कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” में पुरुष की विद्या अनित्य होने से- तद्भिन्न नित्य विद्या वाले (प्रभु) की नित्य विद्या होने से नित्यत्व सिद्ध है।

      🔥“कर्मसम्पत्तिर्मन्त्रो वेदे” इस वचन से वेद में सम्पूर्ण कर्त्तव्य कर्मों की सम्पत्ति (सम्पादन प्रकार) सम्पूर्णता प्रतिपादित है। इसी से वेद ज्ञान की प्रयोजनता प्रत्येक मनुष्य को स्वकल्याणार्थ अवश्य है, यह भी सुस्पष्ट है। 

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है : डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली

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ओउम
तप से सब प्रकार के दुर्भावों का नाश होता है
डा. अशोक आर्य ,मण्डी डबवाली
संसार का प्रत्येक व्यक्ति सुख चाहता है ,किन्तु काम एसे करता है कि वह अपनी करनी के कारण सुखी हो नहीं पाता | वास्तव में आज के प्राणी दुर्भावनाओं से भरे हैं | प्रत्येक व्यक्ति अन्यों से किसी न किसी बहाने द्वेष रखता है | वह चाहता है कि उसे स्वयं को कोई सुख चाहे न मिले किन्तु किसी दुसरे को सुख नहीं मिलना चाहिए | इस प्रयास में वह अपने आप को ही भूल जाता है | अपने दु:ख से इतना दु:खी नहीं है , जितना दुसरे के सुख से | इस के दु:ख का मुख्य कारण है किसी दुसरे का सुखी होना | उस को स्वयं को सर्दी से बचने के लिए बिजली के हीटर की आवश्यकता है | वह इस हीटर को खरीदने के स्थान पर इस बात से अधिक दु:खी है कि उसके पडौसी के पास हीटर क्यों है ? बस इस का नाम ही दुर्भाव है | मनुष्य को सुखी रहने के लिए सब प्रकार के दुर्भावों से हटाने की आवश्यकता होती है | इस के लिए तप की आवश्यकता है | यह तप ही है ,जो मनुष्य को दुर्भावों से दूर कर सकता है | मानव को चाहिए की वह दुर्भावों से बचने के लिए तप की ओर लगे | अथर्ववेद के मन्त्र संख्या ८.३.१३ तथा १०. ५.४९ में भी इस भावना पर ही बल दिया गया है | मन्त्र इस प्रकार है : – परा श्रनिही तपसा यातुधानान
पराग्ने रक्षो हरसा श्रीनिही |
परार्चिषा मूरदेवान श्रीनिही
परासुत्रिपा: शोशुचत: श्रीनिही ||
शब्दार्थ : –
( हे अग्ने) हे अग्नि (यातुधानान) राक्षसों अथवा कपट व्यवहार करने वालों को ( तपसा) तप से (परा श्रीनिही ) दूर से ही नाशत करो ( रक्ष: ) राक्षसों या कुकर्मियों को (हरसा) अपनी शक्ति से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (मूरदेवान) मूढ़ देवों को अथवा जड़ देवों के उपासकों को (अर्चिषा )अपने तेज से (परा श्रीनिही) नष्ट करो (असुत्रिषा:) दूसरों के प्राणों से अपनी तृप्ति करने वाले ( शोशुचत:) शोकग्रस्त दुर्जनों को (परा श्रीनिही ) नष्ट करो |
भावार्थ :
– हे अग्निरूप प्रभो ! तुम कपट व्यवहार करने वालों को अपने तप से, राक्षसों तथा कुकर्मियों को अपनी शक्ति से , जड़ देवों के उपासकों को अपने तेज से तथा जीव हत्या करने वाले और सदा शोकग्रस्त दुष्टों को नष्ट कर दो |
अथर्ववेद के इस मन्त्र में चार प्रकार के पापियों को नष्ट करने के लिए चार ही प्रकार से नष्ट ल्कराने की व्यवस्था की गयी है | ये चारों इस प्रकार हैं : –
१. यातुधानों को तप से :-
