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( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व

|| ओ३म् ॥
( शिखा ) चोटी क्यों रक्खें? धार्मिक एवं वैज्ञानिक महत्व
वैदिक धर्म में सिर पर चोटी (शिखा ) धारण करने का असाधारण महत्व है। प्रत्येक बालक के जन्म के बाद मुण्डन संस्कार के
नवजात बच्चे पश्चात् सिर के उस भाग पर गौ के के खुर के प्रमाण वाले आकार की चोटी रखने का विधान है।
यह वही स्थान सिर पर होता है, जहां से सुषुम्ना नाड़ी पीठ के मध्य भाग में से होती हुई ऊपर की ओर आकर समाप्त होती है
और उसमें से सिर के विभिन्न अंगों के वात संस्थान का संचालन करने के लिए अनेक सूक्ष्म वात नाड़ियों का प्रारम्भ होता है ।
सुषुम्ना नाड़ी सम्पूर्ण शरीर के वात संस्थान का संचालन करती है।
दूसरे शब्दों में उसी से वात संस्थान प्रारम्भ व संचालित होता है। यदि इसमें से निकलने वाली कोई भी नाड़ी किसी भी कारण
से सुस्त पड़ जाती है तो उस अंग को फालिज़ (अधरंग) मारना कहते हैं। आप यह ध्यान रक्खें कि समस्त शरीर को जो भी
शक्ति मिलती है, वह सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा ही मिलती है।
सिर के जिस भाग पर चोटी रखी जाती है, उसी स्थान पर अस्थि के नीचे लघुमस्तिष्क का स्थान होता है, जो गौ के नवजात
बच्चे के खुर के ही आकार का होता है और शिखा भी उतनी ही बड़ी उसके ऊपर रखी जाती हैं।
बाल गर्मी पैदा करते हैं। बालों में विद्युत का संग्रह रहता है जो सुषुम्ना नाड़ी को उतनी ऊष्पा हर समय प्रदान करते रहते हैं,
जितनी कि उसे समस्त शरीर के वात नाड़ी संस्थान को जागृत व उत्तेजित रखने के लिए आवश्यकता होती है। इसका
परिणाम यह होता है कि मानव का वात नाड़ी संस्थान आवश्यकतानुसार जागृत रहता है जो समस्त शरीर को बल देता है।
किसी भी अंग में फालिज गिरने का भय नहीं रहता. है । और साथ ही लघु मस्तिष्क विकसित होता रहता है जिसमें जन्म-
जन्मान्तरों के एवं वर्तमान जन्म के संस्कार संग्रहीत रहते हैं।
यह परीक्षण करके देखा गया है कि बड़ी गुच्छेदार शिखा धारण करने वाले दाक्षिणीय ब्राह्मणों के मस्तिष्क शिखा न रहने
वाले ब्राह्मणों की अपेक्षा विशेष विकसित पाये गये हैं। यह परीक्षण अनेक वैज्ञानिकों ने दक्षिण भारत में किया था।
सुषुम्ना का जो भाग लघुमस्तिष्क को संचालित करता है । वह उसे शिखा द्वारा प्राप्त ऊष्मा (विद्युत) से चैतन्य बनाता है।
इससे स्मरण शक्ति भी विकसित होती है।
वेद में शिखा धारण करने का विधान कई स्थानों पर मिलता है, देखिये-
शिखिभ्यः स्वाहा॥

  • अथर्ववेद १९-२२-१५
    अर्थ- चोटी धारण करने वालों का कल्याण हो। आत्मन्नुपस्थे न वृकस्य लोम मुखे श्मश्रूणि न व्याघ्रलोमा केशा न शीर्षन्यशसे
    श्रियैशिखा सिँहस्य लोमत्विषिरिन्द्रियाणि ॥
  • यजुर्वेद अध्याय १९ मन्त्र ९२ यश और लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए सिर पर शिखा धारण करें।
    याज्ञिकैगोदर्पण माजनि गोक्षुर्वच्च शिखा ।
  • यजुर्वेदीय काठकशाखा । अर्थात् सिर पर यज्ञाधिकार प्राप्त मानव को गौ के खुर के बराबर स्थान में चोटी रखनी चाहिये।
    नोट-गौ के खुर के प्रमाण से तात्पर्य है कि गाय के पैदा होने के समय बछड़े के खुर के बराबर सिर पर चोटी धारण करें।
    • केशानाँ शेष कारणं शिखास्थापनं केश शेष करणम्।

इति मंगल हेतोः ॥
.
-पारस्कर गृह्य सूत्र
मुण्डन संस्कार के बाद जब भी बाल सिर के कटावे तो चोटी के बालों को छोड़कर शेष बाल कटावे, मंगलकारक होता है।
सदोपवीतिना भाव्यं सदा वद्धशिखेन च। बिशिखो व्युपवीतश्च यत् करोति न तत्कृतम् ॥
यह

