हम आर्यसमाज के बाहर देखते हैं कि मनुस्मृति का खुल्लमखुल्ला अपमान किया जाता है। मनु को भेषज समझने के स्थान पर लोग विष समझते हैं। समस्त हिन्दू समाज के दुर्गुणों का कारण मनु को समझा जाता है। मनुस्मृतियाँ कई स्थानों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गई हैं, जिससे मनु के लिए जो आदर के भाव लोगों में विद्यमान हैं, उनका सर्वनाश हो जाए। बहुत से लोग इसी बात में अपना गौरव समझते हैं कि मनु के प्रति घृणा उत्पन्न की जाए। इसका मुख्य कारण है कि वह विष जो समय-समय पर मनुस्मृति में क्षेपक के रूप में मिला दिया गया और जिसने मनु के उपदेशों को विषाक्त अन्न के समान बना दिया। स्त्री और शूद्रों के पददलित होने के कारण मनु को ही समझ लिया गया। जात-पाँत की बुराइयों का आधार मनु को समझा गया। इस प्रकार मनु को तिरस्कृत करने के अनेक कारण आ उपस्थित हुए। यद्यपि सच्ची बात यह थी कि जिन अविद्या आदि भ्रममूलक बुराइयों ने हिन्दूजाति पर आक्रमण किया, उन्होंने हिन्दू साहित्य और विशेषकर मनु पर भी आक्रमण किया है।
मनुस्मृति के क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं है, अपितु इसके कारण वे अवैदिक प्रगतियाँ थीं, जिनका विष मनु में भी प्रविष्ट हो गया है।“ (सार्वदेशिक मासिक: अगस्त 1947 पृ0 259-60)।
हम आर्यसमाज के बाहर देखते हैं कि मनुस्मृति का खुल्लमखुल्ला अपमान किया जाता है। मनु को भेषज समझने के स्थान पर लोग विष समझते हैं। समस्त हिन्दू समाज के दुर्गुणों का कारण मनु को समझा जाता है। मनुस्मृतियाँ कई स्थानों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गई हैं, जिससे मनु के लिए जो आदर के भाव लोगों में विद्यमान हैं, उनका सर्वनाश हो जाए। बहुत से लोग इसी बात में अपना गौरव समझते हैं कि मनु के प्रति घृणा उत्पन्न की जाए। इसका मुख्य कारण है कि वह विष जो समय-समय पर मनुस्मृति में क्षेपक के रूप में मिला दिया गया और जिसने मनु के उपदेशों को विषाक्त अन्न के समान बना दिया। स्त्री और शूद्रों के पददलित होने के कारण मनु को ही समझ लिया गया। जात-पाँत की बुराइयों का आधार मनु को समझा गया। इस प्रकार मनु को तिरस्कृत करने के अनेक कारण आ उपस्थित हुए। यद्यपि सच्ची बात यह थी कि जिन अविद्या आदि भ्रममूलक बुराइयों ने हिन्दूजाति पर आक्रमण किया, उन्होंने हिन्दू साहित्य और विशेषकर मनु पर भी आक्रमण किया है।
मनुस्मृति के क्षेपकों का दोष मनु के सिर नहीं है, अपितु इसके कारण वे अवैदिक प्रगतियाँ थीं, जिनका विष मनु में भी प्रविष्ट हो गया है।“ (सार्वदेशिक मासिक: अगस्त 1947 पृ0 259-60)।
