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आर्यावर्त क्या है ? ✍🏻 प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

      जब कभी भ्रान्त विचार चल पड़ते हैं तो उनके अवश्यम्भावी अनिष्टकारी परिणामों से बचना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार का एक अशुद्ध भ्रान्त विचार यह है कि आर्यावर्त की सीमा उत्तर भारत तक ही है और आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित तथाकथित विन्ध्य पर्वत तक है।

      इस भ्रान्त धारणा ने एक महा अनिष्टकारी कुफल की सृष्टि कर दी कि विन्ध्य के उत्तर अर्थात् उत्तरी भारत में आर्य बसते हैं और दक्षिणी भारत में द्रविड़ बसते हैं। फलस्वरूप राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं। आज जो उत्तर और दक्षिण भारत में आर्य और द्रविड़ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, उनके मूल में भी यही भ्रान्त विचार है कि आर्यावर्त उत्तर भारत को ही कहते हैं। 

      आर्य समाज से बाहर इस प्रकार के विचार रखने वाले बहुत से लोग हैं। इनकी प्रेरणा स्थली यथासम्भव पश्चिम की विद्वत्मण्ड़ली है। जो आर्य विचार विद्वेषिणी है। भारतवर्ष में इस विचारधारा के प्रवक्ता के रूप में श्री रामधारी सिंहजी ‘दिनकर’ का नाम लिया जा सकता है। अपने महान् ग्रन्थ ‘संस्कृत के चार अध्याय’ में श्री दिनकर जी स्वामी दयानन्दजी पर खूब बरसते हैं और उत्तर दक्षिण के आर्य-द्रविड़ विवाद का दायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती पर थोपने का असफल प्रयास करते हैं। 

श्री दिनकरजी ने लिखा है – 

      “स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात् आर्यों की रचना है।”

      “हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बसते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिन्दुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगदान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्राविड़ भाषाओं में सन्निहित हिन्दुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है।”

      “इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे हैं।” 

      श्री दिनकरजी यदि सत्यार्थ प्रकाश के तत्सम्बन्धी स्थल देख जाते तो इतना भ्रामक विचार देने में चिन्ता करते। ऐसी उद्धत शब्दावली और ऐसा उपहसनीय आक्षेप सचमुच दिनकरजी को शोभा नहीं देता।

      इधर आर्यसमाज के विद्धानों में भी एकाध की धारणा है कि आर्यावर्त उत्तरी भारत को ही कहते हैं। प्रो॰ सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार गुरुकुल कांगड़ी के मान्य विद्वान हैं, संसद सदस्य हैं। आपने एक लेख लिखा है ‘‘इस देश के भिन्न-भिन्न नाम।” यह लेख कई जगह छपा है। इस लेख से जहां महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का विरोध है वहीं उस अनिष्टकारी विचारधारा की पुष्टि भी होती है कि उत्तर भारत के लोग आर्य हैं और दक्षिण भारत के लोग आर्य नहीं हैं।

      श्री सिद्धान्तलङ्कारजी ने कई प्रमाण देकर एक निष्कर्ष निकाला है, “इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम इस देश (उत्तर भारत) का नाम ‘आर्यावर्त’ या ‘आर्य देश’ था। इस देश से भिन्न-भिन्न देशों को यहाँ के निवासी ‘म्लेच्छ देश’ या ‘दस्यु देश’ कहते थे। वे लोग अपने देश को ‘आर्य देश’ इसलिए कहते थे क्योंकि वे अपने को ‘आर्य’ या श्रेष्ठ कहते थे, ठीक ऐसे जैसे आज के युग में पाकिस्तान वाले अपने को पाक या पवित्र कहने लगे हैं।”

      यह धारणा चिन्त्य है, ये विचार भ्रान्त हैं। इस पर विचार अवश्य होना चाहिये। 

      गुरुकुल कांगड़ी आर्यसमाज का दुर्ग है। वहाँ से ऋषि की मान्यता को बल दिया जाता है। वहाँ के विद्वानों, अनुसन्धानकर्ताओं पर आर्यजगत् गर्व करता है। ‘वैदिक एज’ जैसे भारतीय विचारधारा विरोधी ग्रन्थ का उत्तर ‘गुरुकुल कांगड़ी, के सुयोग्य विद्वान् श्री धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड ने लिखकर अपनी यशोवृद्धि तो की है, गुरुकुल की भी यशश्चन्द्रिका को अधिक चारु कर दिया। स्वयं सिद्धान्तालङ्कार जी भी ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के मान्य विद्वान हैं। पर जाने, अनजाने उनसे ऋषि दयानन्द का और भारतीय परम्परा का विरोध हो गया। फिर श्री दिनकरजी का क्या दोष? उनको उपालम्भ किस बात का? 

