आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु

      कई लोग वेद की इन संहिताओं को आर्षी अर्थात् ऋषियों के क्रम से संग्रहीत की हुई मानते हैं। यथा ऋग्वेद के आरम्भ में शतर्ची, अन्त में क्षुद्रसूक्त वा महासूक्त और मध्य में मण्डल द्रष्टा गृत्समद, विश्वामित्र आदि ऋषियों वाले क्रमशः मन्त्र हैं। 

      हम वादी से पूछते हैं कि क्या जैसा क्रम ऋग्वेद में दर्शाया, वैसा अन्य संहितामों में दर्शाया जा सकता है ? कदापि नहीं। तथा ऋग्वेद में भी जो क्रम वादी बताता है वह भी असम्बद्ध है। यदि ऋग्वेद वस्तुतः ऋषि क्रमानुसार संगृहीत होता तो विश्वामित्र के देखे हुए मन्त्र उसके पुत्र ‘मधुच्छन्दाः’ और पौत्र ‘जेता’ से पहिले होने चाहिये थे, न कि पीछे। ऋग्वेद में विश्वामित्र के मन्त्र तृतीय मण्डल में और मधुच्छन्दाः व जेता के मन्त्र प्रथम मण्डल में क्यों रक्खे गये ? यदि वादी कहे कि प्रथम मण्डल में केवल शचियों का संग्रह है, विश्वामित्र शतर्ची नहीं अपितु माण्डलिक है, तो यह भी ठीक नहीं। प्रथम मण्डल के जितने ऋषि हैं, उनमें बहुत से शतर्ची नहीं हैं। सव्य आङ्गिरस ऋषि वाले (१।५१-५७) कुल ७२ मन्त्र हैं। जेता ऋषिवाले कुल (१।११) ८ ही मन्त्र हैं। ऐसे ही और भी अनेक ऋषि हैं। आश्चर्य की बात है कि शचियों में पढ़े हुए प्रस्कण्व काण्व के ८२ मन्त्र तो प्रथम मण्डल में हैं, १० मन्त्र आठवें और ५ मन्त्र नवम मण्डल में क्यों संगृहीत हुए? समस्त ९७ मन्त्र एक जगह क्यों नहीं संग्रहीत किये गये ? इसी प्रकार जिसके सूक्त में १० से कम मन्त्र हों वह क्षुद्रसूक्त और जिसके सूक्त में १० से अधिक हों वह महासूक्त कहाते हैं, तो क्या ऐसे ऋषि ऋग्वेद के दशम मण्डल से अतिरिक्त अन्य मण्डलों में नहीं हैं ? हम कह आये हैं कि जेता के केवल आठ ही मन्त्र हैं, क्षुद्रसूक्त होने से उसके मन्त्रों का संग्रह दशम मण्डल में न करके प्रथम मण्डल में किस नियम से किया? तथा जब विश्वामित्र माण्डलिक ऋषि है तो उसके समस्त मन्त्र तृतीय मण्डल में क्यों संगहीत नहीं किये ? कुछ मन्त्र नवम (६७।१३-१५) और दशम (१३७।५) मण्डल में किस आधार पर संगृहीत किये ? इत्यादि अनेक प्रश्न वादी से किये जा सकते हैं। 

      वस्तुतः वादियों के पास इन प्रश्नों का कोई भी उत्तर नहीं है। वे तो 🔥”अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः’- इस उक्ति के अनुसार स्वयं शास्त्र के तत्त्व को न समझकर अन्य साधारण व्यक्तियों को बहकाने की क्षुद्र चेष्टा[१] किया करते हैं। 

[📎पाद टिप्पणी १. हमारी दृष्टि में वेद को अपौरुषेय न माननेवाले ही ऐसा मान सकते हैं। ऐसे व्यक्ति जनता के समक्ष कहने का साहस नहीं करते कि हम वेद को पौरुषेय (ऋषियों का बनाया) मानते हैं।] 