अब ग्यारहवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। इसमें पहले चालीसवां श्लोक प्रक्षिप्त है। इस पद्य में ‘बहुत धन के व्यय से पूरा होने योग्य यज्ञ को थोड़े धन से आरम्भ नहीं करना चाहिये’ इस विधिवाक्य का अर्थवाद कहा है। सो असम्भव है और अर्थवाद सम्भव होना चाहिये। क्योंकि यज्ञ कोई चेतन पदार्थ नहीं किन्तु जड़ है इससे इन्द्रियादि का नाश नहीं कर सकता और इस अर्थवाद में कहा यही है कि- इन्द्रिय, यश, स्वर्ग, आयु, कीर्त्ति, प्रजा-सन्तान और पशुओं को थोड़ी दक्षिणा वाला यज्ञ नष्ट कर देता है।’१, सो ठीक नहीं। यद्यपि यज्ञादि कर्मों में जो दक्षिणा ऋत्विजादि को दी जाती है वह परिश्रम का फल (मेहनताना) है उसका लेन-देन नियमानुसार होना चाहिये। जैसे वकील आदि का मेहनताना उस काम और वकीलादि की योग्यतानुसार नियत होता है। किन्तु यह दान में नहीं गिना जायेगा। दान में दान लेने वाले से दाता का उपकार कुछ भी अपेक्षित नहीं किन्तु दक्षिणा में पूरा अपेक्षित है इसी से जहां-जहां ब्राह्मण को दान लेना बुरा कहा है, उससे दक्षिणा का निषेध नहीं हो सकता। इसी कारण जिस कार्य में परिश्रम का फल ठीक नहीं दिया जाता उसमें विघ्न होते हैं तथापि वह यज्ञादि कर्म जड़ होने से यजमान की कुछ हानि नहीं कर सकता किन्तु जिनका परिश्रम का फल ठीक नहीं मिलता वे ही विघ्न करते और कर सकते हैं। तथा उक्त श्लोक में यश और कीर्त्ति दोनों पर्यायवाचक पद एक साथ पढ़े हैं इस पुनरुक्ति दोष से भी उक्त श्लोक प्रक्षिप्त प्रतीत होता है। यद्यपि इस पुनरुक्ति का समाधान कुल्लूकभट्ट ने किया है तथापि वह सन्तोषजनक नहीं। और जब ऋत्विज् आदि को दक्षिणा देना उनके परिश्रम का फल है तो उसके दिये बिना उस कार्य की पूर्ति वा उससे फलप्राप्ति होना भी असम्भव है। यदि कोई वर्त्तमान समय में वकीलादि को इतना द्रव्य न देवे जितना उनको राजद्वार (अदालत) में कार्यसिद्ध होने के लिये देना चाहिये तो उस पुरुष का वह कार्यसिद्ध हो जावे, यह सम्भव नहीं है। अर्थात् जैसी और जितनी सामग्री वा व्यय से जो कार्य सिद्ध हो सकता है तो उस अधूरे सामान वा व्यय से वह कार्य कदापि ठीक सिद्ध नहीं हो सकता। इसी प्रकार अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ भी ठीक सुफल नहीं होता है, इस कारण अल्पदक्षिणा वाला यज्ञ नहीं करना चाहिये, यही अर्थवाद ठीक है। और जब यह अर्थवाद ठीक है तो वह इन्द्रियादि के नाश का अर्थवाद विरुद्ध हो गया। इसी से वह श्लोक प्रक्षिप्त है। इसके आगे
अब दश्माध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा करते हैं। प्रथम छियासीवें से चौरानवें तक नौ श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। मीठे आदि रस से युक्त गुडादि द्रव्यों, गौ-अश्व आदि पशुओं, रंगे वस्त्रों और टसरी-रेशमी और ऊनी वस्त्रों के बेचने में क्या दोष है ? इसका कुछ कारण नहीं दीखता। श्वेत वस्त्र और वन के पशु बेचने में दोष क्यों नहीं है ? यह उसी श्लोक बनाने वाले से पूछना चाहिये। जब वन के पशु बेचने का भी निषेध किया आरण्यांश्च पशून् सर्वान्१ तो जो मनुष्य सम्बन्धी पशु हैं पशवो ये च मानुषाः२ जैसे गौ-घोड़ादि। यहां मानुष विशेषण व्यर्थ पड़ता है। यह परस्पर का विरोध भी इन श्लोकों के प्रक्षिप्त होने को प्रकट करता है। किसी वस्तु का उपार्जन अधर्म से कर सकते हैं उसका बेचना अवश्य अधर्म का उत्पादक होगा, उस वस्तु के बेचने से अपनी जाति से पतित होना भी ठीक सग्त हो जाता है जैसे मांस का बेचना जाति से पतित होने का हेतु है। परन्तु लाख और लवण के बेचने में ऐसा बड़ा दोष कौन है ? जिस कारण शीघ्र पतित हो जाता हो यह नहीं दीखता। यदि किसी वस्तु के बेचने में शरीर की मलिनता और अपने वेदोक्त सन्ध्यादि कर्मों का विशेष त्याग वा हानि होती हो तो उस तेल आदि वस्तु को यावच्छक्य नहीं बेचना चाहिये। परन्तु तिल बेचने में कोई दोष नहीं दीखता। व्याकरण महाभाष्य में भी कहा है कि- ‘तेल और मांस न बेचना चाहिये, सो पृथक् निकाला हुआ तेल और मांस ही नहीं बेचा जाता परन्तु जिसमें तेल और मांस व्यापक वा मिला है ऐसे तेल के उपादा
अब सप्तमाष्टम अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। पहले सप्तमाध्याय में इकतालीसवां और बयालीसवां दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इन दोनों श्लोकों में विनयपूर्वक बर्त्ताव की प्रशंसा और अविनयपूर्वक बर्त्ताव की निन्दा के लिये वेन आदि राजाओं के दृष्टान्त दिखाये हैं सो ठीक नहीं हैं। क्योंकि विनय की प्रशंसा और अविनय की निन्दा में जितना जैसा अर्थवाद होना चाहिये उतना और वैसा उनतालीसवें और चालीसवें श्लोक में कहा ही है। और यह अर्थवाद इसलिये ठीक नहीं है कि वेनादि राजा बहुत पिछले हैं जिनकी विस्तारपूर्वक विशेष कथा महाभारतादि इतिहासों में दीखती हैं। और यह मानवधर्मशास्त्र बहुत प्राचीन है ऐसे प्राचीन पुस्तक में ऐसे पिछले लोगों की स्तुति-निन्दा कैसे हो सकती है ? और स्मृति वा धर्मशास्त्रों की शैली वा परिपाटी से भी यह विरुद्ध है कि किसी का इतिहास उनमें दिखाया जावे। क्योंकि इसके लिये महाभारतादि इतिहास पृथक् बनाये गये हैं। तथा पिता के जन्म समय में उसके आगे होने वाले पुत्रों के चरित्र का व्याख्यान कोई नहीं कर सकता। लोक में भी जिस-जिस का इतिहास जिस-जिस पुस्तक में दीखता है, वह-वह मनुष्यादि उस-उस पुस्तक के बनने के समय से पूर्व ही होता है। इत्यादि कारणों से उक्त दोनों (४१,४२) श्लोक प्रक्षिप्त हैं, ऐसा विचारशीलों को अनुसन्धान करना चाहिये।
अब पांचवें अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों का विचार किया जाता है। यहां प्रारम्भ में चार श्लोक प्रक्षिप्त हैं और व्यूलर साहब ने भी पञ्चमाध्याय के प्रारम्भ में पहले चार श्लोक प्रक्षिप्त माने हैं। इस पुस्तक के बनने में भृगु उपदेशक और मरीच्यादि ऋषि श्रोता हैं तो ये चार श्लोक उन दोनों शिष्य-शिक्षकों की ओर से नहीं बन सकते। क्योंकि उनमें लिखा है कि ‘उक्त प्रकार मरीच्यादि ऋषियों ने भृगु से स्नातक के धर्मों को सुनकर महात्मा भृगु से यह प्रश्न किया’१ और ‘भृगु ने उन ऋषियों को ऐसा उत्तर दिया।’