      श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने यह सिद्ध करने के लिए कि आर्यावर्त केवल उत्तर भारत को कहते हैं, निम्न प्रमाण दिये हैं – 

      ▪️(१) 🔥आसमुद्रात्तुवै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

      तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बधाः॥ मनु॰ २।२२ 

      अर्थात्, पूर्व के समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से लेकर पश्चिम के समुद्र (अरब सागर) तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश ‘आर्यावर्त’ है । 

      ▪️(२) 🔥कः पुनरार्यावर्तः। प्रागादर्शात् प्रत्यक् कालक 

      वनात् दक्षिणेन हिमवन्तं उत्तरेण पारियात्रम्। – महाभाष्य 

      (हिमालय के दक्षिण और विन्ध्याचल के उत्तर आर्यावर्त है ।) 

      ▪️(३) 🔥आर्यावर्तः प्रागादर्शात प्रत्यक् कालकवनाद् 

      उदक् पारियात्रात् दक्षिणेन हिमवतः उत्तरेण च विन्ध्यस्य। -वसिष्ठ धर्मसूत्र 

      ये सारे प्रमाण उन ग्रन्थों के हैं जो प्रत्येक भारतीय को मान्य हैं। इनमें से कुछ को तो स्वामी दयानन्दजी ने भी प्रसङ्गानुपात से उद्धृत किया है। यदि ये प्रमाण मान्य हैं तो इनमें तो सुस्पष्ट लिखा है कि आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर विन्ध्य पर्वत है। पर यह विन्ध्य पर्वत कहाँ है? क्या उत्तर और दक्षिण भारत को पृथक करने वाले विन्ध्याचल को ही प्राचीन ग्रन्थकार विन्ध्य के नाम से अभिहित कर रहे हैं या किसी अन्य पर्वत का विन्ध्य नाम है।

      एक क्षण के लिए स्वीकार कर लेते हैं कि नर्मदा नदी के उत्तर उत्तर प्रदेश के दक्षिण विन्ध्य है। अब मनुस्मृति के श्लोक की सङ्गति लगाइये। यह आज का तथाकथित विन्ध्य कर्क रेखा के निकट है। यदि इसे ही दक्षिणी सीमा मान लें तो पूर्व में ब्रह्म देश पड़ेगा, समुद्र नहीं, और पश्चिम में भी समुद्र अत्यल्प नाम मात्र को पड़ेगा और ९९ प्रतिशत सीमा स्थल की बनेगी जो पश्चिम के अफगानिस्तान इत्यादि देश होंगे । 

      फिर मनु का वाक्य, 🔥“आसमुद्रात्तुवैपूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्’’ सङ्गत नहीं हुआ। 

      वस्तुतः आज के तथा कथित विन्ध्य का भारत के प्राचीन भूगोल में विन्ध्य नाम नहीं था और मनुस्मृति में या अन्य ग्रंथों में जो विन्ध्य पर्वत का वर्णन है वह समुद्र तटवर्ती पर्वत है जिसे हम पूर्वीघाट पश्चिमी घाट पर्वतमाला का नाम देते हैं। इस सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का वक्तव्य बिलकुल सुस्पष्ट है। वे लिखते हैं- ‘‘हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।”

      सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लासे यहाँ ऋषि दयानन्दजी ने उत्तर और दक्षिण दोनों भारत को आर्यावर्त माना है और दोनों जगह के निवासियों को आर्य माना है। इससे श्री दिनकरजी का आक्षेप तो निर्मूल हो ही जाता है, साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि श्री दिनकरजी ने शीघ्रता का परिचय दिया है न कि धैर्यपूर्वक मनन का। 

      अस्तु, एक प्रश्न यह रह जाता है कि स्वामी दयानन्दजी ने विन्ध्याचल को रामेश्वर के पास कैसे कह दिया। वैसे सत्यार्थप्रकाश के उस स्थल के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विन्ध्य की व्याख्या करने की आवश्यकता तो समझते हैं पर उसे विवादास्पद नहीं समझते। अन्यथा उसके भी प्रभूत प्रमाण वे दे ही देते।

      किन्तु आज तो यह विवादास्पद हो गया है। श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने इसे उत्तर और दक्षिण का भेदक पर्वत ही माना है। वस्तुतः प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे दक्षिण समुद्र तटवर्ती पर्वत कहा गया है। वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में वर्णन आता है। वहाँ कई श्लोकों में विन्ध्य पर्वत का प्रसंग उठा हुआ है।