यातुधानों को तप से नष्ट करने का विधान दिया है | जब तक हम यातुधान का अर्थ ही नहीं जानते तब तक इसे समझ नहीं सकते | अत:पहले हम इस के अर्थ को समझाने का प्रयास करते हैं | जो माया , छल , कपट आदि कुटिल व्यवहारों से अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं , उन्हें ” यातु ” कहते हैं ,धान का अर्थ है – रखने वाले | अत: जो छल. कपट,माया आदि कुटिल व्यवहार रखते हैं , उन्हें यातुधान कहते हैं | मन्त्र में उपदेश किया गया है कि हे तपस्वी मानव ! छल , कपट व मायावी व्यवहार रखने वालों को कठोर से कठोर दंड द्वारा संताप दे कर उन्हें नष्ट कर दें | इस में ही भला है |
२. राक्षसों को हरस से :-
जो राक्षस वृति वाले हैं , उन्हें हरस अथवा अपने तेज से नष्ट कर दो , क्योंकि तेज के सम्मुख कभी राक्षस ठहर ही नहीं सकते | प्रश्न यह उठाता है कि राक्षस है कौन , जिसे यहाँ तेज से नष्ट करने को कहा गया है | राक्षस उसे कहते हैं जो सदैव दुसरे का अहित करने वाले तथा उन्हें दू:ख व संताप देने वाले होते हैं | यह लोग दूसरों को संताप देने में ही आनंद का अनुभव करते हैं | ऐसे लोग तेज से ही नष्ट हो जाते हैं | दूसरों को यातना देकर अपना हित साधने वालों को क्रोध कि अग्नि में जला देना चाहिए |
३. मूरदेवों को अर्चिष से :
इस का वर्णन करने से पूर्व मुरदेव का अर्थ भी समझना आवश्यक है | मुर कहते हैं जड़ को | अत: जो जड़ पदार्थों को अपना देवता मानते हैं, उन्हें मुर्देव कहते हैं | इस प्रकार के लोग जड़ कि पूजा करते हैं, अन्धविश्वासी होते हैं, विद्या रहित होने के कारण यह लोग विवेक से भी बहुत दूर होते हैं | होते हैं बुद्धि नाम कि वास्तु इन के पास नहीं होती | ऐसे लोगों को लापत अर्थात तेज से नष्ट करने का इस मन्त्र में विधान किया गया है |
४. असूत्रिप को शोक से :-
असुत्रिप का अभिप्राय: समझाने से पता चलता है कि इस श्रेणी में कौन लोग आते हैं | असू का अर्थ होता है प्राण तथा त्रिप का अर्थ है पिने वाले या हरण करने वाले या मारने वाले | इस से स्पष्ट है जो लोग दूसरों को मार कर खा जाते हैं, उनका खून पि जाते हैं अथवा दूसरों कि जान लेने में जिन्हें आनंद आता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं | वेड कहता है कि यह लोग सदा भयभीत रहनते हैं, शोक व क्लेश कभी इन का पीछा नहीं छोड़ते , सदा चिंता में ही रहते हैं | न स्वयं सुखी होते हैं न दूसरों को सुल्ही देख सकते हैं | उन कि यह भावना अंत में पर ह्त्या, आत्महनन या आत्म हिंसा के रूप में परिणित होती है | यह सदा दूसरों के मार्ग में कांटे ही पैदा करने का प्रयास करते हैं , इस करना इन्हें समाज के शत्रु कि श्रेणी में रखा जाता है | अत: वेड मन्त्र एइसे लोगों को नष्ट करने का आदेश देता है |
इस प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में यह सन्देश दिया गया है कि दुष्ट, छल, कपट व माया से अन्यों को दू:ख देने वाले तथा दूसरों को मार देने कि इच्छा रखने वाले राक्षसी प्रवृति के लोग समाज के शत्रु होते हैं | जब तक यह लोग जीवित रहते हैं, तब तक समाज के मार्ग को काँटों से भारटा रहते हैं, दू:ख , क्लेश खड़े करने के मार्ग खोजते रहते हैं , इन से सुपथगामी लोगों को सदा ही भय बना रहता है | एइसे लोगों का विनाश ही समाज को सुखी
बना सकता है | इओस लिए ओप्रानी को अकारण वह दू:ख न दे सकें | यह सब केवल तप से ही संभव है | अत: यह तप सी है जो दुर्भावों को नष्ट क्रोध से, तेज से एइसे लोगों को नष्ट कर देना चाहिए , उन्हें मार देना चाहिए | जिससे समाज के किसी भी करने कि क्षमता रखता है | ताप से ही सुखों कि वृष्टि होती है | यदि विनाश से बचना है तो हमें तप करना चाहिए |