२ इत्यादि कथन अन्य किसी की ओर से स्पष्ट प्रतीत होता है। तथा प्रश्नोत्तर भी युक्तिपूर्वक ठीक नहीं हैं। जब पूछा गया कि ‘वेद शास्त्र के जानने और अपने धर्म का सेवन करने वाले ब्राह्मणों की मृत्यु कैसे होती है३ ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? कि ‘वेदों का अभ्यास न करने और अच्छे आचरण के छोड़ देने तथा आलस्य और अभक्ष्यभक्षण से ब्राह्मणों को मृत्यु मार डालना चाहता है।’४ जब पूछने वाला तो कहता है कि विद्वानों की मृत्यु कैसे होती है तो उत्तर देने वाला कहे कि विद्या का अभ्यास न करने से ज्ञानियों की मृत्यु होती है। यहां विचार का स्थल है कि जब वे विद्वान् और धर्मात्मा हैं तो वेद का अभ्यास और अच्छे आचरण तो अवश्य होंगे और न होंगे तो वे विद्वान् और धर्मात्मा नहीं हो सकते। क्योंकि श्रेष्ठ आचरण भी मुख्यकर धर्म का लक्षण है। इस कारण ये प्रश्नोत्तर अपने कहे को आप ही काटने वा कुछ पूछने पर कुछ उत्तर देने के तुल्य हैं।
अब चौथे अध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। २७,२८ सत्ताईस और अट्ठाईस दो श्लोक प्रक्षिप्त हैं। और छब्बीसवां श्लोक पच्चीसवें श्लोक में दी आज्ञा की पूर्त्ति करने वाला है। और विधिवाक्य का शेषविधि करके ही माना जाता है। इससे छब्बीसवां श्लोक भी विधिवाक्य ही है। उस छब्बीसवें पद्य में पशुशब्द करके गौ आदि से होने वाले मुख्य घृतादि से होम करे, यह विधान किया गया है। यदि कोई कहे कि पशु के मांस से होम करने की कल्पना निकालेंगे तो पशु से उत्पन्न हुआ वस्तु वा उसका विकार अर्थ लेना दोनों पक्ष में तुल्य है। वहां पशु से हुआ मांस और यहां पशु के ही शरीर से निकला घृतादि है। तो इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है कि जो पशु से होने वाला मांस ही पशुशब्द से लिया जावे और दुग्ध घृतादि न लिया जावे। और पशु के प्राण निकालनेरूप हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और हिंसा करने में पाप अवश्य है। क्योंकि यदि गौ आदि पशु बना रहे तो उससे होने वाले घृतादि से फिर भी यज्ञ कर सकते हैं और यदि मारकर उसके मांस का होम कर दिया जायेगा तो पशु उसी समय समाप्त हो जायेगा फिर आगे होने वाली दुग्धादि के लाभ की भी हानि ही होगी। और मांस के जलाने से दुर्गन्धि अवश्य निकलेगी और घृतादि के होम से सुगन्धि होगी। इस कारण छब्बीसवें श्लोक में पशु शब्द से उसका घृतादि पदार्थ लेना चाहिये। यदि
