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राष्ट्र निर्माता : स्वामी दयानन्द सरस्वती:- हरिकिशोर

विश्व में जिन महापुरुषों ने इस धरा को धन्य किया, उनमें स्वामी दयानन्द सरस्वती का स्थान बहुत ऊँचा है। सामान्यतया लोग उन्हें समाज-सुधारक के रूप में ही याद करते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उनका व्यक्तित्व बहु-आयामी था। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में जागृति उत्पन्न करने का प्रयास किया। उस युग में स्वतन्त्रता, स्वराज्य और जनतान्त्रिक व्यवस्था की बात करने वाले तो वे सर्वप्रथम और एकमात्र महापुरुष थे। इसी कारण महात्मा गाँधी ने निम्रलिखित शब्दों में उनका योगदान स्वीकार किया-‘‘जनता से सम्पर्क, सत्य, अहिंसा, जन-जागरण, लोकतन्त्र, स्वदेशी-प्रचार, हिंदी, गोरक्षा, स्त्री-उद्धार, शराब-बंदी, ब्रह्मचर्य, पंचायत, सदाचार, देश-उत्थान के जिस-जिस रचनात्मक क्षेत्र में मैंने कदम बढ़ाए, वहाँ दयानन्द के पहले से ही आगे बढ़े कदमों ने मेरा मार्गदर्शन किया।’’ सत्य को सत्य कहना और असत्य को असत्य कहना महापुरुषों का चरित्र होता हैं। स्वामी जी का उद्देश्य मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाना (मनुर्भव) था, इसलिए उन्होंने धर्म के नाम पर प्रचलित पाख्ंाड, आडम्बर, अत्याचार, शत्रुता, मार-काट को रोकने का साहसिक कार्य किया।

भारत में राष्ट्रीयता का उदय दो शब्दों से संभव हो सका-एक बंकिमचन्द्र चटर्जी का ‘वन्दे मातरम्’, दूसरा स्वामी दयानन्द का ‘स्वराज्य’। आज की राजनैतिक स्वतन्त्रता इन्हीं शब्दों के कारण मिली है। महर्षि दयानन्द का समस्त चिंतन राष्ट्रीयता से ओतप्रोत रहा। एक भाषा, एक धर्म और एक राष्ट्र के लिए दयानन्द ने अथक परिश्रम किया था। स्वयं गुजराती होते हुए भी उन्होंने हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा के रूप में देखा। भारतीय नवजागरण के आन्दोलन में स्वामी दयानन्द की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही।

स्वामी जी ने अपने समय में एकता स्थापित करने के लिए तीन ऐसे कार्य किये, जिन्हें इतिहास में उचित स्थान न मिल सका। प्रथम, हरिद्वार कुम्भ मेले में संन्यासियों के मध्य वेदों पर आधारित धार्मिक विचार रखे, ताकि मतभेद दूर होकर एकता स्थापित हो सके, परन्तु संन्यासीगण अपने स्वार्थों, अखाड़ों की परम्पराओं और व्यवहारों के कारण स्वामीजी के विचारों से सहमत न हो सके। दूसरा, शास्त्रार्थ द्वारा सत्य और असत्य का निर्णय कर विद्वानों को संगठित करना, ताकि सत्य को ग्रहण और असत्य को त्यागा जा सके, परन्तु विद्वानों का अहंकार और रोजी-रोटी का लालच इस प्रयास में बाधा बना। स्वामीजी का यह मानना था कि विद्वानों के संगठित होते ही राष्ट्र जीवित हो उठेगा। तीसरा, सन् १८७७ ई. में हुए दिल्ली दरबार के समय समाज-सुधारकों (सर सय्यद अहमद खाँ, केशवचन्द्र सेन आदि) को आमंत्रित कर सर्वसम्मत कार्यक्रम बनाकर समाज-सुधार किया जाए, परन्तु समाज-सुधारक कोई सर्वसम्मत कार्यक्रम न बना सके।

स्वामी जी चाहते थे कि धर्म, समाज और राष्ट्र के लिए संन्यासी, विद्वान् एवं सुधारक मिलकर कार्य करें। संन्यासियों, विद्वानों और समाज-सुधारकों से मिलकर भी अच्छे परिणाम न मिले तो स्वामी जी ने सीधे जनता से लोक-सम्पर्क करना प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रवचन एवं उपदेशों से जनता जाग्रत हो गयी। जो काम संन्यासी, विद्वान् और सुधारक न कर सके, वह काम जनता ने अपने हाथ में ले लिया। स्वामी दयानन्द की सफलता लोक-सम्पर्क के कारण संभव हो सकी। किसानों को राजाओं का राजा कहने वाले दयानन्द जन सामान्य के हृदय में स्थान बना गए।

भारतीय इतिहास में १९ वीं शताब्दी का समय पुनर्जागरण का काल माना जाता है। दयानन्द इसी काल के ऐसे महापुरुष हैं, जिन्होंने धर्म, समाज, संस्कृति तथा राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में नवचेतना का संचार किया। नवजागरण काल का नेतृत्व उन्होंने भारतीय तत्त्व चिंतन तथा वैदिक-दर्शन के आधार पर किया। स्वामी दयानन्द आधुनिक युग के प्रकांड विद्वान् तथा महान् ऋषि थे। वेदों क ा हिंदी में भाष्य करने का महान् श्रेय स्वामीजी को जाता है।

वे वेद-शास्त्रों के गंभीर विद्वान्, महान् समाज सुधारक, राष्ट्रवादी और प्रगतिशील चिन्तक होने के साथ-साथ अपने समय के श्रेष्ठ साहित्यकार थे। १९ वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में उन्होंने विशाल साहित्य का सृजन किया। उनका गद्य संस्कृतमय है जिसमें ओज, हास्य एवं व्यंग्य पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है। उनका मानना था ‘हितेन सह सहितं, तस्य भाव: साहित्यं’ अर्थात् साहित्य के भीतर हित की भावना प्रबल होती है, इसलिए उन्होंने अपने लेखन और प्रवचन में प्राणी मात्र का हित सर्वोपरि रखा। उन्होंने हिंदी को फारसी सहित विदेशी भाषाओं के प्रभाव से मुक्त कर संस्कृत से जोड़ दिया, इससे हिंदी सशक्त एवं नए शब्दों की जननी बन सकी। हिंदी के स्वरूप को साहित्यिक स्तर और स्थिरता प्रदान करना स्वामीजी का अद्भुत कार्य था।

ऋषि दयानन्द ने प्राचीन, किन्तु जो हिंदी भाषा में नहीं थे, ऐसे शब्दों का प्रचलन किया-जैसे आर्य, आर्यावर्त, आर्यभाषा तथा नमस्ते। सर्वप्रथम स्वामी जी ने ‘नमस्ते’ का शब्दरत्न भारतीय समाज को दिया, जो आज भारत का राष्ट्रीय अभिवादन बन चुका है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचना ‘भारत भारती’ में तो ऋषि दयानन्द के सभी सुधारों का प्रबल समर्थन किया है। द्विवेदी युग, भारतेंदु युग और छायावादी युग के हिंदी साहित्य में दयानन्द की सुधारवादी भावना का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। स्वामी जी का समस्त साहित्य समाजवाद, राष्ट्रवाद, मानववाद, यथार्थवाद और सुधारवाद से पूर्ण है।

स्वामीजी ने उच्च कोटि के ग्रन्थ लिखे, जो मानव मात्र के लिए सदैव उपयोगी रहेंगे। इनमें प्रमुख हैं-संस्कार विधि, पंचमहायज्ञ विधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेद-भाष्य का नमूना, चतुर्वेद विषय सूची, यजुर्वेद भाष्य, आर्योद्देश्यरत्नमाला, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, संस्कृत वाक्य प्रबोध, वर्णोच्चारण शिक्षा, अष्टाध्यायी भाष्य, वेदांग प्रकाश…..आदि। स्वामी जी की सर्वोत्तम कृति है ‘सत्यार्थप्रकाश’, जिसे क्रन्तिकारियों की गीता भी कहा गया। अंडमान की सेल्युलर जेल (कालापानी) से लेकर विदेशी जेलों तक में बंद हमारे देशभक्त क्रान्तिकारी इस ग्रन्थ से मार्गदर्शन पाते रहे। यह पुस्तक जीवन के हर क्षेत्र में आने वाली समस्याओं के स्थिर एवं सकारात्मक समाधान खोजने में सहायक सिद्ध हुई है।

स्वामीजी की स्पष्ट घोषणाएँ

सब मनुष्य आर्य (श्रेष्ठ) हैं। वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, अत: वेदों की ओर लौट चलो। ईश्वर निराकार और सर्वशक्तिमान है। श्रेष्ठ कर्म, परोपकार तथा योगाभ्यास से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है। मूर्तिपूजा वेद-विरुद्ध है, जो भारत की पराधीनता का कारण भी बनी। जन्मजात जाति-व्यवस्था गलत, परन्तु कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था उचित है। कोई वर्ण ऊँचा या नीचा नहीं है, अपितु सारे वर्ण समान हैं। स्त्री, शूद्रों सहित सभी को वेद पढऩे-पढ़ाने का अधिकार स्वयं वेद देता है-यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य:। (यजुर्वेद) स्वराज्य सर्वोत्तम होता है। विदेशी राजा हमारे ऊपर कभी शासन ना करें। हिंदी द्वारा सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में पिरोया जा सकता है। गणित ज्योतिष सत्य लेकिन फलित ज्योतिष असत्य है। मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य का जानने वाला है। अपनी भाषा, संस्कृति और भारतीयता पर गर्व होना चाहिए। संसार का उपकार करना आर्यसमाज का मुख्य उद्देश्य है। मनुर्भव अर्थात् मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनना चाहिए।

स्वामी जी के योगदान को देश-विदेश के महापुरुषों ने अलग-अलग रूप में देखा। जहाँ लोकमान्य तिलक उन्हें ‘स्वराज्य का प्रथम संदेशवाहक’ मानते हैं, वहीं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ‘भारत का निर्माता’। लाला लाजपत राय ‘पिता तुल्य’ दयानन्द के उपकारों का अनुभव करते हैं तो सरदार पटेल ‘भारत की स्वतन्त्रता की नींव’ रखने वाले दयानन्द को उसका पूरा श्रेय देते हैं। पट्टाभि सीतारमैय्या को वे राष्ट्र-पितामह लगे, मैडम ब्लेवेट्स्की को ‘आदि शंकराचार्य के बाद बुराई पर सबसे निर्भीक प्रहारक’, परन्तु बिपिनचन्द्र पाल को तो वे ‘स्वतन्त्रता के देवता तथा शान्ति के राजकुमार’ प्रतीत हुए। जब स्वामी जी ने ‘भारत भारतीयों के लिए’ की घोषणा की तो श्रीमती एनी बेसेन्ट को ऐसी घोषणा करने वाला प्रथम व्यक्ति मिल गया। फ्रैंच लेखक रोमा रोलां ने ‘राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रूप देने में’ स्वामी दयानन्द को सदैव प्रयत्नशील पाया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अपने हृदय के भाव व्यक्त करते हुए कहा- ‘मेरा सादर प्रणाम हो उस महान् गुरु दयानन्द को, जिसकी दृष्टि ने भारत के इतिहास में सत्य और एकता को देखा’। सर सैयद अहमद खाँ के लिए ‘वे ऐसे व्यक्ति थे, जिनका अन्य मतावलम्बी भी सम्मान करते थे’। कस्तूरी बाई इससे भी एक कदम आगे बढक़र, उन्हें आर्यसमाजियों के लिए ही नहीं वरन सारी दुनिया के लिए पूज्य मानती रहीं। सद्गुरुशरण अवस्थी मानते हैं कि ‘सामाजिक, दार्शनिक तथा राजनैतिक विषयों पर सबसे पहले स्वामी जी की लेखनी खुली।’  प्रो. हरिदत्त वेदालंकार हिंदी सेवा की दृष्टि से स्वामी दयानन्द का स्थान ‘सर्वप्रथम’ मानते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र, विष्णु प्रभाकर, मुंशी प्रेमचन्द, प्रताप नारायण मिश्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ और पंडित राहुल सांकृत्यायन जैसे पूज्य विद्वान् लेखक दयानन्द के सुधारवादी और प्रगतिवादी विचारों से ऊर्जा लेकर साहित्य सेवा में जुटे रहे। डॉ. रघुवंश के अनुसार कुछ समन्वयवादियों और अंतर्राष्ट्रवादियों ने दयानन्द को कट्टरपंथी और ख्ंाडन-मंडन करने वाले सुधारक के रूप में प्रस्तुत करने की चेष्टा की है, परन्तु वस्तुस्थिति यह है कि उनके जैसा उदार मानवतावादी नेता दूसरा नहीं रहा है। यह दयानन्द की उदारता ही थी कि उनके अनुयायी स्वामी श्रद्धानन्द दिल्ली की जामा मस्जिद में ‘त्वं हि न: पिता वसो त्वं माता’…. इस वेद मन्त्र का उच्चारण कर सके और मुस्लिम विद्वान् गुरुकुल काँगड़ी की यज्ञशाला के पास नमाज़ पढ़ सके।