  • कात्यायन स्मृति ४ अर्थ-यज्ञोपवीत सदा धारण करें तथा सदा चोटी में गांठ लगा कर रखें। बिना शिखा व यज्ञोपवीत के
    कोई यज्ञ सन्ध्योपासनादि कृत्य न करें अन्यथा वह न करने के ही समान है।
    बड़ी शिखा धारण करने से वीर्य की रक्षा करने में भी सहायता मिलती है। शिखा बल-बुद्धि लक्ष्मी व स्मृति को संरक्षण प्रदान
    करती है।
    एक अंग्रेज डॉक्टर विक्टर ई क्रोमर ने अपनी पुस्तक विरलि कल्पक में लिखा है जिसका भावार्थ निम्न प्रकार है-
    ध्यान करते समय ओज शक्ति प्रकट होती है। किसी वस्तु पर चिन्तन शक्ति एकाग्र करने से ओज शक्ति उसकी ओर दौड़ने
    लगती है।
    यदि ईश्वर पर ध्यान एकाग्र किया जावे तो मस्तिष्क के ऊपर शिखा के चोटी के मार्ग से ओज शक्ति प्रकट होती है या प्रवेश
    करती है। परमात्मा की शक्ति इसी मार्ग से मनुष्य के भीतर आया करती है।
    सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न योगी इन दोनों शक्तियों के असाध रण सुन्दर रंग भी देख लेते हैं। जो शक्ति परमात्मा के द्वारा मस्तिष्क में
    आती है वह वर्णनातीत है।
    प्रोफेसर मैक्समूलर ने भी लिखा था-
    The Concentration of mind upwards sends a rush of this power through the of the head.
    अर्थात् शिखा द्वारा मानव मस्तिष्क सुगमता से इस ओज शक्ति को धारण कर लेता है। श्री हापसन ने भारत भ्रमण के पश्चात्
    एक लेख में गार्ड पत्रिका नं० २५८ में लिखा था।
    For a long time in India I studied on Indian civilization and tradition southern Indians cut their hair up to
    half head only. I was highly effected by their mentality. I assert that the hair tuft on head is very useful in
    Culture of mind. I also believe in Hindu religion now. I am very particular about hair tuft.
    अर्थात् भारत में कई वर्षों तक रहकर मैंने भारतीय सांस्कृतिक परम्पराओं का अध्ययन किया। दक्षिण भारत
    में आधे सिर तक बाल रखने की प्रथा है। उन मनुष्यों की बौद्धिक विलक्षणता से मैं प्रभावित हुआ। निश्चित रूप से शिखा
    बौद्धिक उन्नति में बहुत सहायक है । मेरा तो हिन्दू धर्म में अगाध विश्वास है और अब मैं चोटी धारण करने का कायल हो गया
    हूँ।
    इसी प्रकार सरल्यूकस वैज्ञानिक ने लिखा है-
    शिखा का शरीर के अंगों से प्रधान सम्बन्ध है। उसके द्वारा शरीर की वृद्धि तथा उसके तमाम अंगों का संचालन होता है। जब
    से मैंने इस वैज्ञानिक तथ्य का अन्वेषण किया है मैं स्वयं शिखा रखने लगा हूँ।

सिर के जिस स्थान पर शिखा होती है उसे Pinial- Joint कहते हैं। उसके नीचे एक ग्रन्थि होती है जिसे Picuitary कहते हैं।
इससे एक रस बनता है जो सम्पूर्ण शरीर व बुद्धि को तेज सम्पन्न तथा स्वस्थ एवं चिरंजीवी बनाता है। इसकी कार्य शक्ति
चोटी के बड़े बालों व सूर्य की प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है।
मूलाधार से लेकर समस्त मेरु मण्डल में व्याप्त सुषुम्ना नाड़ी का एक मुख ब्रह्मरन्ध ( बुद्धि केन्द्र) में खुलता है।
इसमें से तेज (विद्युत) निर्गमन होता रहता है।
शिखा बन्धन द्वारा यह रुका रहता है। इसी कारण से शास्त्रकारों ने शिखा में गांठ लगाकर रखने का विधान किया है।
डॉक्टर क्लार्क ने लिखा है- के
मुझे विश्वास हो गया है कि हिन्दुओं का हर एक नियम विज्ञान से भरा हुआ है। चोटी रखना हिन्दुओं का धार्मिक चिन्ह ही नहीं
बल्कि सुषुम्ना नाड़ी की रक्षा लिए ऋषियों की खोज का एक विलक्षण चमत्कार है।
अर्ल टामस ने सन् १८८१ में अलार्म पत्रिका के विशेषांक में लिखा था-
Hindus keep safety of Medulla oblongle by lock of hair. It is superior than other religious experiments.
Any way the safety of oblongle is essential.
अर्थात् सुषुम्ना की रक्षा हिन्दू शिखा रख कर करते हैं। अन्य धर्म के कई प्रयोगों में चोटी सबसे उत्तम है। किसी भी प्रकार
सुषुम्ना की रक्षा आवश्यक है।
गुच्छेदार चोटी बाहरी उष्णता को अन्दर आने से रोकती है और सुषुम्ना व लघुमस्तिष्क तथा सम्पूर्ण स्नायविक
संस्थान की गर्मी से रक्षा करती है और शारीरिक विशेष उष्णता को बाहर निकाल देती है। हां, यदि अत्यन्त उष्ण प्रदेश हो तो
शिखा न रखना भी हानिकारक नहीं होगा।
संन्यासी ( चतुर्थ आश्रमी ) को शिखा न रखने का आदेश इस आधार पर है कि उसने तीन आश्रमों में उसे रखकर शरीर को पुष्ट
कर लिया होता है और चौथे आश्रम में वह योगाभ्यास द्वारा वात नाड़ी संस्थान को पुष्ट करता रहता है, अतः उसके लिये
शिखा विहित नहीं रह जाती है।