अब तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। इस तृतीयाध्याय में कोई-कोई श्लोक प्रक्षिप्त जैसे अनेक साधारण लोगों को जान पड़ेंगे और वास्तव में वे प्रक्षिप्त नहीं हैं, तो उनका समाधान यहां नहीं किया जाता, किन्तु आगे भाष्य में उनके अर्थ का निर्णय होगा, यहां तो केवल जो प्रक्षिप्त हैं, उन्हीं का निश्चय किया जाता है। एक सौ सत्ताईसवां (१२७वां) श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवित पितरों का ही श्राद्ध करना वेदोक्त सिद्ध हो चुका तो फिर श्राद्ध का नाम प्रेतकर्म नहीं हो सकता। और छब्बीसवें श्लोक का अट्ठाईसवें श्लोक के साथ सम्बन्ध भी ठीक मिल जाता है, इस कारण से भी सत्ताईसवें का प्रक्षिप्त होना अनुमान से सिद्ध है। तथा प्रेत के लिये कोई कर्म उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि मरा हुआ शरीर तो जलाने आदि द्वारा पृथिवी में मिल जाता है तथा केवल जीवात्मा कोई सुख-दुःख का भोग नहीं कर सकता, तो प्रेत के लिये किसी प्रकार की क्रिया करना निष्फल है।
एक सौ उनहत्तरवें (१६९) श्लोक से लेकर एक सौ बयासीवें (१८२) श्लोक तक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परन्तु १७१,१७३,१७४ इन तीन श्लोकों को छोड़कर। यद्यपि उक्त प्रक्षिप्त श्लोकों में निन्दारूप अर्थवाद कहा गया है, तो भी अर्थवाद सम्भव, सम्बद्ध और न्याययुक्त ही होना चाहिये। और यहां असम्भव, असम्बद्ध और अन्याययुक्त अर्थवाद प्रतीत होता है। जैसे सोमविक्रयी पुरुष को दिया अन्न विष्ठा हो जाता है। इस कथन से क्या प्राप्त हुआ कि जो विद्वान् को दिया गया, वह अन्न अर्थापत्ति से विष्ठाभाव को न प्राप्त होवे। लेकिन ऐसा तो नहीं देखा जाता, किन्तु अच्छे या बुरे किसी भी व्यक्ति के द्वारा खाया गया अन्न विष्ठा हो ही जाता है। तथा अन्न ही रस आदि के द्वारा रुधिर और मांसादि भाव को प्राप्त होता है। इसी से यह पूर्वोक्त कथन असम्भव वा असम्बद्ध है। और परिवेत्ता कि जिसने बड़े भाई के बैठे रहते विवाह किया, वह दोषी होना चाहिये। उसके साथ में बड़ा भाई और छोटे भाई की स्त्री क्यों अपराधी समझे गये ? उन्होंने क्या अपराध किया था ? अर्थात् कुछ नहीं तो उन दोनों का अपराधी बनाना अन्याय वा अधर्म अवश्य है।
अब तृतीयाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा की जाती है। इस तृतीयाध्याय में कोई-कोई श्लोक प्रक्षिप्त जैसे अनेक साधारण लोगों को जान पड़ेंगे और वास्तव में वे प्रक्षिप्त नहीं हैं, तो उनका समाधान यहां नहीं किया जाता, किन्तु आगे भाष्य में उनके अर्थ का निर्णय होगा, यहां तो केवल जो प्रक्षिप्त हैं, उन्हीं का निश्चय किया जाता है। एक सौ सत्ताईसवां (१२७वां) श्लोक प्रक्षिप्त जान पड़ता है। क्योंकि जब जीवित पितरों का ही श्राद्ध करना वेदोक्त सिद्ध हो चुका तो फिर श्राद्ध का नाम प्रेतकर्म नहीं हो सकता। और छब्बीसवें श्लोक का अट्ठाईसवें श्लोक के साथ सम्बन्ध भी ठीक मिल जाता है, इस कारण से भी सत्ताईसवें का प्रक्षिप्त होना अनुमान से सिद्ध है। तथा प्रेत के लिये कोई कर्म उपयोगी नहीं हो सकता, क्योंकि मरा हुआ शरीर तो जलाने आदि द्वारा पृथिवी में मिल जाता है तथा केवल जीवात्मा कोई सुख-दुःख का भोग नहीं कर सकता, तो प्रेत के लिये किसी प्रकार की क्रिया करना निष्फल है।