जीवन में दो पक्ष होते हैं-सत्य एवं स्वार्थ। दयानन्द सत्य के साथ और सत्य दयानन्द के साथ था। वे अपनी ‘विजय’ के लिए नहीं, अपितु सत्य की स्थापना के लिए तत्पर रहे। उनकी कठोरता बुराइयों को नष्ट करने के लिए थी। जिस प्रकार एक सच्चा डॉक्टर मरीज को स्वस्थ रखने के लिए कठोर किन्तु उचित निर्णय लेता है, उसी प्रकार दयानन्द भी सत्य के मंडन के लिए असत्य का खंडन अनिवार्य समझते थे। मानव मात्र के उत्थान और राष्ट्र के कल्याण के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले ऋषि दयानन्द के मंतव्य और उद्देश्य आज भी हम सब के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।

शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” भाग -२ : गौरव आर्य

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शौर्य की ज्वाला “पद्मावती” :गौरव आर्य

गतांक से आगे

 

राजा रतनसिंह और रानी पद्मिनी को लेकर “मलिक मुह्हमद जायसी” ने एक काव्य “पद्मावत” लिखा था, आज विरोध का कारण वही काव्य है

इतिहास के अभाव में लोगों ने “पद्मावत” को एतिहासिक पुस्तक मान लिया, परन्तु वह आजकल के किसी काल्पनिक उपन्यासों के जैसी है

रानी पद्मिनी के जोहर के लगभग २५० वर्ष पश्चात एक मुगल कवि द्वारा राजपूतों की शान बताकर कोई काव्य लिखना और उसे प्रमाणिक मानना हमारे शोधकर्ताओं के उदासीन रवैये को प्रदर्शित करता है और आज पर्यन्त उसे प्रमाणिक मानकर उसका उपयोग लेना और फिल्मनिर्माता द्वारा उस पर फिल्म बनाना अत्यंत निराशाजनक है

जबकि उस काव्य में राजपूत मान मर्यादा, शान, रीतिरिवाज को नष्ट कर दिया गया हो

पद्मावत में क्या लिखा है –

 

जायसी ने काव्य “पद्मावत” तो बहुत विस्तृत लिखा है यहाँ सिमित दायरे में आपको बताते है:-

सिंहल देश के राजा गन्धर्वसेन की पुत्री का नाम पद्मिनी था, इस राजपुत्री को पक्षी पालने का शौक था ! उसके पक्षियों में एक हिरामन नाम का तोता था जो मनुष्यों की भाषा समझने और उसी में बोलने की कला में निपुण था

 

एक दिन तोते को एक व्याध ने पकड़ लिया और रुपयों के लालच में एक ब्राह्मण को बेच दिया, ब्राह्मण ने तोते को चितोडगढ़ के रावल रतनसिंह को भेंट कर दिया

 

तत्पश्चात रतनसिंह की रानी अपनी प्रशंसा कर रही थी तो तोते ने पद्मिनी के सोंदर्य का बखान किया,  जिसे सुन रतनसिंह उसे पाने के लिए अधीर हो गया और सिंहल देश (श्री लंका) पहुँच गया,  अकेला होने की वजह से युद्ध का विचार त्यागकर १२ वर्ष साधू के वेश में रहकर उसे पाने का बहुत प्रयास किया, एक दिन तोता रतनसिंह के चंगुल से छुटकर पद्मिनी के पास चला गया और रतनसिंह के बारे में बताया जिससे राजकुमारी उस पर मोहित हो गई एक दिन दोनों की भेंट होती है जहाँ रतनसिंह पद्मिनी का सोंदर्य देखकर मुर्छित हो जाता है, राजकुमारी के प्रेम को देखकर राजा गन्धर्वसेन राजकुमारी की इच्छाओं का सम्मान करता है और अंततः दोनों का विवाह हुआ और रतनसिंह पद्मिनी को लेकर चितोड़गढ़ आ गया

 

अब कहानी को दिलचस्प बनाने और उसे खिलजी से जोड़ने के लिए एक किरदार और जोड़ा

जायसी ने लिखा एक दिन “राघव चेतन” नाम का व्यक्ति रावल के दरबार में आया और नौकरी पर रखने की प्रार्थना की जिसे राजा ने स्वीकार कर लिया, थोड़े समय पश्चात रावल को ज्ञात हुआ की राघव चेतन जादू टोना जानता है तो रावल ने उसे बाहर निकाल दिया, रानी पद्मिनी को उस पर तरस आता है तो वह स्वयं उसकी सहायता के लिए पेसे देती है, उस समय राघव रानी को देखता है और वह रानी के सोंदर्य का दीवाना हो जाता है, राघव ने रावल रतनसिंह से बदले की भावना से अल्लाउद्दीन के कान भरकर उसे युद्ध के लिए प्रेरित करने का विचार किया और दिल्ली जाकर उसे पद्मिनी के सोंदर्य के बारे में बताया और राजा को उकसाया की ऐसे सौन्दर्य की देवी को तो आपके राज दरबार का हिस्सा होना चाहिए

 

तो खिलजी चितोड़गढ़ पर चढाई कर देता है रावल रतनसिंह और खिलजी के बीच करीब ६ महीने युद्ध चलता है और मुगल सेना निराश होने लगती है तो खिलजी राजा के पास प्रस्ताव लेकर जाता है की तुम अपनी पत्नी को केवल कांच में दिखा दो तो भी हम यहाँ से चले जायेंगे और राजा यह शर्त स्वीकार कर लेता है और योजना बनती है की महल में काच लगाया जाए जहाँ से खिलजी दूर से रानी को देखे, रानी को देखकर खिलजी मोहित हो जाता है, चितोड़ से प्रस्थान का कार्यक्रम बनता है रतनसिंह द्वार पर छोड़ने आता है, जहाँ से धोखे से उसे बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया जाता है

 

दिल्ली ले जाकर खिलजी सुचना भेजता है की यदि रानी पद्मिनी को हमें दे दिया जाए तो हम रतनसिंह को छोड़ देंगे तो रानी एक योजना बनाती है जिसमें ७०० पालकियों में सैनिकों को दासियों के वेश में लेकर जाती है और खिलजी को कहाँ जाता है की वह आ रही है और युक्ति लगाकर राजा को वहां से भगाकर पुनः चितोड़ ले आते है

 

जिससे खिलजी क्रोधित होकर पुनः चितोड़ पर आक्रमण करता है जहाँ रतनसिंह शहीद हो जाते है और रानी पद्मिनी कई रानियों दासियों के साथ जोहर कर लेती है

जिसकी सुचना पाकर खिलजी को आत्मग्लानि होती है और वह निराश होकर दिल्ली लोट जाता है

(“चितोड की ज्वाला रानी पद्मिनी : दामोदरलाल गर्ग” से कुछ भाग)

 

यह बहुत ही संक्षिप्त शब्दों में कहानी को यहाँ बताया है

 

जायसी ने तो इस काव्य में प्रेम प्रसंग का इतना पुट दिया है की कही से राजपूती शान, मर्यादा, रीतिरिवाज, वीरता के दर्शन नहीं होते |

“पद्मावत कथा की समाप्ति में जायसी ने इस सारी कथा को एक रूपक बतलाया है”

(उदयपुर राज्य का इतिहास पृष्ठ १७४)

बाद के लेखकों ने भी इसे प्रमाणिक मानकर अपनी लेखनी को गति दी है और उस पर कुछ कुछ घालमेल कर अपने अपने काव्य लिख दिए है

पाठकों को इस काव्य को राजपूती मान मर्यादा उनके जीवन को ध्यान में रखकर इसे पढ़कर निर्णय लेना चाहिए की इस कवि ने रानी पद्मिनी के जोहर राजपूती शान के साथ कितना खिलवाड़ किया

राजपूती शान क्या रही है इस पद्य को पढ़कर समझा जा सकता है

“चितोड़  चम्पक  ही  रहा  यद्यपि  यवन  अली  हो  गये,

धर्मार्थ  हल्दीघाट  में  कितने  सुभट  बली  हो  गये !

“कुल  मान  जब  तक  प्राण  तब  तक,  यह  नहीं  तो  वह  नहीं”,

मेवाड़  भर  में  वक्तृताए  गुँजती  ऐसी  रही ||

राजस्थान की मिटटी में जन्में रक्त की ज्वाला देखो

“विख्यात  वे  जौहर  यहाँ  के  आज  भी  है  लोक  में,

हम  मग्न  है  उन  पद्मिनी-सी  देवियों  के  शोक  में !

आर्य-स्त्रियाँ  निज  धर्म  पर  मरती  हुई  डरती  नहीं,

साद्यंत  सर्व  सतीत्व-शिक्षा  विश्व  में  मिलती  नहीं ||”

 

“पद्मावत” काव्य को पढ़कर और रतनसिंह के कार्यकाल के समय को देखा जाए तो यह पूरा काव्य झूठा और बेबुनियाद लगता है

 

जो प्रमाण मिलते है जो शिलालेख मिले है उसके अनुसार रतनसिंह का कार्यकाल १ साल के करीब रहा है

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ संख्या १८७)

अब यह विचारणीय है की इस १ वर्ष में उक्त काव्य की घटनाए कैसे घटित हुई होगी

१. जैसे रतनसिंह का राजतिलक हुआ होगा, राजकाज सम्भाला फिर कुछ समय बाद तोते का मिलना, फिर सिंहल देश जाने की योजना बनाना, सिंहलदेश जाने का समय और वहां जाकर १२ वर्ष साधू के वेश में रहना, फिर पुनः चितोड़ आना, फिर राघव का आना, उसे निकाला जाना और उसका दिल्ली जाकर कई महीनों बाद खिलजी से मिलना, खिलजी का चितोड़ पर ६ महीने तक आक्रमण करना फिर रावल को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाना जहाँ से पुनः छुड़ाकर लाना उसके बाद पुनः युद्ध होना फिर जोहर होना

इतने सारे कार्य में कितने वर्ष लगे होंगे और उन सबके पश्चात रतनसिंह का केवल १ वर्ष का कार्यकाल सिद्ध होना प्रमाण के लिए पर्याप्त है की जायसी का काव्य कपोल कल्पित है

२. यदि मान लिया जाए की रावल का कार्यकाल अधिक रहा होगा तो एक राजा का १२ वर्ष तक साधू के वेश में रहना अमान्य है और राजपुताना तो विश्व प्रसिद्ध रहा है फिर यदि रावल स्वयं जाकर राजा गन्धर्वसेन से उनकी पुत्री का हाथ मांगते तो उन्हें स्वीकार अवश्य होता इसमें कोई संशय नहीं

 

३. जो कार्यकाल रावल रतनसिंह का पाया जाता है उस समय सिंहल देश में गन्धर्वसेन नाम का कोई राजा नहीं था एक अन्य जगह पद्मिनी के पिता का नाम हम्मीर शंख बताया है इस नाम का राजा भी उस समय सिंहल देश में नहीं था उस समय राजा कीर्तिनिश्शंकदेव पराक्रमबाहू (चतुर्थ) था |

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १, पृष्ठ संख्या १८७)

४. उसके बाद राघव की सहायता स्वयं रानी के हाथों से होना भी संदेह उत्पन्न करता है क्यूंकि राजपूती मर्यादा इस बात की आज्ञा नहीं देती की घर की बहन बेटियां किसी गैर मर्द को मिले बात करें या किसी प्रकार का कोई दान या भिक्षा दे, राजपूती क्या जन समान्य में भी जो अच्छे घराने के लोग है वे भी इसकी आज्ञा नहीं देते

 

५. अपनी पत्नी के प्रदर्शन की शर्त स्वीकार करना किसी भी राजपूत की मर्यादा के विपरीत है जहाँ एक और राजपूती इतिहास वीरता से भरा पड़ा है, सब प्रकार से साधन सम्पन्न शक्तिशाली राजा के होते ऐसी बात को स्वीकार करना बिलकुल राजपूती मान मर्यादा के विपरीत है, एक सामान्य मनुष्य भी अपनी पत्नी को लेकर ऐसी शर्त स्वीकार नहीं करेगा