  • इस प्रकार वैदिक धर्म में शिखा वैज्ञानिक- आयुर्वेदिक तथा धार्मिक दृष्टि से मानव मात्र के लिये अत्यन्त उपयोगी है । किन्तु
    उससे लाभ तभी होगा जबकि शास्त्रादेश के अनुसार गौ के पैदाशुदा बच्चे के खुर के बराबर की जगह पर रखकर उसे बड़ा
    किया जायेगा व ग्रन्थि लगाकर रखा जावेगा।
    जापानी पहलवान अपने सिर पर मोटी चोटी गांठ लगाकर धारण करते हैं, यह भारतीय परम्परा जापान में आज भी
    विद्यमान देखी जा सकती है।
    चोटी के बाल वायु मण्डल में से प्राणशक्ति ( आक्सीजन) को आकर्षण करते हैं और उसे शरीर में
    स्नायविक संस्थान के माध्यम से पहुंचाते हैं। इससे ब्रह्मचर्य के संयम में सहायता मिलती है। जबकि शिखाहीन व्यक्ति कामुक व
    उच्छृंखल देखे जाते हैं।
    शिखा मस्तिष्क को शान्त रखती है तथा प्रभु चिन्तन में साधक को सहायक होती है। शिखा गुच्छेदार रखने व उससे गांठ
    बांधने के कारण प्राचीन आर्यो में ब्रह्मचर्य -तेज- मेधा बुद्धि व दीर्घायु तथा बल की विलक्षणता मिलती थी।
    जब से अंग्रेजी कुशिक्षा के प्रभाव में शिखा व सूत्र का परित्याग करना प्रारम्भ कर दिया है उनमें यह शीर्षस्थ गुणों का निरन्तर
    ह्रास होता चला जा रहा है।

पागलपन-अन्धत्व तथा मस्तिष्क के रोग शिखाधारियों को नहीं होते थे, वे अब शिखाहीनों में बहुत देखे जा सकते हैं।
जिस शिखा व सूत्र की रक्षा के लिए लाखों भारतीयों ने विधर्मियों के साथ युद्धों में प्राण देना उचित समझा, अपने बलिदान
दिये। महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी गुरु गोविन्दसिंह धर्मवीर हकीकतराय आदि सहस्रों भारतीयों ने चोटी जनेऊ की रक्षार्थ
अन्तिम बलिदान देकर भी इनकी
रक्षा मुस्लिम शासन के कठिन काल में की, उसी चोटी जनेऊ को आज का बाबू टाइप का अंग्रेजीयत का गुलाम सांस्कृतिक
चिन्ह (चोटी जनेऊ) को त्यागता चला जा रहा है यह कितने दुःख की बात है।
आज के इस बाबू को इन परमोपयोगी धार्मिक एवं स्वास्थ्यवर्धक प्रतीकों को धारण करने में ग्लानि व हीनता महसूस होती
है।
परन्तु अंग्रेजी गुलामी की निशानी ईसाईयत की वेषभूषा पतलून पहन कर खड़े होकर मूतने (पेशाब करने) में कोई शर्म
अनुभव नहीं होती है जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हानिकारक है तथा भारतीय दृष्टि से घोर असभ्यता की निशानी है।
आजकल का ये सभ्य कहलाने वाला व्यक्ति जहाँ चाहे खड़े होकर स्त्रियों, बच्चों अन्य पुरुषों की उपस्थिति का ध्यान किये बिना
ही मूतने लगता है, जबकि टट्टी और पेशाब छिपकर आड़ में एकान्त स्थान में त्यागने की भारतीय परम्परा है।
प्रश्न- यदि केवल चोटी न रखकर समस्त सिर पर लम्बे बाल रखे जावें तो क्या हानि होगी?
उत्तर-तालु भाग पर लम्बे बालों से स्मृति शक्ति कम हो जावेगी, दाहिने कान के ऊपर सिर पर लम्बे बालों से जिगर को हानि
होगी व बायें कान के ऊपर के भाग पर रखने से प्लीहा को नुकसान पहुंचेगा।
स्त्रियों के सिर पर लम्बे बाल होना उनके शरीर की बनावट तथा उनके शरीरगत विद्युत के अनुकूल रहने से उनको अलग से
चोटी नहीं रखनी चाहिए। उनका फैशन के चक्कर में पड़कर बाल कटाना अति हानिकारक रहता है।
अतः स्त्रियों को बाल कदापि नहीं कटाने चाहिये।
समाप्त।