      सन्दर्भ यह है कि रावण सीता को चुराकर ले जा चुका है। जटायु मारा जा चुका है। बालि को मारकर राम ने सुग्रीव को राजा बना दिया है और हनुमान आदि सीता की खोज में निकले हैं। वहाँ समुद्र के किनारे एक पर्वत पर सम्पाति से अङ्गद हनुमान आदि मिले हैं और उनका वार्तालाप होता है। कई श्लोक हमारे सहायक सिद्ध होते हैं – 

      सुग्रीव बालि के भय से दक्षिण दिशा को भागा था उसका वर्णन है- 

      ▪️(१) 🔥दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिण दिशम्।

      विन्ध्यपादपसंकीर्णा चन्दनद्रुम शोभिनाम्॥ – ४६।१

      अर्थ-उस दिशा को छोड़ कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विन्ध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। 

      यदि विन्ध्य के पास चन्दन के वृक्ष हैं तो यह कर्क रेखा पार कर विन्ध्य नहीं, रामेश्वर का विन्ध्य है। 

      तीन दिशाओं से सुग्रीव के सैनिक लौट आये, सीता का पता न चला। किन्तु दक्षिण दिशा के सैनिक वीर हनुमान – 

      ▪️(२) 🔥“ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्चगहनानि च” ४८।२

      आगे स्वयं प्रभा तापसी ने हनुमान से कहा – 

      ▪️(३) 🔥एष विन्थ्यो गिरिः श्रीमान् नाना द्रुमलता युतः।

      एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः॥ ५२।३९।३२

      यहाँ विन्ध्यपर्वत, प्रस्रवण गिरि और सागर महोदधि तीनों पास ही हैं। 

      और देखिये – 

      ▪️(४) 🔥विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे। 

      उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा॥ ५३।३ 

      सीता को न पाकर हनुमान आदि विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिन्ता करने लगे। पुनरपि सम्पाति विन्ध्य की कन्दरा से निकल कर हनुमान आदि से बोला – 

      ▪️(५) 🔥कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः 

      उपविष्टान् हरीन् दृष्टिवा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत्॥ ५६।३

      सम्पाति कहता है । 

      ▪️(६) 🔥निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानारर्षभाः॥

      यों तो और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सुस्पष्ट है कि विन्ध्ये पर्वत दक्षिण समुद्र तट पर है न कि नर्मदा नदी के उत्तर। 

      एक प्रमाण और देखिए – 

      ▪️(७) 🔥दक्षिणस्योदधेः तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः॥

      इन सारे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि विन्ध्य पर्वत रामेश्वर के पास है, उत्तर दक्षिण भारत को विभक्त करने वाला नहीं। 

      एक बार जब यह निश्चय हो गया कि विन्ध्याचल पर्यन्त आर्यावर्त की सीमा का अर्थ है कन्या कुमारी पर्यन्त सम्पूर्ण भारत न कि केवल उत्तर भारत। अब इस सन्दर्भ में मनु के ‘‘आसमुद्रातु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात” की भी सङ्गति बैठती है। जब सम्पूर्ण भारत ही आर्यावर्त है तब जैसा श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने लिखा है कि पूर्व में बङ्गाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है यह ठीक है। अन्यथा नहीं। 

      अब ऐसी धारणा बना लेना कि उत्तर भारत वाले अपने को पवित्र और दक्षिण भारत वालों को हीन समझते थे यह केवल कल्पनामात्र है और है अत्यन्त अनिष्टकारी कल्पना । 

      आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को ठीक रूप में देखें। सम्पूर्ण देश एक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है। 

      पाश्चात्य विद्वान हम में फूट डालने के लिये उत्तर भारत को आर्यावर्त कहकर दक्षिण भारत को उत्तर भारत से फोड़ना चाहते थे। किन्तु हमें तो अपनी स्थिति सुस्पष्ट करनी चाहिये। यह क्षेत्र है जिसमें कार्य करने की आवश्यकता है। हमें प्रचार करना चाहिये कि सारा भारत आर्यावर्त हैं। यहाँ के सभी निवासी आर्य हैं। द्रविड़ या आदिवासी और बनवासी इत्यादि समस्याएँ तो अंग्रेजों की भेदनीति के फल हैं हमें अपनी जनता को बचा लेना चाहिये। 

      यहाँ जो कुछ लिखा गया है केवल एक ही दृष्टिकोण से – 

      *सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिये।*

      यदि आर्य, द्रविड़, आदिवासी, बनवासी, इत्यादि की कल्पित भेद भित्तियाँ ध्वस्त की जा सकें तो भारतीय जनता का अति कल्याण हो। (आर्य संसार १९६६ से संङ्कलित)

✍🏻 लेखक –  प्रो॰ उमाकान्त उपाध्याय

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