एक सौ उनहत्तरवें (१६९) श्लोक से लेकर एक सौ बयासीवें (१८२) श्लोक तक प्रक्षिप्त जान पड़ते हैं। परन्तु १७१,१७३,१७४ इन तीन श्लोकों को छोड़कर। यद्यपि उक्त प्रक्षिप्त श्लोकों में निन्दारूप अर्थवाद कहा गया है, तो भी अर्थवाद सम्भव, सम्बद्ध और न्याययुक्त ही होना चाहिये। और यहां असम्भव, असम्बद्ध और अन्याययुक्त अर्थवाद प्रतीत होता है। जैसे सोमविक्रयी पुरुष को दिया अन्न विष्ठा हो जाता है। इस कथन से क्या प्राप्त हुआ कि जो विद्वान् को दिया गया, वह अन्न अर्थापत्ति से विष्ठाभाव को न प्राप्त होवे। लेकिन ऐसा तो नहीं देखा जाता, किन्तु अच्छे या बुरे किसी भी व्यक्ति के द्वारा खाया गया अन्न विष्ठा हो ही जाता है। तथा अन्न ही रस आदि के द्वारा रुधिर और मांसादि भाव को प्राप्त होता है। इसी से यह पूर्वोक्त कथन असम्भव वा असम्बद्ध है। और परिवेत्ता कि जिसने बड़े भाई के बैठे रहते विवाह किया, वह दोषी होना चाहिये। उसके साथ में बड़ा भाई और छोटे भाई की स्त्री क्यों अपराधी समझे गये ? उन्होंने क्या अपराध किया था ? अर्थात् कुछ नहीं तो उन दोनों का अपराधी बनाना अन्याय वा अधर्म अवश्य है।
अब प्रथमाध्याय के प्रक्षिप्त श्लोकों की समीक्षा वा विचार किया जाता है। मैं इस अध्याय वा दूसरे आदि अध्यायों में जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त कहूं वा जताऊंगा वहां सर्वत्र अपनी अनुमति का प्रकाश करना ही प्रयोजन है। किन्तु वहां कुछ आग्रहपूर्वक कहना उचित नहीं। यदि उसमें किसी विद्वान् वा समुदाय को विरोध जान पड़े तो उसको मित्रता पूर्वक कहना चाहिये कि इसको इस प्रकार करना योग्य है। यदि सत्य से विपरीत हो गया दीख वा जान पड़ेगा, तो शीघ्र वैसा अविरुद्ध सुधार दिया जायेगा।
जहां-जहां यह पीछे मिलाया गया वा यह प्रक्षिप्त है ऐसा कहेंगे वहां-वहां मुख्य कर निम्नलिखित कारण जानने चाहियें। जो वाक्य किसी प्रकार वेद के आशय वा वेद के सिद्धान्त से तथा अन्य ब्राह्मण, उपनिषद्, न्याय और मीमांसादि अनेक ग्रन्थों से विरुद्ध हो वह प्रक्षिप्त है अर्थात् किसी विद्वान्, ऋषि, महर्षि का बनाया नहीं है। क्योंकि वेदानुयायी, शुद्ध, आप्त, तपस्वी, बहुदृष्ट, बहुश्रुत, जिन्होंने जानने योग्य को जान लिया और यथार्थ सत्य को प्राप्त कर लिया, ऐसे ऋषियों का कथन कदापि वेद से विरुद्ध नहीं हो सकता। तथा जो असम्बद्ध प्रलाप के तुल्य अयोग्य स्थान में प्रयुक्त, प्रकरण से विरुद्ध दूर से दीखता है। क्योंकि विद्वान् लोग प्रकरणविरुद्ध कथन कहीं नहीं करते। इससे प्रकरणविरुद्ध प्रक्षिप्त है। तीसरे पुनरुक्त श्लोक भी प्रक्षिप्त हैं, जैसे प्रथमाध्याय में जो कहा वही तीसरे अथवा चौथे में वैसे ही वा उसके पर्यायवाचक वा उस प्रकार के आशय वाले पदों से फिर-फिर कहा जावे, वह