कविता – ‘वीर वैरागी’ (बलिदान दिवस विशेष) ✍🏻 पण्डित चमूपति एम॰ए॰

डर डर कर थे भीरु सरकते, कहीं गुप्तचर-चाल न हो।
स्वांग भूख का भरा शत्रु ने, कण के मिष मृति-जाल न हो।
लो ! धर दी तलवार धीर ने, हंसता काल कराल न हो।
प्यारा लगता प्राण-पखेरू, मुक्त मृत्यु का माल न हो॥

कोई यम को मार ले, भवसागर को फाँद जाय।
कौन मनचला वीर जो, वैरागी को बाँध जाय॥

आईं इन नयनों के आगे लीलाएं अद्भुत नाना।
एक खेल था चतुर खिलाड़ी का पिंजरे में बँध जाना॥
जिन आंखों ने पीठ देख अब तक वैरी को पहिचाना।
बैरि-बदन हंसता सम्मुख हो यह कौतुक अचरज माना॥

दर्शन को वर-वीर के लालायित दिल्ली हुई।
आरति कौतूहल भर निश्चल नयनों की हुई॥

धोखा था भोले भूपति को सुत रखते हैं वैरागी।
मस्त मोह-माया में रहते हैं मानो सर्वस-त्यागी।
गोदी में बालक बैठाया दया क्रूर मन से भागी।
अंग-अंग को काट रहे, नहिं जनक-हृदय ममता जागी॥

विजय क्षेत्र में सिंह सम जो हरते पर प्राण थे।
आज भेड़ बन चुप खड़े, क्या प्रमाण ? थे या न थे॥

कमरें बाँधे खड़े सूरमा देख रहे दलपति की ओर।
अभी शंख बजता है देखें पड़े शत्रु-पुर के किस छोर।
भीरु भगौड़े खेत रहेंगे घर घर घोर मचेगा शोर।
अगुआ आगे शत्रु सामने, थामे कौन जिगर का जोर॥

बन्दे ! आंखें मोड़ लीं, सचमुच वैरागी रहा।
सुभट सूर संग्राम का, चाप तोड़ त्यागी रहा॥

निज सुत मरने का मानो तुझ को रत्ती भर शोक न था।
अंग-अंग कटता जाता है तेरा तुझे नहीं परवा।
चेला बना वीरता-युग में किस निष्क्रिय प्रतिरोधी का।
इतने वीर मरे जाते हैं, मर कर कौन हुआ जेता॥

उठ उठ दल बल चुस्त कर, आत्मशक्ति तो लो दिखा।
हम हों लाख कृतघ्न तू था पुतला उपराम का॥

सेना ने तुझ को छोड़ा है तू सेना का साथ न छोड़।
शिष्यों ने तुझ से मुख मोड़ा, तू न शिष्य-दल से मुख-मोड़॥
मेल शान्ति से निष्क्रियता का क्या? क्या दया दैन्य का जोड़?
समझा समाधि-सुख सपनों को, भंग- भक्त के कान मरोड़॥

मूर्त योग ! वैराग्य-घन ! हम को वैरागी बना।
भक्तराज ! संन्यास-धन ! यह संन्यास हमें सिखा॥

✍🏻 लेखक – पण्डित चमूपति एम॰ए॰
📖 पुस्तक -विचार वाटिका (भाग -२) [साभार – राजेंद्र जिज्ञासु जी]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

[पण्डित जी की यह रचना मासिक ‘आर्य’ लाहौर के जून सन् १९२६ के अंक में पृष्ठ १४-१५ पर प्रकाशित हुई थी। तब पण्डित जी ही इस पत्र के सम्पादक थे । हर दृष्टि से पत्र का स्तर बहुत ऊंचा था।- जिज्ञासु]