      वेदों की इन संहिताओं को आर्षी[२] संहिता कहने का तात्पर्य यह है ऋषि अर्थात् सर्वद्रष्टा सर्वज्ञ जगदीश्वर से इन का प्रादुर्भाव हुआ है। वस्तुतः यह नाम ही इस बात का संकेत करता है कि वेद ईश्वर के रचे हुए है।

[📎पाद टिप्पणी २. अथर्ववेद पञ्चपटलिका ५।१६ में जो आचार्यसंहिता तथा आर्षीसंहिता का उल्लेख मिलता है, वह पुराने आचार्यों की एक संज्ञा मात्र है, ऐसा समझना चाहिये।]

      जो व्यक्ति आर्षी नाम होने से इन्हें ऋषियों द्वारा संग्रहीत मानते हैं, वे यह भी कहते हैं कि इन संहितानों में इन्द्रादि देवताओं के मन्त्र विभिन्न प्रकरणों में बिखरे हुए हैं। अतः क्रमशः एक-एक देवता के समस्त मन्त्रों को संगृहीत करके एक दैवत संहिता बनानी चाहिये, जिससे अध्ययन में सुगमता होगी। 

      देवता-क्रम से संहिता के मन्त्रों को संग्रहीत करो से जिन मन्त्रों की आनुपूर्वी और देवता समान हैं, उन मन्त्रों का एक स्थान में संग्रह होने से पौनरुक्त्य तथा आनर्थक्य दोष आवेंगे। उन्हीं मन्त्रों को, जैसा वर्तमान संहिताक्रम में पढ़ा गया है, वैसा पाठ मानने में कोई दोष नहीं आता, क्योंकि वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद होने से अर्थ भेद की प्रतीति झटिति हो सकती है। उदाहरणार्थ पाणिनि के 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्र को उपस्थित किया जा सकता है। पाणिनि ने इस सूत्र को १४ स्थानों में पढ़ा है। इस सूत्र की वर्णानुपूर्वी समान होने पर भी प्रकरणभेद से अर्थ की भिन्नता होने के कारण सबकी सार्थकता रहती है। आनर्थक्य या पौनरुक्त्य दोष नहीं आता। यदि कोई व्यक्ति सब 🔥”बहुलं छन्दसि” सूत्रों को उठाकर एक स्थान में पढ़ दे, तो क्या उससे कुछ भी लाभ या विशेष अर्थ की प्रतीति होगी? उलटी उस एक स्थान में पढ़नेवाले की ही मूर्खता सिद्ध होगी। भला इससे कोई पाणिनि की ही मूर्खता सिद्ध करना चाहे तो कभी हो सकती है ! कभी नहीं। ऐसे ही इस देवताक्रम से पढ़ी जानेवाली संहिता का होगा। इसमें और भी अनेक दोष हैं, जिनका विस्तरभिया यहाँ अधिक उल्लेख करना अनुपयुक्त होगा। 

      जिसका शास्त्रीयचक्षुः है वही इन बातों के रहस्यों को समझ सकता है। शास्त्र-ज्ञान विहीन क्या जाने शास्त्रों के रहस्य को –

      🔥पश्यदक्षण्वान्न वि चेतदन्धः॥ ऋ० १।१६४।१६

      इस प्रकार हमने अनेक प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया कि वेद की आनुपूर्वी सर्वकाल से नित्य मानी जाती रही है, और इस समय भी उपलब्ध सामग्री के आधार पर यही निश्चित है कि हमें वही आनुपूर्वी प्राप्त हो रही है, जिसे सर्ग के आरम्भ में परमपिता परमात्मा ने आदिऋषियों के हृदयों में प्रकाशित किया था। 

[अगला विषय – वेद और उसकी शाखायें]

✍🏻 लेखक – पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु 

[ 📖 साभार ग्रन्थ – जिज्ञासु रचना मञ्जरी ]

प्रस्तुति – 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

2 thoughts on “आर्षी-संहिता और दैवत-संहिता । ✍🏻 पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु”

  1. OM. Aap ko meri taraf se sadar namaskar
    Aap kripa kar mujhe atharveved ki Pdf me WhatsApp send kar de. Aap ki ati kripa hogi. Dhayanvaad.

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