पुनरुक्त होने से प्रक्षिप्त समझा जाता है। तथा जो परस्पर विरुद्ध हो कि पूर्व जो कहा उससे विरुद्ध आगे कहा जावे। उन दोनों में एक ही ठीक वा सत्य ठहर सकता है। परन्तु सम्मतिभेद को छोड़कर, अर्थात् जहां कहीं सम्मतिभेद दिखाया गया वहां तो दूसरे की विरुद्ध सम्मति जताने के लिये ही ग्रन्थकर्त्ता ने दो प्रकार के वचन कहे हैं, किन्तु वहां विरोध नहीं है, जिस कारण प्रक्षिप्त हो। इत्यादि कारण प्रक्षिप्त जताने के लिये होते हैं, जिनका यहां उदाहरण मात्र दिखाया है।
आज कल हिन्दू जाति बहुत भी उप-जातियों में विभक्त है। यह सब जन्म पर निर्भर है। अर्थात् ब्राहम्ण का पुत्र ब्रहम्ण होता है और कान्यकुब्ज ब्राहम्ण का कान्यकुब्ज। क्षत्रिय का लडका क्षत्रिय होता है। चैहान क्षत्रिय का चैहान । इसी प्रकार नाई का लडका नाई , कहार का कहार। वेदो मे इन उप जातियो के नाम तो है नही । हां चार वर्णो का वर्णन आता है। अर्थात ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। हिन्दूओं में यह जनश्रुति प्रचलित है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए, क्षत्रिय भुजाओं से वैश्य उरू से और शूद्र पैर से। परन्तु आज तक किसी भले मानस ने यह सोचने का कष्ट नहीं उठया कि इसका अर्थ क्या हुआ ? ईश्वर का मुख क्या है और उससे ब्राहम्ण कैसे उत्पन्न हो गये ? ईश्वर का पैर क्या है और उससे शूद्र कैसे उत्पन्न हो गये ? क्या यह आलक्डारिक भाषा है या वास्तविक ? यदि आलंकारिक है तो वास्तविक अर्थ क्या है ? यदि वास्तविक है तो अर्थ क्या हुआ ? यदि कोई कहे कि आकाश के मुख से हाथी उत्पन्न हो गया तो पूछना चाहिये कि आकाश के मुख से क्या तात्पर्य है और उससे हाथी कैसे हो सकता है ? तमाशा यह है कि सैकड़ों वर्षो से हिन्दू यह कहते चले आते है कि ब्राहम्ण ईश्वर के मुख से उत्पन्न हुए और शूद्र पैरों से । परन्तु किसी ने यह नही पूछा कि ईश्वर का पैर क्या है और उससे स्त्री या पुरूष कैसे उत्पन्न हो सकते है । लोग कहते है कि वेद में ऐसा लिखा है। जिस वेदमंत्र का प्रमाण दिया जाता है वह यह कहता है:-
ब्राहम्णोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।
ऊरूतदस्य यद् वैश्यः पद्रयां शूद्रोऽजायत।।
शब्दार्थ यह है:-
(1) “ब्राहम्णः अस्य मुख आसीत्।” ब्राहम्ण इसका मुख था। “
(2) “बाहू राजन्यः कृतः” क्षत्रिय भुजा बनाया गया ।
(3) ”ऊरू तत् अस्य यत् वैश्यः”जो वैश्य है वह उसकी जंघा थी।
इसमें यह नहीं लिखा गया कि ब्राहम्ण मुख से उत्पन्न हुआ । क्षत्रिय बाॅह से और वैश्य जंघा से । अर्थ निकालने के दो ही उपाय है या तो शब्दों से सीधा अर्थ निकलता हो या आलंकारिक अर्थ लेने के लिये कोई विशेष कारण हों। प्रत्येक शब्द के आलंकारिक अर्थ भी नही लेने चाहिये जब तक सीधा अर्थ लेना अप्रासंगिक न हो । और ऐसे आलंकारिक अर्थ भी न लेने चाहिये जो असम्भव या निरर्थक हो।