॥ओ३म्॥

🔥 छत्रपति शिवाजी महाराज का पत्र आमेर नरेश राजा जयसिंह के नाम

[६ जून विशेष – आज ही के दिन यानी 6 जून, 1674 को छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हुआ था। इसी दिन शिवाजी ने महाराष्ट्र में हिंदू राज्य की स्थापना की थी ।]

      ऐ सरदारों के सरदार, राजाओं के राजा, (तथा) भारतोद्यान की क्यारियों के व्यवस्थापक! ऐ रामचन्द्र के चैतन्य हृदयांश, तुझसे राजपूतों की ग्रीवा उन्नत है। तुझसे बाबर वंश की राज्यलक्ष्मी अधिक प्रबल हो रही है, (तथा) शुभ भाग्य, से तुझ से सहायता (मिलती) है। ऐ जवान (प्रबल) भाग्य (तथा) वृद्ध (प्रौढ़) बुद्धि वाले जयशाह ! सेवा (शिवा) का प्रणाम तथा आशीष स्वीकार कर। जगत का जनक तेरा रक्षक हो, (तथा) तुझको धर्म एवं न्याय का मार्ग दिखाये। 

      मैंने सुना है कि तू मुझ पर आक्रमण करने (एवं) दक्षिण – प्रान्त को विजय करने आया है। हिन्दुओं के हृदय तथा ऑखों के रक्त से तू संसार में लाल मुंह वाला (यशस्वी) हुआ चाहता है। पर तू यह नहीं जानता कि यह (तेरे मुँह पर) कालिख लग रही है क्योंकि इससे देश तथा धर्म को आपत्ति हो रही है यदि तू क्षणमात्र गिरेबान में सिर डाले (विचार करे) और यदि तू अपने हाथ और दामन पर (विवेक) दृष्टि करे तो तू देखेगा कि यह रंग किसके खून का है और इस रंग का (वास्तविक) रंग दोनों लोक में क्या है (लाल या काला)। यदि तू अपनी ओर से स्वयं दक्षिण – विजय करने आता (तो) मेरे सिर और आँख तेरे रास्ते के बिछौने बन जाते। मैं तेरे हमरकाब (घोड़े के साथ) बड़ी सेना लेकर चलता (और) एक सिरे से दूसरे सिरे तक (भूमि) तुझे सौंप देता (विजयी कर देता) पर तू तो औरंगजेब की ओर से (उस) भद्रजनों के धोखा देने वाले के बहकावे में पड़ कर आया है। अब मैं नहीं जानता कि तेरे साथ कौन खेल खेलूं। (अब) यदि मैं तुझ से मिल जाँऊ तो यह पुरुषत्व नहीं है, क्योंकि पुरुष लोग समय की सेवा नहीं करते, सिंह लोमड़ीपना नहीं करते। और यदि मैं तलवार तथा कुठार से काम लेता हूं तो दोनों ओर हिन्दुओं को ही हानि पहुंचती है। 

      बड़ा खेद तो यह है कि मुसलमानों का खून पीने के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य के निमित्त मेरी तलवार को म्यान से निकलना पड़े। यदि इस लड़ाई के लिये तुर्क आये होते तो (हम) शेर – मद के निमित्त (घर बैठे) शिकार आये होते। पर वह न्याय तथा धर्म से वंचित पापी जोकि मनुष्य के रूप में राक्षस है, जब अफजलखां से कोई श्रेष्ठता न प्रगट हुई, (और) न शाइस्ताखां की कोई योग्यता देखी तो तुझको हमारे युद्ध के निमित्त नियत करता है। क्योंकि वह स्वयं तो हमारे आक्रमण को सहने की योग्यता रखता नहीं। वह चाहता है कि हिन्दुओं के दल में कोई बलशाली संसार में न रह जाए, सिंहगण आपस में ही (लड़ भिड़ कर) घायल तथा शांत हो जाएं जिससे कि गीदड़ जंगल के सिंह बन बैठे। यह गुप्तभेद तेरे सिर में क्यों नहीं बैठता ! 