 

६. सिंहल देश में रावल रतनसिंह का पद्मिनी को देखकर मूर्छित हो जाना भी गलत लगता है, यह तो उस काल की बात है जब राजपूती रक्त वीरता का पर्याय था उस समय राजा का मूर्छित होना हास्यास्पद है जबकि आजकल के लड़के तो किसी सुन्दरी को देखकर भी मूर्छित न हो |

७. चूँकि राजा रतनसिंह का कार्यकाल १ वर्ष का ही रहा और इतने से कार्यकाल में उसका विवाह होना और ६ से ८ माह का युद्ध होना उसके अनुसार रानी पद्मिनी का दिल्ली जाकर राजा को छुड़ाना भी कल्पना मात्र ही है, अनुमान है की इस कार्यकाल में अलाउद्दीन ने चितोड़ पर आक्रमण किया युद्ध ६ माह के लगभग चला और इस युद्ध में राजा रतनसिंह इस लड़ाई में लक्ष्मणसिंह सहित कई सामंतों के साथ मारा गया, उसकी रानी पद्मिनी ने कई रानियों के साथ जौहर किया

(उदयपुर राज्य का इतिहास भाग १ पृष्ठ १९१)

८. रानी पद्मिनी को लेखक सिंहल देश का बताते है और उस काल में जिस राजा का नाम लिया जाता है उस समय में उस नाम के किसी भी राजा का कोई इतिहास नहीं मिलता और राजा रतनसिंह के इतने से छोटे से कार्यकाल में उसका सिंहलदेश जाना वहां साधू का वेश धारण करना यह सब कल्पना ही है इसमें सच्चाई लेशमात्र भी नहीं |

वस्तुतः रानी पद्मिनी पंगल, पिंगल अथवा पूंगलगढ़ की रहने वाली थी जो वर्तमान में बीकानेर के अंतर्गत आता है | ढोला-मारू लोक गाथा की नायिका भी इसी गढ़ की रहने वाली थी | राजस्थानी लोकगीतों से भी प्रमाणित होता है की रानी पद्मिनी पंगल (पूंगलगढ़) की रहने वाली थी- देखे:-

 

“पगि पगि पांगी पन्थ सिर ऊपरि अम्बर छांह |

पावस प्रगटऊ पद्मिनी, कह उत पंगल जाहं ||”

इसी प्रकार इसके पिता और पति के नामों में भ्रम का संचार हुआ है जबकि पिता का नाम रावल पूण्यपाल एवं माता का नाम जामकंवर था | पति का नाम रावल रतनसिंह था |

(चितोड़ की ज्वाला “रानी पद्मिनी” {रानी पद्मिनी की एतिहासिकता और ख्यातिप्राप्त जौहर} पृष्ठ ५१)

 

सार यही है की रानी पद्मिनी को लेकर जो इतिहास “पद्मावत” उपलब्ध है वह सर्वदा अमान्य है क्यूंकि उसमें लिखी कई बातों के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, उसमें जो समय गणना है, जो जो भौगौलिक स्थिति दर्शाई गई है, जो जो घटनाए दर्शाई गई है वे मूल इतिहास से बिलकुल नहीं जुडती/विपरीत है

 

रानी पद्मिनी के इतिहास और भौगौलिक स्थितियों को देखकर, उदयपुर राज्य के इतिहास को समझकर, राजाओं के काल को देखकर यही प्रतीत होता है की

रानी पद्मिनी रावल रतनसिंह की पत्नी थी, रावल का कार्यकाल १ वर्ष रहा उसी समय अलाउद्दीन खिलजी ने चितोड़ पर आक्रमण किया यह एक बार ही किया गया था और ६ माह के युद्ध में रावल रतनसिंह मारे गये और रानी पद्मिनी ने अपने सतीत्व की रक्षा में कई रानियों और दासियों के साथ जौहर कर लिया

इसके अतिरिक्त जो घटनाए जैसे

७०० डोलियाँ लेकर जाना

राघव चेतन द्वारा मुखबरी करना

रावल द्वारा रानी पद्मिनी का चेहरा दिखाना

धोखे से रावल को कैद कर दिल्ली ले जाना

सिंहल देश जाकर १२ वर्ष साधू के वेश में रावल का रहना

और इसके अतिरिक्त कई तथ्य केवल कल्पना मात्र है इनका कोई प्रमाण आज तक नही मिलता
इन सब तथ्यों को पढ़कर मेरा भंसाली से विरोध यही है की जिस इतिहास को प्रमाणिक नहीं माना गया है उसे उपयोग में लेकर फिल्म बनाकर उसे प्रदर्शित करना इतिहास प्रदुषण है जो मान्य नहीं है,

ऐसी अभिनेत्रियों को रानी पद्मिनी के किरदार में प्रदर्शित करना जिनका स्वयं का चरित्र निम्न स्तर का हो

जिस वर्ग पर फिल्म बनाई जा रही है उससे चर्चा न करना, उनसे विचार विमर्श किये बिना उनके इतिहास से छेड़छाड़ करना

उनके विरोध के पश्चात उसमें बदलाव न करना और उसे प्रदर्शित करने पर अड़े रहना

यह सब विरोध के प्रमुख कारण है परन्तु एक तथ्य यह भी है की फिल्म के मुफ्त प्रमोशन के लिए भी हो सकता है यह भंसाली का कोई एजेंडा हो

यह सब गर्त में छुपा है इस पर पूरी प्रतिक्रिया फिल्म की कहानी पता चलने के बाद ही दी जा सकती है इससे आगे यह कहना की यह फिल्म न देखने जाए या जाए यह पाठकों की बुद्धि पर छोड़ दिया जाना ज्यादा उचित है

 

इति शम

नमस्ते

बोधगीत: – देवनारायण भारद्वाज ‘देवातिथि’

शिव शोध बोध प्रति पल पागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।

जब जाग गये तो सोना क्या,

बैठे रहने से होना क्या।

कत्र्तव्य पथ पर बढ़ जाओ,

तो दुर्लभ चाँदी सोना क्या।।

मत तिमिर ताक श्रुति पथ त्यागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।१।।

बन्द नयन के स्वप्न अधूरे,

खुले नयन के होते पूरे।

यही स्वप्न संकल्प जगायें,

करें ध्येय के सिद्ध कँगूरे।।

संकल्प बोध उठ अनुरागो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।२।।

शिव निशा जहाँ मुस्काती है,

जागरण ज्योति जग जाती है।

संकल्पहीन सो जाते हैं,

धावक को राह दिखाती है।।

श्रुति दिशा छोडक़र मत भागो,

जागो रे व्रतधारक जागो।।३।।

बोध मोद का लगता फेरा,

मिटता पाखण्डों का घेरा।

शिक्षा और सुरक्षा सधती,

हटता आडम्बर का डेरा।।

बोध गोद प्रिय प्रभु से माँगो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।४।।

कुल फूल मूल शिव सौगन्धी,

शंकर कर्षण सुत सम्बन्धी।

रक्षा, संचेत अमरता से,

हों जन्म उन्हीं के यश गन्धी।।

योग-क्षेम के क्षितिज छलाँगो।

जागो रे व्रतधारक जागो।।५।।

– अलीगढ़, उ.प्र.

आर्यसमाज – समस्या और समाधान:- धर्मवीर

आर्यसमाज से सम्बन्ध रखने वाले, आर्यसमाज का हित चाहने वाले लोग समाज की वर्तमान स्थिति से चिन्तित हैं। उन्हें दु:ख है कि एक विचारवान्, प्राणवान् संगठन निष्क्रिय और निस्तेज कैसे हो गया? इसके लिए वे परिस्थितियों को दोषी मानते हैं, आर्यों की अकर्मण्यता को कारण समझते हैं। यह सब कहना ठीक है, परन्तु इसके साथ ही इसके संरचनागत ढांचे पर भी विचार करना आवश्यक है, जिससे समस्या के समाधान का मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है।

स्वामी दयानन्द जी ने अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों को देखकर ऐसा अनुभव किया कि धार्मिक क्षेत्र में गुरुवाद ने एकाधिकार कर रखा है, उसके कारण उनमें स्वेच्छाचार और उच्छृंखलता आ गई है। इनके व्यवहार पर कोई अंगुली नहीं उठा सकता, इस परिस्थिति का निराकरण करने की दृष्टि से इसके विकल्प के रूप में प्रजातन्त्र को स्वीकार करने पर बल दिया। मनुष्य के द्वारा बनाई और स्वीकार की गई कोई भी व्यवस्था पूर्ण नहीं होती, जिस प्रकार अधिनायकवादी प्रवृत्ति दोषयुक्त है, उसी प्रकार प्रजातान्त्रिक पद्धति में दोष या कमी का होना स्वाभाविक है।

शासन में यह पद्धतियों का परिवर्तन चलता रहता है, परन्तु स्वामी दयानन्द की यह विशेषता है कि उन्होंने धार्मिक क्षेत्र में उसे चलाने का प्रयास किया जबकि धार्मिक क्षेत्र आस्था से संचालित होता है, जिसका बहुमत अल्पमत से निर्धारण सम्भव नहीं होता, परन्तु स्वामी जी का धर्म केवल भावना या मात्र आस्था का विषय नहीं अपितु वह ज्ञान और बुद्धि का भी क्षेत्र है। इसी कारण वे इसे प्रजातन्त्र के योग्य समझते हैं।

इससे पूर्व गुरु परम्परा की सम्भावित कमियों को देखकर गुरु गोविन्द सिंह सिक्ख सम्प्रदाय के दशम गुरु ने अपना स्थान पंचायत को दे दिया था, यह भी धार्मिक क्षेत्र की अधिनायकवादी प्रवृत्ति के निराकरण का प्रयास था। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उसे और अधिक विस्तार दिया और समाज के सदस्यों को बहुमत से फैसला करने का अधिकार दिया।

यह प्रजातन्त्र का नियम आर्यसमाज के संस्थागत ढांचे का निर्माण करता है। समाज के सदस्यों की संख्या बहुमत के आधार पर उसके अधिकारियों का चयन करती है। अत: बहुमत जिसका होगा, वह प्रधान और मन्त्री बनेगा, मन्त्री बनने की कसौटी अच्छा या बुरा होना नहीं अपितु संख्या बल का समर्थन है, इसलिए अच्छे व्यक्ति अधिकारी बनें, यह सोच गलत है। अच्छा या बुरा होना अधिकारी बनने की वैधानिक परिधि में नहीं आता। अच्छे और बुरे का फैसला भी तो अन्तत: कानून के आधीन है। अत: जैसे सदस्यों की संख्या अधिक होगी, वैसे ही अधिकारी बनेंगे।

आर्यसमाज का सदस्य कौन होगा, जो आर्य हो, स्वामी दयानन्द द्वारा बनाये गये नियमों और सिद्धान्तों में विश्वास रखता हो तथा तदनुसार आचरण करता हो। चरित्र नैतिकता का क्षेत्र है, वह अमूर्त है, इसका फैसला कौन करेगा? अन्तिम फैसला सभा के सदस्य करेंगे, जिसका बहुमत होगा वह चरित्रवान् होगा, जिसका समर्थन कम होगा, वह चरित्रवान् नहीं कहलायेगा, जैसा कि आजकल संगठन हो रहा है, हम भली प्रकार जानते हैं।

सामाजिक संगठन की रचना सदस्यों के द्वारा होती है, सदस्यता चन्दे से प्राप्त होती है। जिसने भी चन्दा दिया है, वह आर्यसमाजी है, अन्य नहीं। ऐसी परिस्थिति में आप जब तक चन्दा देते हैं या जब तक संगठन आपका चन्दा स्वीकार करता है, आप आर्यसमाजी है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार आपके परिवार का कोई सदस्य चन्दा देता है, तो आर्यसमाजी हैं, अन्यथा नहीं, ऐसी स्थिति में जिसके स्वयं के आर्यसमाजी होने का भरोसा नहीं, उसके परिवार और समाज के आर्यसमाजी बनने की बात वैधानिक स्तर पर कैसे सम्भव होगी, यह एक संकट की स्थिति है।