डा. अशोक आर्य,मण्डी डबवाली
१०४ – शिप्रा अपार्टमेंट ,कौशाम्बी
जिला गाजिया बाद ,उ. प्र.भारत
चल्वार्ता : 09718528068

वैदिक त्रैतवाद (वेद मन्त्र भावार्थ)

वेद मन्त्र भावार्थ

-लालचन्द आर्य

आप परोपकारी के सभी अंकों में अनेक स्थानों पर महर्षि दयानन्द जी के वेद मन्त्रों के भावार्थ प्रकाशित करते हो, जिनसे पाठकों को ऋषि की विशेष मान्यताओं का बार-बार बोध होता रहता है। यह वेद प्रचार की एक उत्तम क्रिया है। मैं महर्षि दयानन्द के पाँच वेद मन्त्रों के भावार्थ परोपकारी में प्रकाशन के लिये भेज रहा हूँ, जिनके अध्ययन से वैदिक त्रैतवाद अर्थात् जीव, प्रकृति और परमात्मा के विषय में मेरी सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। इन मन्त्रों के भावार्थ में ऋषि की विशेष मान्यतायें हैं-

  1. भावार्थ- जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर, इनके जड़-चेतन साधक हैं, ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये साथ ही प्रयोग करते हैं, वे लौकिक दुःख को छोड़कर परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं जो जड़, प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत् की उत्पत्ति और जीव कर्म, उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हों? इससे न केवल जड़ और न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है। – महर्षि दयानन्द, यजुर्वेद, भावार्थ 40-14
  2. भावार्थ- इस मन्त्र में उपमालंकार है। जैसे अग्नि के कारण सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के भी हैं, वैसे सब उत्पन्न हुए पदार्थों के तीन स्वरूप हैं। हे विद्वन्! जैसे तुमहारा विद्या जन्म उत्तम है, वैसा मेरा भी हो। -महर्षि दयानन्द, ऋग्वेद, भावार्थ- मं. 1 सू. 163 म. 4
  3. भावार्थ-हे मनुष्यो! इस शरीर में दो चेतन नित्य हुए- जीवात्मा और परमात्मा वर्तमान है, उन दोनों में एक अल्प, अल्पज्ञ और अल्प देशस्य है। वह शरीर को धारण करके प्रकट होता, बुद्धि को प्राप्त होता और परिणाम को प्राप्त होता तथा हीन दशा को प्राप्त होता, पाप और पुण्य के फल का भोग करता है। द्वितीय परमेश्वर ध्रुव निश्चल, सर्वज्ञ, कर्म फल के समबन्ध से रहित है, तुम लोग निश्चय करो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 4 भावार्थ
  4. भावार्थ- हे मनुष्यो! इस शरीर में सच्चिदानन्द-स्वरूप अपने से प्रकाशित ब्रह्म-द्वितीय, तृतीय-मन, चौथी- इन्द्रियाँ, पाँचवें- प्राण, छठा- शरीर वर्तमान है। ऐसा होने पर समपूर्ण व्यवहार सिद्ध होता है, जिनके मध्य में सबका आधार ईश्वर, देह, अन्तरण, प्राण और इन्द्रियों का धारण करने वाला और जीवादिकों का अधिष्ठान शरीर है, यह जानो। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 6, सु. 9, म. 5 भावार्थ
  5. भावार्थ- जो ज्ञानी धर्मात्मा मनुष्य मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं, उनका उस समय ईश्वर ही आधार है। जो जन्म हो गया- वह पहला और जो मृत्यु वा मोक्ष हो के होगा- वह दूसरा, जो है वह तीसरा और जो विद्या वा आचार्य से होता है- वह चौथा जन्म है। यह चार जन्म मिलके एक जन्म, जो मोक्ष के पश्चात् होता है, वह दूसरा जन्म है। इन दोनों जन्मों के धारण करने के लिये सब जीव प्रवृत्त हो रहे हैं, यह व्यवस्था ईश्वर के अधीन है। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 31, म. 7
  6. भावार्थ- हे परमेश्वर और जीव! तुम दोनों में बल, विज्ञान तथा कर्मों की प्रेरणा एक साथ होते हैं। – महर्षि दयानन्द ऋग्वेद म. 1, सु. 16, म. 4