      प्रतीत होता है कि उसका जादू तुझे बहकाये रहता है। तूने संसार में बहुत भला बुरा देखा है। उद्यान से तूने फूल और कांटे दोनों ही संचित किये हैं। यह नहीं चाहिये कि त हम लोगों से युद्ध करे (और) हिन्दुओं के सिरों को धूल में मिलावे। ऐसी परिपक्व कर्मण्यता (प्राप्त होने) पर भी जवानी (यौवनोचित कार्य ) मत कर। प्रत्युत सादी के इस कथन को स्मरण कर “सब स्थानों पर घोड़ा नहीं दौड़ाया जाता। कहीं – कहीं ढाल भी फेंक कर भागना उचित होता है।” व्याघ्र मृग आदि पर व्याघ्रता करते हैं सिंहों के साथ गृह – युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते। यदि तेरी काटने वाली तलवार में पानी है, यदि तेरे कूदने वाले घोड़े में दम है तो तुझ को चाहिये कि धर्म के शत्रु पर आक्रमण करे (एवं) इस्लाम की जड़ – मूल खोद डाले। अगर देश का राजा दाराशिकोह होता तो हम लोगों के साथ भी कृपा तथा अनुग्रह के बर्ताव होते। पर तूने जसवन्तसिंह को धोखा दिया (तथा) हृदय में ऊंचनीच नहीं सोचा। तू लोमड़ी का खेल खेलकर अभी अघाया नहीं है, (और) सिंहों से युद्ध के निमित्त ढिठाई करके आया है। तुझको इस दौड़ धूप से क्या मिलता है, तेरी तृष्णा मुझे मृगतृष्णा दिखलाती है। तू उस तुच्छ व्यक्ति के सदृश है जो कि बहुत श्रम करता है और किसी सुन्दरी को अपने हाथ में लाता है, पर उसकी सौंदर्य – वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता, प्रत्युत उसको प्रतिद्वन्दियों के हाथ में सौंप देता है। 

      तू उस नीच की कृपा पर क्या अभिमान करता है? तू जुझारसिंह के काम का परिणाम जानता है। तू जानता है कि कमार छत्रसाल पर वह किस प्रकार से आपत्ति पहुचाना चाहता था। तू जानता है कि दूसरे हिन्दुओं पर भी उस दुष्ट के हाथ से क्या – क्या विपत्तियां नहीं आई। मैंने माना कि तूने उससे सम्बन्ध जोड़ लिया है और कुल की मर्यादा उसके सिर तोड़ी है (पर) उस राक्षस के निमित्त इस बन्धन का जाल क्या वस्तु है क्योंकि वह बन्धन तो इजारबन्द से अधिक दृढ़ नहीं है। वह तो अपने इष्ट साधन के लिए भाई के रक्त (तथा) बाप के प्राणों से भी नहीं डरता। यदि तू राजभक्ति की दुहाई दे तो तू यह तो स्मरण कर कि तूने शाहजहां के साथ क्या बर्ताव किया। यदि तुझको विधाता के यहां से बुद्धि का कुछ भाग मिला है, (और) तू पौरुष तथा पुरुषत्व की बड़ाई मारता है तो तू अपनी जन्म – भूमि के संताप से तलवार को तपा (तथा) अत्याचार से दुखियों के आंसू से (उस पर) पानी दे। यह अवसर हम लोगों के आपस में लड़ने का नहीं है क्योंकि हिन्दुओं पर (इस समय) बड़ा कठिन कार्य पड़ा है। हमारे लड़के बाले, देश, धन, देव – देवालय तथा पवित्र देवपूजक इन सब पर उसके काम से आपत्ति पड़ रही है, (तथा) उनका दु:ख सीमा तक पहुंच गया है। यदि कुछ दिन उसका काम ऐसा ही चलता रहा (तो) हम लोगों का कोई चिन्ह (भी) पृथ्वी पर न रह जायेगा। 