अविद्या को दूर करना ही देशोन्नति का उपाय है: – सत्यवीर शास्त्री

इस ईश्वर की अनात्म जड़ मूर्ति पूजा ने राष्ट्र व समाज को, इस आर्यावर्त देश भारत को, जिसे विदेशी लोग सोने की चिडिय़ा के नाम से पुकारते थे, जिसके ज्ञान-विज्ञान के कारण इसको विश्व का गुरु माना जाता था, उस राष्ट्र की आज अत्यन्त गरीब देशों में गिनती है। चरित्रहीनता और भ्रष्टाचार में इसकी गिनती प्रथम दर्जे के देशों में की जाती है, क्योंकि गरीबी का मुख्य कारण महाभारत के उपरान्त अविद्या के उपरोक्त लक्षणों में फँसकर अन्धविश्वास के कारण राजाओं, महाराजाओं तथा अन्य धनवान् तथा सामान्य व्यक्तियों ने भी राष्ट्र की सम्पत्तियों का बहुत बड़ा हिस्सा इन पत्थर के भगवानों के मन्दिरों में समर्पित कर दिया तथा विदेशी लुटेरे आक्रमणकारी मन्दिरों से इक_े किये धन को लूटते रहे। मुहम्मद गजनवी ने सत्रह बार हमला कर देश को लूटा। अकेले सोमनाथ के मन्दिर से जो धन लूटा गया, इस विषय में इतिहासवेत्ता आचार्य चतुरसेन के ही शब्दों में सुनें-अनेक राजा, रानी, राजवंशी, धनी, कुबेर, श्रीमंत, साहूकार यहाँ महीनों पड़े रहते थे और अनगिनत धन, रत्न, गाँव, धरती सोमनाथ के चरणों में चढ़ा जाते थे।

उसी अवर्णनीय, अतुलनीय वैभव से युक्त सोमनाथ के पतन की करुण कथा और मुहम्मद गजनवी के सत्रहवें आक्रमण की क्रूर कहानी ‘सोमनाथ’ पुस्तक में इस प्रकार वर्णित है- अब मुहम्मद ने कृष्ण स्वामी से धन, रत्नकोष की चाबियाँ तलब की। अछता-पछता कर कृष्ण स्वामी ने देवकोष मुहम्मद को समर्पण कर दिया। उस देवकोष की सम्पदा को देखकर मुहम्मद की आँखें फैली की फैली रह गईं। भूगर्भ स्थित कढ़ाओं, टोकरों में स्वर्ण, रत्न, हीरे, मोती, लाल, मणी, माणिक्य आदि भरे पड़े थे। उस दौलत का कोई अन्त नहीं था। उस अतुल सम्पदा को देखकर महमूद हर्ष से अपनी दाढ़ी नोंचने लगा। उसने तुरन्त कोषों को पेटियों में बन्द करवाकर अपने शिविरों में भेजना आरम्भ किया। अस्सी मन वजनी ठोस सोने की जंजीर जिसमें महाघण्ट लटकता था, तोड़ डाली। किवाड़ों चौखटों और छतों से चाँदी पत्तर उखाड़ लिये गये। कंगूरों से स्वर्ण पत्र उखाड़ लिये गये। मणिमय स्तम्भों (खम्भों) पर जड़े रत्न उखाडऩे में उसके हजारों बर्बर सैनिक जुट गये। सोने, चाँदी के सभी पात्र ढेर कर उसने हजारों ऊँटों पर लाद लिए। यह है अधूरा वर्णन महमूद के एक आक्रमण का, ऐसे-ऐसे आक्रमण उसने एक नहीं, दो नहीं, अपितु सत्रह बार किये और एक महमूद गजनवी नहीं, अनेक हमलावर यहाँ आये। मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गौरी, तैमूर लंग, चंगेज खाँ, लगभग तीन सौ वर्षों तक अंग्रेज इस राष्ट्र को लूटते व चूसते रहे, जिस प्रकार व्यक्ति ईक्षुदण्ड (गन्ने) को चूसकर खोई को फैंक देता है। आज भी हम उन्हीं अंग्रेजों की शिक्षा संस्कृृति के गुलाम होकर उनकी अंग्रेजी भाषा में अपनी शिक्षा पद्धति को अपनाये हुए हैं, जबकि अन्य स्वतन्त्र देश अपनी ही स्वदेशीय भाषा में ही शिक्षा प्रदान करते हैं। किन-किनके नाम गिनवाये जायें? इस देश में बल, वीरता, तेज व शौर्य की कमी नहीं थी। यहाँ पर विश्वासघात तथा उपरोक्त अविद्या अन्धकार ने इस राष्ट्र को कालग्रस्त कर दिया। आज भी इस देश में हजारों ऐसे प्राचीन मन्दिर उपस्थित हैं, जहाँ राष्ट्र की अरबों-खरबों की सम्पत्ति दबी हुई है, जिसके प्रयोग से राष्ट्र का विकास कर अरब जनसंख्या वाले इस विशाल राष्ट्र की गरीबी को दूर किया जा सकता है।

यही नहीं, इस ‘अनात्मसु-आत्मख्यातिरविद्या’ दोष के कारण से जिस राष्ट्र में सीता, सावित्री, अनुसूया तथा गार्गी जैसी विदुषी पतिव्रता महिलाएँ हुईं तथा महाराणा प्रताप के कनिष्ठ भ्राता शक्ति की पुत्री देवी किरणमयी ने जैसे अपने सतीत्व की रक्षा के लिए बादशाह अकबर जैसे योद्धा को नवरत्तन-रोजा के मेले में पृथ्वी पर पटककर उसके मुख से पैर पकड़वाकर यह कहलवाया कि तुम मेरी धर्म बहन हो, मुझे क्षमा कर दो।

उसी राष्ट्र में जो किसी समय विद्या, बल व चरित्र के गुणों के कारण विश्व का गुरु कहलाता था, केचन (कुछ) धर्मद्रोही लोगों ने पत्थर के देवताओं के लिए इस राष्ट्र की निर्मल गंगा के समान पवित्र बहन, बेटियों को देव-दासियों के रूप में मन्दिरों में स्थापित कर ‘प्रवृत्ते भैरवीचक्रे सर्ववर्णा द्विजातीय’ का कथन करके दुराचार का जो नग्न नाच तथा बहन-बेटियों की चरित्रहनन का अनेक मन्दिरों में जो दुष्कृत्य किया जाता रहा, उसे लेखनी लिखने में समर्थ नहीं है। इसके पूर्ण विवरण के लिये सत्यार्थप्रकाश का ग्यारहवाँ समुल्लास तथा आचार्य चतुरसेन द्वारा लिखित ‘सोमनाथ मन्दिर की लूट’ नामक पुस्तक का अध्ययन करें।

इसके अतिरिक्त इस पत्थर के देवताओं के भोग और प्रसन्न करने के बहाने मांस-लोलुप मन्दिर के पुजारियों ने अपनी जिह्वा के रसास्वादन हेतु पशुओं को ही नहीं, मनुष्यों तक की बलि प्रथा आरम्भ करवाई, जिसके कारण राष्ट्र में वैदिक धर्म के विरुद्ध नास्तिक जैन व बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। मेरे मन के एक कोने में यह भी बैठा हुआ है कि वेदविरुद्ध पत्थर की एकदेशीय मूर्ति को भगवान मानने के कारण ही १४०० वर्ष पूर्व इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ है, क्योंकि इस्लाम के आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य मन्दिरों की मूर्तियाँ तोडऩा रहा है। आज भी राजस्थान के अनेक मुस्लिम परिवार सैकड़ों-सैकड़ों गउओं का पालन करते हैं, केवल मात्र कट्टरपंथी मुस्लिम गोहत्या करते हैं। वे लोग भी हिन्दुओं की सहायता से ही इस घृणित पापकर्म में लिप्त हैं। आज भी देश में सैंकड़ों मन्दिरों तथा कलकत्ता की काली देवी के समक्ष प्रतिदिन निर्दोष, बेजुबान हजारों पशुओं की बलि दी जाती है और वर्तमान की खबर सुनो! जो समाज को दिशा-निर्देश देने वाले अभिनेता माने जाते हैं, वे भी इस वैज्ञानिक युग में उपरोक्त अविद्या के अन्धविश्वास में फँसकर समाज को विपरीत दिशा में ले जा रहे हैं। कुछ वर्ष पूर्व प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन बीमार (अस्वस्थ) हो गये थे। उनके स्वास्थ्य के सुधार हेतु झोटे (भैंसे) की बलि दी गई थी।

दैनिक जागरण, १६ नवम्बर, २०१४ एटा उत्तरप्रदेश थाना क्षेत्र सिढ़पुरा के गाँव चान्दपुर में प्रात: शनिवार के दिन दिल दहलाने वाली घटना हुई। एक अन्धविश्वासी बाप ने अपने तीन वर्षीय मासूम बेटे की बलि दे दी तथा खून से सने हाथों से मन्दिर में दुर्गा एवं शंकर की मूर्तियों का तिलक किया एवं खून के हाथों के छापे भी लगाए। जब तक विज्ञान विरुद्ध अन्धविश्वासी धर्म के आधार पर समाज चलेगा, तब तक इन भयंकर कुकृत्यों को रोका नहीं जा सकता। जब तक महापुरुषों को ईश्वर का अवतार माना जायेगा, तब तक रामपालदास, रामरहीम, आशाराम तथा नित्यानन्द जैसे अनेक चरित्रहीन लोग ईश्वर का अवतार लेते रहेंगे, अत: अवतार प्रथा पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए।

जिस प्रकार वर्तमान समय में रामपालदास के आश्रम बरवाला (हिसार) से अवैध हथियारों का जखीरा, शिक्षित कमाण्डो, अश्लील सामग्री, नशीले पदार्थ, विदेशी शराब, ए.के. सैंतालीस जैसे भयंकर हथियार, तेजाब व पेट्रोल बम्ब, माँ-बहन-बेटियों के चरित्रहनन हेतु बहनों के नग्र चित्रों के लिये उनके स्नानागारों में अप्रत्यक्ष रूप से कैमरे फिट करना, बेसुध कर बहन-बेटियों का चरित्रहनन करना आदि अवैध कार्य इसके बरवाला (हिसार) स्थित आश्रम में होते रहे, उसी प्रकार करौंथा (रोहतक) स्थित इसके आश्रम में भी होते रहे हैं, जिसके प्रत्यक्ष गवाह उस समय के सभी समाचार पत्र हैं।

१२ जून, २००६ में इस स्वयंभू भगवान् तथा इसके अनुयायियों ने सोनू नामक एक होनहार युवक की गोली मारकर हत्या की तथा लगभग साठ व्यक्तियों को गोलियों से घायल किया। २०१३ में करौंथा (रोहतक) आश्रम के निकट इसके अनुयायियों तथा पुलिस की गोलियों से संदीप (शाहपुर, आर्य बाल भारती स्कूल, पानीपत), आचार्य उदयवीर (आर्य गुरुकुल लाढौत, रोहतक) तथा बहन प्रोमिला देवी करौंथा (रोहतक) की गोली मारकर हत्या कर दी गई तथा लगभग ११० व्यक्तियों को गोलियों से घायल किया गया। इसके अतिरिक्त हरियाणा पुलिस ने अनेक खाप पंचायतों के नेताओं तथा आर्यसमाज, जिसकी स्थापना १८७५ में हुई थी तथा जिसके संस्थापक एवं अनुयायी १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से लेकर आज तक राष्ट्रहित एवं समाजहित के सभी बड़े आन्दोलनों में अपनी अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं, उसके कार्यकत्ताओं को भी लाठियों की चोटों से भंयकर रूप से घायल किया। २०१३ में भी करौंथा स्थित इसके आश्रम में उपरोक्त सभी अवैध सामग्री की जाँच पड़ताल इसको तथा इसके अनुयायियों को बचाने के लिए नहीं की गई तथा इसको पंजाब की तर्ज पर दूसरा भिण्डरावाला बनाने का कार्य किया। उन सबकी गहराई से जाँच होनी चाहिए। उसके उपरान्त भी उस समय की शासित पार्टी के राजनेताओं के ये वक्तव्य कि ‘हरियाणा की वर्तमान सरकार ने सूझबूझ, शान्ति व धैर्य से काम नहीं लिया।’ हमें पढक़र खेद व आश्चर्य होता है। उस समय के शासित राजनेता आत्म अवलोकन नहीं करते कि उस समय किस प्रकार से निहत्थे, निर्दोष लोगों को तथा साधु-संन्यासियों को लाठियों से घायल कर गोलियों से मृत्यु शैय्या पर पहुँचाया था।

वर्तमान समय में हरियाणा सरकार ने अत्यन्त सूझबूझ, शान्ति तथा धैर्य का प्रमाण देते हुए इतने बड़े ऑपरेशन के उपरान्त भी किसी को भी हताहत नहीं होने देना। वर्तमान मुख्यमन्त्री खट्टर साहब की सरकार की साधुवादिता व दूरदर्शिता है, अतएव हरियाणा सरकार साधुवाद की पात्र कही जाएगी।