– म.नं. 1223/34, शीतलनगर, बागवालीगली, झज्जररोड, रोहतक, हरि.-124001

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

अथर्व – 6.26. -सूक्त-विष्णु देवता के मन्त्रों का वैज्ञानिक विवेचन

– आर.बी.एल. गुप्ता एवं डॉ. पुष्पागुप्ता

श्री आर.बी.एल. गुप्ता बैंक में अधिकारी रहे हैं। आपकी धर्मपत्नी डॉ. पुष्पागुप्ता अजमेर के राजकीय महाविद्यालय संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं हैं। उन्हीं की प्रेरणा और सहयोग से आपकी वैदिक साहित्य में रुचि हुई, आपने पूरा समय और परिश्रम वैदिक साहित्य के अध्ययन में लगा दिया, परिणाम स्वरूप आज वैदिक साहित्य के सबन्ध में आप अधिकार पूर्वक अपने विचार रखते हैं।

आपकी इच्छा रहती है कि वैज्ञानिकों और विज्ञान में रुचि रखने वालों से इस विषय में वार्तालाप हो। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर इसवर्ष वेद गोष्ठी में एक सत्र वेद और विज्ञान के सबन्ध में रखा है। इस सत्र में विज्ञान में रुचि रखने वालों के साथ गुप्तजी अपने विचारों को बाँटेंगे। आशा है परोपकारी के पाठकों के लिए यह प्रयास प्रेरणादायी होगा।

 -सपादक

इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में विष्णु के वीर्य कर्मों को बताया गया है। विष्णु गुरुत्वाकर्षण शक्ति के अधिष्ठाता देव हैं। वेद के जिन मन्त्रों में अथवा ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ पर भी विट्,विशः, विष्णु शबद आते हैं- वहाँ पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति से सबन्धित व्याखयान हैं- ऐसा निश्चित रूप से समझ लेना चाहिये। विष्णु का प्रथम वीर्य कर्म है-पार्थिव रजों को नापना अर्थात पिण्ड की मात्रा के अनुसार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का होना। दूसरा वीर्य कर्म है- उत्तर सधस्थ (उत्तम स्थान पर स्थित पिण्ड) को त्रेधा विचक्रमण (तीन प्रकार से धारित शक्ति से पिण्ड को चक्रित करना) तथा उरुगमन (एक बिन्दु से विस्तृत होते हुए जाना) प्रक्रियाओं से स्कंभित करना।

पार्थिव रज का तात्पर्य हैगुरुत्वाकर्षण (g) ऋ. 1.35.4 में कृष्णा रजांसि पद, ऋ. 1.35.9 में कृष्णेन रजसा पद, ऋ. 1.12.5 में अन्तरिक्षे रजसो-विमानः इन मन्त्रों में-कृष्णरज-पार्थिवरज-शबदों में वैज्ञानिक अर्थ है- g (गुरुत्वाकर्षण)। कोई भी भौतिक कण चाहे कितना भी हल्का क्यों न हो, जब तक एक निश्चित आकृति (volume) एवं निश्चित मात्रा (m) का बनकर एक निश्चित कण का रूप ले लेता है, तब उसमें एक निश्चित घनत्व एवं निश्चित गुरुत्वाकर्षण (g) आ जाता हैं। एक निश्चित आकृति के कण को वेदमन्त्रों में मृग कहा गया हैं। ऋ. 1.154.2 (अथर्व 7.26.2) में-मृगःनभीमःकुचरःगिरिष्ठा पद में गिरि में स्थित कुत्सित गति वाला भयानक मृग- यह अर्थ एक निश्चित मात्रा में आये कण जिसमें गुरुत्वशक्ति आ गई है- के लिये कहा गया हैं।

त्रेधा विचक्रमण क्या है ? हमारी पृथ्वी एवं सूर्य का उदाहरण-

पृथ्वी अपनी धुरी (axis) पर एक अहोरात्रि में पूरी घूम जाती है, तथा साथ ही लगभग 25000 कि.मी. दूरी सूर्य की परिक्रमा करती हुई आगे बढ़ती है। यहाँ पृथ्वी में दो प्रकार की गति (चक्रमण) है- (1.) अपनी धुरी पर घूमना (2.) सूर्य के परिक्रमा पथ पर घूमते हुये ही आगे बढ़ना।