      बड़े आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर मुसलमान हमारे (इतने) बड़े इस देश पर प्रभुता जमावें। यह प्रबलता (कुछ) पुरुषार्थ के कारण नहीं है। यदि तुझको समझ की आंख हैं तो देख (कि) वह हमारे साथ कैसी धोखे की चालें चलता है, और अपने मुँह पर कैसा – कैसा रंग रंगता है। हमारे पाँवों को हमारी ही सांकलों से जकड़ता है (तथा) हमारे सिरों को हमारी ही तलवारों से काटता है। हम लोगों को (इस समय) हिन्दू, हिन्दुस्थान तथा हिन्दू-धर्म (की रक्षा) के निमित्त अत्यधिक प्रयत्न करना चाहिये। हमको चाहिये कि हम यत्न करें और कोई राय स्थिर करें (तथा) अपने देश के लिये खूब हाथ पाँव मारें। तलवार पर और तदबीर पर पानी दें (अर्थात् उन्हें चमकावें) और तुकों का जवाब तुर्की में (जैसे को तैसा) दें। यदि तू जसवन्तसिंह से मिल जाय और हृदय से उस कपट कलेवर के खंड पड़ जाए (तथा) राणा से भी तू एकता का व्यवहार कर ले तो आशा है कि बड़ा काम निकल जाये। चारों तरफ से धावा करके तुम लोग युद्ध करो। उस सांप के सिर को पत्थर के नीचे दबा लो (कुचल डालो) कि कुछ दिनों तक वह अपने ही परिणाम की सोच में पड़ा रहे (और) दक्षिण – प्रांत की ओर अपना जाल न फैलावे (और) मैं इस ओर भाला चलाने वाले वीरों के साथ इन दोनों बादशाहों का भेजा निकाल डालूं। मेघों की भांति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊं। दक्षिण देश के पटल पर से एक सिरे से दूसरे तक इस्लाम का नाम तथा चिन्ह धो डालूं। इसके पश्चात् कार्यदक्ष शूरों तथा भाला चलाने वाले वीरों के साथ लहरें लेती हुई तथा कोलाहल मचाती हुई नदी की भांति दक्षिण के पहाड़ों से निकल कर मैदान में आऊं और अत्यन्त शीघ्र तुम लोगों की सेवा में उपस्थित होऊं और फिर तुम लोगों को हिसाब पूछू, फिर हम लोग चारों ओर से घोर युद्ध उपस्थित कर और लड़ाई का मैदान उसके निमित्त संकीर्ण कर दें। हम लोग अपनी सेनाओं की तरंगों को दिल्ली में उस जर्जरीभूत घर में पहुंचा दें। उसके नाम में न तो औरंग (राजसिंहासन) और न जेब (शोभा) न उसकी अत्याचारी तलवार (रह जाय) और न कपट का जाल। हम लोग शुद्ध रक्त से भरी हुई एक नदी बहा दें (और उससे) अपने पितरों की आत्माओं का तर्पण करें। न्यायपरायण प्राणों के उत्पन्न करने वाले (ईश्वर) की सहायता से हम लोग उसका स्थान पृथ्वी के नीचे (कब्र में) बना दें। यह काम (कुछ) बहुत कठिन नहीं है। (केवल यथोचित) हृदय, हाथ तथा आंख की आवश्यकता है। दो हृदय (यदि) एक हो जायें तो पहाड़ को तोड़ सकते हैं। (तथा) समूह के समूह को तितर बितर कर सकते हैं। इस विषय में मुझको तुझ से बहुत कुछ कहना (सुनना) है, जिसको पत्र में लाना (लिखना) (युक्ति) सम्मत नहीं है। मैं चाहता हूं कि हम लोग परस्पर बातचीत कर लें जिससे कि व्यर्थ में दु:ख और श्रम ना मिले। यदि तू चाहे तो मैं तुझ से साक्षात् बातचीत करने आऊं (और) तेरी बातों को श्रवण गोचर करूं। हम लोग बातरूपी सुन्दरी का मुख एकान्त में खोलें (और) मैं उसके बालों के उलझन पर कंघी फेरूं। यत्न के दामन पर हाथ धर उस उन्मत्त राक्षस पर कोई मन्त्र चलावें। अपने कार्य की सिद्धि (की) ओर कोई रास्ता निकालें (और) दोनों, लोकों (इहलोक और परलोक) में अपना नाम ऊंचा करें। 

      तलवार की शपथ, घोड़े की शपथ, देश की शपथ, तथा धर्म की शपथ करता हूं कि इससे तुझ पर कदापि (कोई) आपत्ति नहीं आयेगी। अफजलखां के परिणाम से तू शंकित मत हो क्योंकि उसमें सच्चाई नहीं थी। बारह सौ बड़े लड़ाके डबशी सवार वह मेरे लिये घात में लगाये हुए था। यदि मैं पहिले ही उस पर हाथ न फेरता तो इस समय यह पत्र तुझको कौन लिखता? (पर) मुझको तुझसे ऐसे काम की आशा नहीं है (क्योंकि) तुझको भी स्वयं मुझसे कोई शत्रुता नहीं है। यदि मैं तेरा उत्तर यथेष्ट पाऊं तो तेरे समक्ष रात्रि को अकेले आऊं। मैं तुझको वे गुप्त पत्र दिखाऊं जोकि मैंने शाइस्ताखां की जेब से निकाल लिये थे। तेरी आंखों पर मैं संशय का जल छिड़ककूं (और) तेरी सुख निद्रा को दूर करूं। तेरे स्वप्न का सच्चा – सच्चा फलादेश करूं (और) उसके पश्चात् तेरा जवाब लूं। यदि यह पत्र तेरे मन के अनुकूल न पड़े तो (फिर) मैं हूं और मेरी काटने वाली तलवार तथा तेरी सेना। कल, जिस समय सूर्य अपना मुंह सन्ध्या में छिपा लेगा उस समय मेरा अर्द्धचन्द्र (खड्ग) म्यान को फेंक देगा (म्यान से निकल आवेगा) बस तेरा भला हो।  ✍🏻 शिवाजी

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

क्या आँखें खुल गईं ? ✍🏻 स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती

[भारत-चीन युद्ध के समय देश की परिस्थितियों का वर्णन करता एक लेख]

      पिछले दिनों प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने एक भाषण में घोषणा की कि “चीन ने हमारी आँखें खोल दीं।” ऐसे भावगर्भ वाक्य महान पुरुषों के मुख से कभी-कभी अचानक निकला करते हैं। सारे राष्ट्र का अपमान हुआ, हजारों जवान बलिदान हुए, करोड़ों का सामान नष्ट हुआ, पर आपकी आँखें खुल गईं।