हृदय की गहराई से राष्ट्र के इस अधोपतन का दु:ख विशेषकर महाभारत के उपरान्त किसी एक व्यक्ति ने अनुभव किया है तो वे एकमात्र ऋषि दयानन्द हैं। जब वे यमुना नदी के तट पर समाधि में बैठे हुए थे, तब इस राष्ट्र की एक बेटी अपने गोदी के लाल के शव को नदी में बहाने के लिए तट पर पहँुची। शव को पानी में डालने की आवाज से ऋषि जी की समाधि टूट गई। उन्होंने देखा कि एक बच्चे के  शव को नदी में बहाकर उसके शरीर के एकमात्र कफन को उतार कर एक बहन वापिस जा रही है। ऋषि ने आवाज देकर बहन को निकट बुलाकर पूछा-बहन! तुमने बच्चे के शव से कफन क्यों उतार लिया? उस समय बहन की आँखों में अश्रुधारा बहने लगी और बोली- बाबा, तुम्हें सांसारिक दु:ख-सुखों का ज्ञान नहीं है और न ही मेरे दु़:खों का आपके पास कोई समाधान है, अत: आप यह क्यों पूछ रहे हो? तब बाबा दयानन्द ने कहा-बहन, यह तो बताना ही पड़ेगा। तब बेटी ने दु:खी हृदय से कहना आरम्भ किया- बाबा, यह मेरा इकलौता पुत्र था, बीमार हो गया और पैसे के अभाव मेें मैं इसका इलाज नहीं करवा सकी, जिसके कारण इसकी मृत्यु हो गई। बाबा, इसके शरीर को ढँकने के लिए मेरे पास केवल मात्र एक यही साड़ी है। इसमें से आधी साड़ी को फाडक़र मैंने अपने लाल के लिए कफन तैयार किया था। बाबा, यदि मैं इस कफन को वापिस नहीं ले जाती हँू तो मैं इस शरीर को कैसे ढँक पाऊँगी और अपनी लाज की रक्षा कैसे कर पाऊँगी? यह कहकर बहन फफक-फफक कर रोने लग गई। जिस दयानन्द की आँखों में अपने प्यारे चाचा की मृत्यु तथा लाड़ली बहन की असमय मृत्यु पर एवं धन-धान्य से सम्पन्न घर-परिवार एवं स्नेहमयी माता-पिता के त्यागने पर दु:ख नहीं हुआ, परन्तु इस घटना ने उनके हृदय को अत्यन्त व्यथित कर दिया और कहा- मैंने पारसमणि पत्थर सुना है, लेकिन होता नहीं है, यदि कोई पारसमणि पत्थर था तो यह आर्यावर्त देश ही था, जिसको छूकर विश्व के कंकर, पत्थर के सदृश गरीब देश धनधान्य से सम्पन्न हो गये। हा, आज उस सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले राष्ट्र की यह दूरावस्था हो गई है कि यहाँ की बहन-बेटियों और माताओं को अपनी लाज की रक्षा के लिये वस्त्र भी नसीब नहीं तथा संस्कार के लिए समिधाएँ (लकडिय़ाँ) तथा कफन तक उपलब्ध नहीं है। पाठक मन्थन करें कि उस समय उस राष्ट्रभक्त ऋषि के हृदय में वेदना की क्या सभी सीमाएँ पार नहीं कर गई होंगी?

मैं राष्ट्र के कर्णधारों, राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, जिस पर आज पूर्ण भारत विश्वास कर रहा है, उनसे अपील करता हँू कि वे निम्रलिखित विषय पर गंभीरता से कदम उठायें। कुछ समय पूर्व रेडियो, टी.वी. तथा समाचार-पत्रों में एक बहस चली थी कि साम्प्रदायिक हिंसा पर लोकसभा में बहस होनी चाहिये। मेरा इस विषय में यह कथन है कि वृक्ष के पत्तों और डालियों पर पानी छिडक़ने से वह लाभ नहीं होता जो कि वृक्ष की मूल जड़ों में पानी देने से होता है, अत: भारत सरकार लोकसभा में प्रत्येक धर्म के एक-एक, दो-दो उच्च कोटि के विद्वानों को बुलाये और एक-एक विद्वान् से अपने-अपने धर्म की विशेषताओं की व्याख्या सुने तथा तदुपरान्त यह निश्चय करे कि कौन धर्म विज्ञानसम्मत, तर्कपूर्ण तथा युक्तियुक्त है तथा यह भी निश्चय करे कि किस धर्म का प्रादुर्भाव किस सन् या संवत् में हुआ? मान लो, किसी धर्म या सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ है तो दो-ढाई हजार वर्ष से पहले भी तो उस धर्म के बिना मानव तथा प्राणिमात्र का कार्य चल रहा था, तो चिन्तन किया जाये कि आज उसके बिना कार्य क्यों नहीं चल सकता? इसी प्रकार जाति, भाषा पर भी बहस होनी चाहिये। वैसे तो जितनी अधिक भाषाओं का ज्ञान मनुष्य को होगा, उतना ही ज्ञान-विज्ञान की वृद्धि में लाभ होगा, उसके उपरान्त भी राष्ट्र में एक ऐसी भाषा तो अवश्य ही होनी चाहिये, जिसे राष्ट्र के जन पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक बोल सकें और समझ सकें। जब राष्ट्र का एक धर्म होगा, एक जाति होगी, एक भाषा होगी, सभी हाथों को काम होगा, सबके  लिये देश में अपनी शिक्षा, अपनी संस्कृति होगी, तब महाराज अश्वपति के समान इस देश का राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री तथा देश के अन्य राजनेता यह घोषणा करने में समर्थ होंगे कि-

न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न च मद्यप:।

नानाहिताग्रिर्नानाविद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुत:।।

मेरे समस्त देश में कोई चोर नहीं है, कोई कंजूस व अदानी नहीं है, कोई शराबी नहीं है, यज्ञ व सन्ध्या न करने वाला कोई नहीं है, मूर्ख कोई नहीं है। जब कोई चरित्रहीन पुरुष ही नहीं है, तो स्त्री के दुराचारिणी होने का प्रश्र ही नहीं उठता। ऐसा होने पर न ही साम्प्रदायिक दंगे होंगे, न कोई रेप केस होगा, न ही भ्रष्टाचार होगा, न ही देश का धन विदेश में जायेगा तथा न काला बाजारी ही होगी।

अब लेख के अन्त में उपरोक्त वेदमन्त्रों में जो रहस्य है, वह प्रकाशित करना चाहँूगा। वेदमन्त्र में कहा है कि जो व्यक्ति विद्या और अविद्या दोनों के स्वरूप को साथ-साथ जानता है, वह विद्वान् अविद्या द्वारा मृत्यु से तैरकर विद्या द्वारा अमृत पद (मोक्ष) को प्राप्त करता है। प्रश्र यहाँ पर यह पैदा होता है और इस मन्त्र में यही रहस्य है कि जब अविद्या से दु:ख की प्राप्ति होती है तो उससे मृत्यु से कैसे पार हो सकता है? इसका उत्तर व रहस्य यह है कि जो इस अनित्य संसार को जिसे वेद ने अविद्या कहा है, उसको वैसा ही अनित्य मानकर आचरण करता है तथा अविद्या के दूसरे लक्षण अपवित्र शरीर व भौतिक पदार्थ को अपवित्र मानता है तो ऋषि पतञ्जलि के अनुसार-‘शौचात्स्वाङजुगुप्सा परैरसंसर्ग:’ वैराग्यवान् व्यक्ति अपने शरीर की गन्दगी और अपवित्रता को देखकर तद्वत् अन्य के शरीर को भी अपवित्र देखकर अन्य के शरीर के संसर्ग से बच जाता है और पवित्र ईश्वर की तरफ उन्मुख हो जाता है। तीसरे, अविद्या के लक्षण काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार आदि के परिणामों को समझकर वैराग्यवान् योगी व्यक्ति इस अविद्या से बच जाता है।

इसी प्रकार चौथे विद्या के लक्षण अनात्म जड़ पदार्थ को आत्मा मानने के उपरोक्त दोषों को समझकर योगी-सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता ईश्वर की ही उपासना करता है। अत: अविद्या के इन लक्षणों क ो जानकर योगी अविद्या से मृत्यु को पार कर जाता है तथा विद्या के द्वारा ऋषि पतञ्जलि के अनुसार-

‘तप: स्वाध्यायेश्वर-प्रणिधानानि क्रियायोग:’

तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर के प्रति अपने-आपको समर्पित करके योग लीन हो अमृत पद मोक्ष को प्राप्त करता है। उपरोक्त वेदमन्त्र इस रहस्य द्वारा ‘मृत्योर्मामृतं गमय:’ मृत्यु से अमरता की ओर ले जाता है।

परमेश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म’ ही क्यों?: आचार्य धर्मवीर

यह लेख आचार्य धर्मवीर जी द्वारा बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में दि. २६/०६/२००१ को दिया गया व्याख्यान है, इस व्याख्यान में ईश्वर के स्वरूप और उसके नाम ओ३म् का विवेचन बड़ी ही दार्शनिक शैली से किया गया है।

-सम्पादक

ओ३मï् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयातïï्।।

आज हम परमेश्वर के मुख्य नाम ‘ओ३मï्’ पर चर्चा करेंगे। बड़ा ही प्रसिद्ध नाम है। गायत्री-मन्त्र बोलते समय सबसे पहले  ‘ओ३मïï्’ शब्द आता है, पहले हम ‘ओ३मï्’ का स्मरण करते हैं। स्वामी जी इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं कि ‘‘यह परमेश्वर का मुख्य और निज नाम है।’’ इसमें तीन चीजें ध्यान देने योग्य हैं- एक तो मुख्य, दूसरा निज और तीसरा है नाम। ये कोई विशेषण नहीं हैं।

सामान्यत: हम किसी से प्रश्न करते हैं कि आप कहाँ गये थे? वह कहता है कि भगवानï् के दर्शन करने, लेकिन भगवानï् तो कोई नाम नहीं होता, क्योंकि जो सबके साथ लगता है, वह नाम नहीं होता, सर्वनाम होता है। हम भगवानï् राम कहते हैं, भगवानï् कृष्ण कहते हैं, भगवती दुर्गा कहते हैं, भगवान् दयानन्द या भगवान् हनुमान कहते हैं। इस दृष्टि से देखा जाये तो सभी भगवान् हैं। समझ में नहीं आता कि आप कौन-से भगवान् की बात कर रहे हैं? आग्रहपूर्वक पूछने से पता लगा कि आप भगवान् राम की बात कर रहे हैं। जब हम राम की बात करते हैं तो राम का एक स्वरूप हमारे सामने आता है। राम की एक मूर्ति हमारे सामने आती है। उसमें एक धनुष होता है, एक ओर लक्ष्मण होता है, एक ओर सीता होती है। हमको पता चलता है कि यह राम है। बहुत सारे शब्दों के बहुत सारे अर्थ होते हैं, उन शब्दों का प्रयोग हम जब किसी प्रसंग में करते हैं, तब हमें उसका अर्थ मालूम पड़ता है। उदाहरण के लिए हम कहें कि ‘‘खाली है’’। अब बर्तन भी खाली होता है और दिमाग भी खाली होता है, लेकिन खाली होने में हमें कोई संदेह नहीं होता कि इस खाली का यहाँ पर अर्थ क्या होगा। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि जिस भाषा पर हमारा अधिकार है, जिस भाषा का हम अच्छी तरह प्रयोग करते हैं, जो भाषा हमें अच्छी तरह आती है, उसमें संदेह नहीं होता। लेकिन हम यदि अंग्रेजी या संस्कृत पढ़ रहे हों और उसे अच्छी तरह नहीं जानते हों तो उस शब्द का कोष में अर्थ देखना पड़ता है और जब कोष में अर्थ देखते हैं तो हमारी संगति नहीं बैठती। उदाहरण के लिए अग्नि शब्द का अर्थ स्वामी जी भगवान् करते हैं, वह हमें कुछ जमता नहीं, जँचता नहीं। कोष देखते हैं तो वहाँ पर अग्नि का अर्थ आग या फायर लिखा मिलता है। अब भगवान् अर्थ कहाँ से आ गया, यह हमारी समझ से परे है। हमें संदेह होता है कि कहीं गलती है समझने-समझाने में। इसका मुख्य कारण यह है कि हमारा भाषा पर अधिकार नहीं है, इसलिए हमारे मस्तिष्क में कोष के अर्थ आते हैं, प्रसंग के अर्थ, उस पर घटित होने वाले अर्थ नहीं आते। जब किसी शब्द के अर्थ का निर्णय करना हो तो उसके आस-पास का प्रसंग देखना पड़ता है।