सूर्य पृथ्वी से कई लाख गुणा आकार में अधिक है, तथा 15 करोड़ किलो मीटर दूरी पर है, फिर भी सूर्य की गुरुत्वाकर्षण शक्ति घूमती हुई पृथ्वी को सतत अपनी ओर आकर्षित करती है। सूर्य की इस शक्ति को निःशेष करने के लिये पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा परिक्रमा पथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार पृथ्वी का जो विचक्रमण हो रहा है, उसका कारण यह तीन प्रकार से पृथ्वी पर धारित शक्तियों के कारण हैं। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी सूर्य में गिरकर सूर्य में समा जायेगी। ऐसी स्थिति प्रलय अवस्था में अवश्य आयेगी।

उरुगमनजंघाओं को फैलाकर जब हम खड़े होते हैं- जब जंघाओं की स्थिति इस प्रकार की होती है, इसे विज्ञान की भाषा में उरुगमन कहते हैं (divertion of rays)। गुरुत्व शक्ति की किरणें इसी नियम का पालन करती हैं।

विष्णु का 3 पदों में विचक्रमण क्या है?

ऋ. 1.164.2 में त्रिनाभि चक्रं अजरं अनर्वं पद आया है। वेद मन्त्रों में आया त्रिनाभि चक्र- अण्डाकार आकृति को बताता है- जिसमें तीन केन्द्रबिन्दु (नाभियाँ) होती हैं। पृथ्वी का सूर्य की परिक्रमा का मार्ग भी अण्डाकार है। इस अण्डाकार मार्ग का मूल सिद्धान्त है- केन्द्र में बड़ा पिण्ड जैसे सूर्य उसके दोनों तरफ दो और केन्द्र बिन्दु् A व B होते हैं। पृथ्वी (E) इस प्रकार घूमती है कि पृथ्वी का इन दोनों बिन्दुओं A व B से दूरी का योग हमेशा समान अर्थात् दूरी् AE + BE का योग हमेशा समान रहेगा तथा इस प्रकार पृथ्वी का परिभ्रमण मार्ग अण्डाकार बन जाता है।

यही उदाहरण सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करनेवाले अन्य ग्रह-बुध, शुक्र, मंगल, ब्रहस्पति, शनि आदि में भी दिया जा सकता है। यही नहीं, अति सूक्ष्म परमाणु में भी प्रोटोन एवं इलेक्ट्रोन भी इसी त्रिनाभि चक्रं-त्रेधा विक्रमण आदि नियमों का पालन करते हैं।

इन्द्रस्य युज्यसखाः इस सूक्त के मन्त्र संखया 6 में यह पद आया है। इन्द्र दिव्य रजः (emt) का अधिष्ठाता देव है, तथा विष्णु पार्थिव रजः (g) का। परमाणु के अन्दर प्रोटोन का उदाहरण- प्रोटोन के दो भाग हैं- (1.) पार्थिव भाग (matter) तथा (2.) दिव्य भाग (e.m.t)। इसी प्रकार इलेक्ट्रॉन भी है, पर उसमें विद्युत शक्ति – है जबकि प्रोटोन में + है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन के मध्य भी दो प्रकार की आकर्षण शक्ति (1) विद्युत शक्ति का आकर्षण (इन्द्र की शक्ति) एवं (2) गुरुत्वाकर्षण शक्ति (विष्णु की शक्ति)। अतःमन्त्र 6 में कहा है कि विष्णु के कर्मों को देखो जहाँ वह व्रतों को स्पर्श करता है तथा इन्द्र का योजित सखा है। प्रोटोन तथा इलेक्ट्रोन दोनों परामाणु के अन्दर अपने-अपने व्रत्तों में घूमते हैं- एक-दूसरे के व्रत्त (orbit) को स्पर्श करते हुए।

मन्त्र 7 में सूर्यःविष्णु के परम् पद को सदा देखते हैं। यहाँ परम पद से तात्पर्य है गुरुत्व शक्ति का केन्द्र बिन्दु (center of gravity )

मन्त्र 4 में समूढं अस्य पांसुरे।पांसुरे शबद (collective) अर्थ में है। छोटा पिण्ड हो या बड़ा, मात्रा अधिक या कम होने से पूरे पिण्डकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम या अधिक हो जायेगी, परन्तु समूह रूप में पूरे पिण्ड की गुरुत्वाकर्षण शक्ति केन्द्र बिन्दु (पांसुरे पद) में गुप्त रूप से निहित हो जाती है।