      कुर्बान जाइए इस अदा पर, किसी की जान गई आपकी अदा ठहरी। यहाँ तो किसी की नहीं हजारों की जान गई। पर साथ ही हम यह नहीं भूल सकते कि आप हजार झुंझलाइये, पर इस अदा में एक शान, एक भोलापन जरूर है। आखिर जहाँ इस भूल की भयंकरता को नहीं भुलाया जा सकता, वहाँ अपनी भूल को इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करने में जो शानदार सादापन है। उसे भी किसी प्रकार किसी कीमत पर नहीं भुलाया जा सकता ? परन्तु प्रश्न तो कुछ और है ? न तो भूल पर झुंझलाने से हमारी समस्या का समाधान होगा न सादगी के गीत गाने से। 

      प्रश्न तो यह है कि क्या हमारी आँखें सचमुच खुल गईं? जहाँ चारों ओर से देश के तन-मन-धन न्यौछावर करने के समाचार आ रहे हैं, वहाँ यह समाचार भी आ रहे हैं, फिर डाक्टर लोग सेना में भरती होने वालों से रिश्वत मांग रहे हैं, व्यापारी लोग जो इस विषय में सबसे बदनाम थे वह वस्तुओं के मूल्य न बढ़ाकर त्याग की तथा देशभक्ति की भावना का परिचय दे रहे हैं पर यह डाक्टर यह निर्लज्जता के अवतार डाक्टर जो देशभक्त नौजवानों से उनके जीवनदान की कीमत वसूल कर रहे हैं, इनका क्या नाम रखियेगा। यह लोग अनपढ़ तो नहीं, सुशिक्षित हैं। शिक्षित नहीं सुशिक्षित हैं। इन्हें यह कुशिक्षा कहाँ से मिली, धर्म के नाम पर मनुष्य डरता था, आज सम्प्रदाय निरपेक्ष शिक्षा की आड़ में जो चरित्र निरपेक्ष शिक्षा मिल रही है उसीके यह दुष्परिणाम हैं : भर्तृहरि ने कहा है :- आहार निद्राभय मैथुनश्च सामान्यमेतत् पशुभिनराणाम्। धर्मो हि तेषामधिको विशेषः। 

      आहार, निद्रा, भय, मैथुन यह चार वस्तु तो मनुष्य तथा पशु दोनों में एक समान है। विशेषता है तो धर्म की, धर्म जो मैथुन में भी मर्यादा बांधता है। मैथुन मानव राष्ट्र के कल्याण के लिये होना चाहिये। मां, बहन, बेटी के साथ नहीं होना चाहिये। यह धर्म आज धक्के दे दे कर बाहर निकाला जा रहा है। 

      साथ ही राजा का धर्म है दण्ड देना और आवश्यकतानुसार कठोर से कठोर दण्ड देना। परन्तु यहां तो दण्ड के स्थान में धमकियाँ दी जा रही है। रोज कोई न कोई मंत्री कालणा चेतावनी दे छोड़ते हैं। इस संकट के समय बेईमानी करने वालों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की जायगी। जनता प्रतीक्षा में बैठी है कब! पर वह कड़ी कार्रवाई केवल चेतावनी तक परिमित है तभी तो ऐसे डाक्टर मौजूद हैं जो सेना में भरती होने वालों से भी रिश्वत मांगते हैं। इस अवस्था में कैसे मान लें कि हमारी आँखें खुल गई।

      हमारी आँखें खुल गई यह उस दिन माना जायेगा जिस दिन शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण की शिक्षा को उचित स्थान अर्थात् मुख्य स्थान प्राप्त होगा और साथ ही संकटकाल में अपने अधिकार का दुरुपयोग करने वालों को केवल चेतावनी नहीं सचमुच दण्ड दिया जाएगा पर चलो आँखें खुली नहीं तो खुलनी आरम्भ तो हो गई हैं। किसी दिन खुल भी जाएंगी। आर्यसमाज के एक एक बच्चे का धर्म हैं कि इस नेत्रोयोद्घाटन महायज्ञ में पूरे बल से सहयोग दें और जहां कहीं जिस कोने में कोई दुष्ट अपने अधिकार का दुरुपयोग करता है , उसका प्रजा में भी भाण्डा फोड़ करें तथा अधिकारियों को ठीक-ठीक सूचना भी पहुँचाते रहें। यही ठीक आँखें खोलने का मार्ग है। परम पिता सचमुच हमारी आँखें खोल दें। [आर्य संसार १९६३ से संकलित]

✍🏻 लेखक – स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पूर्व : पं० बुद्धदेवजी विद्यालंकार) 

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