जब हम यह कहते हैं कि हम राम के दर्शन करने गये थे तो राम कहने के साथ उसका चित्र हमारे मन में उभरता है, निश्चित रूप से उभरता है। जिसका चित्र उभरता है, हम उसी के दर्शन करने गये थे। उसी के बारे में हम जानते हैं कि उसका पिता दशरथ है, उसकी माता कौशल्या है, उसका भाई लक्ष्मण है, उसकी पत्नी सीता है, वह अयोध्या का राजा है, उसका रावण के साथ युद्ध हुआ था। इसके अतिरिक्त और कोई बात हमारे ध्यान में नहीं आती। हाँ, राम नाम के बहुत से लोग हैं, वह याद आ सकते हैं, जैसे- परशुराम इत्यादि, किन्तु यदि हम केवल राम कहते हैं या दशरथ, सीता, अयोध्या  से सम्बन्धित राम कहते हैं तो हमें केवल एक ही राम याद आता है। राम भगवान् है, इसमें कोई दो राय नहीं हैं, किन्तु हम जिस अर्थ में मानते हैं, केवल उस अर्थ में। जब हम भगवान् कहते हैं तो उसका अर्थ उस चित्र में घटना चाहिए।

हम भगवान् को ऐसा मानते हैं कि वह सब जगह है, सबका है लेकिन राम कहने पर ऐसा होता नहीं है। भगवान् कहने से जो रूप सामने आता है, राम कहने से उससे भिन्न रूप सामने आता है, हरि कहने से उससे भिन्न रूप ध्यान में आता है। दुनिया में जितने भी व्यक्ति हुए हैं, उनका कोई नाम अवश्य है। हमें एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि बिना नाम के हमारा व्यवहार नहीं चल सकता। दुनिया में कुछ भी हो, सभी का कुछ न कुछ नाम अवश्य है। दुनिया की किसी भी वस्तु का, चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, भूत हो या भविष्य, जड़ हो या चेतन, हमें उसका नाम रखना ही पड़ता है। नामकरण करने के बाद उसे हम व्यवहार में ला सकते हैं और नाम क्योंकि आरोपित है, अर्थातï् हमने अपनी मर्जी से चस्पा कर रखा है, जैसे कोर्ट का आदेश किसी दुकान में चस्पा रहता है तो पता चलता है कि इसकी नीलामी होने वाली है, इससे पहले मालूम नहीं पड़ता। वैसे ही हम किसी पर नाम चस्पा करते हैं, यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे पैदा होने के साथ हमारा कुछ नाम अवश्य होता। नाम हमारी मर्जी का होता है। गरीब का हम अमीरदास नाम रख सकते हैं, करोड़पति का गरीबदास नाम रख सकते हैं, क्योंकि यह हमारी मर्जी से चलता है। तो नाम हमारे द्वारा दिया गया है और हमारी मर्जी से चलता है, लेकिन यदि हम परमेश्वर को नाम दें तो क्या हो? क्योंकि अक्सर यह देखा गया है कि नाम देने वाला पहले होता है, जिसका नाम रखा जाता है, वह बाद में होता है। अब कल्पना करें कि राम को किसी ने नाम दिया, किसने दिया? दशरथ ने दिया, विश्वामित्र ने दिया, वशिष्ठ ने दिया और ये राम से पहले हुए, राम इनके बाद है। इससे साफ है कि जिसका नाम रखा, वह बाद में हुआ और जिसने नाम रखा, वह पहले हुआ। क्या भगवान् ऐसा है? ओ३मï् नाम क्या हमने रखा है? इसका उत्तर स्वामी जी ने दिया कि यह निज नाम है, उसका अपना नाम है, क्योंकि वह हमारे बाद में नहीं हुआ है, बल्कि हम बाद में हुए हैं। निज उसका अपना है और वह पहले से है। जब कभी हम एक दूसरे को मिलते हैं तो नाम बतलाना पड़ता है, क्योंकि बिना बतलाए तो समझ में नहीं आता है, तो परमेश्वर को भी अपना नाम बतलाना होगा और वह  नाम कहाँ बतलाया है? उसके तो बतलाने का एक ही शास्त्र है, वह है वेद। ‘‘ओ३मï् खं ब्रह्म।’’ ‘‘ओ३मï् क्रतोस्मर।’’ ऐसा कई जगह बतलाया है। वेद में आया है कि उसका नाम ओ३मï् है और ओ३मï् नाम केवल उसका है, क्योंकि ओ३मï् कहते ही हमें राम की तरह, हनुमान की तरह कोई मूर्ति ध्यान में नहीं आती। आ सकती है, बशर्ते कि हम किसी मूर्ति के ऊपर ओ३मï् लिखकर चिपका दें और हम उसके दर्शन करते रहें तो हमें शायद यह भ्रम हो जाये कि यह ओ३मï् है, लेकिन इतिहास में ऐसा अब तक हुआ नहीं है। एक बात हमारे समझने की है कि राम कहने से एक चित्र ध्यान में आया, शिव कहने से दूसरी घटना ध्यान में आई अर्थातï् दुनिया के जितने देवी देवता हैं, जिन्हें हम भगवान् मानते हैं, उन सबका एक विशेष चित्र है और वह दूसरे से भिन्न हैं। दोनों का स्टेटस, दोनों की स्थिति, दोनों की शक्ति, सामथ्र्य, योग्यता यदि एक है, तो उनके अलग-अलग चित्र क्यों हैं?

अलग-अलग चित्र हंै, अलग-अलग इतिहास है, अलग-अलग स्थान है। इसका मतलब उनकी अलग अलग सत्ता है तो यह अलग-अलग होना जो है, वह हमारी समस्या का हल नहीं है। उनका कभी होना और कभी नहीं होना, यह समस्या का हल नहीं करता। वकील मुझे सुलभ है, डॉक्टर मुझे सुलभ है तो वह मेरे काम आता है। मैं बीमार हूँ, मेरा डॉक्टर बाहर गया है तो मेरे काम नहीं आता है। मेरी पेशी है, मेरा वकील छुटï्टी पर है तो मेरा काम नहीं चलता है। भगवान् ऐसा चाहिए जो कभी मेरे से दूर न हो, मेरे से अलग न हो, मेरे से ओझल न हो, लेकिन ये जितने देव हैं, जितने भगवान् हैं, जितने मान्यता के पुरुष हैं, ये सब किसी समय में रहे हैं, उनसे पहले नहीं थे और उनके बाद नहीं हैं। उन सबकी मृत्यु कैसे हुई, कब हुई, उसका एक इतिहास हम पढ़ते, सुनते, जानते हैं, इसलिए उसका नाम शिव है। वह भगवान् विशेषण के साथ तो भगवान् है, किन्तु शिव अपने-आपमें भगवान् नहीं है। राम विशेषण के साथ तो भगवान् है, लेकिन राम रूप में भगवान् नहीं है, इसलिए यह बात बड़ी सीधी-सी है। फिर ओ३मï् का इससे क्या अंतर है, यह सोचने की बात है। इसके आगे स्वामी जी कहते हैं कि यह मुख्य नाम है। यदि बहुत सारे हों, तब उनमें से किसी को मुख्य किसी को गौण, किसी को आम, किसी को खास कह सकते हैं। यदि एक ही हो तो खास नहीं कह सकते। किसी के एक से ज्यादा नाम हो भी सकते हैं, ऐसा देखने में भी आता है।

हम घर में बच्चे को किसी नाम से पुकारते है, स्कूल में दूसरे नाम से पुकारते हैं। उन नामों को हम परिस्थिति से, गुणों से, सम्बन्धों से रखते हैं, लेकिन जब उसका नाम पूछा जाता है तो वह यह नहीं कहता कि मेरा नाम मामा जी है या चाचा जी है। वह बोलता है कि मेरा नाम अमुक है, जो उसका रजिस्टर में है, जो उसका स्कूल में है, जो निर्वाचन की नामावली में है, जो उसका सरकारी कागजों में है, उसको हम नाम कहते है, तो परमेश्वर के भी बहुत सारे नाम हो सकते हैं और इतने सारे हो सकते हैं कि हम परमेश्वर को कभी जड़ बना लेते हैं, कभी चेतन भी बना लेते हैं, कभी मूर्ति भी बना लेते हैं। जब कभी हम बहुत भक्ति के आवेश में होते हैं, तो एक श्लोक पढ़ा करते हैं – त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं ममï देव देव। उसे माँ भी कहते हैं, उसे पिता भी कहते हैं, उसे बन्धु, सखा सभी कहते हैं, अर्थातï् जितने सहायता के कारण हंै उनसे उसे पुकारते हैं, इसलिए यह कहना पड़ा कि परमेश्वर का मुख्य नाम ओ३मï् है। स्वामी जी ने सत्यार्थ प्रकाश में लगभग १०८ नामों की चर्चा की है और उन्होंने यह कहा है कि यह तो समुद्र में बूँद जैसा है, अर्थातï् जितनी वस्तुएँ इस दुनिया में हंै, उनके जितने गुण-धर्म हो सकते हैं, उनकी योग्यता, उसका स्वरूप हो सकता है, वह सबके सब परमेश्वर में हैं, इसलिए वह सारे शब्द परमेश्वर के वाचक हो सकते हैं, लेकिन उसका मुख्य नाम ये सब नहीं हो सकते। राम उसका नाम हो सकता है, गणेश उसका नाम हो सकता है, लेकिन उसका मुख्य नाम और एक ही नाम यदि कोई हो सकता है तो वह ओ३मï् ही हो सकता है। इसका पहला प्रमाण हमें वेद से मिलता है, दूसरा प्रमाण हमें वेद के बाद के ग्रन्थों से मिलेगा। वेद के बाद के ग्रन्थ को हम शास्त्र कहते हैं, उपनिषदïï् कहते हैं, दर्शन कहते हैं, आरण्यक कहते हैं। सभी उपनिषदों में इसकी पर्याप्त चर्चा है।

कठोपनिषदï् में इसकी विशेष चर्चा है। कठोपनिषदï् में जो चर्चा है, उसमें मुख्य बात यह है कि नाम के साथ उसका रूप भी घटना चाहिए। हमारे नाम और रूप, गुण इत्यादि में सम्बन्ध नहीं होता, लेकिन परमेश्वर में एक विशेष बात है- उसका नाम, जो उसने स्वयं रखा है, वह हमारी तरह अवैज्ञानिक नहीं होगा, अनपढ़ों जैसा नहीं होगा, अनुचित-सा नहीं होगा अर्थातï् बहुत अच्छा होगा। नाम के बारे में एक बार किसी ने शोध किया कि आर्यसमाज से पहले कैसे नाम रखे जाते थे और बाद में कैसे रखे जाते गये, उदाहरण के लिए मिर्चूमल, पंजमल, कोठूमल इत्यादि, किन्तु ऐसे लोगों का जब आर्यसमाज के साथ सम्बन्ध बना तो ये लोग वेदप्रकाश, धर्मप्रकाश इत्यादि नाम लिखने लगे।

स्वामी जी ने एक जगह लिखा है कि हम गुणों से भ्रष्ट हो गये तो कोई बात नहीं, किन्तु नाम से तो न हों। परमेश्वर के नाम में यह विशेषता होनी चाहिए कि वह और उसके गुण समान हों।

मनुस्मृति में लिखा है कि इस दुनिया में सबसे अन्त में मनुष्य पैदा हुआ, क्योंकि मनुष्य सबसे मुख्य है। जो मुख्य होता है, वह सबसे अन्त में आता है। किसी समारोह में मुख्य अतिथि पहले नहीं आता है, यदि आ जाता है तो गड़बड़ हो जाती है। एक समारोह में मुख्य अतिथि पहले आ गये तो मंत्री जी बोले- यह तो गड़बड़ हो गया, आप ऐसे कैसे आ गये? वह बोले- आ गये तो आ गये। मंत्री बोले-ऐसे नहीं होगा, हमारे जुलूस का क्या होगा? हम आपको फिर दोबारा लेकर आयेंगे।

मनुष्य इस संसार में सबसे बाद में आया है, सबसे मुख्य है, और क्योंकि मुख्य है, इसलिए उसका संसार से मुख्यता का सम्बन्ध है। एक प्रकार से सारा संसार उसके लिए ही है। इसे हम यदि ध्यान में रखेंगे तो हमें सारा विचार, सारा दर्शन समझ में आ जायेगा।

शेष भाग अगले अंक में…..

आर्यसमाज का वेद-सम्बन्धी उत्तरदायित्व: स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती

पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय के सुपुत्र स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती आर्यसमाज के विद्वान् नेता एवं प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे। उनकी वैज्ञानिक योग्यता का एक उदाहरण यह है कि वे ‘वल्र्ड साइन्स कॉन्फ्रैन्स’ के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी लेखनी बड़ी बेबाक, मौलिक एवं सुलझी हुई थी। उनके द्वारा दिये गये विचार हमारे लिये आत्मचिन्तन के प्रेरक हैं। उनकी प्रत्येक बात पर सहमति हो- ये अनिवार्य नहीं है, परन्तु उनके विचार आर्यसमाज की वर्तमान व भावी पीढ़ी को झकझोरने वाले हैं। -सम्पादक

१. आप सम्भवतया मेरे विचारों से सहमत न होंगे, यदि मैं कहँू कि ऋषि दयानन्द के सपनों का आर्यसमाज  उस दिन मर गया, जिस दिन किन्हीं कारणों से स्वामी श्रद्धानन्द महात्मा गाँधी और काँग्रेस को छोडक़र महामना मालवीय-वादी हिन्दू महासभा के सक्रिय अंग बन गए। श्रद्धानन्द जी का गाँधी और कांग्रेस से अलग होना इतना दोष न था, पर हिन्दू महासभा की विचारधारा का पोषक हो जाना आर्यसमाज की मृत्यु थी। अगर सत्यार्थप्रकाश के ११ वें समुल्लास को फिर से ऋषि आज लिखते तो वे आज के आर्यसमाज को भी हिन्दुओं का एक सम्प्रदाय मानकर इसकी गतिविधियों की उसी प्रकार आलोचना करते जिस प्रकार अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की उन्होंने की है। इसमें से आज प्राय: सभी इस बात को स्वीकार करेंगे कि आर्य समाज आज हिन्दुओं के अनेक सम्प्रदायों में से एक सम्प्रदाय है, अर्थात् वह सम्प्रदाय जो वेद और यज्ञों के नारे पर जीवित  हो।

२. शायद हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदायों की अपेक्षा आज का आर्यसमाज इन हिन्दुओं का वह सम्प्रदाय है, जो सबसे ज्यादा वेद की दुहाई देता है। यों तो तुलसीदासजी विष्णु के अवतार राम का चरित्र लिखने में पदे-पदे आगम-निगम की दुहाई देने में संकोच नहीं करते थे, पर आज का आर्यसमाज वैदिक संहिताओं की अन्य हिन्दू सम्प्रदायों की अपेक्षा सबसे अधिक दुहाई देता है।

३. स्वामी दयानन्द से पूर्व के भारतीय पण्डितों ने वेद की आज तक रक्षा की, और लेखन-मुद्रण-प्रकाशन की सुविधा न होते हुए भी उन्होंने वैदिक संहिताओं के पाठों को सुरक्षित रखा। वैदिक साहित्य की यह सुरक्षा भारतीयों का बहुत बड़ा चमत्कार माना जाता है।

४. मैं कई वर्ष हुए (संन्यास से पूर्व) लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम की सैर कर रहा था, म्यूजियम के पुस्तकालय कक्ष में मैंने बाइबिल पर एक अद्भुत व्याख्यान सुना- वक्ता महोदय हम श्रोताओं को म्यूजियम के विविध कक्षों में ले गये। उन्होंने हमें बाइबिल की वे सुरक्षित प्रतियाँ साक्षात् करायीं जो तीसरी-चौथी-पाँचवीं सदी से लेकर १८वीं-१९वीं सदी की हस्तलिखित या मुद्रित थीं।

तब से मेरी इच्छा रही है कि ऋग्वेद की भी वे हस्तलिखित प्रतियाँ देखूँ जो पुरानी हैं। आपको आश्चर्य होगा-भूमण्डल के साहित्यों में सबसे पुराना ऋग्वेद है, पर इसकी हस्तलिखित प्रति शायद १३वीं-१४वीं शती से पूर्व की भी नहीं है। वेदों की हस्तलिखित प्रतियों पर मैं कभी फिर लिखूँगा पर निस्सन्देह, यह साहित्य आज तक सुरक्षित है, जो अनुक्रमणियाँ हमें प्राप्त हैं, वे बहुत पुरानी नहीं है। जैसे यजुर्वेद का सर्वानुक्रम सूत्र, शौनक का अनुवाकानुक्रमणी (ऋग्वेद की) या ऋक्-सर्वानुक्रमणी। शतपथ ब्राह्मण (१०/४/२/२३) में यहाँ तक उल्लेख है कि वेदों के समस्त अक्षरों की संख्या १२००० बृहती छन्दों की अक्षर संख्या के बराबर है अर्थात् १२,०००&३६=४,३२,००० अक्षर। (सातवलेकरजी ने ऋग्वेद के अक्षरों की संख्या एक संस्करण में दी है। वह संख्या ३,९४,२२१ है।)

५. जैसा मैं कह चुका हँू, आज का आर्यसमाज हिन्दुओं का ही वेदानुरागी सम्प्रदाय है। हिन्दुओं के अन्य सम्प्रदाय धीरे-धीरे अब वेद को छोड़ते जा रहे हैं या वेद से दूर जा रहे हैं। मेरे ऊपर शताधिकवर्षीय उदासी स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का स्नेह रहा है। उन्होंने चारों वेद संहिताओं को एक जिल्द में सुन्दर अक्षरों में छपाया है। यह पाठ की दृष्टि से निर्दोष माना जा सकता है। स्वामीजी भारत से बाहर भी द्वीपद्वीपान्तरों में इस ‘वेद भगवान्’ को ले गये हैं और वहाँ इसकी निष्ठापूर्वक प्रतिष्ठा की है। स्वामी जी को हिन्दुओं से एक ही शिकायत है। कोई हिन्दू अब वेद में रुचि नहीं लेता-जो व्यक्ति लेते प्रतीत होते हैं, वे प्रत्यक्ष या परोक्ष में आर्यसमाज के हैं। सायण के दृष्टिकोण से पृथक् यदि किसी का कोई अन्य दृष्टिकोण है, तो वह आर्यसमाज की विचारधारा से पोषित या प्रभावित है।

६. वेद जीवन का प्रेरणास्रोत है। ऋषि दयानन्द से पूर्व मध्यकालीन युग में (ऐतरेय, शतपथ आदि के काल में कात्यायन, याज्ञवल्क्य, महीधर, उव्वट आदि के काल में) वैदिक संहितायें केवल कर्मकाण्ड की प्रेरिका रह गयीं। उसका परिणाम वही हुआ, जो समस्त सम्प्रदायों में कर्मकाण्ड का हुआ करता है-विनाश और सर्वथा विनाश। कर्मकाण्डी व्यक्ति (नेता या पुरोहित) तो यही समझता रहता है कि धर्म की ‘प्रतिष्ठा’ उसके कर्मकाण्ड के कारण है, पर वस्तुत: कर्मकाण्ड के परोक्ष में जो विनाश का अंकुऱ है, वह पनपता आता है। श्रीपाद दामोदर सातवलेकर हिन्दू सम्प्रदाय के अन्तिम वेदानुरागी व्यक्ति थे (आदरणीय स्वामी गंगेश्वरानन्दजी का राग केवल मंत्रभाग से है, न कि व्यक्तिगत या समाजगत नवनिर्माण से।)

७. १८ वीं शती के प्रारम्भ से यूरोपीय विद्वानों ने वेद में रुचि ली और वैदिक साहित्य पर उनकी तपस्या सराहनीय है। (क) उन्होंने भारतवर्ष से इस साहित्य की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध कीं और इन प्रतियों को अपने पुस्तकालयों में कुशलता से सुरक्षित रखा। (ख) यूरोपीय (बाद को अमरीकी) विद्वानों ने वैदिक व्याकरण, प्रातिशाख्य, वैदिक छन्द, वैदिक स्वरों का अच्छा अध्ययन किया, (ग) छोटे-छोटे संकलनों पर भी ये वर्षों अध्ययनशील रहे, (घ) अध्ययन की एक नयी परम्परा को उन्होंने जन्म दिया, (ञ) अपने देश में इन सम्पादित ग्रन्थों को नागरी और रोमन लिपियों में अति शुद्ध छपवाने का भी प्रयत्न किया। उन्होंने (रॉथ-बण्टलिंक के ग्रन्थों के समान) बड़े-बड़े कोश तैयार किए, (च) अध्ययन की सुविधा के लिए अनेक प्रकार के तुलनात्मक विश्वकोश भी तैयार हुए।

८. धीरे-धीरे भारतवर्ष में भी पाश्चात्य परम्परा पर अध्ययन और अनुशीलन करने के कुछ केन्द्र खुल गए (शब्दानुक्रमणीय पर कार्य स्वामी नित्यानन्द और स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी ने प्रारम्भ किया)। इन केन्द्रों में सर विलियम जोन्स की एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, उसकी बम्बई वाली शाखा, गायकवाड़ संस्थान बड़ौदा, भाण्डारकर इन्स्टीट्यूट-पूना और विश्वबन्धु जी वाला विख्यात इन्स्टीट्यूट होशियारपुर और संस्कृत कॉलेज काशी ने भी अच्छा काम किया।

९. यह मैं पीछे कह चुका हँू कि पुरानी परम्परा के हिन्दू विद्वान् वेद को छोड़ बैठे हैं और उनके हाथ से आर्यसमाज के विद्वानों ने वेद को एक प्रकार से छीन लिया है। अत: ऐसी स्थिति में आर्यसमाज की जनता का उत्तरदायित्व वेद के सम्बन्ध में बढ़ गया है। मैंने एक बार सान्ताक्रूज की आर्यसमाज में भी यह बात कही थी। यह उत्तरदायित्व निम्र दृष्टियों से महत्त्व का है-

१. मन्त्रों का उच्चारण

२. मन्त्रों का विनियोग

३. कर्मकाण्ड में मन्त्रों का प्रयोग

४. मन्त्रों के छोटे बड़े संकलन

५. मन्त्रों के भाष्य

पिछले वर्ष मैं नैरोबी गया था-मैंने वहाँ के आर्यसमाज में स्पष्ट कहा था-दिल्ली की हवा से नैरोबी आर्यसमाज को बचाओ। बम्बई की हवा से भी विदेशी आर्यसमाजों को हमें बचाना होगा।

इन देशों में किसी से भी पूछो-तुमने यह अशुद्ध उच्चारण कहाँ सीखा-वे यह उत्तर देते हैं-हम दिल्ली या बम्बई गये थे-हमने वहाँ ऐसा ही देखा या सुना था। ओं भूर्भव:, ओजो अस्तु-यह तो दिल्ली और बम्बई की हवा के साधारण उदाहरण हैं।

कई स्थानों पर जब मैं स्वस्तिवाचन और शान्ति प्रकरण के टेप सुनता हँू, उनको सुनकर यह स्पष्ट लगता है कि ये टेप मेरे ऐसे अज्ञ उपदेशकों या पंडितों के हैं, जिन्हें न ऋक् पाठ आता है न यजु: पाठ-साम के मन्त्रों का पाठ सामवेद का परिहास या उपहास है, जिसे आप किसी भी अवसर पर स्वस्तिवाचन (अग्र आ याहि वीतये) या शान्तिकरण (स न: पवस्व शं गवे) पाठ के अवसर पर सुन सकते हैं।

ऋषि दयानन्द ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ऋग्वेद के स्वरों का उच्चारण द्रुत अर्थात् शीघ्र वृत्ति में होता है। दूसरी-मध्यम वृत्ति, जैसे कि यजुर्वेद के स्वरों का उच्चारण ऋग्वेद के मन्त्रों से दूने काल में होता है। तीसरी विलम्बित वृत्ति है, जिसमें प्रथम वृत्ति से तिगुना काल लगता है, जैसा कि सामवेद के स्वरों के उच्चारण वा गान में, फिर इन्हीं तीनों वृत्तियों के मिलाने से अथर्ववेद का भी उच्चारण होता है, परन्तु इसका द्रुत वृत्ति में उच्चारण अधिक होता है।

मैंने दक्षिण भारत के पंडितों को ऋग्वेद का यथार्थ उच्चारण करते देखा है, किन्तु आर्यसमाज के लोगों के उच्चारणों पर आप विश्वास नहीं कर सकते। उच्चारण या तो गुरुमुख से सीखे जा सकते हैं, या परिवार की परम्परा से।

आर्यसमाज में नित्य नये विनियोग बनते जा रहे हैं। सबसे पुराना विनियोग शान्तिपाठ का है (द्यौ: शान्ति:), ‘त्र्यंबकं यजामहे’ की भी बीमारी चल पड़ी है। मरने के बाद संस्कारविधि के प्रतिकूल शान्ति-यज्ञ चल गए हैं, जिनमें शान्तिकरण के मन्त्र पढऩा अनिवार्य सा हो गया है। प्रत्येक अग्रिहोत्र का नाम यज्ञ पड़ गया है, जिसके बाद ‘यज्ञरूप प्रभो’ वाला भजन अवश्य गाना चाहिए। ऐसी नयी प्रथा चल पड़ी है। ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त (दशम मंडल, १९१ वाँ सूक्त) का नाम संगठन-सूक्त रख दिया गया है। ऋग्वेद के इस सूक्त के प्रथम मन्त्र का देवता अग्रि है। शेष तीन मन्त्रों का देवता ‘संज्ञानम्’ है। समाज के साप्ताहिक अधिवेशनों में संगठन सूक्त के नाम पर चारों मन्त्र पढ़े जाने लगे हैं। क्या हम संगठन सूक्त का नाम ‘संज्ञान-सूक्त’ नहीं रख सकते?

इस प्रसंग में संज्ञान-सूक्त में केवल तीन ही मन्त्र हैं-(१) संगच्छध्वं (२) समानो मन्त्र:. और (३) समानी व आकूति:. प्रथम मन्त्र संसमिद्युवसे. मन्त्र तो इस प्रसंग में पढऩा ही नहीं चाहिये।

आगे के वेदप्रेमी हमारा अनुकरण करेंगे, अत: हमें सावधानी बरतनी चाहिए।

जिज्ञासा समाधान: – आचार्य सोमदेव

परमात्मा का गौणिक नाम ब्रह्मा क्यों है? क्योंकि ब्रह्म शब्द बहुवाचक है, जबकि ईश्वर एक है और ऋषि का नाम भी ब्रह्मा आया है, वह भी एक ही मनुष्य था। अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों को ब्रह्मा नाम देने में क्या दोष है, क्योंकि वे सबसे महान् भी थे और यथार्थ में एक से अधिक भी थे।?

आपकी यह दूसरी जिज्ञासा भाषा को न जानने के कारण है। यदि संस्कृत भाषा को ठीक जान रहे होते तो ऐसी जिज्ञासा न करते। ‘ब्रह्मा’ शब्द एक वचन में ही है, बहुवचन में नहीं। ब्रह्म शब्द नपुंसक व पुलिंग दोनों में होता है। नपुंसक लिंग में ब्रह्म और पुलिंग में ब्रह्मा शब्द है। यह ब्रह्मा प्रथमा विभक्ति एक वचन का है। मूल शब्द ब्रह्मन् है, राजन् के तुल्य। ब्रह्मन् शब्द का बहुवचन ब्रह्मण: बनेगा, इसलिए ब्रह्मा शब्द को जो आप बहुवचन में देख रहे हैं सो ठीक नहीं। परमात्मा एक है, इसलिए उसका गौणिक नाम ब्रह्मा एक वचन में ही है। जब यह शब्द एक वचन में ही है तो इससे अग्रि, आदित्य आदि बहुतों का ग्रहण भी नहीं होगा। यदि ग्रहण करेंगे तो दोष ही लगेगा। और यदि ‘‘ब्रह्म शब्द बहुवाचक है’’ इससे आपका यह अभिप्राय है कि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ को कहने वाला है और चूँकि परमात्मा एक है, अत: उसके लिए ब्रह्म शब्द का प्रयोग उचित नहीं है, तो यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म शब्द ‘बहुत’ अर्थ का वाचक नहीं है। ब्रह्म का अर्थ तो ‘बड़ा’ होता है। परमात्मा सबसे बड़ा है, अत: उसे ब्रह्म कहा जाता है। ‘सर्वेभ्यो बृहत्वात् ब्रह्म, अर्थात् सबसे बड़ा होने से ईश्वर का नाम ब्रह्म है।’

– स.प्र. १

ऐसे ही ब्रह्मा नाम के ऋषि सकल विद्याओं के वेत्ता होने के कारण ज्ञान की दृष्टि से सबसे बड़े थे, अत: उन्हें ब्रह्मा कहा गया। और ब्रह्मा परमात्मा का नाम इसलिए है-

योऽखिलं जगन्निर्माणेन बर्हति (बृंहति) वद्र्धयति स ब्रह्मा

जो सम्पूर्ण जगत् को रच के बढ़ाता है, उस परमेश्वर का नाम ब्रह्मा है। – स.प्र. १

जिज्ञासा समाधान :- आचार्य सोमदेव

जिज्ञासा १- ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका में लिखा है कि सृष्टि के प्रारम्भ में हजारों-लाखों मनुष्य परमात्मा ने अमैथुन से पैदा किये थे। यही सत्यार्थ प्रकाश में भी माना है। उन लाखों मनुष्यों में चार ऋषि भी पैदा हुये जो अग्रि, वायु, आदित्य और अंगिरा थे। उनको परमात्मा ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। उस काल में स्त्रियाँ भी पैदा हुई होंगी, परन्तु परमात्मा ने एक या दो स्त्रियों को भी वेद का ज्ञान क्यों नहीं दिया? क्या परमात्मा के घर से भी स्त्रियों के साथ पक्षपात हुआ? इसका समाधान करें।

समाधान-(क) वेद परमात्मा का पवित्र ज्ञान है। यह वेदरूपी पवित्र ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। वेद मनुष्य मात्र का धर्मग्रन्थ है। सृष्टि के आदि में परमेश्वर ने सभी मनुष्यों के लिए यह ज्ञान दिया। वेद का ज्ञान परमात्मा ने ऋषियों के हृदयों में दिया। चार वेद चार ऋषियों के हृदय में प्रेरणा कर के दिये। ऋग्वेद अग्रि ऋषि को, यजुर्वेद वायु नामक ऋषि को, सामवेद आदित्य ऋषि को और अथर्ववेद अंगिरा ऋषि को प्रदान किया। आपकी जिज्ञासा है कि वेद का ज्ञान ऋषियों (पुरुषों) को ही क्यों दिया, एक-दो स्त्री को क्यों नहीं दिया? इसका उत्तर महर्षि दयानन्द ने जो लिखा वह यहँा लिखते हैं-‘‘प्र.- ईश्वर न्यायकारी है वा पक्षपाती? उत्तर- न्यायकारी। प्र.- जब परमेश्वर न्यायकारी है, तो सब के हृदयों में वेदों का प्रकाश क्यों नहीं किया? क्योंकि चारों के हृदय में प्रकाश करने से ईश्वर में पक्षपात आता है।

उत्तर- इससे ईश्वर में पक्षपात का लेश (भी) कदापि नहीं आता, किन्तु उस न्यायकारी परमात्मा का साक्षात् न्याय ही प्रकाशित होता है, क्योंकि ‘न्याय’ उसको कहते हैं कि जो जैसा कर्म करे, उसको वैसा ही फल दिया जाये। अब जानना चाहिए कि उन्हीं चार पुरुषों का ऐसा पूर्व पुण्य था कि उनके हृदय में वेदों का प्रकाश किया गया।’’ -ऋ.भा.भू.

‘‘प्रश्न-उन चारों ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं, इससे ईश्वर पक्षपाती होता है।

उत्तर-वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे, इसलिए पवित्र विद्या का प्रकाश उन्हीं में किया।’’ – स.प्र. ७

महर्षि के वचनों से स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा पक्षपाती नहीं, अपितु इन चारों को वेद का ज्ञान देने से परमेश्वर का न्याय ही द्योतित हो रहा है। यदि इन चार ऋषियों जैसी पुण्य-पवित्रता किसी स्त्री में होती तो परमात्मा स्त्री को भी वेद का ज्ञान दे देता। परमात्मा तो योग्यता के अनुसार ही फल देता है। पक्षपात कभी नहीं करता। जिस आत्मा के पुरुष शरीर प्राप्त करने के कर्म हैं, उसको पुरुष और जिसके स्त्री बनने के कर्म हैं उसको स्त्री का शरीर देता है।

वेदों का ज्ञान ऋषियों को दिया, स्त्रियों को नहीं-इससे यह बात भी ज्ञात हो रही है कि स्त्री का शरीर पुरुष शरीर की अपेक्षा कुछ कम पुण्यों का फल है। अर्थात् अधिक पुण्यों का फल पुरुष शरीर और उससे कुछ हीन पुण्यों का फल स्त्री शरीर। परमेश्वर की दृष्टि में सब आत्मा एक जैसी हैं, आत्मा-आत्मा मेें परमेश्वर कोई भेद नहीं करता, किन्तु कर्मों के आधार पर तो भेद दृष्टि रखता है।

स्त्री-पुरुष दोनों बराबर हैं, बराबर का अधिकार होना चाहिए। यह इस रूप में उचित है कि दोनों अपनी उन्नति करने में स्वतन्त्र हैं, मुक्ति के अधिकारी दोनों बराबर है, ज्ञान प्राप्त करने में दोनों समान रूप से अधिकारी हैं, दोनों काम करने में स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर ने यह सब दोनों को समान रूप से दे रखा है, किन्तु शरीर की दृष्टि से तो भेद है ही। संसार में भी पुरुष के शरीर में अधिक सामथ्र्य देखने को मिलता है, स्त्री शरीर में कम (किसी अपवाद को छोडक़र)। पुरुष को अधिक स्वतन्त्रता है, स्त्री को कम स्वतन्त्रता है। मनुष्य समाज ने अन्यायपूर्वक स्त्रियों पर जो बन्धन लगा रखे हैं, उस परतन्त्रता को यहाँ हम नहीं कह रहे। जो परतन्त्रता प्रकृति प्रदत्त है, वह स्त्रियों में अधिक है पुरुष में कम। यह प्रकृति प्रदत्त स्वतन्त्रता-परतन्त्रता हमारे कर्मों का ही फल है, पुण्यों का फल है। जिसके जितने अधिक पुण्य होते हैं, परमात्मा उसको ज्ञान, बल, सामथ्र्य, साधन सम्पन्नता अधिक देता है और जिसके पुण्य न्यून होते हैं, उसको ये सब भी कम होते चले जायेंगे।

ज्ञान का मिलना भी हमारे पुण्यों का फल है, इसलिए वेदरूपी पवित्र ज्ञान पक्षपात रहित न्यायकारी परमात्मा ने आदि सृष्टि में उत्पन्न हुए सबसे पुण्यात्मा पवित्र चार ऋषियों को ही दिया अन्यों को नहीं।

गीता को समझो तो: राजेन्द्र जिज्ञासु

महाराष्ट्र से किसी सुपठित युवक की एक शंका का उत्तर माँगा गया है। पहली बार ही किसी ने यह प्रश्र उठाया है। गीता में श्री महात्मा कृष्ण जी के मुख से कहा गया एक वचन है कि मैं वेदों में सामवेद हँू। इस श्लोक  को ठीक-ठीक न समझकर यह कहा गया है कि इससे तो यह सिद्ध हुआ कि शेष तीन वेदों में आस्तिक्य विचार अथवा ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं। अन्य तीन वेदों को गौण माना गया है। वेदों का ऐसा अवमूल्यन करना दुर्भाग्यपूर्ण है। हिन्दू समाज का यह दोष है कि यह वेद पर श्रम करने से भागता है।

इसी श्लोक में तो यह भी कहा गया है कि मैं इन्द्रियों में मन हँू तो क्या आँख, कान, वाणी, हाथ, पैर आदि ज्ञान व कर्मेन्द्रियाँ सब निरर्थक हंै? श्री कृष्ण योगी थे। योगी उपासना को विशेष रूप से महत्त्व देता है। सामवेद का मुख्य विषय उपासना होने से इस श्लोक में ‘‘वेदों में सामवेद हँू’’ यह कहा गया है।

महाभारत युद्ध के पश्चात् यज्ञ रचाया गया तो यज्ञ का अधिष्ठाता कौन हो? इस पर वहाँ यह कहा गया है कि इस समय श्री कृष्ण के सदृश वेद-शास्त्र का मर्मज्ञ विद्वान् कोई धरती तल पर नहीं, सो उन्हीं के मार्गदर्शन में यज्ञ होना चाहिये। वे चारों वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् तथा जानने मानने वाले थे, अत: भ्रामक विचारों से बचना चाहिये।